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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
तक वेद ने बताया है। फिर बुद्धि जहाँ खतम हो जाती है, तो वेद क्या बोलता है कि This is not that, this is not that ! आत्मा ऐसी नहीं है, आप आत्मा की खोज करते हो वो आत्मा इसमें नहीं है। तो फिर आत्मा को जानने के लिए क्या करना? तब कहते है, गो टु 'ज्ञानी'। क्योंकि आत्मा नि:शब्द है, अवक्तव्य है, अवर्णनीय है। इसलिए गो टु 'ज्ञानी', जो परमात्मामय हो गये हैं, वो सब कुछ बतायेंगे।
माला कितनी भी फेरे मगर माला का क्या फल मिलता है? भौतिक फल मिलता है। चित्त व्यग्र हो जाये तो माला फेरने से चित्त की एकाग्रता होती है। कबीरजी कहते है, 'माला बिचारी काष्ट की, बीच में डाला सूत, माला बिचारी क्या करे, जब जपनेवाला कपुत।'
प्रश्नकर्ता : मगर माला फेरना वह पहली स्टेज है न?
प्रश्नकर्ता : वेद तो लौकिक में ही घूम रहे है।
दादाश्री : हाँ, ये लौकिक चलाने के लिए वेद सायन्स है, बहुत सच्चा विज्ञान है। मगर आत्मा जानने की हो, तो वो उसमें नहीं है। वेद खुद बोलता है कि नेति नेति।
दादाश्री : हाँ, बराबर है। जो जिस स्टान्डर्ड में है, उसको वो ही साधन चाहिये। वो साधन से काम आगे बढ़ता है। फिर 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाये तो कोई साधन की जरूरत नहीं। क्योंकि वो साध्य ही दे देंगे।
ये बात करते है, इसमें संसार का एक शब्द नहीं। ये बात ही अलौकिक है, आत्मा-परमात्मा की बात है, दूसरी बात नहीं है। ये अलौकिक विज्ञान है। लौकिक में लोग गलत जानते है, उससे क्रोध, मान, माया, लोभ ये सब कितनी निर्बलता है!
आत्मा पुस्तक में नहीं है। पुस्तक में होती ही नहीं। पुस्तक में तो अंगुलिनिर्देश किया है, संज्ञा बतायी है, वो आत्मा नहीं दे सकती। तमाम शास्त्र क्या बोलते है कि 'आप आत्मा की खोज करते हो तो गो टु ज्ञानी ! जो सजीवन मूर्ति हो, ज्ञानी हो उनके पास जाओ।' सजीवन मूर्ति ना हो तो बिलकुल काम नहीं होगा। कृष्ण भगवान गये, महावीर भगवान गये, तो उनसे अभी आपका काम नहीं हो सकेगा। अभी हाजिर हो, उनसे ही आपका काम हो जायेगा। पुस्तक से भी काम नहीं हो सकता। पुस्तक तो आपको डिरेक्शन (निर्देशन) देता है। अंतिम जो आत्मा है, दरअसल आत्मा, वो तो 'ज्ञानी पुरुष' के बिना कोई दे सकता नहीं। भगवान भी नहीं दे सकते। भगवान को देने की शक्ति ही नहीं है, वो देहधारी होने चाहिये। भगवान को तो वाणी होती ही नहीं है, कोई क्रिया ही नहीं होती है। जो 'ज्ञानी पुरुष' है, वहाँ भगवान संपूर्ण प्रगट हो गये है, वो 'ज्ञानी पुरुष' आत्मा दे सकते है।
सिद्धांत में तो सिद्धांत ही होना चाहिये। सिद्धांत में एक शब्द भी गलत नहीं चलता है। ये दुनिया की सभी पुस्तकें है, वो सब सिद्धांत नहीं है। सिद्धांत तो बड़ी चीज है। वो पुस्तक तो रिलेटीव है लेकिन वो पहले चाहिये, क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' तो कभी ही होते है। ज्ञानी पुरुष' मिले और अपना काम निकल गया तो अच्छी बात है, नहीं तो पुस्तक तो चाहिये ही। वो तो हररोज का खुराक है।
आत्मप्राप्ति - शास्त्र से या 'ज्ञानी' से? 'ज्ञानी पुरुष' मिल गये तो सारी दुनिया के सभी शास्त्र आ गये। शास्त्रों में जो लिखा है, इससे भी आगे जानने का है। शास्त्र के सिवा बाहर तो बहुत जानने का बाकी है। शास्त्र में पूरा नहीं आ सकता। शब्द में तो पूरा व्यक्त नहीं हो सकता, थोडा ही व्यक्त हो सकता है। दूसरा तो बहुत ज्ञान जानने के लिए बाकी रहता है। वो 'ज्ञानी पुरुष के पास है। वहाँ संज्ञा से समझ में आ जाता है। ज्ञानी पुरुष' संज्ञा करते है। जैसे एक गँगा आदमी होता है न, वो दूसरे मुंगे आदमी को ऐसे हाथ से कुछ संज्ञा करता है। दूसरा आदमी भी ऐसी हाथ से संज्ञा करता है। ऐसे दोनों आदमी स्टेशन पर चले जाते है। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' संज्ञा से बात बता देते है कि आत्मा क्या चीज है! पुस्तक तो आपको डिरेक्शन देगा कि वहाँ पर जाईये, दूसरा कुछ नहीं कर सकता। पुस्तक तो खुद में जो शब्द की ताकत है, उतनी