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दादा भगवान प्ररूपित
ज्ञानी पुरुष की
ज्ञानी पुरुष की पहचान
पहचान
कभी ज्ञानी पुरुष मिल जाये, जो मुक्त पुरुष है, परमेनन्ट मुक्त है, ऐसा कोई मिल जाये तो अपना काम हो जाता है। शास्त्रों के ज्ञानी तो बहुत है, मगर उससे तो कोई काम नहीं चलेगा। सच्चा ज्ञानी चाहिए और मुक्त पुरुष चाहिए, मोक्ष का दान देनेवाला चाहिए।
-दादाश्री
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दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : दादा भगवान फाउन्डेशन की ओर से
श्री अजीत सी. पटेल 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कोलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - 380014 फोन - 7540408, 7543979 E-Mail: info@dadabhagwan.org
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संपादक के आधीन
| प्रथम आवृति : प्रत ३०००,
मार्च, २००३
ज्ञानी पुरुष की पहचान
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव!
द्रव्य मूल्य : ५ रुपये (राहत दर पर)
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
मुद्रक
संकलन : डॉ. नीरुबहन अमीन
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रीन्टींग डीवीझन), पार्श्वनाथ चेम्बर्स, नई रिझर्व बैंक के पास, इन्कमटेक्स, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (०७९) ७५४२९६४
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समर्पण
अहो! अहो!! यह अक्रममार्गी आप्तवाणी। तेजपूंज प्रगटाती, अज्ञान नाशकारीणी। हजारों का अंतरदाह छूडाते, प्रगट मोक्षदानी। अहो! कुदरती बलिहारी, परमाश्चर्य होनी।
हमारी हिन्दी दादाश्री : हमारी हिन्दी बराबर ठीक नहीं है न?
प्रश्नकर्ता : नहीं, ऐसी बात नहीं है। आप हिन्दी अच्छी ही बोल रहे है।
दादाश्री : हमको हिन्दी बोलने को नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : नहीं, आपकी हिन्दी बहुत मीठी है, आप बोलिये।
दादाश्री : मीठी तो मेरी वाणी है, हिन्दी नहीं। मेरी वाणी मीठी है।
आप्तपुरुष श्रीमुख से निकली आप्तवाणी। हृदपस्पर्शीणी अनंत संसार विनाशीनी। स्याद्वाद अनेकांत निजपद की ही वाणी। सर्वनय सदा स्वीकार्य, मोक्षार्थ प्रमाणी।
आपको मेरी बात समज में आती है न? ऐसा है कि हमारा हिन्दी Language पे काबु नहीं है, खाली समझने के लिए बोलते है। 5 % हिन्दी है और 95 % दूसरी सब mixture है, मगर tea जब बनेगी, तब tea अच्छी हो जायेगी।
संसार, मोक्षपथ पर परम विश्वासनीया। अनादि अंधेरे में प्रगट प्रत्यक्ष दिया। विज्ञानी वीतरागी वाणी, वचनसिद्धता। कारूण्य भाव से जगकल्याणार्थे समर्पिता।
- परम पूज्य दादा भगवान
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निवेदन आप्तवाणी मुख्य ग्रंथ है, जो दादा भगवान की श्रीमुख वाणी से, ओरिजिनल वाणी से बना है, वो ही ग्रंथ के सात विभाजन किये गये है, ताकी वाचक को पढने में सुविधा हो ।
1. ज्ञानी पुरूष की पहेचान 2. जगत कर्ता कौन ? 3. कर्म का सिद्धांत 4. अंत:करण का स्वरूप 5. यथार्थ धर्म 6. सर्व दुःखो से मुक्ति 7. आत्मा जाना उसने सर्व जाना
परम पूज्य दादाश्री हिन्दी में बहुत कम बोलते थे, कभी हिन्दी भाषी लोग आ जाते थे, जो गुजराती नहीं समज पाते थे, उनके लिए पूज्यश्री हिन्दी बोल लेते थे, वो वाणी जो केसेटो में से ट्रान्स्क्राईब करके यह आप्तवाणी ग्रंथ बना है ! वो ही आप्तवाणी ग्रंथ को फिर से संकलित करके यह सात छोटे ग्रंथ बनाये गये है!
उनकी हिन्दी ‘प्यॉर' हिन्दी नहीं है, फिर भी सुननेवाले को उनका अंतर आशय 'एक्झेट' समज में जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, हृदयभेदी होने के कारण जैसी निकली वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है ताकि सुज्ञ वाचक को उनके 'डिरेक्ट' शब्द पहुँचे। उनकी हिन्दी याने गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढ़ने में बहुत मीठी लगती है, नेचरल लगती है, जिवंत लगती है। जो शब्द है, वह भाषाकीय द्रष्टि से सीधे-सादे है किन्तु ज्ञानी पुरुष' का दर्शन निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यु पोईन्ट को एक्झेट समजकर निकलने के कारण श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट खोल देते है और ओर ऊंचाई पर ले जाते है।
- डॉ. नीरबहन अमीन
दादा भगवान कौन? | जून १९५८ की एक संध्या का करीब छह बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत |शहर का रेल्वे स्टेशन। प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के |लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रगट हुए । और कुदरत ने सर्जित किया
आध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ । 'मैं कौन? |भगवान कौन? जगत कौन चलाता है ? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत
के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हए। इस तरह कुदरत ने विश्व के |सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसकेमाध्यम बने श्री अंबालाल |मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष !
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से । उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार उपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग । शॉर्ट कट ।
आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं । दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं । वे आप में भी हैं । सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं । दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" ___ 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया। बल्कि अपने व्यवसाय की अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके ममक्ष जनों को |सत्संग और स्वरूपज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही |पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन को स्वरूपज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात आज भी पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन गाँव-गाँव, देश-विदेश भ्रमण करके मुमुक्षुजनों को सत्संग और |स्वरूपज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रहे हैं, जिसका लाभ हजारों मुमुक्षु (लेकर धन्यता का अनुभव कर रहे हैं ।
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संपादकीय संसार का बंधन किस से है? अज्ञानता से। अज्ञानता कैसी? निज स्वरूप की।
अज्ञानता जाये किस तरह से? ज्ञान से, निज स्वरूप के ज्ञान से। 'मैं कौन हूँ', इसकी पहचान से।
'मैं कोन हूँ' की पहचान कैसे हो? प्रत्यक्ष-प्रगट 'ज्ञानी पुरुष' मिले, उनकी पहचान हो, उनकी द्रष्टि से अपनी द्रष्टि मिल जाये तब।
और 'ज्ञानी पुरुष' के लक्षण क्या है?
जो निरंतर आत्मा में ही रहते है, जिनकी निरंतर स्वपरिणति ही है, जिन्हें इस संसार की कोई भी विनाशी चीज नहीं चाहिये, कंचनकामिनी, कीर्ति, मान, शिष्य की भिख जिन्हें नहीं है, वह है 'ज्ञानी पुरुष'। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाये तो उनके चरणो में सर्वभाव समर्पित करके आत्मा प्राप्त कर लेना चाहिये। स्वयं आत्मज्ञान पाना अति अति कठिन है, लेकिन 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाये तो अति अति सरल है। लेकिन 'ज्ञानी पुरुष' की उपस्थिति में भी ज्ञानी पुरुष की पहचान सामान्य जन को होना बहुत कठीन है। जौहरी होगा वह तो हीरे को परख लेगा ही किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' को पहचाननेवाले जौहरी कितने? प्रस्तुत ग्रंथ की प्रस्तावना में 'ज्ञानी पुरुष' की पहचान, उनकी दिव्यता, भव्यता, उनका अद्भूत दर्शन, ज्ञान, वाणी और उनकी आंतरिक परिणति के बारे में प्रकाश डालने का अल्प प्रयास किया गया है, जो सुज्ञ वाचक को 'ज्ञानी पुरुष' की पहचान और उनके प्रति अहोभाव प्रगट करने में सहायक हो सकेगी।
'दादा भगवान' कौन है?
जो दिखाई देते है, वे 'दादा भगवान' नहीं है। वे तो 'ए.एम.पटेल' है लेकिन भीतर में जो प्रगट हो गये है, वह 'दादा भगवान' है, वह चौदह लोक के नाथ है। आपके अंदर (भीतर) भी वही 'दादा भगवान' है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि 'ज्ञानी पुरुष' के अंदर संपूर्ण व्यक्त, प्रगट हो गये
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है और आपके अंदर व्यक्त नहीं हुए है। जो अंदर प्रगट हुए है, वह 'दादा भगवान' के साथ 'ज्ञानी पुरुष' निरंतर रहते है। जब व्यवहार का उदय होता है, तब 'ए. एम. पटेल' के साथ होना पडता है, नहीं तो 'दादा भगवान' के साथ अभेद स्वरूप से तद्रुप ही रहते है ।
दादा भगवान का स्वरूप क्या है?
ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इसके द्वारा जो अनुभव में आते है, वही 'दादा भगवान' है। इस देह में जो 'मिकेनिकल' भाग है, चंचल भाग है, वह 'दादा भगवान' नहीं है। अचल भाग है, दरअसल आत्मा है, वह 'दादा भगवान' है। जो खाते है, पीते है, धंधा करते है, शास्त्र पढ़ते है या तो धर्मध्यान करते है, वह सब मिकेनिकल है, वह दरअसल आत्मा नहीं है। दरअसल आत्मा तो स्वयं परमात्मा है, वो ही 'दादा भगवान' है। इसमें 'ज्ञानी पुरुष' कौन?
जो ज्ञान की वाणी बोलते है, उन्हें व्यवहार में 'ज्ञानी पुरुष' कहते है। और भीतर में प्रगट हुए बिना ज्ञान की वाणी नहीं बोली जा सकती। भीतर में प्रगट हुए है, वो ही 'दादा भगवान' है। 'ज्ञानी पुरुष' के जो सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष है, जो लोगों की समज में भी नहीं आ सकते, और जगत के किसी भी जीव को किंचित् ही नुकसानकर्ता नहीं, ऐसे दोषों को जो प्रकाशमान करते है, वह 'दादा भगवान' है और 'ज्ञानी पुरुष', उस दोषों को 'उनके' प्रकाश में जानते है। ऐसे पूर्ण स्वरूप 'दादा भगवान' का पद प्राप्त करने के लिए, 'उनके साथ अभेद रहने के लिए 'ज्ञानी पुरुष' खुद 'दादा भगवान' को नमस्कार करते है, उनकी भजना करते है ।
१९५८ में सूरत स्टेशन पर उन्हें आत्मज्ञान अपने आप (स्वयं ही ) प्रगट हुआ। ज्ञान के प्रागट्य का कारण बताते हुए 'दादाजी' कहते है कि कितने जन्मों की लिंक का यह फल है। वह अनुभूति होने के बाद उनका 'ईगोइजम' और ममत्व खत्म हो गये और 'खुद' मन, वचन, काया से बिलकुल भिन्न हो गये। यह ज्ञान प्रगट हुआ, उसी दिन 'खुद' 'ज्ञानी' हुए। उसके अगले दिन तक वे अज्ञानी ही थे ऐसी हकीकत वे बताते
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है। ज्ञानप्राप्ति के बाद आत्मा का स्पष्ट अनुभव हुआ, पूर्णाहूति हुई। बाद में उन्होंने 'अंबालाल मूलजीभाई पटेल' के साथ सारी जिंदगी में एक पल भी तन्मयता नहीं की। जब से ज्ञान प्रगट हुआ है, तब से ' अंबालाल ' उनके सर्व प्रथम पडौसी थे। पड़ौसी की तरह ही रहते है। देह और आत्मा की कैसी भिन्नता !!!
दादाश्री को कैसा ज्ञान प्रगट हुआ है? उन्हें 'केवलज्ञान' में सिर्फ चार डिग्री की ही कमी थी। 'केवलज्ञानी' को ज्ञान में सब कुछ 'दिखता ' है और उन्हें वह सब कुछ 'समज' में आता है। 'दर्शन' संपूर्ण है, 'ज्ञान' में चार डिग्री की कमी है।
'ज्ञानी पुरुष' तो कहते है कि 'मुझे इस संसार में कुछ भी नहीं आता। मैं आत्मा की बात के अलावा और कुछ नहीं जानता।' 'आत्मा' ज्ञाता-द्रष्टा है, वह 'मैं' जानता हूँ। 'आत्मा' जो 'देख' सकती है, वह 'मैं' 'देख सकता हूँ। व्यवहार में वे धंधादारी आदमी थे, इन्कमटेक्ष- सेलटेक्ष सभी भरते थे, कंट्राक्ट का नंगा धंधा भी करते थे, फिर भी इन सब में 'ज्ञानी पुरुष' संपूर्ण वीतराग रहते थे। वह वीतराग कैसे रहते है? आत्मज्ञान से! संपूर्ण जागृति से !!
कई लोग उन्हें पूछते है कि आपको यह सिद्धि किस तरह प्राप्त हुई? उसका उत्तर देते हुए दादाश्री कहते है कि क्या इसकी नकल करनी है? यह नकल करने जैसी चीज नहीं है। यह ज्ञान तो 'बट नेचरल' प्रगट हो गया है। उन्हें भी पता नहीं था कि इतनी बड़ी 'लाइट' हो जायेगी। उन्हें तो छोटे से दिये की, कुछ 'समकित जैसा इस जन्म में प्राप्त होगा ऐसी आशा थी। मगर यह तो संपूर्ण प्रकाश हो गया, संपूर्ण निर्विकल्प पद प्राप्त हुआ।
'भगवान' संज्ञा यह नाम है या विशेषण? 'भगवान' तो विशेषण है। और जो भी कोई मनुष्य भगवत् गुणों की प्राप्ति करता है, उसे यह विशेषण मिलता है। 'ज्ञानी पुरुष' का पद तो निर्विशेष पद है, उनको तो किसी भी विशेषण की क्या जरूरत? 'ज्ञानी पुरुष' को 'भगवान' कहना याने
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भाव होता है। जो कषाय रहित है, जहाँ परपरिणति उत्पन्न नहीं होती, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' के दर्शन मात्र से कल्याण होता है।
'ज्ञानी पुरुष' याने संपूर्ण प्रकाश। प्रकाश में कोई अंधेरा टीक नहीं सकता। वह सब कुछ जानते है कि विश्व क्या है, किस तरह चलता है, भगवान कहाँ है, हम कौन है? 'ज्ञानी पुरुष' तो 'वर्ल्ड की ऑब्झर्वेटरी' है। विश्व में एक भी ऐसा परमाणु नहीं कि जो उन्हों ने देखा न हो, एक विचार ऐसा नहीं कि जो उनके ध्यान के बाहर रह गया हो।
उनको हीन पद में बिठाने जैसा है।
जो मन का मालिक नहीं, देह का मालिक नहीं. वाणी का मालिक नहीं, कोई चीज का मालिक नहीं, वह इस संसार में भगवान है। 'ज्ञानी पुरुष' देह होने के बावजूद भी एक पल भी देह के मालिक नहीं होते। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' सारी परसत्ता को जानते है और स्वसत्ता को भी जानते है। खुद की, स्वसत्ता में वे ज्ञाता-द्रष्टा, परमानंदी रहते है।
'ज्ञानी पुरुष' एक पल भी संसार में नहीं रहते और एक पल भी अपने स्वरूप के सिवा अन्य कोई संसारी विचार उनको नहीं आता। 'ज्ञानी पुरुष' में तो अपनापन ही नहीं रहता। देह के मालिक नहीं होते, इसलिए उन्हें मरना भी नहीं पडता, खुद अमरपद में रहते है। और 'ज्ञानी कृपा' का इतना सामर्थ्य है कि वही पद वे दूसरों को दे सकते है, जो बड़ी आश्चर्यकारी घटना है। 'ज्ञानी पुरुष' निरंतर शुद्ध उपयोग में रहते है, वह शुद्ध उपयोग मुक्ति में फलित होता है। और निरंतर शद्ध उपयोगी है. मनवचन-काया का मालिकी भाव नहीं, इसलिए उन्हें हिंसा का दोष नहीं लगता, हिंसा के सागर में रहते हुए भी!! जिसकी निरंतर आत्मपरिणाम में ही स्थिति है, उसे कोई कर्म ही स्पर्श नहीं करता। ऐसी अद्भुत दशा 'ज्ञानी पुरुष' की है। जो देह के स्वामी नहीं, वे समग्र ब्रह्मांड के स्वामी है।
यह 'ए.एम.पटेल' जो दिखाई देते हे, वह है तो मनुष्य ही, किन्तु 'ए.एम.पटेल' की जो वृत्तियाँ है और उनकी जो एकाग्रता है, वह पररमणता भी नहीं और परपरिणाम भी नहीं। निंरतर स्वपरिणाम में ही उनकी स्थिति है। निरंतर स्वपरिणाम में ही उनकी स्थिति है। निरंतर स्वपरिणाम में रहनेवाले कभी कभार हजारों वर्षों में एक ही होते है!! आंशिक स्वरमणता किसी को हो सकती है किन्तु सर्वांश स्वरमणता, वह भी संसारी वेष में नहीं होती। इसलिए इसे आश्चर्य लिखा गया है न! असंयति पूजा नामक घीट् आश्चर्य है यह!!!
आत्मपरिणाम और क्रियापरिणाम, ज्ञानधारा और क्रियाधारा-दोनो 'ज्ञानी पुरुष' में भिन्न वर्तना में होती है। ज्ञानी पुरुष' को निरंतर स्वभाव
__'ज्ञानी परुष' 'केवलज्ञान' में देखकर तमाम प्रश्नों के तत्क्षण समाधानकारी प्रत्युत्तर देते है। उनके जवाब किसी शास्त्र के आधार से नहीं निकलते, मौलिक जवाब रहते है। वे सोचकर, शास्त्र का याद करके नहीं बोलते. 'केवल ज्ञान' में 'देखकर' बोलते है। केवल ज्ञान' के चंद ज्ञेयों को वे देख नहीं पाते। इस काल में, इस क्षेत्र में संपूर्ण केवलज्ञान असंभव है। अज्ञान से लेकर केवलज्ञान तक के सर्व दर्शन की बातें उन्हों ने सुस्पष्ट की है। उनकी बातें स्थूल, सूक्ष्म से भी उपर की सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम की है।
_ 'ज्ञानी पुरुष' के मुख पर निरंतर मुक्त हास्य होता है। कषाय से मुक्त होने पर मुक्त हास्य उत्पन्न होता है। सारा विश्व निर्दोष दिखाई देने पर मुक्त हास्य उत्पन्न होता है और मुक्त हास्यवाले पुरुष के दर्शन मात्र से कल्याण होता है। मन से मुक्त, बुद्धि से मुक्त, अहंकार से मुक्त, चित्त से मुक्त, वहाँ मुक्त हास्य है। वीतरागता है, वहाँ मुक्त हास्य है। ऐसा मुक्त हास्य सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' को ही होता है। मुक्त हास्य तो विश्व की अजायब चीज है।
'ज्ञानी पुरुष' को जबरदस्त यशनामकर्म होता है। इसलिए उनके नाम से अनेकों के काम सिद्ध हो जाते है। 'ज्ञानी पुरुष' इसे चमत्कार या 'मैंने किया' ऐसा कभी नहीं कहते, इसे वह यशनाम कर्म का फल कहते है। वे नहीं चाहते फिर भी लोग उन पर यशकलश डाले बिना नहीं रहते। 'ज्ञानी पुरुष' को अनंत प्रकार की सिद्धियाँ होती है। जिसे विश्व
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की किसी चीज की अपेक्षा नहीं होती, उन्हें अंनत प्रकार की सिद्धियाँ प्रगट होती है।
'ज्ञानी पुरुष' में आत्मशक्ति संपूर्ण व्यक्त हो गई है, उनके निमित्त से दूसरों की भी आत्मशक्ति व्यक्त हो जाती है।
द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और भव से जो सदा अप्रतिबद्ध होकर विचरते है, वह 'ज्ञानी पुरुष' है। 'ज्ञानी पुरुष' को संसार में किसी भी चीज का बंधन नहीं है।
'ज्ञानी पुरुष' वह है कि जिसे निरंतर आत्मोपयोग रहता है, अंतरंग में नि:स्पृह ऐसे आचरणयुक्त है, अपूर्व वाणी जो कभी भी न कहीं, सुनी या पढ़ी हो, फिर भी प्रत्यक्ष अनुभव में आती है। जिसे न गर्व है, न गारवता है, न अपनापन है, सदा मुक्त हास्य से सभर जिनका मुखाविंद देदिप्यमान है, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' स्वयं देहधारी परमात्मा है, मूर्तामूर्त मोक्ष स्वरूप है, मोक्षदाता है, अनेकों को मोक्ष सुख दिलानेवाले है। धन्य है इस काल को, धन्य है इस भारत के गुजरात की चरोतर भूमि को और धन्य है उस जननी को, जिसने जगत को आज देहधारी परमात्मा अर्पण किया !!!
'ज्ञानी पुरुष' के गुणों को तो कोई भी पूरा बयान नहीं कर सकता । 'ज्ञानी पुरुष' में १००८ गुण होते है, उनमें से मुख्य चार है; सूर्य जैसे प्रतापी और चंद्र जैसे शीतल, दोनों विरोधाभासी गुण 'ज्ञानी पुरुष' में एक साथ प्रगट होते है, यह बड़ा आश्चर्य है। क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' स्वयं आश्चर्य की प्रतिमा है और उनके पीछे आश्चर्यों की परंपरा सर्जित होती रहती हैं, उन परंपराओं का शास्त्रों में अंकित होकर हजारों मोक्षार्थीओं को पथदर्शक बने रहना, यह आश्चर्यों की परंपरा का परमाश्चर्य है।
'ज्ञानी पुरुष' मेरू समान अड़ोल और सागर समान गंभीर होते है। सहज क्षमा, ऋजुता, मृदुता, करुणा के सागर ऐसे अनेक गुण उनमें होते है । उनको कोई गालीगलोच करे, मारपीट करे तो भी उस पर उनकी विशेष करुणा बहती है। क्षमा उन्हें करनी नहीं पडती, सहज क्षमा ही उनकी रहती है।
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संसार में सर्व याचकपन से मुक्त हुए है, उसे ज्ञानी पद प्राप्त होता
है। 'ज्ञानी पुरुष' आश्रम का श्रम नहीं करते। मंदिर - मठ बांधने की भिख उनमें नहीं होती। सामनेवाले प्रति संसारी अपेक्षा से, भौतिक की अपेक्षा से संपूर्ण नि:स्पृह और आत्म अपेक्षा से संपूर्ण स:स्पृह ऐसे सस्पृह - निस्पृह 'ज्ञानी पुरुष' होते है।
'ज्ञानी पुरुष' संपूर्ण अपरिग्रही होते है । उनके लक्ष में दुनिया की कोई चीज रहती ही नहीं। निरंतर जिसका लक्ष आत्मा में ही रहता है, वह परिग्रह के सागर में रहते हुए भी अपरिग्रही है। जो तमाम द्वन्द्वो से, सुख-दु:ख, राग-द्वेष, मान-अपमान, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य जैसे सारे द्वन्द्वो से पर हो गये है, वह 'ज्ञानी पुरुष' है। 'ज्ञानी पुरुष' द्वन्द्वातीत होते है। वह मुनाफे को मुनाफे के रुप से जानते है, घाटे को घाटे के रुप से जानते है। मुनाफे घाटे की उन पर कोई असर नहीं पहूँचती । 'मेरापन ' गया, उसका संसार अस्त हो गया। ऐसी उनकी स्थिति होती है। 'ज्ञानी पुरुष' संपूर्ण निराग्रही होते है। उनमें किंचित् भी आग्रह नहीं होता तो फिर विग्रह तो उन्हें कहाँ से हो सकता है?
'ज्ञानी पुरुष' सर्व काल मुक्तावस्था में ही होते है। सत्संग में भी मुक्त और कामधंधे पर भी मुक्त। प्रत्येक अवस्था में उनको सहज समाधि ही रहती है। 'ज्ञानी पुरुष' को कोई भय नहीं, क्योंकि वे बिलकुल 'करेक्ट' है, कोई गोलमाल उनमें नहीं होती। 'ज्ञानी पुरुष' निरंतर वर्तमान में ही रहते है। काल को उन्होंने बश किया होता है। वर्तमान में रहने से उन्हें जब देखो तब फ्रेश ही दिखते है। भूतकाल और भविष्यकाल का सूक्ष्म भेद तो 'ज्ञानी' के सिवा कोई नहीं कर सकता।
'ज्ञानी पुरुष' निरंतर 'अप्रयत्न दशा' में ही होते है। उनको भी प्रकृति होती है, लेकिन प्रकृति का उन पर कोई प्रभुत्व नहीं होता। वे खुद की संपूर्ण स्वतंत्रता में रहते है। 'ज्ञानी पुरुष' की प्रकृति सहज होती है क्योंकि उनमें अहंकार की दखल नहीं होती। और इसलिए आत्मा भी सहज होती है। 'ज्ञानी पुरुष' सहजात्म स्वरूप होते है, सहज भाव से निरीच्छक दशा में ही विचरते है । 'ज्ञानी पुरुष' को किसी चीज की इच्छा
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नहीं होती, इसलिए उनका निरंतरायपद होता है।
'ज्ञानी पुरुष' का व्यवहार आदर्श होता है। किसी को खुद के निमित्त से जरा सी भी अड़चन नहीं पहुँचाते। वे समजपूर्वक के सरल होते है। लोग उन्हें भोले समजते है, लेकिन वे जानबूझकर लोगों को 'छलने' देते है। उनको जीवन में किसी से संघर्ष हुआ ही नहीं। क्योंकि उनमें 'कॉमनसेन्स''टॉप मोस्ट' रहती है। कोमनसेन्स' से हित और अहित तुरंत दर्शन में आ जाता है और आत्महित एक पल भी बिगड़ने नहीं देते।
होता-बढ़ता प्रेम वह प्रेम नहीं किन्तु आसक्ति है। ज्ञानी पुरुष' की करुणा विश्व व्याप्त होती है, प्रत्येक जीव पर होती है। वे अनेकों के आधार होते है, किन्तु खुद किसी का आधार नहीं लेते। ___'ज्ञानी पुरुष' में अपार करुणा होती है, उनमें दया नहीं होती। क्योंकि दया वह अहंकारी गुण है, द्वन्द्व गुण है। दया है तो दूसरी तरफ निर्दयता भरी होती ही है, 'ज्ञानी पुरुष' द्वन्द्वातीत होते है। सब पर समान कारुण्यभाव। चूहे पर भी करुणा और उसे मारनेवाली बिल्ली पर भी उतनी ही करुणा।
'ज्ञानी पुरुष' को त्यागात्याग, त्याग या अत्याग करने का नहीं रहता, वे तो सहज भाव में रहते है। उदयाधीन उनका वर्तन होता है। राग-द्वेष से पर ऐसी वीतरागता उनकी विशेष लाक्षणिकता है।
'ज्ञानी पुरुष' तो संसार में रहते हुए भी वीतराग है। 'ज्ञानी पुरुष' की प्रत्येक क्रिया राग-द्वेष रहित होती है और अज्ञानी की राग-द्वेष सहित होती है, इतना ही फर्क होता है दोनों में!
'ज्ञानी पुरुष' किसी भी तरह से पहचाने नहीं जा सकते। मात्र उनकी वीतरागता से ही वे पहचाने जाते है। अक्रम ज्ञानी' वीतराग है लेकिन संपूर्ण वीतराग नहीं। वे 'खटपटवाले' वीतराग है। उनमें एक खटपट रह गई है कि किस तरह से सबको मोक्षसुख दूँ। दूसरे का आत्यंतिक कल्याण करने के लिए वे सभी खटपट कर लेते है। संपूर्ण वीतराग तो कोई उपर चढ़े तो उसके प्रति भी वीतराग और नीचे गीरे तो उनके प्रति भी वीतराग और 'अक्रम ज्ञानी' तो खटपटवाले वीतराग, वे तो नीचे गिरनेवाले को खटपट करके भी उपर उठा लेते है, वो ही अत्यंत करुणा है 'ज्ञानी पुरुष' की!
'ज्ञानी पुरुष' का प्रेम वह शुद्ध प्रेम है। ऐसा प्रेम वर्ल्ड में कहीं नहीं मिलता। जहाँ सांसारिक कोई स्वार्थ नहीं, केवल आत्मार्थ के लिए निरंतर करुणा बरसती है, वहाँ शुद्ध प्रेम-परमात्म प्रेम प्रगट होता है। ज्ञानी पुरुष' को कभी भी किसी के साथ मतभेद नहीं होता। हजारों भिन्न भिन्न प्रकृतियों से पाला पड़ने के बावजूद भी वे सभी के साथ बिना मतभेद, सबसे अभेदता से, प्रेम स्वरूप से रहते है। यह 'ज्ञानी पुरुष' का बड़ा अजायब गुण है। उनको गाली देनेवाले को भी वो उतने ही प्यार से संवारते है जितना फूल चढानेवाले को। उनका प्रेम तो फूल चढाये तो बढ़ता नहीं, और गाली दे तो कम होता नहीं, निरंतर अगुरू-लघु प्रेम रहता है। कम
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'ज्ञानी पुरुष' कोई 'स्टान्डर्ड' में नहीं, 'आउट ऑफ स्टान्डर्ड' पूर्ण दशा में है। इसलिए उन्हें माला फेरनी नहीं पडती, पुस्तक पढ़ने की जरूरत नहीं. जो 'फिफ्थ' या 'सिक्स्थ "स्टान्डर्ड' में है, वे माला फिराते है, पुस्तक पढ़ते है। ___'ज्ञानी पुरुष' को पहचानना बहुत मुश्किल है। उन्हें न तो गेरूए वस्त्र है, न सफेद 'बोर्ड'। उन्हें तो जिस लिबास में 'ज्ञान' प्रगट हुआ हो वही लिबास में रहते है। वह फिर धोती, कुर्ता ओर काली टोपी क्यों न हो! 'ज्ञानी पुरुष' को पहचान लिया तो चौदह लोक के नाथ की पहचान हो जाती है। क्योंकि चौदह लोक के नाथ उनमें प्रगट हो गये है। 'ज्ञानी पुरुष' घरसंसार में रहते हुए भी गृहस्थी नहीं होते। सच्चा मुमुक्षु तो 'ज्ञानी पुरुष' के नेत्र को देखते ही, आँखो में वीतरागता देखते ही उन्हें पहचान लेता है। यदि यह द्रष्टि नहीं खुली, तो उनकी वाणी से उनकी पहचान हो सकती है। 'ज्ञानी' की वाणी स्यावाद वाणी होती है। वह किसी भी नय का प्रमाण खंडित नहीं करती। शिव, वैष्णव, मुस्लिम, दिगंबरी, श्वेतांबरी, कोई भी पक्षवाले को 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी खुद की ही वाणी लगती है।
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'ज्ञानी पुरुष' के श्रीमुख से निकले हुए प्रत्येक शब्द, एक-एक शब्द नये शास्त्रों की रचना कर देते है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुरूप निकली हुई उनकी वाणी संपूर्ण निमित्ताधीन निकलती है, जिसके निमित्त से 'डिरेक्ट' निकली, उसके तो सर्व आवरण भेद हो जाते है, इतना ही नहीं, जो दूर बैठा सूनता है या पुस्तक द्वारा पढ़ता है, उसका भी काम हो जाता है। क्योंकि यह 'ज्ञानी पुरुष' आज प्रगट है, प्रत्यक्ष है, हाजिर है।
'ज्ञानी पुरुष' की वाणी को प्रत्यक्ष सरस्वती कही जाती है। क्योंकि उनके भीतर के प्रगट परमात्मा को स्पर्श करके यह वाणी निकलती है। जो श्रोता के सर्व आवरण को भेदकर डीरेक्ट आत्मा को स्पर्श करती है और ज्ञान प्रकाश प्रगट करती है। यह चैतन्य वाणी सूननेवालों के अनंत अवतार के पापों को भस्मीभूत करती है। यह वीतराग वाणी होती है और वीतराग वाणी ही मोक्ष में ले जाती है।
__'ज्ञानी पुरुष' की वाणी अपूर्व होती है, पूर्वानुपूर्वी की नहीं। उनके मुख से निकला हुआ सीधा-सादा घरेलु द्रष्टांत ऐसी द्रष्टि से देखकर बयान किया जाता है कि श्रोता का हृदय 'मेरे स्वानुभव की ही बात है' कह कर नाच उठता है। उनकी गहन से गहन बात बिलकुल सीधे-सादे, सबके अनुभव के द्रष्टांतो से मर्मस्थान को ही सुस्पष्ट करती है। वे सादी-सरल गांवठी भाषा में घरेलु बातों से लेकर तत्त्वज्ञान की गहन बातों का विस्फोट करते है। बड़े बड़े तत्त्वज्ञानी या पंडितों से लेकर भोली भाली अनपढ़ बुढ़िया भी गहन से गहन बात अति अति सरलता से समज जाती है। उनकी बात समझाने की शैली और उनके प्रत्येक द्रष्टांतादि मौलिक होते है।
'ज्ञानी पुरुष' की वाणी हित, मित, प्रिय और सत्य होती है। वे हमेशा सामनेवाले के आत्महित में ही बोलते है, खुद के लाभ की कभी द्रष्टि ही नहीं होती। 'ज्ञानी पुरुष' में अपनापन होता ही नहीं और इसलिए उनकी वाणी सामनेवाले के साथ के व्यवहार के अनुसार निकलती है। जैसा जिसका व्यवहार, वैसी वाणी का उदय। जिसे किसी के भी साथ राग-द्वेष नहीं, किसी भी प्रकार की कोई कामना नहीं, कोई इच्छा नहीं ऐसे वीतराग पुरुष की वाणी सामनेवाले के दर्द के अनुसार निकलती है।
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यदि वह पुण्यात्मा हो और रोग खत्म होने पर आया हो तो 'ज्ञानी पुरुष' के कठोर शब्द निकलकर उसके रोग को खत्म कर देते है। उनको किसी भी चीज की अपेक्षा नहीं, किसी से कोई 'घाट' नहीं, इसलिए वह नीडरता से सामनेवाले के आत्महित को लक्ष में ही रखकर स्पष्ट नग्न सत्य कह देते है, क्योंकि उनमें अपार करुणा होती है।
'ज्ञानी पुरुष' का एक वाक्य अगर सीधा भीतर में उतर गया तो वह मोक्ष में ले जाये ऐसा होता है। 'ज्ञानी पुरुष' तो सीधा मोक्षमार्ग ही बता देते है, फिर शास्त्रों को पढ़ने की जरुरत ही नहीं। 'ज्ञानी पुरुष' के शब्द में खुद की किंचित् ही बुद्धि चलाने में बहुत बड़ा धोखा है। और एक ही शब्द जैसा का वैसा ही पच गया तो वह शब्द ही उसे मोक्ष में ले जायेगा।
'ज्ञानी पुरुष' की वाणी सामनेवाले के पुण्य के आधीन नीकलती है। वे 'खुद' तो बोलते ही नहीं। वे तो सिर्फ 'देखते' है कि कैसी वाणी निकलती है और सामनेवाले का पुण्य कितना है। हरेक धर्म का, किसी भी प्रश्न का वे समाधान करा सकते है। 'ज्ञानी पुरुष' की 'टेपरेकर्ड' सारा दिन चलती है फिर भी भगवान ने उन्हें मुनि कहा। स्व-पर के आत्मार्थ सिवा अन्य कोई भी हेतु जिस वाणी में नहीं, वह वाणी सारा दिन बोली जाये तो भी वे मनि नहीं, महामनि है। इसे परमार्थ मौन कहते है। बाकी भीतर में क्लेश, मनदुःख और बाहर में मौन, उसे सच्चा मुनि कौन कहेगा?
_ 'ज्ञानी पुरुष' संयमी होते है। जब वाणी-वर्तन संयमित होता है, तब व्यवहार पूर्ण होता है। उनके वाणी, वर्तन और विनय मनोहर होते है। 'ज्ञानी पुरुष' की बात हमारा आत्मा ही कबुल कर लेती है। क्योंकि हमारे
अंदर वे ही बैठे हुए है, उनको कोई भेद नहीं होता, यदि हम जानबुझकर टेढ़ाई न करें तो!
_ 'ज्ञानी पुरुष' श्रद्धा की परम मूर्ति है याने उनको मात्र देखते ही श्रद्धा आ जाती है। उनके पास श्रद्धा रखनी नहीं पडती, स्वयं आ जाती है। ऐसी श्रद्धा की मूर्ति कोई काल में नहीं होती। आज है तो उनका अनुसंधान
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करके 'काम' निकाल लेना चाहिए।
'ज्ञानी पुरुष' तो आप्तपुरुष है याने मोक्षमार्ग में और संसार व्यवहार में पूर्ण तौर से विश्वासनीय, श्रद्धेय ! प्रगट पुरुष का ही माहात्म्य है, कि उनके दर्शन से ही आत्मशक्ति प्रगट होती है।
'ज्ञानी पुरुष' लघुतम - गुरुतम भाव में होते है। 'रिलेटिव' में लघुतम भाव में, 'रियल' में गुरुतम भाव में और 'स्वभाव से अभेद भाव में होते है।' जिसको मोक्ष चाहिए तो वहाँ गुरुतम भाव में और कोई गाली दे, मारे तो वहाँ लघुतम भाव में होते है।
प्रत्येक जीव का शिष्यपद ग्रहण करने की द्रष्टि जिसने पाई है, वही 'ज्ञानी' हो सकता है। 'ज्ञानी पुरुष' तो विश्व के सेवक और सेव्य, दोनों होते है । जगत की सेवा भी खुद लेते है और जगत को सेवा भी खुद देते है।
जब तक आत्मज्ञानी नहीं मिलते तब तक प्रभु के पास भक्ति माँगनी चाहिए और 'ज्ञानी पुरुष' मिले तो उनके पास मोक्ष माँगना। 'ज्ञानी पुरुष' को भक्ति की जरूरत ही नहीं, लेकिन उनका ज्ञान प्राप्त करने के लिए मुमुक्षु को 'ज्ञानी पुरुष' की भक्ति करना आवश्यक है। और 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो उनकी भक्ति नहीं होती बल्कि अपने ही आत्मा की भक्ति होती है। उनकी आरती, चरणविधि याने अपने आपकी ही आरती और चरणविधि होती है। 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो खुद को खुद के दर्शन करने
होते है। जहाँ चेतन प्रगट हुआ है, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' की भक्ति से चेतन प्रगट होता है, उनकी आराधना करना याने शुद्धात्मा की आराधना करने के बराबर है, परमात्मा की आराधना करने बराबर है और वही मोक्ष का कारण है। 'ज्ञानी पुरुष' की भक्ति में कीर्तन भक्ति करना, यह तो सर्वश्रेष्ठ भक्ति है।
'ज्ञानी पुरुष' अमूर्त भगवान के दर्शन कराते है, तत् पश्चात् मूर्ति के दर्शन की आवश्यकता नहीं रहती। अमूर्त की भजना से मोक्ष मिलता है और मूर्ति की भजना से संसार 'ज्ञानी पुरुष' मूर्तामूर्त है, मूर्त और अमूर्त दोनों स्वरुप से होते है, उनकी भजना से संसार में अभ्युदय और अध्यात्म
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में आनुषंगिक, दोनों फल मिलते है। संसार में विघ्न नहीं आते, शांति रहती है और मोक्षप्राप्ति भी होती है।
'ज्ञानी पुरुष' धर्म व्यवहार में भी संपूर्ण होते है। निरंतर अमूर्त में रहते है, अमूर्त के निरंतर दर्शन करते है, फिर भी मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वार, देरासर, माताजी के मंदिर में, शिव के मंदिर में आदि सभी जगह वे जाते है। ताकि लोंगो के लिए बाद में यह व्यवहार चालू रहे। अमूर्त के दर्शन अभी नहीं हुए और मूर्ति के दर्शन क्या करना, ऐसा तिरस्कार भाव लोगों में जाग न जाये, इसलिए वे मिसाल देते है।
'ज्ञानी पुरुष' का संग याने सत् का संग परम सत्संग, उसे परमहंस की सभा कहते है। जहाँ ज्ञान और अज्ञान का विभाजन किया जाता है वह परमहंस की सभा और जहाँ धर्म की बातें होती है, वह हंस की सभा है और जहाँ वाद-विवाद हो, किसी की सच्ची बात भी सुनने की तैयारी नहीं, वह कौओ की सभा है। 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो जो चीज चाहिए, वह मिल सकती है। मोक्ष माँगे तो मोक्ष भी मिल सकता है। क्योंकि वे मोक्षदाता पुरुष होते है। शास्त्रकारों ने इसलिए 'ज्ञानी पुरुष' को देहधारी परमात्मा कहा है। वहाँ संपूर्ण 'काम' निकल जायेगा।
'आत्मा' जानने जैसा है और उसे जानने के लिए 'ज्ञानी पुरुष' के पास ही आना पड़ेगा। शास्त्र का या पुस्तक का आत्मा नहीं चलेगा। पुस्तक में लाख ‘दिये' छपे हो लेकिन वे अंधेरे में प्रकाश देंगे? ! नहीं, प्रत्यक्ष दिया ही रोशनी देता है। 'ज्ञानी पुरुष' प्रत्यक्ष 'दिया' है, 'प्रत्यक्ष' से ही अपना 'दिया' प्रगट हो सकेगा।
समस्त विश्व के कल्याण के 'ज्ञानी पुरुष' निमित्त होते है, कर्ता नहीं । वो चाहे सो दे सकते है, क्योंकि उनमें किंचित् भी कर्ताभाव नहीं होता। जहाँ तक कर्ताभाव है, वहाँ तक पुद्गल का फल मिलता है, वहाँ आत्मा प्राप्त नहीं होता।
'ज्ञानी पुरुष' कर्तापद में नहीं होते, उन्हें उपाय करने का या न करने का अहंकार नहीं होता। सहज भाव से उनके उपाय हो जाते है, 'निरूपाय
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उपाय' उनका होता है, क्योंकि वे खुद 'उपेय भाव' में रहते है, इसलिए उन्हें उपाय करने का नहीं होता। और जब उपाय करने का शेष नहीं रहता, तब 'उपेय' प्राप्त होता है। 'ज्ञानी पुरुष' सकाम कर्म भी नहीं करते ओर निष्काम कर्म भी नहीं करते। दोनों में बंधन ही है। जहाँ कुछ भी करने का' भाव है, वहाँ बंधन ही है।
जगत जहाँ प्रवृत, ज्ञानी वहाँ निवृत। ज्ञानी जहाँ प्रवृत, जगत वहाँ निवृत। जगत की प्रवृति प्रकृति के आधीन है। 'डिस्चार्ज' में 'ज्ञानी पुरुष' हस्तक्षेप नहीं करते। 'डिस्चार्ज' में हस्तक्षेप करने से कर्म 'चार्ज' होते है। 'ज्ञानी पुरुष' के प्रत्येक कर्म दिव्य कर्म होते है। जो भीतर से निरंतर जागृत है, अपने प्रत्येक कर्म को क्षय करके आगे बढ़ चूके है, जो क्षायक स्थिति में है, उनके पास कोई बुद्धि चलानेवाला, उनके कर्म का दोष देखनेवाला मारा जायेगा। 'ज्ञानी पुरुष' तो एक पल भी परपरिणति में नहीं ठहरते। नाटक की तरह 'रोल' अदा करके आगे बढ जाते है। जो स्वयं अबुध है, वहाँ बुद्धि क्या चलाने की !
'ज्ञानी पुरुष' निर्विकल्प, संपूर्ण निर्मोही और निग्रंथ होते है। एक पल भी उनका उपयोग किसी में अटकता नहीं, निरंतर शुद्ध उपयोग ही रहता है। 'ज्ञानी पुरुष' में एक भी मनोग्रंथि नहीं होती। उनको खद का मन वश में रहता है।
'ज्ञानी पुरुष' विश्व में एकमेव मन के डॉक्टर होते है, वे मन के सारे रोग मिटा देते है। नया रोग नहीं होने देते, इतना ही नहीं, वह मन और आत्मा को भिन्न करा सकते है। तत् पश्चात् मन संपूर्ण काबु में रहने लगता है।
'ज्ञानी पुरुष' में बुद्धि का अंश भी नहीं होता, उनमें बुद्धि संपूर्ण प्रकाशमान हो चुकी होती है, लेकिन ज्ञान प्रकाश प्रगट होने से बुद्धि का प्रकाश एक कोने में ही पड़ा रहता है। सूर्य नारायण के आगमन से दिये के प्रकाश की कैसी हालत होती है?! आत्मानुभवी ज्ञानी पुरुष अबुध होते है, वे विश्व में अद्वितिय होते है। शास्त्रज्ञानी बुद्धि से पर नहीं होते। एक ओर अबुध दशा आती है तो दूसरी ओर सर्वज्ञ दशा आती है। मगर यह
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'कारण सर्वज्ञ' दशा है, 'कार्य सर्वज्ञ' दशा इस काल में इस क्षेत्र में नहीं हो सकती ऐसा शास्त्रप्रमाण है।
'ज्ञानी पुरुष' में बुद्धि ही नहीं, फिर भी जरा सी है। क्योंकि संपूर्ण ३६० डिग्री की बुद्धि खत्म हो जाती तो आज यह 'ए.एम.पटेल' भी 'महावीर' कहे जाते। लेकिन चार डिग्री बाकी है, इसलिए उतना अंतर रह गया।
__'ज्ञानी पुरुष' का चित्त निरंतर आत्मा में ही रहता है। जैसा फणीधर मुरली के सामने डोलता है, फिर एक पल भी व्यग्रता कैसे हो सकती है? और इस संसार की कोई भी चीज उनके चित्त को आकर्षित नहीं कर सकती, ऐसी महामुक्त दशा में 'ज्ञानी पुरुष' विचरते है।
'ज्ञानी पुरुष' अहंकार रहित होते है. विश्व में उनके सिवा अन्य कोई निअहंकारी नहीं हो सकता। 'ज्ञानी पुरुष' में अहंकार का अस्तित्व ही नहीं होता। इसलिए दुःख परिणाम का उन्हें वेदन नहीं होता।
यह बोल रहे है, वह कौन बोल रहा है? 'दादा भगवान'? 'ज्ञानी पुरुष'? नहीं। वह तो 'टेपरेकर्ड' बोल रही है। 'ओरिजिनल टेपरेकर्ड' वो ही वक्ता है, 'ज्ञानी पुरुष' तो उसके ज्ञाता-द्रष्टा है और सब लोग श्रोता है। 'ज्ञानी पुरुष' तो सिर्फ देख' रहे है कि यह 'टेपरेकर्ड' कैसी बजती है, उसमें कितनी गलतियाँ है। जीव मात्र बोलते है, वह 'टेपरेकर्ड' ही है, फर्क सिर्फ इतना है कि सब लोग अहंकार करते है कि मैं बोलता हूँ और 'ज्ञानी पुरुष' में अहंकार नहीं होता। इसलिए वे जैसा है वैसा स्पष्ट कह देते है कि यह 'टेपरेकर्ड' बोलती है।
केवलज्ञान में 'वे' चार डिग्री से नापास हुए है, वरना वे यहाँ सब लोगों के बीच नहीं होते, वे कबके मोक्ष में जा पहुँचे होते। यह तो नापास हुए तो कलिकाल में पुण्यात्माओं के उद्धार के लिए काम आ गये। चार डिग्री कम है, इसलिए स्थूल और सूक्ष्म दोष तो संपूर्ण नष्ट हो गये है. सिर्फ सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष उनमें रहे है, जो अन्य किसी को किंचित् अड़चन नहीं करते, वह तो उनके 'केवल ज्ञान' प्रगट होने में आवरण करता है, जिसे वे भली भांति जानते है। सर्व दोष जिनके क्षय हुए है ऐसी
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'ज्ञानी' की निर्दोष भूमिका को क्या कहना!!
'ज्ञानी पुरुष' को भी प्रतिक्रमण करने पड़ते है, लेकिन ये प्रतिक्रमण सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोषों के होते है। शद्ध उपयोग चूकने पर तुर्त वे प्रतिक्रमण कर लेते है। स्वयं निर्दोष होकर सारे विश्व को निर्दोष देखने की द्रष्टि पाकर 'ज्ञानी' सारे विश्व को निर्दोष देखते है। प्रत्येक जीव को व्यवहार से भी वे निर्दोष देखते है। निरंतर अकर्तापद में स्थित 'ज्ञानी' अन्यों को तत्त्वद्रष्टि से देखते है याने अन्यों को भी अकर्ता देखते है, फिर उन्हें कौन दोष करनेवाला दिखेगा?
अनंत अवतार से जिस पूर्ण पुरुषोत्तम को वे ढूँढते रहे, वह इस अवतार में उनके ही देह में प्रगट हो गये। अज्ञानी को जरा सी सत्ता मिली तो वह उन्मत हो जाता है। ज्ञानी पुरुष' को सारे ब्रह्मांड का साम्राज्य मिलने पर भी जरा भी उन्मत नहीं होते। इसीलिए श्रीमद् रामचंद्रजी ने 'ज्ञानी पुरुष' को देहधारी परमात्मा कहा है। दूसरे ओर किसी परमात्मा को ढूंढने जाने की जरूरत ही नहीं है। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' के बिना किसी का देहाध्यास नहीं जा सकता।
'ज्ञानी पुरुष' विज्ञान घन आत्मा में याने 'एब्सोल्युट' आत्मा में स्थित है। याने अंत में तो 'ज्ञानी पुरुष' भी साधन स्वरूप है। साध्य तो 'विज्ञान स्वरूप आत्मा' है।
'आत्मा' विज्ञान स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप नहीं। ज्ञान में करना पडता है, विज्ञान तो स्वयं क्रियाकारी है, विज्ञान सिद्धांतिक होता है, अविरोधाभास होता है। धर्म और विज्ञान में बड़ा अंतर होता है। धर्म से संसार के भौतिक सुख मिलते है, पुण्य बँधते है और विज्ञान से मोक्ष होता है। विज्ञान है वहाँ पुण्य नहीं, पाप नहीं, कर्मबंध भी नहीं. कर्मो की सिर्फ निर्जरा है. सँवर सहित। विज्ञान में कुछ छोडने का नहीं होता। विज्ञान में तो 'खुद' ही अलग हो जाने का है। खुद' अलग हो गया, उसका पझल सोल्व हो गया।
श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि 'ज्ञानी पुरुष' में वह सामर्थ्य है कि
दूसरों के सब पापों को एक साथ भस्मीभूत कर सकते है। क्योंकि जो कोई भी एक पल भी देह में नहीं रहते, मन में नहीं रहते, वाणी में नहीं रहते, वही पापों को नाश कर सकते है। इतना ही नहीं, बल्कि निजस्वरूप का ज्ञान प्रदान करते है और दिव्यचक्षु देते है, जिससे हर घट में आत्मदर्शन होता है, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' और एक घंटे में ही इतनी बड़ी प्राप्ति करानेवाले अक्रम मार्ग के 'ज्ञानी' तो 'न भूतो न भविष्यति' है।
'ज्ञानी पुरुष' के पास से आत्मा की अनुभूति हो जाने के बाद आत्मा निरंतर लक्ष में रहता है। मन-वचन-काया की सारी क्रियाएँ होती रहती है किन्तु उसमें 'खद' कर्ता नहीं है. इतना ही नहीं, कौन इसका कर्ता है, उसकी स्पष्ट जागृति रहती है। फिर चिंता कभी नहीं होती, संसारी दुखों का अभाव रहता है।
क्रोडों जन्मों का पुण्य प्रकट होता है, तब 'ज्ञानी पुरुष' के दर्शन होते है और सिर्फ दर्शन से तृप्त न होते 'ज्ञानी पुरुष' ने जो 'वस्तु' पाई है, वह 'वस्तु' 'खुद' को भी प्राप्त हो जाये, वह दर्शन में आ जाये तो फिर जनम-जनम के फेरे का अंत आता है। 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तथा आत्म जागति प्रकट हो जाती है। तत् पश्चात् खुद के सारे दोष देख सकते है और जो दोष देखे कि वे सब अवश्य क्षय होते है।
'अक्रम ज्ञान' प्राप्त करने के बाद आर्तध्यान-रौद्रध्यान बिलकुल नहीं होते। आर्तध्यान-रौद्रध्यान तब ही हो जाते है, जब निज स्वरूप का ज्ञान-भान नहीं होता। निज स्वरूप की जागृति रहने से आर्तध्यान-रौद्रध्यान नहीं होते, निरंतर अंदर शुक्लध्यान और बाहर व्यवहार में धर्मध्यान रहता है। शुक्लध्यान ही प्रत्यक्ष मोक्ष का कारण है। जहाँ तक अपनी आत्मा का स्पष्ट अनुभव नहीं होता, वहाँ तक 'ज्ञानी पुरुष' ही अपनी आत्मा है। 'अक्रम मार्ग' पूरा समज लेने की जरूर है, क्योंकि यह विज्ञान है, उसे
वैज्ञानिक ढब से समज लेना जरूरी है। 'ज्ञानी' के सान्निध्य में उनको पूछ पूछकर 'समज' पूरी तरह 'फीट' कर लेनी चाहिए।
'ज्ञानी पुरुष' के पास 'करने' का कुछ नहीं होता, बात को सिर्फ
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समजने की ही है। वस्तु को यथार्थ समजने से सम्यक् दर्शन होता है और यथार्थ जानने से सम्यक् ज्ञान होता है। जो जान गया और समज गया, उससे सम्यक् चारित्र होता है।
__ भगवान ने कहा है कि मोक्ष प्राप्त करने के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं है, उसके लिए तो 'ज्ञानी पुरुष' के पीछे पीछे चले जाना। उनका साथ कभी नहीं छोडना।
मोक्ष याने मुक्त भाव, सच्ची आझादी। कोई उपरी नहीं, कोई 'अंडरहेन्ड' भी नहीं ऐसा मोक्ष संसार में रहते हुए भी प्राप्त करके संपूज्य श्री 'दादाजी' गृहस्थीयों के लिए एक मिसाल बन चुके है ताकि गृहस्थीयों को भी हिंमत रहे कि हम भी मोक्ष पा सकते है। और मोक्ष के लिए संसार त्याग की जरूरत नहीं, मगर अज्ञान दूर हो गया तो संसार में मोक्ष सहज प्राप्त हो जाता है। मोक्ष सुलभ है किन्तु मोक्षदाता अति अति दुर्लभ है, क्योंकि मोक्षदाता ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' वर्ल्ड में कभी ही प्रगट होते है। यदि ऐसे पुरुष मिल जाये तो उनके चरणों में सर्व भाव अर्पण करके उनके पीछे पीछे चले जाना ही हितकारी है। 'ज्ञानी पुरुष' के सिवा दुनिया में दसरी कोई भी चीज हितकारी नहीं होती। उनके पास माया सदा के लिए बिदा लेती है। संसार की मायाजाल से सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' ही छूड़ा सकते है। जो खुद मुक्त है, वही दूसरों को बंधन से छूड़ा सकते है। खुद बंधन में फंसा है, वह दूसरों को कैसे छुड़ा सकेगा?
जिसे सिर्फ मोक्ष की ही एकमेव कामना है, उसे तो किसी न किसी तरह मोक्ष मिले बिना नहीं रहता। अरे, 'ज्ञानी पुरुष' खुद उसके घर जाकर उसके हाथ में मोक्ष देते है। इतना प्रभाव अपनी मोक्ष की तीव्र कामना में है।
करके तो अनंत अवतार गये, कुछ फल नहीं आया। आपकी शरणागति स्विकार की है, आप हमे बंधन से मुक्ति दो।
ज्ञानी मिले बिना किसी का मोक्ष होना संभवित नहीं है, प्रगट दिये से ही दूसरा दिया जलता है। 'ज्ञानी पुरुष' अहंकार-ममता को छूडाते है
और शुद्धात्मा को ग्रहण कराते है। उनके चरणों में अहंकार पिधलाने का सामर्थ्य होता है।
__ 'ज्ञानी पुरुष' स्वयं शुद्ध होते है, इसलिए उनको देखते ही शुद्ध हो जाते है। नहीं तो 'ज्ञानी पुरुष' बिना 'खुद' का 'स्वरूप' मिले ऐसा नहीं है। अरे. अनंत अवतार जाये तो भी न मिले ऐसा है और 'ज्ञानी पुरुष' मिलते ही मिल जाये ऐसा है।
निज स्वरूप की भ्रांति कोई भी उपाय से जाती नहीं। वह तो 'ज्ञानी पुरुष' ही भ्रांति दूर कर सकते है। इसलिए श्रीमद राजचंद्रजी ने कहा कि प्रत्यक्ष 'ज्ञानी पुरुष' की खोज करो, सजीवन मूर्ति की खोज करो। जो स्वयं मुक्त हुए है, ऐसे मुक्त पुरुष की खोज करना। 'ज्ञानी पुरुष' तरण तारणहार होते है, वे खुद तो तैर गये किन्तु अनेकों को तारने का सामर्थ्य उनमें होता है, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' मिले तो उनके कदमों के पीछे पीछे निर्भय-निःशंक होकर चले जाना। ज्ञान 'ज्ञानी पुरुष' के हृदय में ही होता है और कहीं नहीं! 'ज्ञानी पुरुष' के पास ज्ञानप्राप्ति हो तो ही काम बनेगा।
और 'ज्ञानी' का आश्रित ही स्वच्छंद नाम का संसार रोग निर्मूल कर सकता है। 'ज्ञानी पुरुष' के आश्रय बिना, उनकी आज्ञानुसार चले बिना, जो कुछ भी किया, तप-त्याग, क्रिया या शास्त्र पठन किया, वह सब स्वच्छंद है और स्वच्छंद से की गई तमाम क्रिया बंधन में डालती है।
लौकिक में शास्त्र के ज्ञानी को 'ज्ञानी' कहते है, असल में तो 'ज्ञानी' वही होता है कि जो आत्मज्ञानी हो। वे ज्ञानावतार होते है और ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' कभी गुप्त नहीं रहते। वे तो आम लोगों के बीच में ही पर्यटन करते रहते है। खुद को जो ज्ञान प्रगट हुआ है, खुद ने जिस सुख को पाया है, वही ज्ञान, वही सुख दूसरों को लूटाते फिरते है। पूर्ण
'ज्ञानी पुरुष' मिलने के बाद कुछ भी महेनत करनी नहीं पड़ती। महेनत का फल संसार है, मोक्ष नहीं। यदि 'ज्ञानी' के मिलने के बाद कछ महेनत करनी पडे तो 'ज्ञानी' ही नहीं मिले!! 'ज्ञानी' मिलने पर तो ज्ञानी को कहना कि आपके मिलने के बाद अब महेनत क्या करनी? महेनत
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दशा में पहुँचे हुए 'ज्ञानी' पब्लिक में लोक कल्याण करते हुए विचरते है।
संपूज्य दादाश्री कहते है कि, हमारी यही भावना है कि यह 'अक्रम विज्ञान' विश्व में फैलना चाहिए। अक्रम विज्ञान का लाभ लोगों को अवश्य मिलना चाहिए। जगत का कल्याण होना ही चाहिए। जगत में परम शांति प्रसरो।
संसार में अभिवृद्धि, सच्चा मार्ग बतलाने के लिए गुरु करना आवश्यक है। गुरु सांसारिक सर्व धर्म सिखाते है लेकिन संसार से वे मुक्ति नहीं दिलवा पाते। संसार से मुक्ति तो सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' ही दे सकते है। गुरु संसार व्यवहारपक्षी होते है और 'ज्ञानी पुरुष' आत्मपक्षी होते है, व्यवहार में गुरु और निश्चय में 'ज्ञानी' ! 'ज्ञानी' मिलने पर भी पहले के व्यवहार के गुरु पर अभाव नहीं करना और उनका उपकार मानना। ____ मंझिल पाने के लिए मार्ग में भटकते हुए पथिक को तो किसी को रास्ता पूछना ही पड़ता है, किसी को गुरु बनाना ही पड़ता है। अरे, स्टेशन का रास्ता नहीं मालम उसे किसी को रास्ता पछना ही पड़ता है। तो फिर यह तो मोक्ष की गली, छोटी सी, भूलभूलावेवाली। इस मोक्षपथ पर तो 'ज्ञानी पुरुष' ढूँढकर उनके पीछे पीछे चले जाना। 'ज्ञानी पुरुष' मोक्ष देने के 'लायसन्सदार' होते है, अपनी तैयारी चाहिए। 'ज्ञानी पुरुष' के पास सिर्फ दो चीजों की आवश्यकता है; 'परम विनय' और 'मैं कुछ नहीं जानता हूँ' ऐसा भाव। सच्चा जाना तो उसे कहा जाता है कि जिसके पश्चात् ठोकर नहीं लगती। यदि ठोकर लगती है, चिंता, कलेश, अशांति रहती है, तो फिर उसे 'मैं कुछ जानता हूँ' किस तरह से कहा जाये?! ____ 'यह' तो विश्व की अध्यात्म में नगद बैंक है। एक घंटे में ही 'डीवाईन सोल्युशन' मिल जाता है। नहीं तो उधार कहाँ तक चलेगा? अनंत अवतार से उधारी बैंक में ही हप्ते भरे है, नगद मिले तो काम बने!
विश्व के लोग 'थियरी ऑफ रिलेटिविटी' में है। जिन्हें 'रियल' और 'रिलेटिव' का भेदभाव प्राप्त हो चूका है, वे 'महात्मा' 'थियरी ऑफ रियालिटी' में है और 'ज्ञानी' स्वयं 'थियरी ऑफ एब्सोल्युटिझम' में है।
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'थियरी' ही नहीं बल्कि वे तो 'एब्सोल्युटिझम के थियरम' में होते है। जर्मनीवाले हमारे भारतीय शास्त्रों को 'एब्सोल्युटिझम' की खोज करने के लिए ले गये है। आज 'ज्ञानी पुरुष' खुद 'एब्सोल्युट' प्रगट हुए है। सारे विश्व के लोगों की खोज का अंत उनके पास ही होता है।
'ज्ञानी पुरुष' 'थियरी ऑफ रिलेटिविटी' में से 'थियरी ऑफ रियालिटी' में ला सकते है। उसके बाद ही 'रियल' धर्म, आत्मधर्म कास्वधर्म का पालन होता है। जब तक आत्मा का एक भी गुण नहीं जाना, तब तक आत्मधर्म कैसे पाला जाता? तब तक सभी परधर्म में ही है।
ज्ञान को ज्ञान में और अज्ञान को अज्ञान में बिठाना, उसका नाम यथार्थ दिक्षा। ऐसी दिक्षा, 'ज्ञानी पुरुष' के अलावा कौन दे सकता है? जगत का स्वभाव अज्ञान प्रदान करना है और 'ज्ञानी पुरुष' का स्वभाव ज्ञान प्रदान करना है। अज्ञान भी निमित्त से ही मिलता है और ज्ञान भी निमित्त से ही मिलता है। 'ज्ञानी पुरुष' जब आत्मज्ञान प्रदान करते है, तब आत्मा-अनात्मा के सारे गुणधर्म को स्पष्ट करके उन दोनों के बीच 'लाईन ऑफ डिमार्केशन' डाल देते है। उसके बाद आत्मधारा, अनात्मधारा निरंतर अलग अलग ही रहती है।
संसार को जड़मूल से निर्मूल करने बहुत विरल पुरुष अनंत अवतार से प्रयास कर रहे है। कोई इस वृक्ष के पत्तों को काटा करते है, तो कोई उसकी डालियों को, कोई उसके मुख्य थड़ को काटकर रखते है। फिर भी वह वृक्ष निर्मूल नहीं होता। 'ज्ञानी पुरुष' संसारवृक्ष के मुख्य मूल (मेईन रूट) को भली तरह से पहचानते है। इसलिए वह उसमें ही दवाई रख देते है, जिससे पेड़ के कोई भी हिस्से को हिलाये बिना खुद बखुद पेड़ खत्म हो जाता है। यह 'अक्रम विज्ञान' की बहत बडी देन है. नहीं तो एक घंटे में मोक्ष, एकावतारी पद कैसे प्राप्त हो सकता है?!!
संसार के तमाम धर्मशास्त्रों को पढकर १०० % (शत प्रतिशत) धर्म घारण करने के बाद धर्म का मर्म निकलना शुरु हो जाता है। १०० % मर्म समज में आने के बाद ज्ञानार्क निकलने की शुरुआत होती है। अक्रम
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मार्ग' के 'ज्ञानी पुरुष' एक घंटे में ज्ञानार्क पीला देते है।
मोक्ष में जाने के लिए दो मार्ग है - एक क्रमिक, दूसरा अक्रमिक ! क्रमिक यह आम रास्ता है, हमेशा का मार्ग है। उसमें साधक को 'स्टेप बाय स्टेप' आगे बढ़ने का रहता है। कोई सच्चा साथी मिल गया तो पांचसो 'स्टेप' चढ़ा देता है और कुसंग मिल गया तो पांच हजार 'स्टेप्स' उतार देता है। इसलिए इस मार्ग का भरोसा नहीं है। फिर भी आमतौर पर यही मार्ग हमेशा होता है। अक्रम मार्ग तो कभी ही होता है, जो अपवाद मार्ग है। इसमें स्टेप्स नहीं चढ़ना है, 'लिफ्ट' में सीधा ही, बिना श्रम से उपर चढना है। सिर्फ 'ज्ञानी' की आज्ञा के अनसार 'लिफ्ट' में बैठना है। 'जानी पुरुष' एक घंटे में आत्मज्ञान कराते है और साथ में तमाम धर्मो के निचोड़ स्वरुप पांच आज्ञाएं देते है, जो जीवन व्यवहार को आदर्श बनाकर, आत्मा में निरंतर रहने में सहायभूत और रक्षक होती है।
क्रमिक मार्ग में तो क्रोध-मान-माया-लोभ, परिग्रह आदि का धीरे धीरे त्याग करते करते अंत में अहंकार संपूर्ण शुद्ध हो जाता है याने कि अहंकार में एक भी परमाणु क्रोध का, मान का, माया का या लोभ का नहीं रहता, तब संपूर्ण शुद्ध अहंकार बनता है। वो शुद्ध अहंकार शुद्धात्मा से अभेद हो जाता है और अक्रम मार्ग में 'ज्ञानी' कृपा से पहले अहंकार शुद्ध हो जाता है और खुद शुद्धात्मा पद में आ जाता है। फिर डिस्चार्ज क्रोध-मान-माया-लोभ रह जाते है, उनके उदय में 'शुद्धात्मा' तन्मयाकार नहीं होता। इसलिए वे स्वभाव से 'डिस्चार्ज' होकर खत्म हो जाते है। 'खुद' शुद्धात्मा हो गया, इसलिए नये कर्म नहीं चार्ज होते। नया कर्म तो तब ही 'चार्ज' होता है कि जब मन की अवस्था में 'खुद' 'अवस्थित' हो जाता है, उसका 'रिझल्ट' 'व्यवस्थित' आता है। 'ज्ञानी पुरुष' अहंकार को शुद्ध कर देते है, सूक्ष्म क्रियाओं में भी बाद में 'खुद' अलग रहते है, उससे कर्तापद उत्पन्न ही नहीं होता और कर्म'चार्ज' नहीं होता। खुद निरंतर अकर्ता भाव में रहते है, उतना ही नहीं, 'व्यवस्थित' किस तरह से कर्ता है, उसका संपूर्ण दर्शन रहता है। कर्तापद छूट गया, तो कर्म नहीं बँधता। क्रमिक मार्ग का 'बेझमेन्ट' आज सड़ गया है। इस वजह से क्रमिक
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मार्ग 'फ्रेक्चर' हो गया है। इसलिए अक्रम मार्ग का भव्य उदय कुदरती तौर से हआ है। क्रमिक मार्ग का 'बेझमेन्ट' क्या है? मन-वचन-काया का एकात्मयोग होना याने मन में जो है, वही वाणी से बोलता है और वही वर्तन में आता है। आज तो मन में एक, वाणी में दूसरा और वर्तन में तृतीयम ही होता है। इसलिए क्रमिक मार्ग चल नहीं सकता। अक्रम मार्ग में तो मन-वचन-काया को साईड पर रखकर निज स्वरूप का निरंतर लक्ष बैठ जाता है। फिर तो जैसा उदय आता है, उसका समभाव से निकाल कर देने का रहता है।
जीवन व्यवहार के रोजबरोज के ज्ञान की उतनी ही स्पष्टता की है, जितनी आत्मा-परमात्मा की ! उनके पास केवल आत्मा-परमात्मा की ही बातें नहीं है, रोजबरोज अनुभव में आती हुई संसार व्यवहार की ज्ञानमय द्रष्टि की बातें भी है। इस व्यवहार से ऐसे बाहर से भागकर तो नहीं छूट सकते। किन्तु व्यवहार में संपूर्ण नाटक की तरह सुंदर अभिनय अदा करते करते व्यवहार पूरा करना है। नाटक में राजा भर्तृहरि का अभिनय करता है, वह नट, लक्ष्मीचंद अलग और भर्तृहरि का अभिनय अलग, ऐसे रखता है। उसी तरह पति का, शेठ का, पिता का अभिनय करनेवाला अलग
और स्वयं शुद्धात्मा अलग, यह भेदरेखा को कायम हाजिर रखकर इस जीवन नाटक के सामने आयी हुई हर अदाकारी पूर्ण वफादारी से अदा करने की प्रतिक्षण जागृति अक्रम विज्ञान द्वारा 'ज्ञानी पुरुष' प्रदान करते है। अर्थात् 'ज्ञानी पुरुष' सिर्फ आत्मज्ञान ही नहीं देते, बल्कि संसार व्यवहार का निकाल करने के लिए व्यवहार ज्ञान भी सर्वोच्च प्रकार का देते है। उनकी पांच आज्ञाएं व्यवहार को संपूर्ण शुद्ध बना देती है।
दादाश्री वही द्रढ़ता से हमेशा कहते है कि मुझे मिलने के बाद अगर तुम्हे मोक्ष अनुभव में न आये तो तुम्हें 'ज्ञानी' मीले ही नहीं। यही पर, सदेह मोक्ष वर्तना में आना चाहिए।
पक्ष और मोक्ष दोनों विरोधाभास है, 'ज्ञानी पुरुष' निष्पक्षपाती होते है। उनकी द्रष्टि में सभी अपनी अपनी जगह पर 'करेक्ट' ही दिखते है। जीवमात्र के साथ अभेद रहते है। ज्ञानी पुरुष' सेन्टर में बैठे हुए है, इसलिए
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उन्हें कोई व्यक्ति से, कोई धर्म से, कोई व्यु पोईन्ट' से मतभेद नहीं होता।
विनाशी वस्तुओं में सनातन सुख की शोध के लिए यह द्रष्टि अनंत अवतार से भटकती है। इस मिथ्यात्व द्रष्टि को लोकद्रष्टि और भी अवगाढत्व देती है। लोकद्रष्टि तो दक्षिण को उत्तर मानकर चलाती है। एक बार 'ज्ञानी' की द्रष्टि से द्रष्टि मिल जाये, एक हो जाये तो निज स्वरूप द्रष्टि में आ जाता है। निज स्वरूप में ही सनातन सुख है, जिसका एक बार अनुभव हो जाता है फिर वह कभी नहीं जाता। फिर द्रष्टि की विनाशी वस्तुओं में सुख की खोज पूरी हो जाती है और अविनाशी आत्मतत्त्व का, स्वाभाविक सुख का वेदन निरंतर रहता है।
सक्कर मीठी होती है। ऐसी मीठी होती है, शहद से भी अच्छी, गुड़ से भी उमदा, ऐसा वर्णन हम सुनते है किन्तु कोई सक्कर मूंह में डालकर उसके स्वाद का स्वयं अनुभव नहीं कराता। 'ज्ञानी पुरुष' ही ऐसे है जो तुर्त ही मुंह में सक्कर रखकर अनुभव कराते है। आत्मा ऐसी है, वैसी है, ऐसी बातों से कुछ नहीं बनता, वह तो 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से उसकी अनुभूति हो, तब छूटकारा होता है, अन्यथा नहीं।
तमाम शास्त्र नयी द्रष्टि दे सकते है किन्तु द्रष्टि कोई नहीं बदल सकता। द्रष्टि बदलना तो 'ज्ञानी पुरुष' के सिवा नामुमकिन है। अवस्था द्रष्टि को मिटाकर आत्मद्रष्टि कराना, यह केवल 'ज्ञानी पुरुष' का काम है। जिसकी आत्मद्रष्टि हुई है, जो अन्यों को आत्मद्रष्टि करा सकते है। खुद मिथ्या द्रष्टिवाला है, वह दूसरों की मिथ्याद्रष्टि कैसे तोड सकता है?
आत्मा निरालंब वस्तु है, किन्तु उसे पाने के लिए 'ज्ञानी पुरुष' का आलंबन लेना पडता है, क्योंकि आत्मप्राप्ति का 'ज्ञानी पुरुष' अंतिम साधन है। 'अक्रम ज्ञानी' ने जो आत्मा देखी है, अनुभव की है, वह आत्मा कुछ
और है, कल्पनातित है। इसलिए तो वे, जो लाखों जन्मों में नहीं बदली जाती वह द्रष्टि एक घंटे में बदल देते है। एक घंटे में देह और आत्मा को भिन्न अनुभव करानेवाले ज्ञानी की अपूर्व, अजोड़, अद्भूत सिद्धि के प्रति सानंदाश्चर्य अवक्तव्य, भावसभर उद्गार के सिवा अन्य क्या हो सकता है!!
एक बार तो एतबार ही नहीं आता किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' के प्रत्यक्ष योग की युति करके, सर्व भाव चरणों मे समर्पित करके, परम विनय से, आत्मा प्राप्त जो कर लेता है, उसकी तो दुनिया ही बदल जाती है। संसार के सारे दु:खो से मुक्ति मिलती है। संसार की आधि, व्याधि और उपाधि में निरंतर समाधि, सहज समाधि रहती है। वाचक को इस बात पर एतबार नहीं आये ऐसी ही यह बात है, किन्तु यह अनुभवपूर्ण हकीक़त है। आज वीस हजार पुण्यात्माओं ने ऐसी प्राप्ति की है और भीतर में निरंतर आत्मसुख में रहते है और बाहर जीवन व्यवहार में, घर में, इस घोर कलियुग में भी सत्युग जैसा, स्वर्ग जैसा सुख पा रहे है। बलिहारी तो उस ज्ञान की है, जो इस काल में धूपकाल के रण में मध्याहन् समय में विशाल वटवृक्ष के समान होकर अपनी शीतल छाँव में तप्तजनों को भीतरी-बाहरी शीतलता प्रदान करता है।
निरंतर आत्मा में ही जिनका वास है, जो केवल मोक्ष स्वरूप हो गये है। जिनका मन-वचन-काया का मालिकी भाव संपूर्ण खत्म हो चूका है, अहंकार-ममता संपूर्ण विलय हो गये है ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' आज कलिकाल में सच्चे मुमुक्षुओं के लिए ही प्रगट हुए है।
हर रोज अलौकिकता के दर्शन नये नये रुप से बरसों से होते रहते है। असीम को कलम से कैसे सिमित किया जाये? फिर भी 'ज्ञानी पुरुष' का अल्प परिचय कागज-कलम की मर्यादा में रहकर दिया है। संपूर्ण अनुभव तो उनके प्रत्यक्ष योग से ही उपलब्ध होता है।
संपूज्य 'दादाश्री' गुजराती भाषी है किन्तु हिन्दी भाषीओं के साथ कभी कभी हिन्दी में बोल लेते थे। उनकी हिन्दी 'प्योर' हिन्दी नहीं है. फिर भी सुननेवाले को उनका अंतर आशय 'एक्झेट' पहुँच जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, हदयभेदी होने के कारण जैसी निकली वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है ताकि सुज्ञ वाचक को उनके 'डिरेक्ट' शब्द पहुंचे। उनकी हिन्दी याने गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढ़ने में बहुत मीठी लगती है, नेचरल लगती है, जीवंत लगती है। जो शब्द है, वह भाषाकीय द्रष्टि से सीधे-सादे है किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' का
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अनुक्रमणिका
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दर्शन निरावरण है। इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यु पोईन्ट को एक्जेक्ट समजकर निकलने के कारण श्रोता के दर्शन को सुस्पष्ट खोल देते है और ओर ऊंचाई पर ले जाते है।
ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' का दर्शन, ज्ञान, चारित्र, उनकी अनुभव दशा, उनका 'ओब्झर्वेशन' आदि वाणी से ही प्रगट होता है, वह वाणी प्रस्तुत ग्रंथ में प्रकाशित की गई है, जो 'ज्ञानी' की पहचान करा देती है, इतना ही नहीं, सुज्ञ वाचक को नयी द्रष्टि, नयी राह मोक्षपथ काटने को देती है।
ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' लाखों लोगों के पुण्योदय से भारत भूमि पर, गुजरात की चरोतर भूमि में भादरण गाँव में प्रगट हुए, जो इस विश्व में किस तरह शांति हो, किस तरह लोग आत्मज्ञान पाकर संसार के चक्कर से छूटे, यह भावना को साकार करने के लिए दिन-रात जूटे हुए रहते थे। उनकी वाणी ही एकमेव ऐसा साधन है कि जो उनके भीतर में प्राप्त हो ज्ञान को आम जन तक पहुँचा सके। बरसों से सुबह साढ़े छह बजे से रात को साड़े ग्यारह बजे तक वे अविरत आत्मा-परमात्मा तथा संसार की उलझनों का सुझाव लोगों को अपनी वाणी से देते रहते थे। उस वाणी को प्रस्तत ग्रंथ में संकलित किया गया है। हृदयपूर्वक की भावना है कि जो भी कोई मुमुक्षु, जिज्ञासु या विचारक उसका सम्यक् प्रकार से अध्ययन करेगा, उसे अवश्य सम्यक् मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं।
'ज्ञानी पुरुष' की वाणी सरल होती है, अहंकार के बिना, प्रगट परमात्मा को 'डिरेक्ट' स्पर्श करके निकली हुई यह साक्षात् सरस्वती है, यह वाणी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और निमित्त के आधीन निकलती है। प्रस्तुत ग्रंथ में संकलित की हुई इस वाणी में सुज्ञ वाचक को यदि कहीं कभी गलती लगे तो वह क्षति 'ज्ञानी' की वाणी में नहीं, बल्कि संकलन की है, जिसके लिए हृदय से क्षमा प्रार्थना !
- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
१. व्यवहार में, वास्तव में-वाणीका वक्ता कौन ? २. 'ज्ञानी पुरुष' कौन ? 'दादा भगवान' कौन ? ३. बिना अनुभूति, बातें क्या? ४. गुरु और ज्ञानी! ५. खुली आंख से 'जागृत' कौन ? ६. मोक्षमार्ग में - गुरु या ज्ञानी? ७. प्रभु को पहचाना? ८. ज्ञानी बिना द्रष्टिभेद कौन कराये? ९. 'ज्ञानी पुरुष' किसे कहा जाय? १०. भगवान - प्रेम स्वरूप या आनंद स्वरूप? ११. विवेक, विनय, परम विनय! १२. प्रत्यक्ष भक्ति - किस पुरूष की? १३. अंत में वेद क्या कहते है? १४. आत्मप्राप्ति - शास्त्र से या 'ज्ञानी' से? १५. ये चमत्कार या यशनाम कर्म? १६. 'ज्ञानी', ' कारण' सर्वज्ञ! १७. Real में, Relative में - ज्ञानी की ज्ञानदशा ! १८. ज्ञानी कृपा - द्रष्टि का फल! १९. 'ज्ञानी पुरुष' की पहचान ज्ञानी द्वारा
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान व्यवहार में, वास्तव में - वाणी का वक्ता कौन? दादाश्री : 'दादा भगवान' को कभी देखा था आपने? प्रश्नकर्ता : आज ही देख रहा हूँ भगवत् कृपा से, आपके आशीर्वाद
क्या भूल है, किधर भूल है, किधर नहीं, किसी को नुकसान करे ऐसी वाणी है, तो ऐसी नहीं होनी चाहिये, वो सब देखते है।
आपके अंदर भी ओरिजिनल टेपरेकर्ड है, मगर आपको ईगोइजम (अहंकार) है, कि हमने बोला। ओहोहो, बोलनेवाला आया! आप ईगोइजम से बोलते है कि हमने बोला मगर वो अंदर ओरिजिनल टेपरेकर्ड है, वो बोलता है। सब लोग बोलते है कि 'हमने बोला।' लेकिन आदमी के अंदर भी रेकर्ड बोलता है, कुत्ते में भी रेकर्ड बोलता है, गधे में भी रेकर्ड बोलता है, सभी रेकर्ड ही है। वकील भी बोलता है, 'हमने बोला, हमने ऐसा प्लीडींग किया।' तो आप बोलेगा कि 'भाई, आज आपने गलती क्यों किया?' तो बोलेगा कि 'आज मेरे से भूल हो गई।' आप बोलनेवाले हो तो फिर गलती नहीं होनी चाहिये। कितनी दफे ऐसा भी बोलते है न, कि 'हमारे को ऐसा नहीं बोलने का था मगर बोल दिया।' तो ये सिर्फ रेकर्ड ही है।
से।
दादाश्री : ये 'दादा भगवान' नहीं है। ये तो A. M. Patel है। ये शरीर तो भगवान होता ही नहीं है। अंदर भीतर में चैतन्य है, वो ही भगवान है। वो 'दादा भगवान' है, चौदह लोक के नाथ है। ये आपके साथ कौन बात कर रहा है?
प्रश्नकर्ता : भीतर में आत्मा है, वो बात करती है।
दादाश्री : नहीं, जो आपके साथ बात करती है, वो ओरिजिनल टेपरेकर्ड है। इसके आगे ओरिजिनल टेपरेकर्ड नहीं है। उससे कितनी भी टेपरेकर्ड निकल सकती है। तो ये जो बात करती है, वह ओरिजिनल टेपरेकर्ड है। वो ही बोलती है। वो 'मैं' नहीं बोलता हूँ, 'दादा भगवान' भी नहीं बोलते है। 'दादा भगवान' बोले तो, वो भगवान ही नहीं है। भगवान तो भगवान ही है। जो 'दादा भगवान' है न, वो तो ओरिजिनल टेपरेकर्ड क्या बोलती है, सच्ची बात है कि झूठी है, वह तुरंत समज जाते है। ये वाणी आप सुनते है तो आप श्रोता है. ये टेपरेकर्ड वक्ता है और हम ये वाणी को देखते है, ज्ञाता-द्रष्टा रहते है। हम सुपरवीझन करते है कि इसमें
कोर्ड टेपरेकर्ड बोले कि 'रविन्द्र अच्छा नहीं', तो क्या आपको बुरा मानने का? टेपरेकर्ड बोलती है, इसमें हमें क्या? हमें ये भ्रांति है कि ये आदमी हमको बोलता है। मगर ये तो आदमी नहीं बोलता है, टेपरेकर्ड बोलती है। ये नहीं समझने से ही सब झगड़े है। कोई आदमी बोलता ही नहीं है। मगर ये जानता है कि हम बोलते है, तो फिर उसका पश्चाताप भी होता है कि हम ऐसा क्यों बोल गये? और ये तो टेपरेकर्ड बोलती है, तो आपको बुरा नहीं लगाने का, बात समझ जाने की है।
प्रश्नकर्ता : ये ओरिजिनल टेपरेकर्ड झूठ क्यों बोलती है?
दादाश्री : वो तो जैसी पहले टेप हो गयी है ऐसी नीकलती है। उसमें चेतन(आत्मा) दुसरा कुछ नहीं कर सकता है। आपका भाव कैसा होता है, कि जूठ बोलना चाहिये तो 'टेप' जठी निकलेगी। सच्चा ही बोलना चाहिये तो टेप सच्ची निकलेगी। आप खाली भाव ही कर सकते है, तो वैसा टेप हो जाता है।
आपके अंदर टेप है कि नहीं?
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
प्रश्नकर्ता: हमको जानकारी नहीं है, लेकिन आप बोल रहे हैं तो में जान लेता हूँ कि ये भी ओरिजिनल टेप है।
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं, वो ओरिजिनल टेपरेकर्ड ही है। ये आपके अंदर है और सबके अंदर है लेकिन ईगोइजम से बोलता है कि मैंने बोला । हमारा ईगोइजम खतम हो गया तो हमने देख लिया कि ये टेपरेकर्ड बोलती है। हम खाली देखते है कि ये टेपरेकर्ड है, क्या बोलती है।
कई लोग अच्छा काम करते है, तब मैंने कितना अच्छा किया', ऐसा ईगोइजम करते है। और बूरी बात निकल जाये तो क्या बोलते है? 'मी काय करू ( में क्या करूं)' ऐसा बोलता है न! वो आप बोलते ही नहीं। मगर व्यवहार में आपको ऐसा बोलना चाहिये कि 'मैं बोलता हूँ।' वहाँ ऐसा नहीं बोलना कि 'ये टेपरेकर्ड है, मैं नहीं बोलता हूँ।'
किसी को हमारा हाथ लग गया और पुलीसवाला बोले कि किसने मारा? तो हम बोलेंगे कि 'हमने मार दिया।' व्यवहार में ऐसा हम नहीं बोलेंगे कि 'हम कर्ता नहीं है।' व्यवहार में तो 'हमने ही किया है', ऐसा बोलेंगे । लेकिन ये शरीर के मालिक हम नहीं है और कोई चीज के कर्ता हम नहीं है। कोई बड़ा व्यक्ति भी बोलता है कि 'मेरी आत्मा बोलती है' मगर आत्मा कभी बोलती ही नहीं। आत्मा की आवाज ही नहीं है, वो सब अनात्मा की आवाज है। मोटर का होर्न रहता है न? वो होर्न से आवाज आती है। होर्न दबाया तो अंदर जो परमाणु थे, वो परमाणु स्पीड से बाहर निकलते है और उसके घर्षण से आवाज हो गयी। भगवान 'बोलेंगे' तो उनका भगवान पद ही चले जायेगा। फिर तो लोग उनको 'रेडियो' बोलेंगे। मगर भगवान नहीं बोलते है। ये ओरिजिनल टेपरेकर्ड है। भगवान की हाजरी से ही रेकर्ड बोलती है। भगवान की हाजरी चली जाये फिर टेपरेकर्ड नहीं बोलेगी। ये मशीन में भगवान की हाजरी नहीं है। वह तो ऐसे ही भगवान की हाजरी के बिना बोलती है।
'ज्ञानी पुरुष' कौन? 'दादा भगवान' कौन?
प्रश्नकर्ता: आपको जो 'ज्ञान प्राप्ति' हुई है, वो ज्ञान किसी ने दिया
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
होगा, स्वयं तो नहीं हुआ न? !
दादाश्री : हमको किसी ने नहीं दिया है। हमको तो ऐसे ही हो गया था। यह 'ज्ञान' किसी के पास से नहीं मिला है और यह 'ज्ञान' किसी के पास है भी नहीं । कलियुग में ये 'ज्ञान' कभी होता ही नहीं। ये हमारे अंदर दिया प्रगट हो गया है तो एक दिये से दूसरे दिये हो सकते है। मगर पहेला दिया (जो हमारे भीतर प्रगट हुआ) हो सकता ही नहीं, ये तो but natural हो गया है।
प्रश्नकर्ता: 'ज्ञानी पुरुष' की पहचान करनी भी मुश्किल होती है। कभी कभी ।
दादाश्री : हाँ, 'ज्ञानी' की पहचान जल्दी नहीं हो सकती। वो सब साधुपुरुष है, वह ज्ञानी होते है लेकिन वे शास्त्रों के ज्ञानी है। उससे मोक्ष नहीं मिलता। मोक्ष तो, सच्चे 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाये, वो मोक्ष का दान देते है ! हम तो कोट-टोपी पहनते है, तो कोई पहचान नहीं सकेगा बाहर । जिसका पुण्य हो उसको मिल जायेंगे। ऐसे ड्रेस में कौन समझेगा कि ये 'ज्ञानी' है? अनजान आदमी कैसे जान सकता है कि 'ज्ञानी पुरुष' क्या चीज है? वो तो जब अनुभव में आये तब पता चलता है। गाडी में बाहर कोई आदमी हमको मिल जाये तो हमको पूछेगा कि 'आप कौन है?' तो हम बोलेंगे कि 'यह गाडी का पेसेन्जर हूँ'। इनकी द्रष्टि में जो दिखता है, वैसा हम बोलेंगे।
'ज्ञानी पुरुष' किसको बोला जाता है? जो एक मिनिट भी ये देह में नहीं रहते है, ये वाणी में नहीं रहते है और ये माईन्ड ( मन ) में नहीं रहते है, होम डीपार्टमेन्ट में ही रहते है। आप तो फोरेन डीपार्टमेन्ट में ही रहते हो और फोरेन को ही होम मानते हो। फोरेन को होम मानने में क्या फायदा मिलेगा? कभी न कभी तो होम को होम मानना ही पडेगा न! होम को होम मानेगा तो सच्ची समाधि हो जायेगी। जो सनातन सुख की इच्छा है लोगों की, वो तो होम डीपार्टमेन्ट में आ जायेंगे, तब उन्हें सनातन सुख मिल जायेगा। 'ज्ञानी' तो निरंतर 'ज्ञान' में ही रहते है।
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
ये जो दिखता है न, वो A.M. Patel है लेकिन आज A.M. Patel पब्लीक ट्रस्ट में चले गये है। क्योंकि ये बोडी का, ये माइन्ड का, ये वाणी का मैं छब्बीस साल से मालिक नहीं हूँ। 1958 से हम देह में एक पल भी नहीं रहे। कभी आपके साथ बात करते है तो हमारे को 'इधर' आना पडता है, वो भी प्रकाश स्वरूप में-ज्ञान स्वरूप में! हम ये देह में छब्बीस साल से नहीं रहते। हमारा इसके साथ पडौशी जैसा संबंध है। ये जो 'दादा भगवान' है न, सारा दिन हम 'दादा भगवान' के साथ नहीं रह सकते। कभी कभी हमारे को 'पटेल' होना पडता है, तो हमारे को भी बोलना पडता है कि 'दादा भगवान' को नमस्कार करता हूँ और जब 'हम' और 'दादा भगवान' एक हो जाते है, फिर नहीं बोलना पडता। फिर जब अलग हो जाते है तो फिर बोलना पडता है। वो 'दादा भगवान' अंदर है, चौदह लोक के नाथ है।
वो 'दादा भगवान' का नाम लिया तो आपका भी बहुत काम हो जायेगा। सब लोग जानते है कि यहाँ सत्संग होता है। मगर इधर क्या दवाई मिलती है वो नहीं जानते। ये तो दुनिया का ऐसा आश्चर्य है, जो पहेले कभी नहीं हुआ। तो हम आपको क्या बोलते है कि आप आपका काम निकाल लो इधर। हम तो निमित्त है। हम कोई चीज के कर्ता नहीं है। जो कर्ता है, उसको कर्म बंध जाता है । हम ये दुनिया को सब चीज देने को आये है, मगर निमित्त है सिर्फ।
प्रश्नकर्ता : किसका साक्षात्कार? दादाश्री : खुद का! अभी तो आप 'रविन्द्र' है। प्रश्नकर्ता : उसके बाद में क्या? दादाश्री : फिर आप ईन्डीपेन्डेंट हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : कब तक?
दादाश्री : फिर मरने का ही नहीं। ज्ञान लेने के बाद मृत्यु नहीं, अमर हो जाता है।
प्रश्नकर्ता : कैसे अमर? in what sence?
दादाश्री : शरीर में नहीं! जो विनाशी चीज है, वो विनाशी चीज निकल जाती है। आप खुद ही अविनाशी है लेकिन आप मानते है कि 'मैं रविन्द्र हूँ, मैं एन्जीनीयर हूँ', ऐसी विनाशी चीजों की बातें करते हो। आप फिर अविनाशी हो जाओगे। फिर आपको कुछ फीयर(भय) नहीं होगा।
प्रश्नकर्ता : मगर अपने खुद का रेफरन्स हमें कैसे मिले कि मैं कौन हूँ?
दादाश्री : वो रेफरन्स सब मिल जायेगा। फिर आप पूर्ण हो जाओगे।
प्रश्नकर्ता : अमर हो गया तो कौन सी विनाशी चीज निकल जायेगी?
दादाश्री : ये शरीर जो विनाशी है। प्रश्नकर्ता : तो फिर क्या रहेगा? दादाश्री : आत्मा रहेती है, वो भी in perfact sense ! प्रश्नकर्ता : तो अपनी खुद आत्मा में ही रहना चाहिये?
बिना अनुभूति, बातें क्या? प्रश्नकर्ता : मनुष्य जन्म में आफ्टर ओल क्या पाने के लिए हम जिते है?
दादाश्री : अपने पर बोस नहीं चाहिये। ईन्डीपेन्डंट होना चाहिये। कोई गाली दे, मार मारे तो भी तकलीफ नहीं, ऐसा होना चाहिये।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान लेने का आफ्टर ओल मक़सद क्या है?
दादाश्री : साक्षात्कार।
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
मेरे को नहीं। वो बच गया। छह महिने बिस्तर में था मगर एक मिनीट भी पीस ओफ माइन्ड नहीं गया। ऐसा एक्सपिरीयन्स होना चाहिये। अनुभव बिना क्या करने का? कोई अवतार में ऐसी बात होती ही नहीं। ये बात अपूर्व बोली जाती है। पहले कभी सुनने में नहीं आयी हो ,पढ़ने में नहीं आयी हो।
दादाश्री : आप आत्मा में ही रहेंगे। हम पच्चीस साल से आत्मा में ही रहते है। This body is my first neighbour. I am not the owner of this body and this is the public trust!
प्रश्नकर्ता : अपनी आत्मा में ही रहे, मगर ये आत्मा तो भटकेगी न?
दादाश्री : नहीं, वो भटकेगी नहीं। वो निरंतर समाधि में ही रहती है। पच्चीस साल से हमारी समाधि नहीं गयी. एक मिनीट भी नहीं गयी। फिर भटकने का है ही नहीं। फिर अपने अपनी स्पेस में चले जाने का। वो परमेनन्ट स्पेस है, वहाँ जाने का। वही मोक्ष है।
प्रश्नकर्ता : उसका अनुभव होना चाहिये, कहने से क्या होता है?
दादाश्री : हाँ, अनुभव तो आप इधर बैठे है, तभी से अंदर अनुभव शुरू हो गया है लेकिन आपको इसका खयाल नहीं रहता है। अनुभव तो होना चाहिये। बिना अनुभव तो क्या करने का? वो आईस्क्रीम खाते है तो वो भी ठंडा लगता है, तो ये 'ज्ञानी पुरुष' मिले तो, वो एक घंटे में मोक्ष देते है। फिर कभी चिंता नहीं होगी।
प्रश्नकर्ता : वो अनुभव हमें कहोगे।
दादाश्री : वो अनुभव तो हम जब करवाते है, वो ही दिन से आता है। अनुभव में नहीं आये तो फिर क्या काम का? अनुभव में नहीं आये तो वो सभी कल्पित बातें है, सच्ची बात नहीं है। अनुभव तो होना ही चाहिये।
'ज्ञानी पुरुष' देते शुद्ध चेतन निपेक्षित वो सार है। - नवनीत।
'ज्ञानी पुरुष' जब आत्मा देते है, वो ही निपेक्षित सार है। ज्ञानी पुरुष' का अपना खुद का मोक्ष हुआ है, इसलिए दूसरे को मोक्ष देते है। वो मोक्ष का दान देने को आये है। उन्हें मोक्षदाता बोला जाता है। ये क्रिश्चीयानिटी वो दिवादांडी है, ये मोमेडीयन वो दिवादांडी है, ये हिन्दु धर्म वो भी दिवादांडी है। कोई बड़ी है, कोई छोटी है मगर सब दिवादांडी है। दिवादांडी को क्या बोलता है?
प्रश्नकर्ता : लाईट हाउस !
दादाश्री : हाँ, तो सब लाईट हाउस है और हम तो सारी दुनिया की ओब्जर्वेटरी है। हम सारी दुनिया का सायन्स ओपन कर देंगे। वो सायन्टीस्ट को भी ये सब बता देंगे, फिर सब सायन्टीस्ट मान लेंगे। सच्ची बात को सायन्टीस्ट भी कबूल करते है, सब लोग कबूल करते है। वो फोरेन के सब सायन्टीस्ट है, वो जहाँ तक जानते है उससे आगे की बात क्या है, वो हमको पूछेगा तो हम बता देंगे। हमारी जो बातें है, वो फोरेन में कौन समझेगा? जो सायन्टीस्ट है, वो हमारी बात समझ जाते है। वो डेवलप्ड होते है। हम तो बोलते है कि सारी दुनिया के सायन्टीस्ट को इक्टठे कर दो, हम सब बता देंगे कि दुनिया क्या है, कैसी चीज है। सब मानसशास्त्री को भी इक्टठे कर दो, तो हम वो बता देंगे कि माइन्ड कैसे हो गया! सब लोग जो देखते है, वो तो माइन्ड का पर्याय देखते है मगर माइन्ड क्या है, किस तरह हो गया, किस तरह से लय होता है, वो सब बात हम बता देंगे।
रविन्द्र नाम का अपने यहाँ एक महात्मा था। वह एसिड से जल गया था। तो सब डाक्टर लोग बोलने लगे कि 'ये आदमी तीन घंटे में मर जायेगा।' उसको सायकोलोजी इफेक्ट क्या होगी कि मैं जल गया हूँ, मेरे को हो गया है लेकिन उसको ये ज्ञान दिया था, वो अनुभव ज्ञान था। तो उसको ऐसा लगा कि 'मेरे' को कुछ नहीं हुआ है, 'रविन्द्र' को ही हआ है। वह डाक्टर को भी बोलता था कि रविन्द्र को ऐसा हो गया है.
96 is the answer. कोई बोले कि दो रकम की तलाश करो
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कि कौन सी दो रकम के मल्टीप्लीकेशन से ये 96 आया? और उसकी रीत बता दो, तो हो सकता है कि नहीं? दो रकम चाहिये, वो कोई भी हो 12 into 8, or 16 into 6. कोई भी दो रकम चाहिये।
एक आदमी हमको बोलने लगा कि 'क्या अक्रम विज्ञान, अक्रम विज्ञान करते हो? क्रमिक मार्ग क्या गलत है कि ये अक्रम मार्ग निकाला ?' तो मैंने कहा कि 'क्यों? आपको आपकी औरत के साथ झगड़ा हो गया है ? देखिये, आप हमारे पास आओ तो आपको समझाऊँ।' तो बोलने लगा कि 'आपकी क्या रीत है?' मैंने बोल दिया कि 'suppose hundred ( मानो कि १०० ), तो जवाब आता है के नहीं?' तो वह बोलने लगा कि 'हम सपोझ १०३ बोलेगा।' तो मैंने बोल दिया कि 'कोई भी रकम सपोझ करो। जवाब आता है के नहीं? वो मेथेमेटीक्स में होता है न? सपोझ करके रक़म ली, वो भी जवाब आयेगा कि नहीं?'
प्रश्नकर्ता आता है।
दादाश्री : तो फिर इसमें क्यों नहीं आयेगा? ये भी गणित ही है। और इसका जवाब भी है।
ये सब हम आपको रूपरेखा देते है। सब बात बता देने से कोई फ़ायदा नहीं। हम रूट कोझ बता देंगे। हमारी बात समझ में आती है न?
प्रश्नकर्ता: हाँ।
दादाश्री : हमारी हिन्दी बरोबर ठीक नहीं है न?
प्रश्नकर्ता: नहीं, ऐसी बात नहीं है। आप हिन्दी अच्छी ही बोल
रहे है।
दादाश्री : हमको हिन्दी बोलने को नहीं आता।
प्रश्नकर्ता: नहीं, आपकी हिन्दी बहुत मीठी है, आप बोलिये। दादाश्री : मीठी तो मेरी वाणी है, हिन्दी नहीं। मेरी वाणी मीठी है।
१०
ज्ञानी पुरुष की पहचान
गुरु और ज्ञानी !
प्रश्नकर्ता: हमारे गुरु है, वो ही मेरे इष्टदेव है, मेरे रोम रोम में वो ही है, मैं उनसे दूर न हो जाऊँ, ऐसा कुछ हमें कर दो।
दादाश्री : वो ही करने का है, कुछ जुदा होने की जरूरत ही नहीं है। जुदा होंगे तो आपका जो व्यवहार है न, वो सब खतम हो जायेगा । उनके आधार पर व्यवहार रहा है। हाँ, तो जुदा होने का ही नहीं है। उनकी आराधना करनी है।
प्रश्नकर्ता : आपके पास से ये ज्ञानप्राप्ति करना और मेरे गुरू की आराधना चालु रखनी है, वो एक साथ दो चीजें कैसे रह सकेंगी?
दादाश्री : ये मोक्ष के लिए चाहिये और वो गुरु तो व्यवहार के लिए चाहिये । व्यवहार भी तो चलना चाहिये न?
प्रश्नकर्ता : मेरे गुरू तो मोक्ष के लिए ही है।
दादाश्री : नहीं, नहीं। गुरु सब व्यवहार के लिए ही होते है। मोक्ष के लिए तो 'ज्ञानी पुरुष' होते है।
प्रश्नकर्ता: व्यवहार के लिए तो देवी-देवताओं की उपासना करते है और मोक्ष के लिए गुरु है न?
दादाश्री : नहीं, गुरु हो वो भी व्यवहार ही है। सब व्यवहार ही
है।
प्रश्नकर्ता : हमारे गुरु की मूर्ति का ध्यान करता हूँ तो जब वहाँ ध्यान ठीक, करेक्ट हो जाता है, तब हमको ऐसे मन में लाईट लाईट हो जाती है, वो क्या है?
दादाश्री : वो सब बहुत चीजें होती है। तरह तरह की लाईट होती है लेकिन वो सब पुद्गल है और वो सब तुम्हारी एकाग्रता के लिए फ़ायदेमंद है और आगे जाने के लिए फ़ायदेमंद है। लेकिन वहाँ सच्ची बात
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नहीं मिलेगी। इससे एकाग्रता होती है, शक्ति बढ़ती है लेकिन ऐसा कितने जन्मों से करते हो? जब तक आत्मा नहीं जाना, वहाँ तक कुछ काम नहीं होगा। पूरा काम तो कभी नहीं होगा। आत्मा जानने के लिए 'ज्ञानी परुष' के पास जाना चाहिये। खुद से आत्मा नहीं समझ सकते। किसी आदमी को ऐसा समझ में नहीं आता। सब लोग जैसी आत्मा मानते है, ऐसी आत्मा है नहीं। आत्मा ओर चीज है, वो ही परमात्मा है।
प्रश्नकर्ता : तो ये सब चीजें क्या होती है? जो मुझे अनुभव में आती है, वह क्या चीज है?
दादाश्री : वो सब मिकेनीकल है। ऐसा चित्त चमत्कार बहुत लोगों को होता है। ऐसे बहुत लोग हमें मिलते है, उसको फिर हम बोलते है कि, 'भाई, ये चित्त चमत्कार से बहुत आगे जाने का है। अभी आपका चित्त चमत्कार का स्टेशन आया है, वो बात अच्छी है। इससे एकाग्रता रहेगी, थोडा पाप जल जाता है लेकिन इससे तो बहुत आगे जाने का है।'
प्रश्नकर्ता : फिर आगे रस्ता तो मिलेगा न?
दादाश्री : ऐसा कितने ही जन्मों से रास्ते पर चलते है मगर सच्ची बात नहीं मिली है। ये सब रास्ते का ही है. रास्ते के बाहर कछ नहीं है। लेकिन कभी किसी जन्म में कोई दफे कोई कुसंग मिल जाता है, तो फिर नीचे भी गिर जाता है। उसका कोई ठिकाना नहीं रहता है। ऐसा वो उपर भी उठता है, फिर कुसंग मिलता है तो फिर नीचे भी गिर जाता है। खुद का ज्ञान, खुद कौन है, किसने ये दुनिया बनायी. ये दुनिया कैसे चलती है, कौन चलाता है, ये सब ज्ञान प्राप्त हो गया, फिर रास्ता करेक्ट हो गया। फिर छूटकारा हो जाता है, मुक्ति हो जाती है।
'खुली आँख से' 'जागृत' कौन? जागृति तो पूरी होनी चाहिये न? अभी तक तो आपको संसार की ही जागृति है। संसार की जागृति हो तो वह विनाशी चीज की रमणता करता है। सब लोग को संसार की जागृति होती है, वो भी पूरी जागृति
नहीं है। जिसको संसार की पूरी जागृति हो, उसको घर में किसी के साथ झगड़े नहीं होते है, मतभेद नहीं होते है लेकिन झगड़े, मतभेद तो होते है, तो ये सब लोग अभी तो नींद में ही है। खुल्ली आँख से नींद में ही व्यापार करते है, झगड़ा करते है, शादी भी करते है, उपदेश भी देते है और अनशन भी नींद में ही करते है।
आप डाक्टर हुए तो वो जागृत अवस्था में हुए कि नींद में हुए? प्रश्नकर्ता : जागृत में।
दादाश्री : अभी भी आप जागृत नहीं है। मेरे सामने बैठे है तो भी जागृत नहीं है। नींद दो प्रकार की है; एक आदमी को देह का भी भान चला जाता है। वो सब के लिए नींद है। दूसरी नींद खुल्ली आँख से रहती है। वो नींद किसी को नहीं गई है। जागृत किसे बोला जाता है कि जो दूसरे किसी को इतना भी नुकसान न करे और अपना खुद का इतना भी नुकसान न होने दे, उसको जागृत बोला जाता है। ये तो इधर बाल बढ़ाते है और उधर दाढ़ी सफा कराते है। कौन से व्यापार में फायदा है? इसको निकालने में फायदा है कि इसको बढ़ाने में फायदा है? वो आप जानते नहीं है। सब लोग जैसा करते है वैसा ही देख देखकर आप भी करते है। कोई जागृत आदमी देखा है आपने अभी तक?
प्रश्नकर्ता : कोई जागृत होगा या नहीं, वो हम कैसे बोल सकते
दादाश्री : सारी दुनिया नींद में है। जिसको सब कुछ बेलेन्स रहेता है वह जागृत है, नहीं तो अपना खुद का अहित ही करता है। हित में जाने का प्रयत्न करते है मगर जानते नहीं है कि मेरा हित किसमें है? ये दूसरी नींद है, उसको भावनिद्रा बोलते है। सारी दुनिया में कोई आदमी ऐसा नहीं है जिसकी आँख खुली हो। भावनिद्रा की आँख खुली तो फिर सब काम हो जायेगा। आपका नाम क्या है?
प्रश्नकर्ता : रविन्द्र।
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
दादाश्री : आप खुद रविन्द्र हो कि दूसरा कुछ हो? प्रश्नकर्ता : वह मालूम नहीं है। दादाश्री : नींद की ऐसी ही बात है। ये सब नींद में बात करते
निद्रावाला देखा है कि नहीं? क्रोध-मान-माया-लोभ खलास हो जाये, वो जागृत हो गया। अगर तो 'ज्ञानी पुरुष' ने जागति दे दी तो उसकी आँखे थोड़ी खुलती है।
प्रश्नकर्ता : आज-कल के जमाने में किस तरह मालूम पडे कि इनको आत्मा का रियलाईझेशन हुआ है?
दादाश्री : जरा उसको छेडो तो मालूम हो जायेगा कि कलदार रुपया है कि 'बोदा' है। कितने लोग बोलते है कि हमको मोक्ष की जरुरत नहीं है। मैं बोलता हूँ कि 'मोक्ष की तो हमको भी जरूरत नहीं है मगर आपको जागृति की जरूरत है कि नहीं?' तो वो कहता है कि, 'हाँ, हाँ, जागृति की तो जरूरत है।'
खुद की पहचान हो गयी तो फिर जगत में कोई बड़ा-छोटा नहीं है। हमको तो कोई बडा-छोटा दिखता नहीं है। जेब काटनेवाला भी हमको निर्दोष ही दिखता है। क्योंकि हम निद्रा में से जागत हए है। जो निद्रा में से संपूर्ण जागृत हुआ हो, उसकी एक सेकन्ड भी भूल नहीं होती। जिसको स्वरूप की पहचान हो गयी, उनकी आँखे थोडी थोडी खूलती है। फिर सत्संग में बैठ बैठकर आँखे पूरी खुल जायेगी। मगर खुद को भरोसा हो गया कि कुछ दिखा है, विश्व दिखा है। ये निद्रा खुल्ली हो जाये, तो जगत क्या चीज है, वो मालूम हो जाता है। बाहर सब चलता है, वो निद्रा में ही चलता है। किसी को गाढ निद्रा है तो किसी को जरा कम है। कोई स्वप्न दशा में है, कोई मर्छा जैसी निद्रा में है। सबकी समान निद्रा नहीं होती। जो जागृत है, वो सब कुछ जान सकता है, सब कुछ देख सकता है।
आदमी का कोई उपरी ही नहीं। हा, देवलोग उपरी है लेकिन देवलोग के हाथ में भी स्वसत्ता नहीं है। जो कोई जागृत हो जाये तो उसके हाथ में स्वसत्ता आ जाती है।
सद्गुरू जागृत होना चाहिये। भगवान ने जागृत होने के लिए बोल दिया है, कि जागृत हो जाव। जो आदमी जागृत है, उसके पास बैठने से, उसकी कृपा से जागृत हो सकता है। दूसरा कोई इलाज नहीं है।
जिसका क्रोध-मान-माया-लोभ खलास हो गया है, वो जागृत हो जाता है। क्रोध-मान-माया-लोभ जहाँ नहीं है, वहाँ जागृति है और जहाँ क्रोध-मान-माया-लोभ है, वहाँ निद्रा है। वो अपनी खुद की ही बुराई करता है, नुकसान करता है और दूसरों का भी नुकसान करता है। ऐसी
प्रश्नकर्ता : मोक्ष और जागृति में क्या फर्क है? दादाश्री : जागृति वो ही मोक्ष है। संपूर्ण जागृति वो ही 'केवलज्ञान' Jagruti is the Mother of Moksha.
मोक्ष याने संपूर्ण जागृति। दुनिया के सब लोग खुल्ली आँख से नींद में रहते है। खुद (स्वरूप) की जागृति ही नहीं है। जो धंधा करता है, उसमें ही जागृति है। दूसरा, अगले भव अपना क्या होगा, उसका कोई विचार भी नहीं है।
मोक्षमार्ग में, गुरु या ज्ञानी? प्रश्नकर्ता : हम एक महात्मा के पास गये थे।
दादाश्री : हाँ, मगर वो डाक्टर था कि तुम्हारे जैसा ही था? डाक्टर सर्टीफाईड होना चाहिये। ऐसा आलतु-फालतु नहीं होना चाहिये। आप दवाई लेते है तो कोई भी आदमी के पास दवाई क्युं नहीं लेते है? दवाई लेने को तो अच्छे डाक्टर के पास जाते है? उसकी डिग्री क्या है, वो देखते है। वो M.B.B.S. नहीं चलेगा, हमको तो M.D. चाहिये, ऐसा बोलते है। तो इसमें धर्म में भी ऐसा नहीं होना चाहिये? वो गुरु को पूछने का कि
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'आपको ईश्वरप्राप्ति हो गई है?' वो बोलेगा कि नहीं हो गई है, तो आपको दूसरी जगह पर जाने का। ऐसे तीसरी जगह पर, चौथी जगह पर जाने का। कोई जगह पर तो सच्चा मिल जायेगा।
प्रश्नकर्ता : हर साधु बोलता है कि हमको ईश्वरप्राप्ति हो गई है।
दादाश्री : हाँ, मगर उसको ऐसा बोलने का कि हमको ईश्वरप्राप्ति करा दो तो आप सच्चा, नहीं तो तुम्हारी बात गलत है।
प्रश्नकर्ता : गुरु सच्चा मिलना चाहिये।
दादाश्री : हाँ, गाईड सच्चा मिलना चाहिये। गुरु तो बहुत मिलते है मगर वो कैसे है कि जैसे ये साबुन रहता है वो कपडे को लगाओ तो फिर टीनोपाल डालना पडता है। क्योंकि साबुन अपना मेल छोडकर जाता है। वो मेल टीनोपाल से जाता है मगर टीनोपाल अपना मेल रखता है। ऐसा इधर क्या चाहिये? जो शुद्ध है, वह चाहिये। वह दूसरे को मेल ही नहीं डालता है।
पंदरह माईल स्टेशन दूर हो, तो भी नहीं मिलता है। एक बच्चे को गुरु कर लो और उसको पूछ लिया तो स्टेशन मिल जाता है। गुरु तो होना ही चाहिये। कितना बड़ा बड़ा संत लोग बोलते है कि गुरु की जरूरत नहीं। अरे, ऐसी क्या बात करते हो?! गुरु की सभी जगह पर जरूरत है। रास्ते में, स्टेशन तक जाने में, सब जगह में गरु की जरुरत है। मगर सब गुरु पेमेन्ट लेते है। वकील वो भी गुरु है, वो भी पेमेन्ट लेता है।
किसका ये कर लूँ', ऐसा ही सोचता है और लबाड़ी (बदमाशी) करता है, बिना हक्क का किसी का ले लेता है। उससे नया पाप बाँधता है। वो पापानुबंधी पुण्य है। पुण्यानुबंधी पुण्य में अभी पुण्य है और आगे के लिए भी अच्छा विचार करता है, सत्कर्म करता है, साधु पुरुष, संत पुरुष की सेवा करता है, उससे पुण्यानुबंधी पुण्य बाँधता है। पुण्यानुबंधी पुण्य थोडा भी हो तो भी 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाते है।
प्रश्नकर्ता : हिन्दुस्तान में कितने साधु-संत हुए है, उसमें किसी का सच्चा मोक्षमार्ग है?
दादाश्री : जिधर हार्ट(हृदय) नहीं है, हार्टीली बात नहीं है, जिधर बुद्धि का भ्रम है, बुद्धि ज्यादा लगती है, वहाँ पर मोक्षमार्ग कभी होता ही नहीं। जिधर हार्ट है, उधर ही धर्म है। हार्ट नहीं उधर धर्म ही नहीं। सच्चा मोक्षमार्ग कौन सा है, वो भेद करने के लिए खोज करो कि बुद्धि है कि हार्टीली मार्ग है। जिधर हार्टीली मार्ग है. वहाँ हार्टीली का ज्यादा प्रयोग है. वहाँ सच्चा मार्ग है। वो मार्ग में जाना। वो सच्चा है मगर रिलेटिव मार्ग है। जो बुद्धिवाला मार्ग है, उसमें कोई फायदा नहीं है। वो मोक्षमार्ग ही नहीं, भ्रमित करने के लिए मार्ग है। वहाँ बद्धि ज्यादा भ्रमित हो जाती है. सफोकेशन हो जाता है।
संत पुरुष की डेफीनेशन कुछ है आपके पास?
प्रश्नकर्ता : आप्तबाणी में लिखा है कि पुण्य के संयोग से पैसा मिलता है, तो ज्ञान प्राप्त करने के लिए वैसे सद्गुरु मिलने के लिए पुण्य की आवश्यकता है क्या?
दादाश्री : हाँ, पुण्यानुबंधी पुण्य की जरूरत है, तो ही 'ज्ञानी' मिलते है। ये बड़े बड़े बंगले है, मोटर है, सब कुछ है, वो पुण्य तो है लेकिन वो पुण्यानुबंधी पुण्य नहीं है, पापानुबंधी पुण्य है। पापानुबंधी पुण्य याने पुण्य तो भुगतता है मगर बाँधता है क्या? पाप! सारा दिन 'किसका ले लँ.
प्रश्नकर्ता : मन में शांति होने के लिए जो कोई मार्ग बताता है, वो ही संत पुरुष हो सकता है।
दादाश्री : शांति दो प्रकार की रहेती है; एक तो जैसे बहुत ठंड पड़ती है, हीम पड़ता है, तो सब लोग सगडी के पास बैठते है, उतने समय ठंड नहीं लगती है और उधर से उठ गया कि फिर ठंड लगती है। वो ऐसी शांति है। टेम्पररी शांति देता है, उसको संत पुरूष बोला जाता है, जो परमेनन्ट शांति देता है, उसको सत् पुरुष बोला जाता है और जो मोक्ष देता है, उसको 'ज्ञानी पुरुष' बोला जाता है।
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प्रभु को पहचाना?
प्रश्नकर्ता: हम अभी परमेश्वर की भक्ति करते है और किसी को दुःख हो ऐसा भी नहीं करते है तो फिर ऐसे लोगों को परमेश्वर ज्यादा त्रास पीड़ा क्यों करता है?
दादाश्री : भगवान की कोई भक्ति करते ही नहीं। भगवान को पहचानता है? भगवान को कभी देखा था ?
प्रश्नकर्ता: नहीं।
दादाश्री : भगवान को पहचानता नहीं है, देखा भी नहीं है तो फिर किस की भक्ति करते हो?
प्रश्नकर्ता : लेकिन हमारा आचरण तो शुद्ध है न?
दादाश्री : आपका आचरण किधर शुद्ध है? आपको तो औरत चाहिये, पैसा चाहिये, लडका चाहिये। जिसको भगवान चाहिये, उसका आचरण शुद्ध होता है। उसे भगवान को नहीं पहचाने तो भी भगवान की भक्ति तो है ।
प्रश्नकर्ता: तो क्या सब छोड़ देना चाहिये?
दादाश्री : छोड़ देने की जरूरत नहीं है।
प्रश्नकर्ता: पूजा से भगवान प्राप्त हो सकते है?
दादाश्री : पूजा किसकी करते हो? औरत की करते हो?
प्रश्नकर्ता: नहीं, भगवान की करता हूँ।
दादाश्री सारा दिन औरत लड़के की और पैसे की, दोनों की पूजा करते हो और हम, हम' की पूजा करते हो। भगवान की पूजा ही कौन करता है? ! कुछ करते हो, वो तो खाली तुम्हारी सेफसाईड हो जाये इसलिए करते हो ।
१८
ज्ञानी पुरुष की पहचान
प्रश्नकर्ता: तो सच्ची पूजा किस तरह करने की?
दादाश्री : उसकी पूजा ही नहीं करनी पड़ती। भगवान को पहचानने के बाद भगवान की पूजा करने की जरूरत ही नहीं। फिर सारा दिन भगवान आपके पास से दूर जायेंगे ही नहीं। ओफिस में भी आपके पास ही रहेंगे।
प्रश्नकर्ता : राग, लोभ, मोह, मत्सर ये सब त्यागने से सच्ची पूजा हो सकती है क्या?
दादाश्री : वो सब त्याग कर सकते ही नहीं। कोई आदमी ऐसा नहीं हो गया है कि त्याग कर सके। आप खुद त्याग क्या करेंगे? आप खुद को तो पहचानते नहीं, तो फिर क्या करोगे? खुद को पहचानते है, वो ही त्याग कर सकते है। हम आपको खुद की पहचान करा देंगे। आप 'मैं हूँ' ऐसा जानते है मगर 'मैं क्या हूँ' वो नहीं जानते। फिर ये क्रोध, मान, माया, लोभ कैसे निकालेगा?
प्रश्नकर्ता: क्रोध, मान, माया, लोभ जाने के लिए सद्गुरू की कृपा ही चाहिये न?
दादाश्री : सद्गुरू को ही क्रोध, मान, माया, लोभ जाते नहीं न? तो वो क्या करेंगे? सब लोग ऐसा ही बोलते है कि सद्गुरू की कृपा ! मगर वो लौकिक के लिए ठीक बात है। 'ज्ञानी पुरुष' चाहिये तो वो एक घंटे में आत्मज्ञान करा देते है। फिर एक घंटे में सब क्रोध, मान, माया, लोभ निकल जायेंगे ।
जिधर समकित नहीं, उधर दर्शन करने से क्या फायदा? मूर्ति को नमन करो। वो वीतराग की है न? नहीं तो उस आदमी को नमन करो, जिसको सम्यक्त्व, सम्यक् द्रष्टि हो गयी हो। तो फिर आपको फायदा मिलेगा। जिधर सम्यक्त्व है, वहाँ कषाय बिलकुल मंद रहेते है। मंद कषाय याने क्या कि ये कषाय खुद को ही हैरान करते है, दूसरे किसी भी आदमी को हैरान नहीं करते। और ये तो कषाय ऐसे है कि खुद को हैरान करते है और दूसरों को भी हैरान करते है ।
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
बिना ज्ञानी द्रष्टिभेद कौन कराये? प्रश्नकर्ता : बूरी आदतों से छूटकारा कैसे पाये?
दादाश्री : सब लोग क्या करते हैं? बूरी आदतें को निकाल देते है और अच्छी आदतें को ग्रहण करते है। सारी दुनिया ये ही काम करती है। और 'विज्ञान' क्या कहता है? बूरी और अच्छी आदतें, दोनों को छोड दो। दोनों में से किसी की भी जरूरत नहीं है। मोक्ष में जाना है, तो भगवान के दर्शन करने चाहिये, भगवान को पहचानना चाहिये।
हमें कोई अच्छा-बुरा नहीं है। हमको सब समान है। ये अच्छा है, ये बूरा है, वो सब रोंग विझन(मिथ्या द्रष्टि) है, राईट विझन (सम्यक् द्रष्टि) नहीं है। यह बहुत अच्छी चीज है, वह खराब चीज है, वो रोंग विझन है। राईट विझन चाहिये। राईट विझन से हमको समान ही दिखता है। हमारी द्रष्टि ऐसी निर्मल हो गई है कि जगत में हमको कोई भी आदमी दोषित ही नहीं दिखता। हमको गाली दे, नुकसान करे तो भी दोषित नहीं दिखता। हमको गाली दे तो द्वेष नहीं होता और फल चढाये तो राग नहीं होता। भगवान की द्रष्टि में कोई दोषित नहीं है और जगत की द्रष्टि में दोषित है। ये अच्छा आदमी है, ये बूरा आदमी है, वो भ्रांत द्रष्टि है, सच्ची द्रष्टि नहीं है।
कोई जरूरत नहीं। कोई चीज की जरूरत नहीं।
प्रश्नकर्ता : ये ही तो कठिन है। अर्जुन की भी ये ही समस्या थी।
दादाश्री : हाँ, मगर कृष्ण भगवान ने दिव्यचक्षु दिये थे, तो सब जगह पर भगवान ही दिखे, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' हो गया। आपको औरत में, लडके में भगवान दिखते है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, वो तो अधिकार चाहिये न? दादाश्री : अधिकारी किसको बोलते है? प्रश्नकर्ता : पात्र-अपात्र।
दादाश्री : पात्र-अपात्र कोई होता ही नहीं। जो पात्र बोला जाता है वो ही अपात्र होता है, खराब होता है। जगत के लोग जिसे पात्र बोलते है, वो खुद अपात्र होते है। इसमें तो पात्र-अपात्र होता ही नहीं। हिन्दुस्तान के लोग चाहिये, दूसरे लोग नहीं। जो पुनर्जन्म नहीं समझते, वो इसके लिए अधिकारी नहीं है। आप तो पुनर्जन्म समझते है न?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : तो फिर आप अधिकारी है। हमको मिला वो ही अधिकारी !! हमको मिला कैसे? किसने भेज दिया आपको? वो हम जानते है। जिसने भेज दिया वो ही आपका अधिकार है।
प्रश्नकर्ता : ये जन्म में self realise हो जायेगा?
दादाश्री : क्यों नहीं होगा? आपकी मरजी हो तो ये जन्म में हो जायेगा, नहीं तो फिर कब होगा?
हमारी द्रष्टि में से एक भी जीव, उसके अंदर बिना भगवान देखे जाता नहीं, ऐसा उपयोग रहना चाहिये। इसको आत्मा का शुद्ध उपयोग बोला जाता है। सब जीव की परमेनन्ट चीज को देखो। टेम्पररी को टेम्पररी देखो और परमेनन्ट को परमेनन्ट देखो। परमेनन्ट है वो ही शुद्धात्मा है, वो ही भगवान है। आत्मवत् सर्वभूतेषु' हो गया तो सब काम पूरा हो जाता है। टेम्पररी द्रष्टि से जगत की निष्ठा है और परमेनन्ट द्रष्टि से भगवान की निष्ठा है। भगवान की निष्ठा हो गयी फिर आनंद ही मिलता है। जगत निष्ठा में तो जगत में सुख है, भौतिक में सुख है ऐसी निष्ठा है। हम वो द्रष्टि घुमा देते है और भगवान में सुख है ऐसी द्रष्टि करवा देते है। फिर भगवान की निष्ठा मिल गयी। सिर्फ द्रष्टि फिराने की जरूरत है। शास्त्र पढ़ने की
प्रश्नकर्ता : कभी कभी मरजी में हो तो भी नहीं होता। मेरा एक फ्रेन्ड था, वह घर-बार, बीबी-बच्चों को छोडकर बद्रीनाथ भाग गया मगर वहाँ उसको कहा गया कि आप यहाँ के लिए फिट नहीं हो। इसलिए वह वापस आ गया!
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
पढ़ते है, माला फेरते है, वो सभी स्टान्डर्ड में है, तीसरे-चौथे स्टान्डर्ड में है। जिसने सब जान लिया है, पढ़ने का पूरा हो गया है, फिर पढ़ने की कोई जरूरत नहीं, वो खुद में ही रहता है। लकड़ी की माला फिराये वो ज्ञानी कैसा? ज्ञानी कभी जड़ की माला फेरते है क्या? ज्ञानी तो ऐसे आत्मा के बाहर रहते ही नहीं, ये देह में नहीं रहते. वो देह से अलग ही रहते है। 'ज्ञानी पुरुष' खुद में ही रहते है।
.
दादाश्री : और आप यहाँ भी फिट हो। बद्रीनाथ में कुछ आत्मा रखी है? बद्रीनाथ में तो खाली हिमालय है। वहाँ wild animals है। और इधर सब आदमी है। आदमीयों के बीच में ज्ञान होता है। जंगल में ज्ञान नहीं होता। 'ज्ञानी' जंगल में घुमते ही नहीं। 'ज्ञानी' तो हमेशा आदमीयों के बीच में ही रहते है। क्योंकि उनको सब का कल्याण करने की भावना है। जो जंगल में घुमते है, वो सच्चे ज्ञानी नहीं है।
'ज्ञानी पुरुष' - किसे कहा जाय? 'ज्ञानी' हिन्दुस्तान में ही होते है। बाहर तो कभी नहीं होते। संत पुरुष और सत् पुरुष होते ही रहते है। संत पुरुष और सत् पुरुष है, उन्हों ने अपना काम पूरा नहीं कर लिया। उनके सिर पर 'ज्ञानी पुरुष' होने चाहिये। 'ज्ञानी पुरुष' के बिना तो कुछ नहीं चलता।
संत पुरुष किसे बोला जाता है? जिसकी चित्तवृत्ति की मलिनता बहुत कम हो गई हो और भगवान के लिए ही सारा दिन उसकी भक्ति है, उनको संत पुरुष बोला जाता है।
सत् पुरुष किसे बोला जाता है? जिसने सत् प्राप्त किया हो याने अविनाशी आत्मा प्राप्त किया है वो। वो खुद का कल्याण करते है मगर दूसरों का कल्याण नहीं कर सकते।
और 'ज्ञानी पुरुष', जो तरणतारण है, मोक्षदाता है। जिनका खुद का कल्याण तो हो गया है और अनेकों का कल्याण करते है।
'ज्ञानी पुरुष' सारी दुनिया में कभी एक होते है। और वो अजोड़ बोले जाते है, उनकी जोड़ी नहीं रहती है। उनकी स्पर्धा करनेवाला कोई आदमी नहीं होता है। क्योंकि उनका अहंकार शून्य हो गया है। ज्ञानी पुरुष' की तो किसी के साथ तुलना नहीं कर सकते। वो अनुपम है, कोई भी आदमी के साथ उनकी तुलना मत करना। तुलना करने से 'ज्ञानी पुरुष' को नुकसान नहीं है, तुलना करनेवाले को नुकसान है। इसलिए हम तुलना करने को ना बोलते है, क्योंकि कोई झवेरी नहीं हो गया है। इसलिए हीरा भी अच्छा है और काँच भी अच्छा है ऐसा बोलते है। इसलिए आपकी जिम्मेदारी हो जाती है। 'ज्ञानी पुरुष' कभी होते है, तो वो अनुपम होते है। एक घंटे में जो मोक्ष देते है, उसकी उपमा किसके साथ करेंगे? ये दस लाख साल का इतिहास नहीं बोलता है, कोई कागज भी नहीं बोलता है। उनकी वाणी भी अनुपम है, एक-एक शब्द में अनंताअनंत शास्त्रो लिखे ऐसे शब्द होते है। वर्तन भी अनुपम रहेता है। उनकी सभी चीजें अनुपम ही रहेती है।
कभी ज्ञानी पुरुष मिल जाये, जो मुक्त पुरुष है, परमेनन्ट मुक्त है, ऐसा कोई मिल जाये तो अपना काम हो जाता है, नहीं तो नहीं हो सकता। ऐसे मुक्त पुरुष दुनिया में कभी होते ही नहीं। शास्त्रों के ज्ञानी तो बहत है मगर उससे तो कोई काम नहीं चलेगा। सच्चा ज्ञानी चाहिये और मुक्त पुरुष चाहिये, मोक्ष का दान देनेवाला चाहिये। मनुष्य का अवतार है, वो कभी कभी मिलता है और मनुष्य के अवतार में जो ये काम पूरा नहीं हुआ तो कभी नहीं हो जायेगा। 'ज्ञानी पुरुष' का संजोग मिल जाये तो मनुष्य के अवतार में ये काम पूरा हो सकेगा। तो ये संजोग का लाभ उठाना
दुनिया की भाषा भ्रांति की है। वो संत पुरुष, सत् पुरुष और 'ज्ञानी पुरुष' सबको एक ही बोलते है। तो ये डायमन्ड है, उसमें पाँच करोड का डायमन्ड भी अलग है और पच्चीस करोड का डायमन्ड भी अलग होता है और काँच का डायमन्ड भी रहता है। इसकी भ्रांतिवाले को खबर नहीं रहती।
ज्ञानी किसको बोला जाता है? जिसको दुनिया में कोई चीज जानने की बाकी नहीं है, जो पुस्तक कभी नहीं पढ़ते, माला नहीं फेरते। जो पुस्तक
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
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तो मोक्ष जलदी मिल जाता है।
यहाँ चालीस हजार आदमी इक्टठे होते है तो भी यहाँ किसी भी दिन कोई कायदा-कानून नहीं, 'No law law' याने किसी को भी नुकसान या दु:ख नहीं देता है, वो परम विनय का अर्थ है।
प्रत्यक्ष भक्ति - किस पुरूष की? प्रश्नकर्ता : प्रत्यक्ष भक्ति क्या है?
दादाश्री : 'ज्ञानी पुरूष' अपने आत्मा का रियलाईझ करा दे तो फिर प्रत्यक्ष भक्ति होती है।
प्रश्नकर्ता : याने अंतरात्मा की खोज करने की?
दादाश्री : हाँ, वो ज्ञानी पुरूष करा सकते है, खुद नहीं कर सकते। जो तरणतारण हुआ है, जो पार उतरे है, वो ही तारेंगे।
चाहिये। संजोग नहीं मिले तो क्या करोगे?
भगवान, प्रेम स्वरूप या आनंद स्वरूप? प्रश्नकर्ता : भगवान की प्रेम स्वरूप शक्ति कौन सी है?
दादाश्री : ये देह के साथ जो भगवान प्रगट हो गये है, वो ही प्रेम स्वरूप है। जो कभी कम होता नहीं, कभी बढता नहीं, वो सच्चा प्रेम है। वो ईश्वरीय प्रेम है। ईश्वर खुद प्रेम नहीं करते है। ईश्वर तो ईश्वर ही रहते है। ईश्वर जिसको मिले है, जिसमें संपूर्ण प्रगट हुए है, वो 'ज्ञानी पुरुष' प्रेम स्वरूप ही रहते है। उनको गाली दे तो भी वो प्रेम स्वरूप है और फूल चढाये तो भी प्रेम स्वरूप है। भगवान खद प्रेम स्वरूप नहीं है, भगवान तो भगवान ही है। प्रेम तो जब तक शरीर के साथ भगवान रहते है, वहाँ तक प्रेम है। मुक्त होने पर भगवान सिद्धलोक में चले जाते है, फिर वहाँ प्रेम नहीं है। वहाँ तो परमानंद है, स्वाभाविक आनंद है। एक समान प्रेम हो तो वो एक ही ऐसा हथियार है कि जिससे अपने घर के सभी लोगों को अच्छे से अच्छा संस्कार दे सकते है और इससे संसार भी अच्छा रहता है। नहीं तो प्रेम बढ़ गया तो वो आसक्ति है, इसको राग बोलते है और प्रेम कम हो गया तो वो द्वेष है।
विवेक, विनय, परम विनय! प्रश्नकर्ता : विवेक, विनय, यह सब क्या चीज है?
दादाश्री : किसी के घर पर जाते है तो विवेक से अच्छा बोलते है, 'आईये, बैठिये'। यह कहते है, उसे विवेक बोला जाता है। बूरी चीज को जानने की, अच्छी चीज को जानने की, उसका सदविवेक करके अच्छी चीज को अपने काम में ले लेने की और बूरी चीज को छोड़ देने की, इसको सद्विवेक बोला जाता है। इससे आगे का क्या जानने का है? इससे आगे विनय है। विनय से आगे परम विनय है। मोक्ष में जाने के लिए विनय करने का है। संसारी कोई चीज की इच्छा नहीं, वहाँ विवेक करना वो विनय बोला जाता है और वहाँ परम विनय करे
प्रश्नकर्ता : लेकिन 'ज्ञानी पुरुष' हरेक आदमी नहीं हो सकता?
दादाश्री : हाँ, वो 'ज्ञानी पुरुष' तो कोई दफे एक ही आदमी होता है। 'ज्ञानी पुरुष' ने मोक्ष प्राप्त किया है और दूसरों को मोक्ष प्राप्त करवाते है। वो खुद तो मुक्त हो गये है और दूसरों को इस पझल में से छुड़वाते है।
प्रश्नकर्ता : जिसको ईश्वरप्राप्ति हो गई है, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' के लक्षण क्या है?
दादाश्री : वो 'ज्ञानी पुरुष' को आप लक्षण से पहचान नहीं सकते है। वो तो झवेरी का काम है। आप झवेरी नहीं हो गये है। जो झवेरी है, वो ये डायमन्ड की क्या किंमत है, ये समझ सकता है। दसरा कोई नहीं समझेगा। 'ज्ञानी पुरुष' की दूसरी परीक्षा है; वो जो वाणी बोलते है, वो वाणी कैसी बोलते है, वो देखने का है। जिसमें क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं होता। दूसरी तो कोई परीक्षा के लिए आपकी शक्ति नहीं है।
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फिरते है न, उन्हों ने आत्मा जानी तो ठीक बात है, नहीं तो फिर गलत बात है। शास्त्र जानने की जरूरत नहीं, आत्मा जानने के लिए शास्त्र जानने का है। आत्मा नहीं जान ली तो फिर सब व्यर्थ है। आपने आत्मा जान ली?
संत-गुरु होते है, वो तो सब भगवान के भक्त रहते है और 'ज्ञानी पुरुष' तो खुद ही परमात्मा है। 'ज्ञानी पुरुष' को देहधारी परमात्मा बोला जाता है।
प्रश्नकर्ता : हमारे लिए ये समस्या है कि सही 'ज्ञानी पुरुष' तो हमारे सामने आते ही नहीं और जो आते है, उनको ही 'ज्ञानी पुरुष' हम समझें?
दादाश्री : नहीं, आपको सच्ची समझ पड़ सकती है। आपका प्रारब्ध हो तो सच्चे 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाते है, नहीं तो कभी मिलते ही नहीं। आज आपके प्रारब्ध ने हमको और आपको मिला दिया है मगर आपको हमारी पहचान नहीं होती। क्या करेंगे?
प्रश्नकर्ता : हमें तो वो द्रष्टि, पहचानने की द्रष्टि नहीं है।
दादाश्री : ऐसे पहचानने की द्रष्टि कब होती है कि जब आप कोई न कोई रहस्यवाली बात, गूढ़ बात पूछे, जो आपकी समझ में नही आती है, ऐसी बात पूछ लो और उसका जवाब मिले, समाधान हो जाये, तो फिर इससे आपको ज्ञानी को पहचानने की द्रष्टि हो जाती है।
'ज्ञानी पुरुष' सभी खुलासा(स्पष्टीकरण) कर सकते है, ये दुनिया में जो चीज चल रही है, वो इधर सब खलासा कर सकते है। जो सब लोग जानते है, ऐसी दुनिया नहीं है। वो तो सब भ्रांति की बात है, सच्ची बात नहीं है। सच्ची बात तो 'ज्ञानी' के पास है। वास्तविकता जानने की इच्छा हो तो हमारे पास आना जरूरी है, नहीं तो हमारे पास आना जरूरी नहीं है। वास्तविकता में जगत क्या चीज है, वो इधर जानने को मिल सकता है। हम सभी चीजें बता देते है।
सब लोग क्या बोलते है कि 'हम जानते है, हम जानते है', वो सब लौकिक जानते है। फिर उसका नशा चढता है, कि 'हम जानते है।' मगर क्या जानते है? जाननेवालों को कभी ठोकर नहीं लगती। जाननेवालों को कुछ नहीं होता। नहीं जानने का जाना है और जानने का है वो नहीं जाना। खुद भगवान है, वो आपको मालूम नहीं। हिमालय में साधु लोग घुमते
प्रश्नकर्ता : वो ही जानने के लिए प्रवचन सुनते है।
दादाश्री : प्रवचन में आत्मा होती ही नहीं। आत्मा 'ज्ञानी' के पास ही होती है, वहाँ ही प्रगट हो गयी है।
'ज्ञानी पुरुष' 360 degree का ज्ञान जानते है। वे ब्रह्मांड का perspective view (परस्पेक्टीव व्यु) बता सकते है, back view (बेक व्य) बता सकते है, front view (फ्रन्ट व्य) बता सकते है। वो centre (सेन्टर) में आ जाते है और फेक्ट बता सकते है। वो ब्रह्मांड के बाहर रहकर देख सकते है और ब्रह्मांड में रहकर भी देख सकते है।
यहाँ तो मुस्लिम भी आ सकते है, पारसी भी आ सकते है, जैन भी आ सकते है, वैष्णव भी आ सकते है, सभी के लिए है। हमारी भाषा ऐसी किसी एक के लिए आग्रही नहीं है। एक धर्म के लिए जो आग्रही होती है न, वो एकान्तिक वाणी है। वो वाणी कैसी होती है कि अपने खुद के धर्म की आग्रही रहती है। मगर हमारे में कोई आग्रह नहीं है। ये स्याद्वाद वाणी है। ये वाणी तो प्रत्यक्ष सरस्वती है। वो फोटो की सरस्वती है, ये प्रत्यक्ष सरस्वती है। प्रत्यक्ष नहीं मिले तो फोटो का दर्शन करना और प्रत्यक्ष मिले तो प्रत्यक्ष सुनो।
__ 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी प्रत्यक्ष सरस्वती है। किसी को दु:ख नहीं होता और सबकी आत्मा कबुल करती है। कोई आत्मा ना नहीं बोल सकती है। ना कौन बोलता है कि जो टेड़ा है, दुराग्रही है। मोक्ष चाहिये तो आपको आड़ापन निकालना होगा। मोक्ष नहीं चाहिये तो हमको कोई हर्ज नहीं। नहीं तो हमारी जो वाणी है, वो हरेक की आत्मा कबूल करती ही है।
मछली पानी के बाहर रखें तो जैसी हालत होती है, छटपटाती है,
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वैसी हालत सारी दुनिया की हो गयी है। हम उसको ठंडा कर देते है।
This is the cash bank of divine solution. धर्म में कभी cash bank नहीं होती। धर्म में तो बोलते है कि आज अच्छा काम करोगे तो अगले जन्म में अच्छा फल मिलेगा। मगर ये तो cash bank है, तुरंत फल मिल जाता है। हम इसमें निमित्त है। हम तो वीतरागता से काम लेते है। हम आपको बोलेंगे कि इधर से आत्मा प्राप्त कर लो। फिर हम आपको पत्र नहीं लिखेंगे। हम पहले बोलेंगे कि ये दुकान में क्या चीज है? इधर आपको परमनन्ट सुख मिलेगा। मोक्ष में जाने का विचार हो तो आ जाना। और आपका सब दुःख हमको दे दो। कोई आदमी दुःख देता है और कोई आदमी दुःख नहीं भी देता । वो समझते है कि 'आपको दुःख दे दें, तो फिर हम क्या करेंगे?' अरे, भाई, दुःख हमको दे दो और सुख आपकी पास रखो।
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'दादा भगवान' है, उनको ये संसार का दुःख नहीं है। जो संसार के दुःख बर्दाश्त नहीं कर सकते है और जिसको मुक्ति ही चाहिये, मोक्ष चाहिये, उसको 'दादा भगवान' एक घंटे में मोक्ष दे देते है। जिसको संसार में कोई अड़चन हो तो हम देवलोग को बोल देते है, क्योंकि वो सब हमारे पहचानवाले है। वो पहचानवाले को बोल देते है। लेकिन उसके लिए लोभ नहीं करने का, सिर्फ अड़चन होनी चाहिये। सबके लिए 'ज्ञानी पुरुष' है। चोर के लिए, बदमाश के लिए, शेठ के लिए, सब के लिए ज्ञानी पुरुष है। वो मानता है कि मैं चौर हूँ। 'ज्ञानी पुरुष' जानते है कि वो चोर नहीं है। उसकी बिलीफ रोंग है। 'ज्ञानी पुरुष' वो बिलीफ सही कर देंगे तो वो अच्छा हो जायेगा ।
दो प्रकार ज्ञानी होते है। एक बुद्धि से जाननेवाले ज्ञानी, दूसरा ज्ञान से जाननेवाले ज्ञानी ज्ञान से जाननेवाले ज्ञानी है, उनको कुछ जानने को बाकी नहीं है, पुस्तक पढ़ने की जरूरत नहीं है, माला फेरने की जरूरत नहीं है, सब काम पूरे हो गये है। बुद्धि से जाननेवाले ज्ञानी है, उसको पुस्तक की जरूरत है, माला की जरूरत है, सब चीज की जरूरत है। ज्ञान से
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ही सब कुछ जानते है, वो ज्ञानी और भगवान में कोई फर्क नहीं है। तीर्थंकर भगवान बहुत बड़े आदमी है, उनके दर्शन से बहुत आदमी मोक्ष में चले गये। वो तीर्थंकर भगवान को जिनेश्वर बोला जाता है और आत्मज्ञानी पुरुष है, उनको जिन बोला जाता है। उनको पूरा ज्ञान है, दुनिया किसने बनाया, कैसे बन गया, किस तरह से चलता है, कौन चलाता है, हम कौन है, आप कौन है, सभी चीजों का खुलासा उनके पास है। उनकी ही आराधना होनी चाहिये।
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वे दुनिया के कल्याण के लिए अवतार है। सिर्फ हिन्दुस्तान के लिए ही नहीं, दुनिया के सभी धर्मो के लिए। सब धर्म अपसेट हो गये हैं। तो उनको फिर से एक बार अपसेट करना पड़ेगा। लोग हमको बोलते है कि, 'क्यों भाई, धर्म को आप क्यों अपसेट करते हो?' मैं बोलता हूँ, 'जो अपसेट हो गया है, उसको अपसेट करता हूँ याने फिर से सेटअप हो जायेगा।'
प्रश्नकर्ता : यह बात समझ में नहीं आयी।
दादाश्री : धर्म ऐसा सीधा था, वो अभी दुषमकाल की वजह से अपसेट याने ऐसे ऊलटा हो गया है। उसको फिर से ऊलटा करने से सुलट जायेगा।
अंत में वेद क्या कहते है?
प्रश्नकर्ता : मैं तो गीता पढ़ता हूँ, वह धीरे धीरे सब समझुंगा ।
दादाश्री : मैं आपको सच बता दूँ। गीता में जो ज्ञान है, चार वेद है, जैनों के चार अनुयोग है, वो सब रिलेटिव ज्ञान है, रियल ज्ञान नहीं है। पुस्तक के अंदर रियल ज्ञान कभी होता ही नहीं। रियल ज्ञान 'ज्ञानी पुरुष' अकेले के पास ही है और दुनिया में किसी के पास नहीं होता है।
आपको जो कुछ जानना हो इधर जान लो ये बात शास्त्रों में नहीं मिलेगी। वेद में सब बुद्धि की बात है। जहाँ तक बुद्धि चलती है, वहाँ
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तक वेद ने बताया है। फिर बुद्धि जहाँ खतम हो जाती है, तो वेद क्या बोलता है कि This is not that, this is not that ! आत्मा ऐसी नहीं है, आप आत्मा की खोज करते हो वो आत्मा इसमें नहीं है। तो फिर आत्मा को जानने के लिए क्या करना? तब कहते है, गो टु 'ज्ञानी'। क्योंकि आत्मा नि:शब्द है, अवक्तव्य है, अवर्णनीय है। इसलिए गो टु 'ज्ञानी', जो परमात्मामय हो गये हैं, वो सब कुछ बतायेंगे।
माला कितनी भी फेरे मगर माला का क्या फल मिलता है? भौतिक फल मिलता है। चित्त व्यग्र हो जाये तो माला फेरने से चित्त की एकाग्रता होती है। कबीरजी कहते है, 'माला बिचारी काष्ट की, बीच में डाला सूत, माला बिचारी क्या करे, जब जपनेवाला कपुत।'
प्रश्नकर्ता : मगर माला फेरना वह पहली स्टेज है न?
प्रश्नकर्ता : वेद तो लौकिक में ही घूम रहे है।
दादाश्री : हाँ, ये लौकिक चलाने के लिए वेद सायन्स है, बहुत सच्चा विज्ञान है। मगर आत्मा जानने की हो, तो वो उसमें नहीं है। वेद खुद बोलता है कि नेति नेति।
दादाश्री : हाँ, बराबर है। जो जिस स्टान्डर्ड में है, उसको वो ही साधन चाहिये। वो साधन से काम आगे बढ़ता है। फिर 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाये तो कोई साधन की जरूरत नहीं। क्योंकि वो साध्य ही दे देंगे।
ये बात करते है, इसमें संसार का एक शब्द नहीं। ये बात ही अलौकिक है, आत्मा-परमात्मा की बात है, दूसरी बात नहीं है। ये अलौकिक विज्ञान है। लौकिक में लोग गलत जानते है, उससे क्रोध, मान, माया, लोभ ये सब कितनी निर्बलता है!
आत्मा पुस्तक में नहीं है। पुस्तक में होती ही नहीं। पुस्तक में तो अंगुलिनिर्देश किया है, संज्ञा बतायी है, वो आत्मा नहीं दे सकती। तमाम शास्त्र क्या बोलते है कि 'आप आत्मा की खोज करते हो तो गो टु ज्ञानी ! जो सजीवन मूर्ति हो, ज्ञानी हो उनके पास जाओ।' सजीवन मूर्ति ना हो तो बिलकुल काम नहीं होगा। कृष्ण भगवान गये, महावीर भगवान गये, तो उनसे अभी आपका काम नहीं हो सकेगा। अभी हाजिर हो, उनसे ही आपका काम हो जायेगा। पुस्तक से भी काम नहीं हो सकता। पुस्तक तो आपको डिरेक्शन (निर्देशन) देता है। अंतिम जो आत्मा है, दरअसल आत्मा, वो तो 'ज्ञानी पुरुष' के बिना कोई दे सकता नहीं। भगवान भी नहीं दे सकते। भगवान को देने की शक्ति ही नहीं है, वो देहधारी होने चाहिये। भगवान को तो वाणी होती ही नहीं है, कोई क्रिया ही नहीं होती है। जो 'ज्ञानी पुरुष' है, वहाँ भगवान संपूर्ण प्रगट हो गये है, वो 'ज्ञानी पुरुष' आत्मा दे सकते है।
सिद्धांत में तो सिद्धांत ही होना चाहिये। सिद्धांत में एक शब्द भी गलत नहीं चलता है। ये दुनिया की सभी पुस्तकें है, वो सब सिद्धांत नहीं है। सिद्धांत तो बड़ी चीज है। वो पुस्तक तो रिलेटीव है लेकिन वो पहले चाहिये, क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' तो कभी ही होते है। ज्ञानी पुरुष' मिले और अपना काम निकल गया तो अच्छी बात है, नहीं तो पुस्तक तो चाहिये ही। वो तो हररोज का खुराक है।
आत्मप्राप्ति - शास्त्र से या 'ज्ञानी' से? 'ज्ञानी पुरुष' मिल गये तो सारी दुनिया के सभी शास्त्र आ गये। शास्त्रों में जो लिखा है, इससे भी आगे जानने का है। शास्त्र के सिवा बाहर तो बहुत जानने का बाकी है। शास्त्र में पूरा नहीं आ सकता। शब्द में तो पूरा व्यक्त नहीं हो सकता, थोडा ही व्यक्त हो सकता है। दूसरा तो बहुत ज्ञान जानने के लिए बाकी रहता है। वो 'ज्ञानी पुरुष के पास है। वहाँ संज्ञा से समझ में आ जाता है। ज्ञानी पुरुष' संज्ञा करते है। जैसे एक गँगा आदमी होता है न, वो दूसरे मुंगे आदमी को ऐसे हाथ से कुछ संज्ञा करता है। दूसरा आदमी भी ऐसी हाथ से संज्ञा करता है। ऐसे दोनों आदमी स्टेशन पर चले जाते है। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' संज्ञा से बात बता देते है कि आत्मा क्या चीज है! पुस्तक तो आपको डिरेक्शन देगा कि वहाँ पर जाईये, दूसरा कुछ नहीं कर सकता। पुस्तक तो खुद में जो शब्द की ताकत है, उतनी
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बात बता देगा। वो शब्दब्रह्म भी है और शब्दब्रह्म में बहुत कुछ फायदा नहीं, वो लास्ट स्टेशन नहीं है। आत्मा शब्द से आगे है। लास्ट स्टेशन 'ज्ञानी पुरुष' अकेले ही है।
ये चमत्कार या यशनाम कर्म? प्रश्नकर्ता : तंत्र के बारे में आपका क्या खयाल है?
दादाश्री : वो तो तांत्रिक विद्या है। हमारे पास जो विद्या थी, वो अभी एक परसेन्ट भी नहीं है। हमारे पास पच्चीससो साल पहेले बहुत विद्या थी लेकिन विद्या का नाश कर दिया गया। क्योंकि भगवान जानते थे कि जो युग आनेवाला है, वहाँ सब लोग वो विद्या का दुरुपयोग ही करेंगे। इसलिए विद्या का नाश कर दिया। थोड़ा थोड़ा लीकेज़ हो गया, उसमें कुछ सच होगा, बाकी सब जूठ है। विद्या वो सब रिलेटिव है and all these relative are temporaryadjustment. रिलेटिव में क्या जानने का? रियल जानने का है। ये रिलेटिव कितने आदमी जानते है? हमने कागज का ऐसे बर्तन बनाया और अंदर तेल डाला। फिर स्टव पर रखा और गरम किया। फिर उसमें पकोड़े बनाये थे और सबको खिलाया था। जो जानता नहीं, उसके लिए वो तांत्रिक है। जो जानता है, उसके लिए कुछ नहीं। दुनिया में कोई आदमी से चमत्कार होता ही नहीं कभी भी। चमत्कार क्या चीज है वो आपको बता दूँ।
यश क्या चीज है? हम छोटे थे, तब हमको क्या विचार आता था कि सब लोग का अच्छा हो जाये, सबका भला हो जाये, सब सुखी होने चाहिये। फिर उसका फल यशनाम कर्म होता है। जिसका ऐसा विचार है, सब दु:खी होने चाहिये तो उसको अपयश मिलता है। यश-अपयश अपने भाव के साथ है कि अपना भाव कैसा है ! स्त्री मर जाये, धंधे में नुकसान हो, उसको अपयश नहीं बोलते है, वो तो आत्मा का विटामिन है। क्योंकि स्त्री अच्छी हो, पैसा ज्यादा हो तो भगवान का नाम ही नहीं लेता। दवाई है, वो देह का विटामिन है, ऐसे ये प्रतिकूलता वह आत्मा का विटामिन है। देह का विटामिन मिला तो फायदा है और आत्मा का विटामिन मिला तो बहुत फायदा है। इससे नुकसान तो होता ही नहीं कभी।
_ 'ज्ञानी', ' कारण' सर्वज्ञ ! प्रश्नकर्ता : आपको 'सर्वज्ञ' क्यों लिखा है?
दादाश्री : हम सर्वज्ञ नहीं है। हम तो कारण सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ तो तीर्थंकर को बोला जाता है।
प्रश्नकर्ता : क्या कारण सर्वज्ञ और कारण परमात्मा में कोई फर्क
हमारे यहाँ चालीस-पचास हजार आदमी आते है। वो सब 'दादा भगवान' को मानते है। वो क्या बोलते है, 'आज दादा भगवान ने हमको ऐसा किया, आज ऐसा किया। दादा भगवान तो बड़े चमत्कारी है।' तो मैं क्या बोलता हूँ कि 'मैं जादूगर नहीं हूँ। मैं तो 'ज्ञानी पुरुष' हूँ। जादूगर चमत्कार करता है।' हम पूर्वभव से यशनाम कर्म लेकर आये है। यशनाम कर्म से क्या होता है? हम ऐसे हाथ लगाये तो भी आपका अच्छा हो जाता है। फिर आप बोलते है कि 'दादा भगवान ने चमत्कार किया।' किसी को अपयशनाम कर्म रहता है, तो वो करे तो भी उसको यश नहीं मिलता।
दादाश्री : कोई फर्क नहीं। हम कारण सर्वज्ञ है। कार्य सर्वज्ञ महावीर भगवान थे। कारण सर्वज्ञ याने सर्वज्ञ होने का कारण हम सेवन कर रहे है। कारण का कार्य में आरोपण किया है। जैसे ये आदमी इधर से औरंगाबाद के लिए अभी निकला। कोई पछेगा कि 'ये कहाँ गया?' तो आप बोलेंगे कि 'वो औरंगाबाद गया।' तो वो भाई औरंगाबाद तो अभी पहुँचा नहीं, इधर ही स्टेशन पर है। लेकिन व्यवहार में ऐसी ही बात बोली जाती है। इसी तरह हमें सर्वज्ञ कहा जाता है। हम सर्वज्ञ होने के कोझीझ सेवन करते है, हम वो हो गये नहीं है लेकिन व्यवहार में उनको ये सर्वज्ञ है, ऐसा बोला जाता है। हमारी तो चार डिग्री कम है, 356 डिग्री है। सर्वज्ञ तो 360 डिग्री होते है। 'ज्ञानी पुरुष' तो दुनिया की अजायबी (आश्चर्य)
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हम लघुतम भाव में रहते है, रियल में हम गुरुतम भाव में रहते है और स्वभाव में हम अगुरु-लघु स्वरुप रहते है। हम गुरुतम भी है और लघुतम भी है और खुद के स्वभाव में अगुरु-लघु है।
है, मगर लोगों की समझ में नहीं आता। जैसे बच्चे के हाथ में डायमन्ड दे तो वो डायमन्ड लेकर घुमेगा और कोई आदमी आकर बिस्कुट देगा तो उसको डायमन्ड दे देगा। क्योंकि उसको डायमन्ड की कोई किंमत नहीं है। कांच है कि हीरा है, वो आपको कैसे मालूम होगा? आपके पास तो जौहरीपन (परखशक्ति) नहीं है। जौहरीपणा होना चाहिये न?! 'ज्ञानी पुरुष' सारे ब्रह्मांड के स्वामी बोले जाते है और ऐसा खुद ही बोलते है, दूसरा कोई बोलता नहीं। क्योंकि जौहरी कोई है नहीं। फिर हीरे को खुद ही बोलना पडता है कि आज जौहरी है नहीं कोई। ये तो सब खाना खाते है और सो जाते है। दूसरा कुछ धंधा करते है, वो तो सब प्रकृति करवाती है, अपने खुद का पुरुषार्थ नहीं है। ऐसे ही चलता है। ऐसा 'ज्ञानी पुरुष' कभी देखने को नहीं मिलेंगे। देखने को नहीं मिलेंगे तो सुनने को कहाँ से मिलेंगे?! इसलिए अपने कवि ने लिखा है कि पुण्य का प्रकाश हो जाता है, तब ये दर्शन मिलते है। 'ज्ञानी पुरुष' जो आज हम है, वे तो बम्बई में फिरते ही है न! लेकिन इन लोगों की समझ में नहीं आयेगा। क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' का ये ड्रेस है, कोट है, ऐसी टोपी है काली और बूट है। इससे कोई भी आदमी ऐसा नहीं समझ सकता कि ये 'ज्ञानी परुष' है। कोई बड़ा भाग्यशाली हो तो फिर वो आँख देखकर पहचान सकता है।
ये खाना खाते है, तो आपको लगता है कि हम खाना खाते है लेकिन हम खुद नहीं खाते। वो तो 'पटेल' खाते है। ये जो 'पटेल' है, वो तो जलाने की चीज है। वो जो बुलबुला है, वो तो फूट जायेगा एक दिन, उसे आप देख रहे है।
हमको जब पैर का फ्रेकचर हुआ था, वो दिन हमको कुछ मालूम ही नहीं हुआ कि हमको कुछ हो रहा है। आज तक हमको कभी दुःख हुआ ही नहीं। फिर डाक्टर लोग हमको बड़े अस्पताल में ले गये। बड़ा डाक्टर दूसरे सब छोटे डाक्टरो को क्या बोलने लगा कि, 'देखो, इनके मुख पर अभी भी कितना हास्य है! इनको कोई दुःख होता ही नहीं। ये तो देखो आत्मा अलग है, ऐसा लगता है।'
___Real में, Relative में - ज्ञानी की ज्ञानदशा !
सारी दुनिया में एक ही 'ज्ञानी' रहते है। वो अजोड़ चीज है। उनकी जोड़ी नहीं मिल सकती। उनमें स्पर्धा नहीं होती है। जो स्पर्धावाला है, वो 'ज्ञानी' नहीं है।
बड़ा डाक्टर हमको बोलता था कि 'आप बहुत सहन करते है। इतना सहन आप कैसे करते हो?' मैंने बोल दिया कि. 'मेरे को तो एक इन्जेक्शन देते हो, वो भी सहन नहीं होता।' सहनशीलता वो तो ईगोइजम है। हमारे में ईगोइजम नहीं है, सहनशीलता नहीं है। ईगोइजम है, उधर सहनशीलता रहती है। हमारे में जब ईगोइजम था, तब हम सब कुछ सहन करते थे। कितने भी ईन्जेक्शन दे तो कुछ होता भी नहीं था, दियासलाई पूरी जले तब तक उँगुलि रखते थे। इतना ईगोइज़म था हमारा!!! अभी तो हमको दांत दुखता है, वो पता चल जाता है कि, 'ज्यादा दुखता है कि कम दुखता है, हमको इसमें परेशानी नहीं होती है। लेकिन पैर के फ्रेक्चर में तो कुछ पीड़ा ही नहीं हुई।
फिर हमने जाँच की तो मालूम पड़ा कि ये हमारे नामकर्म का उदय था। हमारी भूल नामकर्म में थी, उसका ये फल था। नामकर्म क्या है? अंगउपांग सब नोर्मल होते है, सबको मनोहर लगते है। ज्ञानी' को अंग-उपांग नोर्मल होते है। हमारे नामकर्म की क्षति थी, इसलिए पैर आधा इंच छोटा
दुनिया में कोई छोटे से छोटा आदमी है, तो ये 'A.M.Patel' है। जिधर छोटे से छोटा है, वहाँ ही भगवान प्रगट होते है। बड़े से भगवान दूर रहते है। ये लघुतम दशा है। हम गुरुतम भी है, भगवान भी हमारे से बड़े नहीं और संसार के लिए हम लघुतम है, हमारे से छोटा कोई जीव नहीं। आप सब बड़े है मेरे से। मैं तो सारी दुनिया का शिष्य हूँ। लघुतम आपकी समझ में आता है कि लघुतम का क्या अर्थ है? तो रिलेटिव में
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
हो गया। और फायदा क्या हुआ? जिधर नुकसान है, वहाँ फायदा सदैव होता ही है। बिना फायदे तो नुकसान होता ही नहीं। फायदा यह हुआ कि हमको आराम मिला और जगत का सोचने को बहुत टाईम मिल गया, नहीं तो हमको टाईम ही नहीं मिलता।
हमने सबको बोल दिया था कि हमको ओपरेशन नहीं करवाना है, दूसरों का ब्लड नहीं लेना है। दूसरों का ब्लड हमको फीट नहीं होगा। ये देह छूट जाए तो कोई परवाह नहीं है लेकिन ब्लड दुसरे का नहीं होना चाहिये। मैंने विचार किया कि हमको ये फ्रेक्चर नहीं हो सकता, कितने बड़े बड़े लोगों को हुआ है लेकिन हमको, 'ज्ञानी पुरुष' को नहीं होना चाहिये। बाद में जाँच की तो वो वेदनीय कर्म का उदय नहीं था लेकिन नामकर्म का उदय था। इस बात से हमें सब हिसाब मिल गया। 'ज्ञानी पुरुष' के चार कर्म बहुत ऊँचे रहते है - वेदनीय याने शाताअशाता! अशाता वेदनीय हमको कोई दफे आती है। हम बोलते है कि आप हमारा अपमान करो, हमको गाली दो, आप स्वतंत्र है, हम आपको आशीर्वाद देंगे लेकिन कोई गाली नहीं देता। पहले तो हम बोलते थे कि एक थप्पड़ हमें मारोगे तो हम आपको पांचसो रूपये देंगे मगर किसी ने थप्पड़ नहीं मारा। वो अस्पताल के सभी डाक्टर लोग हमको बोलते थे कि हमने आपको बहुत परेशान किया मगर इसमें हेतु क्या था? भगवान क्या देखता है कि ये किस हेतु से कर रहे है। हमको आराम हो जाये वो ही हेतु था।
हमको बोर्ड (विशेष पहचान) कुछ नहीं है। वो भगवा कपड़ेवाले को भगवा कपड़े का बोर्ड है। सफेद कपड़ेवाले को सफेद कपड़े का बोर्ड है। हमारा कोई बोर्ड नहीं है। हम तो कोट-टोपी पहनकर बाहर घूमेंगे तो कौन पहचानेगा? कोई नहीं पहचानेगा। बोर्डवाले को हर कोई पहचानता है। हमको मिलनेवाला जो सच्चा आदमी है, वो प्रारब्धवाला मिल जायेगा। इधर बोर्ड की जरूरत नहीं।
ज्ञानी कृपा - द्रष्टि का फल! 'ज्ञानी पुरुष' मिलना बहुत मुश्किल है। बहुत जन्मों का पुण्य इक्टठ्ठा
हो जाये, तब 'ज्ञानी पुरुष' मिलते है। 'ज्ञानी पुरुष' मिलना वो तो दुर्लभ, दुर्लभ ऐसा हन्ड्रेड टाईम (सो बार) दुर्लभ लिखा है और मिले तो पहचानने में नहीं आयेंगे। पहचानने में आ गये तो टाईम की यारी नहीं मिलेगी। क्या बोलेगा कि आज हमारे को ये काम है, वो काम है।
प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी पुरुष' भावना के फल स्वरूप मिलते है?
दादाश्री : पिछले जन्म का पुण्य है और अभी पुण्य का विचार है और मन में ऐसे विचार होने चाहिये कि, 'हमको ये संसार की खटपट नहीं चाहिये। पैसा हो तो भी दुःख होता है और हमको मोक्ष में जाने की जरूरत है।' मोक्ष की भावना होती है, तो आपको ये भावना से 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाते है। 'ज्ञानी पुरुष' की द्रष्टि मिली तो उसको क्या फल मिलता है? आनुसंगिक फल मिलता है याने मोक्ष फल मिलता है। 'ज्ञानी पुरुष' की सेवा का फल दुनियादारी में अभ्युदय होता है याने आपको संसार की हरेक चीज अच्छी मिलती है। मोक्ष जाने के लिए कोई अड़चन नहीं होती, ऐसे सब साधन मिल जाते है।
'ज्ञानी पुरुष' की पहचान, ज्ञानी द्वारा ! हम जिसको 'ज्ञान' देते है, उन सबको सम्यक् दर्शन हुआ है। ये तो सम्यक् दर्शन से भी आगे 'क्षायिक दर्शन' होता है।
प्रश्नकर्ता : उसके क्या लक्षण है?
दादाश्री : आर्तध्यान-रौद्रध्यान कभी नहीं होता। धर्मध्यान और शुक्लध्यान निरंतर रहता है। चिंता कभी नहीं होती। और ये सबके लक्ष में निरंतर आत्मा है, एक सेकन्ड भी आत्मा को नहीं भूलते, निरंतर आत्मा में ही जागृत रहते है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा में जागृत रहना वह मुश्किल है। आप बताईए, उसका साधन क्या है?
दादाश्री : हम 'ज्ञान' देते है तब आ जाना। आत्मा 'ज्ञानी पुरुष'
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
आपका सिर यहाँ हमारे चरणों में रख देंगे, तो सब ईगोइज़म चला जाता है। This is the main solvent of egoism ! ईगोइज़म का सोलवन्ट कभी निकला ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : आपके विचारों में जैनीझम का कुछ प्रभाव है? दादाश्री : हाँ, जैनीझम अकेले का नहीं, चार वेद का भी प्रभाव
के पास है, वह दूसरी कोई जगह पर नहीं मिलती। वह आत्मा ही परमात्मा है। वह 'ज्ञानी पुरुष' के अंदर प्रगट हो गयी है। उनकी कृपा से सब कुछ हो सकता है। उनकी एक बाल जितनी भी कृपा हो तो भी सारी दुनिया का भला हो जाता है। 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से सब कुछ हो सकता है। 'ज्ञानी' किसी चीज के भिखारी नहीं रहते है। उनको चाहे सारी दुनिया का सोना दे, तो उनको जरूरत नहीं है। सारी दुनिया की स्त्री दे तो भी उनको विषय का विचार भी नहीं आता और वह मान के भी भिखारी नहीं है, कीर्ति के भिखारी नहीं है, उनको अपमान का डर नहीं है, भय भी नहीं है। वीतराग है। उनको दुनिया में कोई आदमी क्या चीज दे सकता है?!
और उनको कुछ चाहिये भी नहीं। आपको इधर सब चीज मिल सकती है। सारी दुनिया का ही सुख उनके पास है और खुद ही सुख भुगतते है। यहाँ पर सब कुछ खुलासा कर सकते है। उनका शब्द कैसा है? वो शब्द अंदर जाता है, अंदर जाकर आवरण तोड़ देता है और आत्मा को टच होता है, फिर आपको भी प्रकाश मिल जाता है। ये आवरणभेदी शब्द होते है, इसमें बहुत वचनबल है।
प्रश्नकर्ता : हमारे कोई प्रश्न नहीं है। प्रश्न आपके दर्शन करते ही खतम हो गये।
दादाश्री : बस, बस, बराबर है। हमारे दर्शन से सभी प्रश्न खतम हो जाते है, पूरा समाधान हो जाता है। 'ज्ञानी पुरुष' कभी दुनिया में होते नहीं है। कभी किसी दफे दुनिया में 'ज्ञानी' का अवतार होता है। नहीं तो (आत्म) ज्ञानी' दुनिया पर नहीं होते। दुनिया में जब 'ज्ञानी' होते है तो दुनिया बहुत अजायब (अद्भूत) हो जाती है। उनके दर्शन हो गये तो फिर उससे ओर क्या चीज बाकी रहेगी?! 'ज्ञानी पुरुष' मनुष्य के जैसे दिखते है लेकिन वह अलौकिक होते है, लौकिक नहीं। मोक्ष की बात 'ज्ञानी परुष' के सिवा दूसरी जगह पर नहीं है। उनके दर्शन वह तो दुनिया में सबसे बड़ी चीज है। उनके दर्शन से, मात्र दर्शन से ही कितने सारे पाप भस्मीभूत हो जाते है। आत्मा की प्राप्ति पाप को जलाये बिना तो होती ही नहीं। आदमी कितना पाप लेकर फिरता है, फिर उसको साक्षात्कार कैसे होगा?
प्रश्नकर्ता : मगर आपके बेसिक प्रिन्सिपल जैनीझम पर है। दादाश्री : नहीं, नहीं, हमारा सिद्धांत निष्पक्षपाती है। प्रश्नकर्ता : आप कौन से धर्म में मानते है?
दादाश्री : सभी धर्म हमारे है। हम खुद ही है। हम तो निष्पक्षपाती है। हमारा कोई बोस नहीं, हमारा कोई अन्डरहेन्ड नहीं।
प्रश्नकर्ता : आपकी ये फिलोसोफी है, वो किसी एक धर्म को लक्ष में रखकर है या सर्व धर्म के लिए?
दादाश्री : नहीं, नहीं, ये सारी बातें मौलिक है। बिलकुल मौलिक है और आगे जो 'ज्ञानी' हो गये, उनके साथ इसका कनेक्शन है। फिलोसोफी दूसरी तरह की है लेकिन प्रकाश वह ही है। हम नया दूसरा प्रकाश कहाँ से लाये?
प्रश्नकर्ता : आप मस्जिद में जाते है, देहरासर में जाते है, ऐसा क्युं?
दादाश्री : हम मंदिर में भी जाते है। हमारे लिए नहीं जाते है, लेकिन सबके एन्करेजमेन्ट के लिए जाते है। क्योंकि सबकी मान्यता में आये कि मंदिर में जाना ही चाहिये। जहाँ तक बालिग है, वहाँ तक मंदिर में जाने का, मस्जिद में जाने का। बड़ा हो गया फिर जाने की जरूरत नहीं। फिर भी दूसरे को 'नहीं जाने का' ऐसा कोई बोल सकता ही नहीं। बड़ा हो गया तो भी जाना ही चाहिये, नहीं तो उसके पीछे दूसरे लोग नहीं जायेंगे।
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प्रश्नकर्ता : आप जो नवकार मंत्र बोले, पंच परमेष्ठि की आराधना की, वो भी व्यवहार है न?
दादाश्री : हाँ, बराबर है, सच बात है। वह सब व्यवहार है। मन व्यवहार में है, वाणी भी व्यवहार में है, शरीर भी व्यवहार में है और हम व्यवहार से निर्लेप रहते है और व्यवहार में हम बिलकुल कुशल रहते है। हमारा व्यवहार आदर्श रहता है। हमारे व्यवहार में कोई इतनी भी गलती नहीं निकाल सकता। और आत्मधर्म की बात अलग है। हम निरंतर स्वपरिणाम में, स्वपरिणति में रहते है। परपरिणति हमने सत्ताईस साल से नहीं देखी। हम स्वपरिणाम में ही रहते है, स्वचारित्र में ही रहते है।
प्रश्नकर्ता : आप और मैं, दोनों में फर्क नहीं है, तो आप भगवान कैसे और मुझे आपको मानना कैसे?
दादाश्री : बाय रियल व्यु पोईन्ट, आप और हम - दोनों ही भगवान है। बाय रिलेटिव व्यु पोईन्ट, ये विशेषण है और वो सब विनाशी है। भगवान तो हम नहीं है। जो अंदर बैठे है वो ही भगवान है। वो दादा भगवान है और ये दिखते है वो A.M.Patel है। हम थोडे समय इधर भी रहते है और थोड़े समय उधर भी रहते है। हम जब बात करते है, तब A.M.Patel के पास आ जाते है। नहीं तो हम 'दादा भगवान' के साथ एकाकार रहते है।
हमको १९५८ में ये ज्ञान प्रगट हो गया। पहले तो कुछ भी नहीं थे। हमको ऐसा लगता था कि हमको कुछ न कुछ मिलेगा लेकिन ऐसा विज्ञान मिलेगा, ऐसा तो हमारे खयाल में ही नहीं था। लेकिन ये तो बड़ी चीज प्रगट हो गई है। उससे आगे कुछ जानने का नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आपको कभी ऐसा अनुभव हुआ है कि कोई चीज रखकर भूल गये? जैसे रिक्षे में सफर करते है, तो छाता भूल गये ऐसा
कुछ?
दादाश्री : हमें कुछ भूल जाये तो कोई परेशानी नहीं होती। अरे, हमें आज क्या दिन है, कौन सी तारीख है, वो भी याद नहीं है। हमें दुनिया की कोई भी चीज याद नहीं रहती। नो मेमरी !
प्रश्नकर्ता : खुदा को तो हर चीज याद रहती है, फिर आपको क्यों नहीं याद रहती?
दादाश्री : नहीं, खुदा को कभी याद नहीं रहता। वो जो याददाश्त है न, मेमरी है न, वो क्या नुकसान करेगी? ईमोश्नल करेगी। याद तो सब इन्सान को रहती है। खुदा को तो याददाश्त होती ही नहीं है। मगर खुदा के पास उपयोग है और उपयोग से वह सब कुछ जानते है।
यह जो अक्रम विज्ञान है, वह स्वाभाविक विज्ञान है।
प्रश्नकर्ता : तीर्थंकरों में अंतिम महावीर भगवान हो गये। तो उनके बाद आगे कोई तीर्थंकर होनेवाले है?
दादाश्री : नहीं, ये टर्न में नहीं होंगे। ये फर्स्ट टर्न पूरा हो जायेगा फिर सेकन्ड टर्न आयेगा, उसमें दूसरे तीर्थंकर होंगे। ये दुनिया ऐसे गोल घुमती है, ऐसे ये राउन्ड में होते है। उसमें हाफ राउन्ड में चौबीस तीर्थंकर होते है। दूसरे हाफ राउन्ड में चौबीस तीर्थंकर होते है। अभी ये हाफ राउन्ड होता है। अभी ये हाफ राउन्ड पूरा हो जायेगा, लेकिन तीर्थंकर चौबीस पूरे हो गये। ये हाफ राउन्ड पूरा होने के लिए अभी चालीस हजार साल बाकी है।
प्रश्नकर्ता : ये चालीस हजार साल में ऐसी महान आत्मा कोई नहीं होगी?
दादाश्री : नहीं, यह अंतिम है। अभी उनसे आगे कोई है नहीं।
प्रश्नकर्ता : जाति स्मरणज्ञान आपके पास है?
दादाश्री : वह ज्ञान संसार के लिए है और यह तो विज्ञान है। हम तो ऐसा जानते ही नहीं कि आपका पिछला जन्म कौन सा था! हमारा पिछला जन्म कौन सा है, ये भी हम नहीं जानते है।
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प्रश्नकर्ता : मगर ऐसे कोई नहीं होंगे तो ये सब जीव के उपर अन्याय नहीं होगा?
दादाश्री : देखिये न, रात के समय में नये कपड़े खरीदने को जाये तो कोई देगा नहीं। कितना भी पैसा दो तो भी कोई नहीं देगा। ऐसा अभी आधी रात हो गई, काल (समय) बहुत अच्छा आनेवाला है। भगवान के निर्वाण के पच्चीससो साल के बाद, काल बहुत अच्छा आनेवाला है। सभी लोग सुखी हो जायेंगे। सारी दुनिया में बिलकुल शांति हो जायेगी। मगर अभी दस-बारह साल है, वह बहुत खराब है। उसमें भूकंप होंगे और देवकृत, मनुष्यकृत, कुदरतकृत ऐसी बहुत मुसीबतें आयेगी और ये चार अरब की बस्ती है, वो दो अरब की हो जायेगी। इसमें गेहुँ और कंकर दोनों अलग हो जायेंगे।
प्रश्नकर्ता : ये दुनिया के जो प्रोब्लेम्स है, वह सभी कब सोल्व हो जायेंगे? ये दुनिया में सभी को सुख-शांति कब मिलेगी? ओर कितना समय लगेगा?
दादाश्री : सारा दिन, सारी रात, जगत कल्याण के लिए सारी दुनिया में, फोरेन में, सभी जगह पर हम घूमते है और यह जगत कल्याण २००५ की साल में कम्प्लीट हो जायेगा।
प्रश्नकर्ता : हम सभी यह देखने के लिए उस वक्त रहेंगे? दादाश्री : क्यों नहीं रहेंगे? प्रश्नकर्ता : २००५ में कोई भी दु:खी नहीं मिलेगा?
दादाश्री : दुःख? वो खाने-पीने का दुःख रहेगा ही। मानसिक दुःख नहीं होगा। खाने-पीने का दु:ख भी लाख आदमीओं में दो आदमी को रहेगा। खाना तो दुनिया में बहुत है, अनाज भी बहुत है, सब चीज बहुत है लेकिन उनकी गुनहगारी से नहीं मिल रही है। भ्रष्टाचार जो जबरदस्ती से कराते है, वो सब चले जायेंगे। जिसको भ्रष्टाचार जबरदस्ती से करना पड़ता है, अपनी इच्छा नहीं है तो भी करना पडता है, वो सब इधर रहेंगे।
प्रश्नकर्ता : ये दुनिया का क्या होनेवाला है?
दादाश्री : दुनिया की स्थिति बहुत अच्छी हो जायेंगी। पच्चीससो साल से भस्मक ग्रह की असर से हिन्दुस्तान का बूरा काल(समय) था। अब अच्छा काल आ रहा है। २००५ में हिन्दुस्तान सारी दुनिया का केन्द्र हो जायेगा। दुनिया के सभी लोग पूछने को आयेंगे कि हम कैसे जीवन जीये, कैसे खाये, क्या पीये?।
प्रश्नकर्ता : आपको ये अध्यात्म ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ?
दादाश्री : १९५८ में सुरत के रेल्वे स्टेशन पर हमको ऐसे ही ये ज्ञान हो गया। हमने कोई प्रयत्न नहीं किया था। This is but natural! वो शाम को साड़े पाँच बजे थे। उस समय हमारा बिझनेस सोनगढ में था। वहाँ से साड़े पाँच बजे हम सूरत आये थे। वहाँ स्टेशन पर बहुत आदमीओं की भीड थी। फिर एक लकड़ी की बेंच पर हम सो गये, तब एक घंटे में हमने सब देख लिया कि ये दुनिया क्या चीज है? किसने बनायी? किस तरह से बनी? क्युं बनायी? हम कौन है? कर्म कौन करता है? मोक्ष क्या चीज है? बंधन क्या चीज है? दुःख क्या चीज है? आधि क्या चीज है? व्याधि क्या चीज है? समाधि क्या चीज है? वो सब हमने देख लिया। आपके साथ आज बात करते है, तो वो सब हम देखकर बोलते है। अभी कोई शास्त्र की बात नहीं बोलते, हम ज्ञान में देखकर बोलते है। फिर जितने भी प्रश्न पूछीये, इधर देखकर बोलने में क्या हर्ज? कोई बोजा ही नहीं हमको!
प्रश्नकर्ता : ये ज्ञान प्राप्त होने से आपको क्या फायदा हुआ?
दादाश्री : फायदा तो, हम निरंतर समाधि में ही रहते है। कोई गाली दे तो भी समाधि। हमको तो चलते-फिरते निरंतर समाधि ही रहती है।
प्रश्नकर्ता : ये ज्ञान हुआ, उसके पहले आपकी क्या स्थिति थी? आप कौन सी स्थिति में थे?
दादाश्री : केवल अज्ञानी। हम भी अज्ञानी थे। हमको ईगोइजम था।
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हमको लोभ नहीं था, मगर ईगोइजम इतना ज्यादा था कि रात को नींद भी नहीं आती थी कभी कभी। जबसे ईगोइजम चला गया तबसे समाधि हो गयी। १९५८ में ईगोइजम कम्लीट चला गया। बुद्धि भी चली गई।
प्रश्नकर्ता : ब्रह्मांड का आपको जो दर्शन हुआ, उसका थोडा सा वर्णन किजीए।
दादाश्री : अभी जो दुनिया की बाउन्ड्री है, वो बाउन्ड्री तो बहुत लिमिटेड है। मगर ये दुनिया इतनी नहीं है। वो तो बहुत बड़ी है। अपने जैसी तो पंद्रह दुनिया है। उसमें भी आदमी रहते है और मोक्ष के लिए वो सब हररोज प्रयत्न में रहते है। हमने वो सब जोग्रोफिकल (भौगोलिक) देख लिया और दूसरा, हम कौन है? ये दुनिया क्या है? किसने बनायी? भगवान क्या है? वो सब देख लिया. बस! इसमें आपको क्या पछने का विचार है? जैसा देखा है वैसा हम डिटेल में सब स्पष्टीकरण कर देंगे और मोक्ष का रस्ता भी बता देंगे। हम मोक्षदाता है और मोक्ष का दान देने के लिए आये हैं। जिसको मोक्ष चाहिये, उसको मोक्ष देते है।
कोई ढाई सो, कोई तीन सो, सबकी डिग्री अलग है। अनेक जन्मों से ये डिग्री बढ़ती है। हम ३६० डिग्री पूरी करके सेन्टर में आकर वापस ३५६ डिग्री पर रहे है। हम सेन्टर में आकर, उसे स्पर्श करके वापस ३५६ डिग्री पर आ गये। हमको चार डिग्री कम है।
प्रश्नकर्ता : ये अनुभूति आपको कैसे मालुम हुई कि आप ३५६ डिग्री पर है?
दादाश्री : वो सब हमको समझ में आ गया है। हम किसी भी पुस्तक की बात बोलते ही नहीं। हम तो विज्ञान में देखकर ही बोलते है। हम तो हजारो बातें बोलते है लेकिन सभी देखकर ही बोलते है। हमको विचार भी नहीं करना पडता। विचार हमको है ही नहीं। हम विचार करके कभी नहीं बोलते। हमारी निर्विचार भूमिका है। हमको कोई संकल्प नहीं, कोई विकल्प नहीं, कोई विचार नहीं ऐसी निर्विचार दशा है, निर्विकल्प दशा है, निरीच्छक दशा है। ये दुनिया में कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसकी हमें इच्छा हो, कोई भी प्रकार की इच्छा नहीं है। हमको बुद्धि बिलकुल नहीं है, हम अबुध है।
प्रश्नकर्ता : आपको जो दशा प्राप्त हुई है, वो प्राप्त करने के लिए कौन सी साधना करनी पडती है?
दादाश्री : नहीं, ये साधना से नहीं होता। This is but natural! प्रश्नकर्ता : याने गोड़ गीफ्ट हुआ?
दादाश्री : नहीं, भगवान किसी को गीफ्ट देते ही नहीं। जो खुद ही भगवान है फिर कौन गीफ्ट देनेवाला है! मगर ये प्राप्त होना सायन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स है। जितने साधन किये, वो सब साधन पूरे हो जायेंगे, तब ये टाईम आ जायेगा।
प्रश्नकर्ता : तो फिर आपकी अवस्था तक हमें कैसे पहुँचना है? दादाश्री : जिसकी अवस्था हमें चाहिये, उसके पास रहने की
हम ओपन टु स्काय है, हमारे यहाँ सिक्रेट बिलकुल नहीं है। सिक्रेट होता है, वहाँ भगवान नहीं होते, संपूर्ण भगवान नहीं होते है। सिक्रेट है, वहाँ कपट है और कपट है, वहाँ भगवान नहीं होते है। कभी थोड़े थोड़े श्रद्धा स्वरूप भगवान होते है लेकिन संपूर्ण प्रकाश नहीं होता है।
हमारे को लाईट संपूर्ण है, दर्शन में संपूर्ण है और वर्तन में ३५६ डिग्री है। वर्तन में चार डिग्री कम है लेकिन हमारे वर्तन में एक भी स्थूल भूल नहीं है। सूक्ष्म भूल याने बुद्धिवाले लोग समझ जायें ऐसी भल भी नहीं। हमारे को भूल है, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम। मगर वो दूसरों को नुकसान नहीं करती है। हमको ये चार डिग्री कम है, इसके लिए ये भूल रही है।
सब धर्म समान नहीं है। ३६० डिग्री के धर्म है और सेन्टर में खुदा है। धर्म में कोई लोग दस डिग्री पर है, कोई पच्चीस डिग्री पर है, कोई पचास डिग्री पर है, कोई सो डिग्री पर है, कोई देढ सो, कोई दो सो.
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जरूरत है। उसको देखकर ही वह अवस्था प्राप्त हो जाती है। जैसे किसी लड़के को जेब काटने में ऐक्सपर्ट करना हो, तो वह कला का जो ऐक्सपर्ट है, उसके पास वह लड़के को छह महिना रखो तो वह छह महिने में तैयार हो जाता है। बस, ये ही रस्ता है, दूसरा रस्ता नहीं है।
दादाश्री : यहाँ प्रवचन रहता ही नहीं। प्रवचन कौन करते है? जो अहंकारी है। बाहर सब लोग प्रवचन ही करते है। हम तो कभी बोले ही नहीं। ये कौन बोलता है आपके साथ? ये आपके साथ ओरिजिनल टेपरेकर्ड बोलती है, उसको आप सुनते है और हम उनके ज्ञाता-द्रष्टा है। उनका व्यवहार ऐसा है। अहंकारी लोग सब प्रवचन ही बोलते है और वो संसार में ही है। हम संसार में एक मिनीट भी रहते नहीं। एक सेकन्ड भी रहे नहीं।
____ पुस्तक में रास्ता लिखा ही नहीं। पुस्तक में ज्ञान नहीं है और अज्ञान भी नहीं है। जो अज्ञान को जानते है, वो ज्ञान को जानने की तैयारी करते है। पुस्तक में अज्ञान हो तो बहुत अच्छा मगर अज्ञान भी नहीं है। अज्ञान जान ले तो ज्ञान क्या चीज है, वो मालूम हो जाता है और ज्ञान जान ले तो अज्ञान क्या चीज है, वो मालूम हो जाता है। सब लोग अज्ञान भी नहीं जानते है और बोलते है कि हम अज्ञानी है। ऐसा अज्ञानी मत बोलो। हम तो उसको अर्धदग्ध बोलते है। आधा जला हुआ, आधा लकड़ी ऐसा।
हमारा ये एक-एक शब्द है, वो ही शास्त्र है, सच्चे शास्त्र है। फिर शास्त्र लिखने में कुछ भूल हो तो वो लिखनेवाले की है। वो ठीक बात है मगर इसमें हमारे बोलने का आशय है, वो सच्ची बात है।
ऐसी बात है कि सारा जगत सब लौकिक ही बात जानता है। वो लौकिक तो इतना छोटा लडका भी जानता है और साध-संत भी लौकिक जानते है। जो ज्ञानी पुरुष है, वो ही अलौकिक बताते है। हम दिव्यचक्षु से देखकर बोलते है कि क्या चल रहा है ! हम कोई पुस्तक की बात नहीं बताते है। हम वास्तविक स्वरूप, हकीकत स्वरूप बताते है। हम जैन है, हम वैष्णव है, हम शीख है, हम मुसलमान है', वो सब मत है। मत है, वहाँ कोई दिन सच्ची बात मालूम नहीं होगी। मत है वहाँ वास्तविकता होती ही नहीं है। एक अज्ञानी को लाख मतभेद होते है और लाखो ज्ञानीओं का एक ही मत होता है।
बहुत बात निकली। ये तो सारा विज्ञान है। बहुत लंबा है। हम बाईस साल से बोलते है तो भी पूरा होता ही नहीं। ऐसे बात आगे निकलती ही जाती है और संपूर्ण अविरोधाभास है। एक शब्द भी विरोधाभास नहीं है। सब शास्त्र विरोधाभास से ही है। क्योंकि वो रिलेटिव में से रियल ढूँढते है, रिलेटिव के आधार से रियल ढूँढते है। ये अक्रम विज्ञान खुद ही रिलेटिव रियल है। हमारी वाणी में है, वहाँ तक रियल है लेकिन वो रिलेटिव रियल है। उसका फल रियल ही मिल जायेगा। नहीं तो ये दुनिया को किसी ने ऐसा नहीं बोला कि the world is the puzzle itself ! हम बोलते है, वो सभी अपूर्व बात है। पूर्वे कभी सुनी ही नहीं, पढ़ी नहीं ऐसी अपूर्व बात है और अपूर्व बात से ही भगवान मिलते है। ये पूर्वानुपूर्वी बात से भगवान कभी मिले नहीं और किसी को मिलेंगे भी नहीं। ये तो खाली आधार है, सभी लोगों का अवलंबन है। उससे आगे बढ़ते है मगर भगवान नहीं मिलेंगे। वो अवलंबन पकड़कर आगे जाना है, सदा के लिए रहने का नहीं है। मनुष्य अवतार में पूरा काम हो सके, ऐसा संजोग मिल जाये तो ये संजोग का लाभ उठाना चाहिये। नहीं तो संजोग नहीं मिले तो क्या करोगे?
'ज्ञानी पुरुष' को कोई चीज की जरूरत नहीं है। सारी दुनिया की
प्रश्नकर्ता : यहाँ प्रवचन जैसा कुछ होता है? ।
दादाश्री : नहीं, प्रवचन तो जिधर ज्ञान नहीं है. वहाँ प्रवचन है। प्रवचन याने अपना अभिप्राय। वो भी एक विषय में 'ज्ञानी पुरुष' प्रवचन कभी नहीं करते है। 'ज्ञानी' को तो प्रश्न पूछने चाहिये।
प्रश्नकर्ता : तो वहाँ मौन भाषा है? प्रवचन जैसा कुछ नहीं है?
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ज्ञानी पुरुष की पहचान
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प्रश्नकर्ता : 'मैं ही सब हूँ' वो ही रीत?
औरते, देवीयाँ आ जाये तो 'ज्ञानी' उनके पेकींग नहीं देखते है, वो अंदर क्या चीज है. वो ही देखते है। ये गध्धा है वो भी पेकींग है, कुत्ते का पेकींग है, औरत का पेकींग है, पुरुष का पेकींग है। इस पेकींग में क्या देखने का? कोई लकड़े का पेकींग हो, कोई सोने का पेकींग हो, इसमें हम तो अंदर क्या चीज है, वो देखते है। जो जीर्ण होनेवाला है, जो टेम्पररी एडजस्टमेन्ट है, उसको क्या करने का? जो परमेनन्ट है, उसके साथ हमारा संबंध है।
दादाश्री : वो ठीक बात है। वो तो रियालिटी में 'मैं ही सब हूँ' वह बड़ी बात है। 'तुं ही-तुं ही' नहीं है, अभी 'मैं हूँ-मैं हूँ' सब में है। मगर what is in relative? व्यवहार तो चाहिये न? व्यवहार में तो, इसने ऐसा किया, उसने वैसा किया, ये आम खट्टा है, ये आम मीठ्ठा है, फिर व्यवहार में क्या करने का? रिलेटिव में हम जीवमात्र से अभेद प्रेम से रहते है, निरंतर अभेद प्रेम। हमारी फिलसूफी ये ही है। वो आज खुल्ला कर दिया। जिसको ठीक लगे वो पकड़ ले, नहीं ठीक लगे तो रख दो।
ये 'दादा भगवान' नहीं है। ये तो 'A. M. Patel' है और हम 'ज्ञानी पुरुष' है। 'ज्ञानी पुरुष' और 'दादा भगवान' में क्या डिफरन्स है? दादा भगवान की ३६० डिग्री है और हमारी ३५६ डिग्री है। हमको चार डिग्री कम है, इसलिए हम अलग बताते है। अंदर भगवान है, वो चौदह लोक के नाथ हो गये है और संपूर्ण प्रगट हो गये है। हम भी बोलते है कि 'हम' 'दादा भगवान' को नमस्कार करते है और आपको भी बोलते है कि 'आप भी दादा भगवान को नमस्कार करो।' हमको चार डिग्री कम है तो आपको हन्ड्रेड डिग्री कम है। तो सरप्लस टाईम में 'दादा भगवान को नमस्कार करता हूँ' बोलना। हम ३६० डिग्री पूरी करने के लिए प्रयत्न करते है। प्रयत्न याने प्रयत्न करने की कोई जरूरत नहीं लेकिन 'दादा भगवान' की कृपा माँगते है। आपको भी क्या चाहिये? 'दादा भगवान' की कृपा चाहिये?
हमने ये थीयरी एडोप्ट किया है कि जीवमात्र से अभेद भाव। चाहे वो गुन्डा हो या दानेश्वरी हो। चाहे वो सती हो या वेश्या हो। हमको कोई एतराज नहीं। रिलेटिव में अभेद प्रेम। और हम सभी जीवों को निर्दोष ही देखते है। जीवमात्र निर्दोष ही है लेकिन आप प्रुफ नहीं कर सकते है, हम प्रुफ कर सकते है।
अंत में क्या होने का है? वीतराग होने का है। वीतराग याने एब्सोल्यूट ! I am in absolutism, not in theory but in theorm !! ये थीयरेटिकल बात नहीं है। हम अनुभव की बात करते है। जब हमारी बात पर चलेगा, तो अनुभव में आ जायेगा।
जय सच्चिदानंद
आपके अंदर भी 'दादा भगवान' है लेकिन वो प्रगट नहीं हुए और हमारे अंदर प्रगट हो गये है। छब्बीस साल से प्रगट हो गये है। वो सूरत के स्टेशन पर हमको लाईट लाईट हो गया, फूल लाईट (संपूर्ण प्रकाश) हो गयी, ज्योति स्वरूप हो गये और हमें एक घंटे में सब कुछ दिखाई दिया। फिर कभी सारी जिंदगी में अड़चन ही नहीं रही। वह भगवान के आशीर्वाद से सब कुछ कर सकते है, हम खुद कुछ नहीं कर सकते है।
सारी दुनिया में सभी जीव के साथ मैत्री करने की क्या रीत है? हमारे पास ये रीत है। ये थीयरी नहीं है, थीयरम में है।
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________________ 39. दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित हिन्दी - अंग्रेजी पुस्तकें 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 2. जगत कर्ता कौन? 3. कर्म का विज्ञान अंत:करण का स्वरूप 5. यथार्थ धर्म सर्व दु:खो से मुक्ति 7. आत्मबोध दादा भगवान का आत्मविज्ञान टकराव टालिए 10. हुआ सो न्याय 11. एडजस्ट एवरीव्हेयर 12. भूगते उसी की भूल 13. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 14. HarmonyinMarriage 84. Generation Gap 16. Who aml? 17. Avoid Clashes 18. Anger 88. Worries Ro. The essence of all religions 21. Pratikraman 22. Thescience of karma 23. The Faultisof the sufferer 24. AdjustEverywhere 84. Whatever happens is justice प्राप्तिस्थान पूज्य डॉ. नीरुबहन अमीन तथा आप्तपुत्र दीपकभाई देसाई अहमदाबाद मुंबई दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, बी-904. नवीनआशा एपार्टमेन्ट, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, | दादासाहेब फालके रोड, अहमदाबाद-३८००१४. दादर (से.रे.), मुंबई-४०००१४, फोन: 7540408,7543979, फोन : 24137616 E-mail : info@dadabhagwan.org| मोबाईल : 9820-153953 अडालज : त्रिमंदिर संकुल, अडालज ओवरब्रीज के पास, अहमदाबाद कलोल हाईवे, अडालज, जि. गांधीनगर - 382423. फोन: (079)3970102-3-4-5-6, 3971717 सुरत : श्री विठ्ठलभाई पटेल, विदेहधाम, 35, शांतिवन सोसायटी, लंबे हनुमान रोड, सुरत. फोन : 0261-2544964 राजकोट : श्री अतुल मालधारी, माधवप्रेम एपार्टमेन्ट, माई मंदिर के पास, 11, मनहर प्लोट, राजकोट फोन : 0281-2468830 चेन्नाई : अजितभाई सी. पटेल, 9, मनोहर एवन्यु, एगमोर, चेन्नाई-८ फोन : 044-8191369, 8191253, Email : torino@vsnl.com US.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 902 SW Mifflin Rd, Topeka, Kansas 66606. Tel : (785) 271-0869, E-mail : bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona, CA 92882 Tel. : 909-734-4715, E-mail : shirishpatel@attbi.com U.K. : Mr. Maganbhai Patel, 2, Winifred Terrace, Enfield, Great Cambridge Road, London, Middlesex, ENI 1HH, U.K. Tel : 020-8245-1751 Mr. Ramesh Patel, 636, Kenton Road, Kenton Harrow. Tel.:020-8204-0746.E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada: Mr. Bipin Purohit, 151, Trillium Road, Dollard DES Ormeaux, Quebec H9B 1T3, CANADA. Tel. : 514-421-0522. E-mail : bipin@cae.ca Africa : Mr. Manu Savla, Nairobi, Tel : (R) 254-2-744943 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org