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________________ आत्मार्थी के लिये तीर्थ नैसर्गिक उपवन सुमतचन्द्र दिवाकर तीर्थ अत्यन्त व्यापक सार्थक शब्द है। इसके साधनभेद के सिद्धक्षेत्रे महातीर्थे पुराणपुरुषाश्रिते। अनुसार अनेक अर्थ हो सकते हैं। पूज्य आचार्य योगेन्दु देव ने कल्याणकलिते पुण्ये ध्यानसिद्धिः प्रजायते। परमात्मप्रकाश ग्रंथ में निश्चयतीर्थ का स्वरूप आत्मप्राप्ति को कहा। (ज्ञानार्णव) इस परम्परा में हमारे तीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त तीर्थंकर "सिद्धक्षेत्र, जहाँ कि बड़े-बड़े प्रसिद्ध पुरुष ध्यान कर इस युग के सबसे बड़े तीर्थ हैं, जिन्होंने आत्मसाधना अथवा | सिद्ध हुए हों, पुराण पुरुष तीर्थंकरादिकों ने जिनका आश्रय लिया आत्मप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त किया। करोड़ों भव्य आत्माओं ने उन हो ऐसे महातीर्थों में ध्यान की सिद्धि होती है।" यह कल्याणक के श्रमण मार्ग पर चलकर निर्वाण प्राप्त किया। क्षेत्र हैं। जिन स्थलों से उन भव्य आत्माओं ने अपनी साधना का | श्री सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों को मुक्ति प्राप्त हुई,इसलिए अंतिम सोपान तय किया, वे सिद्धक्षेत्र बन गये। वहाँ की भूमि का , इसे तीर्थराज भी कहते हैं। उत्तर में कैलाश पर्वत से आदिनाथ को कण-कण पवित्र हो गया। वहाँ के वायुमण्डल में आज भी उनकी तथा चम्पापुर से वासुपूज्य, गिरनार से नेमीनाथ तथा पावापुर से साधना के मंत्रोच्चार रचते-बसते हैं। उन पवित्र चरणों की पदरज अन्तिम तीर्थंकर महावीर को शिवलक्ष्मी प्राप्त हुई-इसयि यह क्षेत्र आज भी प्रदूषण से परे है। वहाँ आज भी श्रद्धा से वंदना करने | सिद्ध क्षेत्र का गौरव पा सके। अन्य मुनियों, आचार्यों, गणधरों ने वाले यात्रियों को पवित्रता का भान होता है। ये क्षेत्र आज भी | भी जहाँ-जहाँ से निर्वाण प्राप्त किया उन्हें भी सिद्धक्षेत्र कहते हैं। हमारी संस्कृति के परिचायक हैं। इन तीर्थों का वंदन, रक्षण, जैसे-कुन्थलगिरि से कुलभूषण, देशभूषण मुनिराजों ने निर्वाण संवर्धन महान पुण्यकार्य है। उपर्युक्त कथन की सिद्धि हेतु धर्मतीर्थ | प्राप्त किया- इस प्रकार प्रसिद्ध पच्चीस निर्वाण भूमियाँ हैं। और क्षेत्र-तीर्थ के बहुआयामी महत्त्व का प्रकाशन इस आलेख व्रत, तप, जप स्वाध्याय का अन्तिम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति ही का अभीष्ट है। है। आगमानुसार इन निर्वाण भूमियों के महत्त्व को इन्द्रों-देवेन्द्रों ने धार्मिक निष्ठा उन्नायक - तीर्थ हमारी सांस्कृतिक धरोहर | भी माना है। उन्होंने इन स्थानों पर अपने पूज्य भाव प्रगट करने हैं। हमारे महापुरुषों को स्मरण करने वाले प्रतीक हैं। हमारी | तीर्थंकर भगवन्तों के चरण चिह्न अंकित किये थे। इसलिये सिद्ध धार्मिक निष्ठा को तीर्थ वंदना से बल मिलता है। तीर्थों पर हमारा | भूमियों को आचार्यों ने महातीर्थ कहा है। इन पुराण पुरुषों के उपयोग भगवत् भक्ति में लगने से पुण्य का संचय होता है। यह | निर्मल चरित्र की भक्ति, स्मरण और अनुशरण से निश्चित ही पुण्य परम्परया मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। विकारग्रस्त मन कल्याण होता है। यह सिद्ध भूमियाँ प्राय: उत्तुंग पर्वतों तथा निर्जन और रूग्ण तन के उपचार के साधन तीर्थ स्फूर्तिप्रदायक भी हैं। वन प्रदेशों में ही हैं। आत्म साधना के लिये निराकुल पर्यावरण का भगवान् का स्मरण करते हुए दुरूह उत्तुंग पर्वतों पर आरोहण | अत्यन्त महत्त्व है। अन्तरंग शान्ति का अजस्त्र स्तोत्र इन निराकुल करते वृद्धजनों में भी नवयुवकों जैसा उत्साह भर देते हैं। तीर्थ | स्थानों में ध्यानस्थ होकर प्राप्त होता है। इसलिये इन स्थानों का तपोवन तथा समाधि स्थल हैं। साधनारत साधुओं, मुनियों को | महत्त्व साधुओं को ही नहीं अपितु गृहस्थों को भी सर्वोपरि है। जीवन के अन्तिम दिनों में इन तीर्थ धामों पर ही आश्रय मिलता है। जिस प्रकार गृहस्थ को धनार्जन के लिये अनुकूल क्षेत्र, विद्यार्थी तीर्थ-करोड़ों-करोड़ साधुओं के मुक्तिधाम हैं। प्रतिवर्ष करोड़ों को विद्या अर्जन के लिये विद्यालय अथवा गुरुकुल चाहिये उसी मनुष्यों को इन तीर्थक्षेत्रों की वंदना का पुण्य अधोगति में जाने से प्रकार आत्मार्थी के लिये शान्ति समता हेतु तीर्थ का नैसर्गिक उबारता है। श्री सम्मेदशिखर जी के संदर्भ में कहा गया है- उपवन चाहिये। भाव सहित वंदे जो कोई, ताहि नरक पशुगति नहिं होई तीर्थ, आगम के दर्पण में - आगम में तीर्थ शब्द का अर्थ चारों गतियों में नरकगति अशुभ गति मानी जाती है तथा | पार उतारने वाला पार पहुँचाने वाला, पार होने का उपाय करने तिर्यंचगति (पशुगति) अत्यन्त दुखदायी और धर्माश्रय से वंचित | वाला या पार उतरना भी है। इसका चारों अनुयोगों में कहीं से भी करनेवाली है, जो इस तीर्थ वंदन से टल जाती है। मनुष्य गति में सम्बन्ध स्थापित करने पर अर्थ आत्म उत्थान से ही है। इसलिये उत्थान के मार्ग खुले हैं । संयम और ईश्वर भक्ति से आत्मकल्याण सरल शब्दों में जो व्यक्ति संसार से पार उतरने वाले हैं उन्हें तीर्थ किया जा सकता है। संयम और भक्ति के लिये तीर्थ सर्वश्रेष्ठ | कहते हैं। जिस मार्ग से पार उतरा जा सकता है या जिन साधनों से निमित्त हैं। पूज्य आचार्य शुभचन्द्र ने गृहस्थों और साधुओं के लिए | पार उतरा जा सकता है वह साधन अथवा उपाय भी तीर्थ हैं। दृष्टि में तीर्थों को आत्म शुद्धि का साधन निरूपित किया है | संसार छूटने का उद्देश्य तथा आत्म प्राप्ति का लक्ष्य होना चाहिये। -फरवरी 2003 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524270
Book TitleJinabhashita 2003 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2003
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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