________________
दशा में पहुँचे हुए 'ज्ञानी' पब्लिक में लोक कल्याण करते हुए विचरते है।
संपूज्य दादाश्री कहते है कि, हमारी यही भावना है कि यह 'अक्रम विज्ञान' विश्व में फैलना चाहिए। अक्रम विज्ञान का लाभ लोगों को अवश्य मिलना चाहिए। जगत का कल्याण होना ही चाहिए। जगत में परम शांति प्रसरो।
संसार में अभिवृद्धि, सच्चा मार्ग बतलाने के लिए गुरु करना आवश्यक है। गुरु सांसारिक सर्व धर्म सिखाते है लेकिन संसार से वे मुक्ति नहीं दिलवा पाते। संसार से मुक्ति तो सिर्फ 'ज्ञानी पुरुष' ही दे सकते है। गुरु संसार व्यवहारपक्षी होते है और 'ज्ञानी पुरुष' आत्मपक्षी होते है, व्यवहार में गुरु और निश्चय में 'ज्ञानी' ! 'ज्ञानी' मिलने पर भी पहले के व्यवहार के गुरु पर अभाव नहीं करना और उनका उपकार मानना। ____ मंझिल पाने के लिए मार्ग में भटकते हुए पथिक को तो किसी को रास्ता पूछना ही पड़ता है, किसी को गुरु बनाना ही पड़ता है। अरे, स्टेशन का रास्ता नहीं मालम उसे किसी को रास्ता पछना ही पड़ता है। तो फिर यह तो मोक्ष की गली, छोटी सी, भूलभूलावेवाली। इस मोक्षपथ पर तो 'ज्ञानी पुरुष' ढूँढकर उनके पीछे पीछे चले जाना। 'ज्ञानी पुरुष' मोक्ष देने के 'लायसन्सदार' होते है, अपनी तैयारी चाहिए। 'ज्ञानी पुरुष' के पास सिर्फ दो चीजों की आवश्यकता है; 'परम विनय' और 'मैं कुछ नहीं जानता हूँ' ऐसा भाव। सच्चा जाना तो उसे कहा जाता है कि जिसके पश्चात् ठोकर नहीं लगती। यदि ठोकर लगती है, चिंता, कलेश, अशांति रहती है, तो फिर उसे 'मैं कुछ जानता हूँ' किस तरह से कहा जाये?! ____ 'यह' तो विश्व की अध्यात्म में नगद बैंक है। एक घंटे में ही 'डीवाईन सोल्युशन' मिल जाता है। नहीं तो उधार कहाँ तक चलेगा? अनंत अवतार से उधारी बैंक में ही हप्ते भरे है, नगद मिले तो काम बने!
विश्व के लोग 'थियरी ऑफ रिलेटिविटी' में है। जिन्हें 'रियल' और 'रिलेटिव' का भेदभाव प्राप्त हो चूका है, वे 'महात्मा' 'थियरी ऑफ रियालिटी' में है और 'ज्ञानी' स्वयं 'थियरी ऑफ एब्सोल्युटिझम' में है।
27
'थियरी' ही नहीं बल्कि वे तो 'एब्सोल्युटिझम के थियरम' में होते है। जर्मनीवाले हमारे भारतीय शास्त्रों को 'एब्सोल्युटिझम' की खोज करने के लिए ले गये है। आज 'ज्ञानी पुरुष' खुद 'एब्सोल्युट' प्रगट हुए है। सारे विश्व के लोगों की खोज का अंत उनके पास ही होता है।
'ज्ञानी पुरुष' 'थियरी ऑफ रिलेटिविटी' में से 'थियरी ऑफ रियालिटी' में ला सकते है। उसके बाद ही 'रियल' धर्म, आत्मधर्म कास्वधर्म का पालन होता है। जब तक आत्मा का एक भी गुण नहीं जाना, तब तक आत्मधर्म कैसे पाला जाता? तब तक सभी परधर्म में ही है।
ज्ञान को ज्ञान में और अज्ञान को अज्ञान में बिठाना, उसका नाम यथार्थ दिक्षा। ऐसी दिक्षा, 'ज्ञानी पुरुष' के अलावा कौन दे सकता है? जगत का स्वभाव अज्ञान प्रदान करना है और 'ज्ञानी पुरुष' का स्वभाव ज्ञान प्रदान करना है। अज्ञान भी निमित्त से ही मिलता है और ज्ञान भी निमित्त से ही मिलता है। 'ज्ञानी पुरुष' जब आत्मज्ञान प्रदान करते है, तब आत्मा-अनात्मा के सारे गुणधर्म को स्पष्ट करके उन दोनों के बीच 'लाईन ऑफ डिमार्केशन' डाल देते है। उसके बाद आत्मधारा, अनात्मधारा निरंतर अलग अलग ही रहती है।
संसार को जड़मूल से निर्मूल करने बहुत विरल पुरुष अनंत अवतार से प्रयास कर रहे है। कोई इस वृक्ष के पत्तों को काटा करते है, तो कोई उसकी डालियों को, कोई उसके मुख्य थड़ को काटकर रखते है। फिर भी वह वृक्ष निर्मूल नहीं होता। 'ज्ञानी पुरुष' संसारवृक्ष के मुख्य मूल (मेईन रूट) को भली तरह से पहचानते है। इसलिए वह उसमें ही दवाई रख देते है, जिससे पेड़ के कोई भी हिस्से को हिलाये बिना खुद बखुद पेड़ खत्म हो जाता है। यह 'अक्रम विज्ञान' की बहत बडी देन है. नहीं तो एक घंटे में मोक्ष, एकावतारी पद कैसे प्राप्त हो सकता है?!!
संसार के तमाम धर्मशास्त्रों को पढकर १०० % (शत प्रतिशत) धर्म घारण करने के बाद धर्म का मर्म निकलना शुरु हो जाता है। १०० % मर्म समज में आने के बाद ज्ञानार्क निकलने की शुरुआत होती है। अक्रम
28