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________________ आपके पत्र, धन्यवाद : सुझाव शिरोधार्य आचार्य श्री का 'शास्त्राराधना' प्रेरक एवं मार्गदर्शक है। । प्रेरणाप्रद, रुचिकर व श्रेष्ठ होती है। प्रिन्ट, छपाई के मामले में मिथ्यात्व के गलन एवं कर्मक्षय में स्वाध्याप परमतप के रूप में | जिनभाषित ईमानदारी निभाता है। कार्यकरता है। आचार्यश्री ने उसकी महत्ता दर्शाकर श्रुत प्रतिपादित जिनभाषित के प्रत्येक अंक का सम्पादकीय मील का ज्ञान से अपने आपको तन्मय करने की सम्यक प्रेरणा दी। पत्थर साबित होता है। एक नई दिशा बोध देता है। मेरी भावना है आचार-विचार एवं आहार को शुद्ध करने की दिशा में कि यह पत्रिका उन तमाम पत्र-पत्रिकाओं जैसी न बने, जो सदैव अन्य सामग्री भी उपयोगी एवं प्रेरणाप्रद है। संयोजन हेतु बधाई ! विवादों से घिरी रहती हैं। पत्रिका का सम्पादकमण्डल भी श्रेष्ठ श्री मिलापचंद्र जी कटारिया का आलेख इसे भक्ति कहें | विद्वानों से सुसज्जित है, जो निश्चित ही पत्रिका के सूर्य और चाँद या नियोग' रोचक और ज्ञानवर्धक है। आलेख की सामग्री से जैसे चमकीले हैं। 'जिनभाषित' के स्वाध्याय करने का सदैव देवगति के जीवों की चर्या के बारे में जानकारी मिली। देवगति के | पिपास बना रहता हूँ। निश्चित ही ऐसी पत्रिका का भविष्य उज्ज्वल सभी देव जन्म लेते ही प्रथम जिन पूजा करेंगे और अष्टानिका पर्व में और गरिमामयी होगा। जिनभाषित परिवार की हमारी ढेर सारी तथा तीर्थकरों के पंचकल्याणक समारोह में भी सभी को शामिल शुभकामनाएँ। होना होता है भले ही वे सम्यक्तवी हों या न हों यह जानकारी प्रथम पं. सुनील जैन 'संचय' बार प्राप्त हुई है। श्री पं. शिवचरणलाल जी ने जिनभाषित' अक्टू. बी. 3/80, भदैनी वाराणसी 2002 पृष्ठ 24 पर यह कथन अवर्णवादी लिखा था जिसमें डॉ. ___ 'जिनभाषित' अगस्त, 2002 का अङ्क पं. धन्य कुमार देवेन्द्र कुमार जी शास्त्री ने जन्माभिषेक प्रकरण में लौकान्तिक देवों राजेश से प्राप्त हुआ। पत्रिका का स्तर, मुद्रण, सर्वोत्तम है। पत्रिका द्वारा भी अभिषेक करने का उल्लेख किया था। श्री कटारिया जी के | में कविताएँ, कहानी, लघु कथा जैसी अन्य साहित्यिक विधाओं मत के अनुसार लौकान्तिक आदि सभी देव कल्याणकों के सभी | को भी समाहित किया जाए ऐसा मेरा निवेदन सुझाव है। समारोहों में जाते हैं। सम्मानीय श्री पं. शिवचरणलाल जी का | साहित्य की सतत् सेवा का संकल्प और उत्कृष्टता को आरोप स्वत: मिथ्या सिद्ध हो जाता है। दुर्भावनापूर्ण कथन इष्ट नहीं | प्राप्त हो ऐसी कामना है। सुरेन्द्र सिंघई वीर जन्म-भूमि सम्बन्धित सकारात्मक सामग्री के प्रकाशन 'परमात्म छाया' बस स्टैण्ड, बाकल से जन-भ्रम दूर करें। श्री 108 प्रमाण सागर जी मुनिराज ने 'जैनधर्म कटनी (म.प्र.)-483331 और दर्शन' पृष्ठ 44 (सं.संस्करण 1998) में कुण्डग्राम-वज्जिसंघ 'जिनभाषित' के अंक नियमित रूप से प्राप्त होते हैं। के वैशाली गणतंत्र को माना है। आचार्यश्री ने अभी तक अपना 'जिनभाषित' आध्यात्म-दर्शन तथा चिन्तन की एक अच्छी पत्रिका मत व्यक्त नहीं किया। इस भ्रम को दूर करें। है। इसमें वे सभी बातें पढ़ने को मिलती हैं, जो अन्य पत्रिकाओं में डॉ. राजेन्द्र कुमार 'बंसल' | पढ़ने को नहीं मिलती। पत्रिका जहाँ एक और दिशाबोध कराती है - अमलाई वहीं दूसरी और सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देती है। __'जिनभाषित' पत्रिका जैनधर्म के सिद्धान्त जन-मानस तक एक अच्छी पत्रिका निकालने के लिए संपादक मण्डल पहुँचाने का अद्भुत प्रयास है। हमारे जैन समाज में पत्र,पत्रिकाओं | को जितना भी साधुवाद दिया जाए वह कम है। की बाढ़ सी आ गयी है, जितनी पत्र-पत्रिकायें जैन समाज निकालता नूतन वर्ष मंगलमय हो। है संभवतया अन्य समाज में ऐसा नहीं होगा। मीडिया, संचार, राजेन्द्र पटोरिया समाज को बदलने की हिम्मत रखता है। मीडिया से तात्पर्य जो सम्पादक, खनन भारती दूरियाँ कम करके एक दूसरे को मिलाता है, जोड़ता, संगठित स्पष्टीकरण करता है, सद्भावना उत्पन्न करता है। परन्तु हमारे समाज में आज ऐसी कितनी पत्र-पत्रिकायें हैं? कुछ पत्र-पत्रिकाएँ तो केवल मेरे लेख "..... और मौत हार गई' पर विद्वान भाई नीरज एक दूसरे के विरोध, दमन, स्वार्थसिद्धि और व्यवसाय के लिए जी की आलोचनात्मक टिप्पणी जैन गजट में प्रकाशित हुई है। मैं ही निकल रही हैं। ऐसी पत्रकारिता से समाज को क्या लाभ जो उसका उत्तर देना आवश्यक तो नहीं समझता था किंतु उनका यह फूट पैदा करे। आज जरूरत है ऐसी पत्रिकारिता की जो समाज लिखना कि लेख से उनको पीड़ा हुई है और यह भी कि मैंने यह को तोड़ने नहीं, जोड़ने की भावना पैदा करे। मैं समझता हूँ संस्मरण किस अभिप्राय से प्रकाशित कराया इसका उत्तर मैं ही दे 'जिनभाषित' जो कि अभी नयी है, लेकिन इतने कम समय में सकता हूँ, मुझे स्पष्टीकरण देना पड़ रहा है। अपनी कुशल पत्रकारिता से समाज में प्रतिष्ठित हो गयी है। यह ठीक है कि सही जानकारी नहीं होने से मैंने लेख में हिन्दुओं में 'कल्याण' 'अखण्डज्योति' 'सतयुग की पू. आचार्यश्री के सतना में बीमार होने की बात लिखी थी। सतना वापिसी' जैसी पत्रिकाओं का प्रमुख स्थान है, 'जिनभाषित' भी में बीमार न होकर वे कटनी आकर बीमार हुए यह भूल सुधार ली समाज को ऐसी ही सामग्री प्रदान करती है, जिसके माध्यम से जानी चाहिए। किंतु मात्र स्थान की भूल से घटनाक्रम में कोई सारा समाज एकता के सूत्र में बँध सके। 'जिनभाषित' ने इतनी अंतर नहीं पड़ेगा। केवल इस घटना के प्रारंभिक अंश का मैं छोटी उम्र में जैन मीडिया संसार में अच्छा खासा प्रभुत्व जमाया | प्रत्यक्षदर्शी नहीं रहा। इस घटना के शेष अंश के समय तो मैं है, जो श्लाघनीय है। सम्पूर्ण सामग्री आकर्षक, पठनीय, मननीय, | कुण्डलपुर पहुंच ही गया था। इसके अतिरिक्त चार घटनाओं के 4 फरवरी 2003 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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