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जीक्कमवे शुभचन्द्र देव की शिष्या थी और योग्यता और कुशलता से राज्य के साथ ही धर्म प्रचार के लिये भी उसने अनेक जैन प्रतिमाओं की स्थापना की थी।
जैनधर्म में कन्याओं का स्थान
आदिपुराण, पर्व 18 श्लोक 76 के अनुसार इस काल में पुरुषों के साथ ही कन्याओं के विविध संस्कार किये जाते थे। राज्य परिवार की लड़कियों की स्थिति तो कई गुनी अच्छी थी । कन्या पिता की सम्पत्ति में से दान भी कर सकती थी। सुलोचना ने अपनी कौमार्यावस्था में रत्नमयी जिनप्रतिमा की निर्मिति की थी और उनकी प्रतिष्ठा करने के लिये पूजाभिषेक विधि का भी आयोजन किया था । कन्यायें पढ़ते समय अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त करती थीं और वे अपने पिता के साथ उपयुक्त विषयों पर चर्चा भी करती थीं । वज्जदंत चक्रवर्ती अपनी लड़की के साथ अनेक विषयों पर चर्चा करता था ।
विवाह और विवाहोत्तर जीवन
विवाह स्त्री के जीवन में महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती थी। उस वक्त आजन्म अविवाहित रहकर समाजसेवा और आत्मकल्याण करने की भी अनुज्ञा थी। विवाह को धार्मिक एवं आध्यात्मिक एकता के लिये स्वीकार किया हुआ बन्धन माना
जाता था।
मथुरा के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमतली का विवाह यदुवंशीय श्रीकृष्ण के बन्धु नेमिनाथ के साथ निश्चित किया गया था। अपने विवाह के समय होने वाली पशुहत्या को देखकर अन्तर्मुख बनकर नेमिनाथ ने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय किया। राजुलमति ने मनसे उनके साथ विवाह बद्ध होने से दूसरे से विवाह करना निषिद्ध माना और आर्यिकाकी दीक्षा लेकर अपने पति के मार्ग पर चलने का निश्चय किया। उसने जैन समाज के सामने यह आदर्श रक्खा है। वैवाहिक जीवन का महत्त्व
विवाह पूर्व अवस्था में स्त्री व पुरुष भिन्न कुटुम्ब के प्रतिनिधि होते हैं । विवाह के बाद ही उनके जीवन का पूरी तरह से आरम्भ होता है। आदर्श गृहिणी बनकर सुखद गृहस्थ जीवन निर्माण करना स्त्री के जीवन का उच्च ध्येय है। आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, देश, समाज और काल की भूषण मानी जाती है। विवाह के बाद स्त्री-पुरुष परस्पर सहकारी होते हैं। गृहस्थाश्रम को स्वीकार कर अपने कुल, धर्म, स्थिति को सोचकर मर्यादित जीवन व्यतीत करना, यही आदर्श पति का कर्त्तव्य है। अशांत स्त्री अपने असन्तोश के साथ ही स्वगृह की शान्ति नष्ट करती है। स्त्री को शांति, स्नेह, शक्ति, धैर्य, क्षमा, सौन्दर्य और माधुर्य का प्रतीक माना गया है। गृहस्थाश्रम में उसे गृहलक्ष्मी कहकर घर की सब जिम्मेदारी उस पर सौंप देते हैं। अतिथिका स्वागत करना, धर्मकार्य का पालन करना, सुश्रूषा करना और शिशुपालन ये तो उसके जीवन के आदर्श माने गये हैं। अनेक जैन महिलाओं ने इन आदर्शों के पालन में अपने उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।
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उज्जैनी नगर के पहुपाल राजा की सुशिक्षित कन्या मैना सुन्दरी का विवाह निर्जन वन में रहने वाले कुष्ठरोगी चंपापुर के नरेश श्रीपाल कोटीभट्ट के साथ किया गया। लेकिन मैनासुन्दरी ने इस घटना के लिये अपनी कर्मगति को कारण समझकर अपने पति की सेवासुश्रुषा की। अनेक कष्ट शांति से सहन किये। पंचाणुव्रत ग्रहण किये। अष्टाह्निक पर्व के उपोषण करके सिद्ध चक्रकी यथाशक्ति पूजा की। उसके बाद श्रीपाल के शरीर पर गंधोदक लगाते ही कुष्ठ मुक्त हो गया। अपने सामर्थ्य से उसने अपने राज्य को फिर से प्राप्त किया। सुखोपभोग किया और वृद्धकाल में राज्य की जिम्मेदारी अपने लड़के को सौंपकर मुनिदीक्षा ली। मैनासुन्दरी ने आर्यिका व्रत ग्रहण किया। उसने अपने असामान्य उदाहरण से जैन महिलाओं के सामने जीवनभर छाया की तरह पति के साथ रहना, उसके सुख-दुख में सहभागी होना, धर्मकार्य में उसका सहकार्य करना, वैभव काल में उसका आनन्द दुगुना करने का यत्न करना, पति की सखी बनकर उसके जीवन में चैतन्य निर्माण करना ये आदर्श रक्खे हैं ।
पतिनिष्ठा, पवित्रता और सहनशीलता यरे गृहस्थाश्रमी के आदर्श कर्त्तव्य माने गये हैं। महेन्द्रपुरी की राजकन्या और पवनकुमार की पत्नी अजन्ता ने विवाह के बाद बारह साल विरह सहन किया। उसके बाद पति का मिलन उसके जीवन में आनन्द निर्माण करने वाला था । किन्तु उस पर चारित्र का संशय करके उसको घर से निकाल दिया गया। बिना सहारे अनेक कष्टों के साथ सहन-शीलता से और नीतिधर्म का पालन करके उसने अपना जीवन बिताया जिससे उसे अपना खोया हुआ आनन्द फिर से प्राप्त हो गया। सीता का आदर्श तो महान् आदर्श है। रावण जैसे प्रतापी वैभवसम्पन्न पुरुष के अधीन रहकर भी उसने अपना मन एक क्षण भी विचलित नहीं होने दिया। उसके कारण वह अग्निदिव्य बन सकी। पति के त्यागने पर भी बने में जीवन बिताते समय उसने रागद्वेष के स्थान पर मधुर हास्य, घबराहट स्थान पर प्रसन्नता और खेद के स्थान पर उल्लास प्रकट किया, वही उसका आदर्श है। मृगुकच्छ नगर के श्रेणी जिनदत्ता नामक धर्मशील श्रावक की साली को विवाह के बाद घर से बाहर निकाल दिया गया। तथापि इस अवस्था में भी उसने जैनधर्म पर अपनी निष्ठा कम नहीं की। उसी से आगे चलकर उसका पतिव्रत्य सिद्ध हो गया और उसे कुटुम्बमें, समाज में आदरणीय स्थान मिला।
मातृत्व का महत्त्व
स्त्री के सभी गुणों में मातृत्व को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसी गुण से उसे समाज में आदर्श गुरु माना गया है। आचार्य मानतुंग के अनुसार संसार की सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं लेकिन भगवान् के समान अद्वितीय पुत्र को जन्म देने वाली माता तो अद्वितीय ही है। सूर्य की किरणों की अलग-अलग दिशायें होती हैं लेकिन सूर्य का जन्म ही दिशा में पूर्व में ही होता है।
-फरवरी 2003 जिनभाषित
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