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पण्डित-जीवन पर असन्तोष नहीं
स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री
अपने उक्त जीवन के प्रकाश में जब मैं अपने जीवन को | शिक्षा में ही रुचि रखते हैं। किन्तु आज का पण्डित उनका एक पंडित के रूप में आँकता हूँ तो मुझे अपने पंडित जीवन पर | सन्तोष नहीं कर सकता। इस स्थिति से विषम समस्या पैदा हो असन्तोष नहीं होता। यदि मैं पंडित न बनकर साधारण गृहस्थ ही रही है। जब तक जैनसमाज जैन विद्वान के पोषण के लिये रहा होता तो मेरे जीवनका उपयोग भी अपने पारिवारिक झंझटों आवश्यक आर्थिक व्यवसाय नहीं करेगा तब तक इस परम्परा में ही बीतता। न मैं आत्मा को जानता, न परमात्मा को जानता। का चालू रखना अशक्त होता जायेगा। अत: समाज को इधर समस्त जीवन "नोन तेल लकड़ी" की चिन्ता में ही बीत जाता। ध्यान देना चाहिये। और एक विद्वान को 500/- से कम वेतन भगवान् महावीर और उनकी वाणी के पठन-पाठन में, आचार्य नहीं देना चाहिये। यदि ऐसा हो जाये तो इस क्षेत्र में आकर्षण कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपाद, नेमिचन्द्र, अकलंकदेव, वीरसेन बढ़ सकता है। उसके अभाव में जैनसमाज के सामने विषम स्वामी, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, अमृतचन्द्र आदि महान् आचार्यों के | समस्या पैदा हो जायेगी। ग्रन्थरत्नों का आलोडन करने में जो सुख मिला है, उसे मैं लेखनी वस्तुतः जैनधर्म आत्मकल्याण के लिये है, जीविका के से लिखने में असमर्थ हूँ। खेद यही है कि मैंने अपने ज्ञान का | लिये नहीं है। किन्तु गृहस्थाश्रम में रहनेवाले का जीवन निर्वाह उपयोग आत्महित में नहीं किया। यह जानते हुए भी कि मैं | तो आत्मकल्याण से हो नहीं सकता। अत: उसे जीवन निर्वाह के द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से भिन्न एक स्वतन्त्र चेतन द्रव्य | लिये धन की आवश्यकता है। आजीविका के अन्य साधन अपनाने हूँ, मुझे संसार, शरीर और भोगों से आन्तरिक विराग नहीं होता से रुचि उधर ही लग जाती है। अतः धार्मिक क्षेत्र में कार्य
और इस परसे मैं यह निष्कर्ष निकालता हूँ कि मेरी आत्मा से करनेवाले विद्वानों का उपयोग उसी ओर रहे, इसके लिये उन्हें मिथ्यात्व पर्दा हटा नहीं है, यद्यपि जीवनभर मैंने सच्चे देव शास्त्र जीविका की ओर से निराकुल करना ही चाहिये। साथ ही विद्वत्ता गुरु की श्रद्धा की है, उसी की प्राप्ति के लिए मैं प्रयत्नशील हूँ और के योग्य-सम्मान भी उन्हें दिया जाना चाहिये। स्कूल कालिजों आप सबका आशीर्वाद चाहता हूँ।
में अध्यापकों की जो स्थिति होती है यही स्थिति जैन विद्वान की आज जैनसमाज एक व्यापारी समाज है और सब तीर्थंकर, | जब तक नहीं होगी तब तक यह समस्या सुलझ नहीं सकती। जिन्होंने जैनधर्म का प्रवर्तन किया, क्षत्रिय थे। धीरे-धीरे क्षत्रियों मेरा यह अनुभव है कि विद्वान को सन्मान दो कारणों से से जैनधर्म लुप्त हो गया। हिन्दू समाज की तरह जैनसमाज में मिल सकता है। एक निरीहवृत्ति और दूसरे विद्वत्ता। निरीहवृत्ति ब्राह्मण जाति नहीं रही है। ब्राह्मण जाति का कार्य ही हिन्दू धर्म तब तक संभव नहीं है जब तक जीवन निर्वाह के योग्य आजीविका का संरक्षण और प्रचार है। जैनसमाज में यह कार्य प्राय: संसारत्यागी न हो। और उसके लिये यह आवश्यक है कि विद्वान केवल परीक्षा मुनिगण और आचार्य करते थे। धीरे-धीरे उनका भी लोप होने से पास न हो, किन्तु उसे जिनागम रहस्य भी ज्ञात हो, भाषणकला में समाज के सामने कठिनाई उपस्थित हुई। तब संस्कृति के भी कुशल हो और शास्त्रीय प्रश्नों का उत्तर शास्त्राधार से देने की महाविद्यालय स्थापित करके विद्वानों की परम्परा चालू की गई। | क्षमता हो। इसके लिये उसे शास्त्राभ्यासी होना आवश्यक है। इस परम्परा ने लगभग सात दशकों तक समाज में धार्मिक शिक्षा
आजकल तो छात्रों में शास्त्राभ्यास की रुचि नहीं पाई जाती। और धर्मोपदेश का कार्य किया। संस्कृत और प्राकृत के ग्रन्थों का कक्षा में पढ़ते समय भी वे अन्यमनस्क रहते हैं। परीक्षा में नकल भाषानुवाद किया और इस तरह जैन साहित्य का भी संरक्षण और करके पास होते हैं। ऐसी स्थिति में उन्हें विषय का ज्ञान कैसे सम्भव संवर्धन किया। किन्तु सामयिक परिस्थिति के बदलने से अब इस है। और उसके अभाव में वे कैसे समाज पर अपना प्रभाव डालने में विद्वतपरम्परा का भी अन्त सन्निकट प्रतीत होता है। क्योंकि अब सक्षम हो सकते हैं। अत: दोनों ही ओर से अपनी अपनी त्रुटियों को इस मार्ग में न तो आर्थिक ही आकर्षण रहा है और न लौकिक दूर करने पर ही समस्या का हल निकल सकता है। उसके बिना ही। मँहगाई की अत्यधिकता के कारण एक परिवार के निर्वाह परिस्थिति में सुधार सम्भव नहीं है । आशा है कि समाज इधर ध्यान के लिये जितना अर्थ आवश्यक है उतना समाज से मिलता नहीं देगा तथा विद्वान बनने के इच्छुक भी ध्यान देंगे। है। अत: छात्र भी धार्मिक शिक्षा की ओर ध्यान न देकर लौकिक | पण्डित जी के अभिनन्दन ग्रन्थ (पृष्ठ 66-67) से साभार 12 फरवरी 2003 जिनभाषित
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