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करके 'काम' निकाल लेना चाहिए।
'ज्ञानी पुरुष' तो आप्तपुरुष है याने मोक्षमार्ग में और संसार व्यवहार में पूर्ण तौर से विश्वासनीय, श्रद्धेय ! प्रगट पुरुष का ही माहात्म्य है, कि उनके दर्शन से ही आत्मशक्ति प्रगट होती है।
'ज्ञानी पुरुष' लघुतम - गुरुतम भाव में होते है। 'रिलेटिव' में लघुतम भाव में, 'रियल' में गुरुतम भाव में और 'स्वभाव से अभेद भाव में होते है।' जिसको मोक्ष चाहिए तो वहाँ गुरुतम भाव में और कोई गाली दे, मारे तो वहाँ लघुतम भाव में होते है।
प्रत्येक जीव का शिष्यपद ग्रहण करने की द्रष्टि जिसने पाई है, वही 'ज्ञानी' हो सकता है। 'ज्ञानी पुरुष' तो विश्व के सेवक और सेव्य, दोनों होते है । जगत की सेवा भी खुद लेते है और जगत को सेवा भी खुद देते है।
जब तक आत्मज्ञानी नहीं मिलते तब तक प्रभु के पास भक्ति माँगनी चाहिए और 'ज्ञानी पुरुष' मिले तो उनके पास मोक्ष माँगना। 'ज्ञानी पुरुष' को भक्ति की जरूरत ही नहीं, लेकिन उनका ज्ञान प्राप्त करने के लिए मुमुक्षु को 'ज्ञानी पुरुष' की भक्ति करना आवश्यक है। और 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो उनकी भक्ति नहीं होती बल्कि अपने ही आत्मा की भक्ति होती है। उनकी आरती, चरणविधि याने अपने आपकी ही आरती और चरणविधि होती है। 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो खुद को खुद के दर्शन करने
होते है। जहाँ चेतन प्रगट हुआ है, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' की भक्ति से चेतन प्रगट होता है, उनकी आराधना करना याने शुद्धात्मा की आराधना करने के बराबर है, परमात्मा की आराधना करने बराबर है और वही मोक्ष का कारण है। 'ज्ञानी पुरुष' की भक्ति में कीर्तन भक्ति करना, यह तो सर्वश्रेष्ठ भक्ति है।
'ज्ञानी पुरुष' अमूर्त भगवान के दर्शन कराते है, तत् पश्चात् मूर्ति के दर्शन की आवश्यकता नहीं रहती। अमूर्त की भजना से मोक्ष मिलता है और मूर्ति की भजना से संसार 'ज्ञानी पुरुष' मूर्तामूर्त है, मूर्त और अमूर्त दोनों स्वरुप से होते है, उनकी भजना से संसार में अभ्युदय और अध्यात्म
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में आनुषंगिक, दोनों फल मिलते है। संसार में विघ्न नहीं आते, शांति रहती है और मोक्षप्राप्ति भी होती है।
'ज्ञानी पुरुष' धर्म व्यवहार में भी संपूर्ण होते है। निरंतर अमूर्त में रहते है, अमूर्त के निरंतर दर्शन करते है, फिर भी मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरूद्वार, देरासर, माताजी के मंदिर में, शिव के मंदिर में आदि सभी जगह वे जाते है। ताकि लोंगो के लिए बाद में यह व्यवहार चालू रहे। अमूर्त के दर्शन अभी नहीं हुए और मूर्ति के दर्शन क्या करना, ऐसा तिरस्कार भाव लोगों में जाग न जाये, इसलिए वे मिसाल देते है।
'ज्ञानी पुरुष' का संग याने सत् का संग परम सत्संग, उसे परमहंस की सभा कहते है। जहाँ ज्ञान और अज्ञान का विभाजन किया जाता है वह परमहंस की सभा और जहाँ धर्म की बातें होती है, वह हंस की सभा है और जहाँ वाद-विवाद हो, किसी की सच्ची बात भी सुनने की तैयारी नहीं, वह कौओ की सभा है। 'ज्ञानी पुरुष' के पास तो जो चीज चाहिए, वह मिल सकती है। मोक्ष माँगे तो मोक्ष भी मिल सकता है। क्योंकि वे मोक्षदाता पुरुष होते है। शास्त्रकारों ने इसलिए 'ज्ञानी पुरुष' को देहधारी परमात्मा कहा है। वहाँ संपूर्ण 'काम' निकल जायेगा।
'आत्मा' जानने जैसा है और उसे जानने के लिए 'ज्ञानी पुरुष' के पास ही आना पड़ेगा। शास्त्र का या पुस्तक का आत्मा नहीं चलेगा। पुस्तक में लाख ‘दिये' छपे हो लेकिन वे अंधेरे में प्रकाश देंगे? ! नहीं, प्रत्यक्ष दिया ही रोशनी देता है। 'ज्ञानी पुरुष' प्रत्यक्ष 'दिया' है, 'प्रत्यक्ष' से ही अपना 'दिया' प्रगट हो सकेगा।
समस्त विश्व के कल्याण के 'ज्ञानी पुरुष' निमित्त होते है, कर्ता नहीं । वो चाहे सो दे सकते है, क्योंकि उनमें किंचित् भी कर्ताभाव नहीं होता। जहाँ तक कर्ताभाव है, वहाँ तक पुद्गल का फल मिलता है, वहाँ आत्मा प्राप्त नहीं होता।
'ज्ञानी पुरुष' कर्तापद में नहीं होते, उन्हें उपाय करने का या न करने का अहंकार नहीं होता। सहज भाव से उनके उपाय हो जाते है, 'निरूपाय
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