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________________ रत्नकरण्डश्रावकाचार में प्रोषधोपवास चर्चा पं. रतनलाल कटारिया, केकड़ी (राजस्थान) परीक्षाप्रधानी आचार्य समन्तभद्र का रत्नकरण्डश्रावकाचार | अन्यथा किसी श्लोक को क्षेपक कह देना अतिसाहस है। नामक ग्रन्थ जैनाचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसे प्रायः | इस श्लोक की रचना शैली एक विशेषता को लिये है जो आगमके समान कोटिका माना जाता है। इसकी विषयवस्तु 'चारित्तं | इसे समन्तभद्र की ही कृति सिद्ध करती है। इसमें जो लक्षण बाँधने खलु धम्मो' पर आधारित है। यह अनेक स्थानों से अनेक रूप में | का ढंग है, वह रत्नकरण्डश्रावकाचार के सिवा अन्य किसी भी प्रकाशित हुआ है, पर हम यहाँ वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली से | श्रावकाचार में नहीं पाया जाता। इसकी अद्वितीयता निम्न है : प्रकाशित प्रति के आधार पर ही उसमें वर्णित प्रोषधोपवास सम्बन्धी | इसमें यद् के साथ 'आचरण' शब्द न देकर 'आचरति' क्रिया दी कुछ चर्चा करेंगे। इसका 109वाँ श्लोक, पृष्ठ 146 निम्न प्रकार है: | है और यद् की जोड़का स: शब्द देकर लक्षण बाँधा है। यह शैली चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद् भुक्ति । रत्नकरण्डश्रावकाचार में अन्यत्र भी पाई जाती है; यथा, सः प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारंभमाचरति 109॥ (1) न तु परदारान् गच्छति न परान्गमयति च पापभीतेर्यत्। "चार प्रकार का आहार त्याग उपवास है, एक बार का सा परदारनिवृतिः, स्वदारसन्तोषनामापि।।59॥ भोजन प्रोषध है और उपवास करके आरम्भ का आचरण करना (2) निहितं वा पतितं वा, सुविस्तृतं वा परस्वमविसृष्टं। प्रोषधोपवास है।" न हरति यन्न च दत्ते तकृशचौर्यादुपारमणम्।।57 ।। इस श्लोकार्थ के आधार पर टीका ने अपनी प्रस्तावना (3) स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे। श्लोक के क्षेपक होने का सन्देह किया है। उनके मतानुसार ग्रन्थ यत्तद्वदन्ति सन्तः, स्थूलमृषावादवैरमणम्।।55 ।। में प्रोषधोपवास को कथन 106 वें श्लोक में किया है: (4) संकल्पात्कृतकारितमननाद् योगत्रयस्य चरसत्वात्। पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु। नहिनस्ति यत्तदाहुः, स्थूलबधाद्विरमणं निपुणाः।3।। चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याप्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः।।196' ।। (5) अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्। इसमें बताया गया है कि पर्वणी (चतुर्दशी) तथा अष्टमी निःसन्देहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः।42 ।। में सदिच्छा से जो चार आहार का त्याग किया जाता है, उसे (6) स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्। प्रोषधोपवास समझना चाहिये। टीका में भी निम्न वाक्य के द्वारा वाच्यता यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगृहनम्॥5॥ इसे लक्षण ही सूचित किया है- अथेदानी प्रोषधोपवासलक्षणं इसतरह यह सुतरां सिद्ध है कि यह श्लोक क्रमांक 109 शिक्षाव्रतं व्याचक्षाण: प्राह । इसके बाद चतुराहार विसर्जन श्लोक रत्नकरण्डश्रावकाचार का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत ही में भी प्रोषधोपवास का लक्षण बतलाया गया है। इसकी उत्थानिकामें | है। अब जो आपत्तियाँ की गई हैं, उनका भी निरसन निम्न प्रकार टीकाकार ने लिखा है: अधुना प्रोषधोपवासस्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह। | किया जा सकता है: परन्तु प्रोषधीपवास का लक्षण तो पहिले ही किया जा चुका है, (1) टीकाकार ने जो श्लोक 106 की उत्थानिका में फिर से उसकी क्या जरूरत हुई, इसका कोई स्पष्टीकरण टीका में 'प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं प्राह' लिखा है, वह ठीक है। उसका नहीं है। इसके सिवा, धारणक और पारणक के दिनों में एक भुक्ति अर्थ यह है कि प्रोषधोपवास नामके शिक्षाव्रत का कथन करते हैं। की जो कल्पना टीकाकार ने की है, वह उसकी अतिरिक्त कल्पना शिक्षाव्रत के चार भेद हैं। उनमें से यहाँ प्रोषधोपवास नाम के है। प्रोषध का अर्थ सकृद् भुक्ति और प्रोषधोपवासका अर्थ सकृद् शिक्षाव्रत का कथन किया है। अत: नाम या भेद अर्थ में यहाँ भुक्ति पूर्वक उपवास-किसी अन्य ग्रन्थ में देखने में नहीं आया। लक्षण शब्द का प्रयोग किया गया है। यही शैली आगे के वैयावृत्त यह अर्थ प्रोषध प्रतिमा के श्लोक 140 के भी विरुद्ध है। अत: यह शिक्षाव्रत की उत्थानिका में इस प्रकार दी है "इदानीं चतुराहार विसर्जन श्लोक आश्चर्य नहीं, जो ग्रन्थ में किसी तरह वैयावृत्यलक्षणशिक्षाव्रतस्य स्वरूपं प्ररूपयन्नाह।" श्लोक 109 की प्रक्षिप्त हो गया हो और टीकाकार को उसका ध्यान भी न रहा हो। टीका में चतुराहार पद की व्याख्या इस प्रकार की है- चत्वारश्च इस श्लोक पर और भी कुछ विद्वान इसी तरह के क्षेपक होने का आरोप करते हैं, किन्तु मेरे विचार में यह सब ठीक नहीं ते अहाराश्चाशन-पान-स्वाद्यलेह्यलक्षणाः। इसमें' भी लक्षण शब्द है। यह श्लोक मूल का ही अंग है और स्वामी समन्तभद्रकृत ही भेद अर्थ में ही दिया है। है। किसी भी प्राचीन अर्वाचीन प्रति में इस श्लोक का अभाव नहीं | श्लोक नं. 109 की उत्थानिका में जो 'प्रोषधोपवासपाया जाता है। अगर यह क्षेपक है, तो यह दूसरे किस ग्रन्थ का स्तल्लक्षणं कुर्वन्नाह' लिखा है, उसका अर्थ है कि "प्रोषधोपवास" मूल श्लोक है और कौन इसका कर्ता है, यह स्पष्ट होना चाहिये।। ऐसा जो पद है उसका लक्षण कहते हैं।" इस तरह दोनों उत्थानिका . -फरवरी 2003 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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