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मार्ग' के 'ज्ञानी पुरुष' एक घंटे में ज्ञानार्क पीला देते है।
मोक्ष में जाने के लिए दो मार्ग है - एक क्रमिक, दूसरा अक्रमिक ! क्रमिक यह आम रास्ता है, हमेशा का मार्ग है। उसमें साधक को 'स्टेप बाय स्टेप' आगे बढ़ने का रहता है। कोई सच्चा साथी मिल गया तो पांचसो 'स्टेप' चढ़ा देता है और कुसंग मिल गया तो पांच हजार 'स्टेप्स' उतार देता है। इसलिए इस मार्ग का भरोसा नहीं है। फिर भी आमतौर पर यही मार्ग हमेशा होता है। अक्रम मार्ग तो कभी ही होता है, जो अपवाद मार्ग है। इसमें स्टेप्स नहीं चढ़ना है, 'लिफ्ट' में सीधा ही, बिना श्रम से उपर चढना है। सिर्फ 'ज्ञानी' की आज्ञा के अनसार 'लिफ्ट' में बैठना है। 'जानी पुरुष' एक घंटे में आत्मज्ञान कराते है और साथ में तमाम धर्मो के निचोड़ स्वरुप पांच आज्ञाएं देते है, जो जीवन व्यवहार को आदर्श बनाकर, आत्मा में निरंतर रहने में सहायभूत और रक्षक होती है।
क्रमिक मार्ग में तो क्रोध-मान-माया-लोभ, परिग्रह आदि का धीरे धीरे त्याग करते करते अंत में अहंकार संपूर्ण शुद्ध हो जाता है याने कि अहंकार में एक भी परमाणु क्रोध का, मान का, माया का या लोभ का नहीं रहता, तब संपूर्ण शुद्ध अहंकार बनता है। वो शुद्ध अहंकार शुद्धात्मा से अभेद हो जाता है और अक्रम मार्ग में 'ज्ञानी' कृपा से पहले अहंकार शुद्ध हो जाता है और खुद शुद्धात्मा पद में आ जाता है। फिर डिस्चार्ज क्रोध-मान-माया-लोभ रह जाते है, उनके उदय में 'शुद्धात्मा' तन्मयाकार नहीं होता। इसलिए वे स्वभाव से 'डिस्चार्ज' होकर खत्म हो जाते है। 'खुद' शुद्धात्मा हो गया, इसलिए नये कर्म नहीं चार्ज होते। नया कर्म तो तब ही 'चार्ज' होता है कि जब मन की अवस्था में 'खुद' 'अवस्थित' हो जाता है, उसका 'रिझल्ट' 'व्यवस्थित' आता है। 'ज्ञानी पुरुष' अहंकार को शुद्ध कर देते है, सूक्ष्म क्रियाओं में भी बाद में 'खुद' अलग रहते है, उससे कर्तापद उत्पन्न ही नहीं होता और कर्म'चार्ज' नहीं होता। खुद निरंतर अकर्ता भाव में रहते है, उतना ही नहीं, 'व्यवस्थित' किस तरह से कर्ता है, उसका संपूर्ण दर्शन रहता है। कर्तापद छूट गया, तो कर्म नहीं बँधता। क्रमिक मार्ग का 'बेझमेन्ट' आज सड़ गया है। इस वजह से क्रमिक
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मार्ग 'फ्रेक्चर' हो गया है। इसलिए अक्रम मार्ग का भव्य उदय कुदरती तौर से हआ है। क्रमिक मार्ग का 'बेझमेन्ट' क्या है? मन-वचन-काया का एकात्मयोग होना याने मन में जो है, वही वाणी से बोलता है और वही वर्तन में आता है। आज तो मन में एक, वाणी में दूसरा और वर्तन में तृतीयम ही होता है। इसलिए क्रमिक मार्ग चल नहीं सकता। अक्रम मार्ग में तो मन-वचन-काया को साईड पर रखकर निज स्वरूप का निरंतर लक्ष बैठ जाता है। फिर तो जैसा उदय आता है, उसका समभाव से निकाल कर देने का रहता है।
जीवन व्यवहार के रोजबरोज के ज्ञान की उतनी ही स्पष्टता की है, जितनी आत्मा-परमात्मा की ! उनके पास केवल आत्मा-परमात्मा की ही बातें नहीं है, रोजबरोज अनुभव में आती हुई संसार व्यवहार की ज्ञानमय द्रष्टि की बातें भी है। इस व्यवहार से ऐसे बाहर से भागकर तो नहीं छूट सकते। किन्तु व्यवहार में संपूर्ण नाटक की तरह सुंदर अभिनय अदा करते करते व्यवहार पूरा करना है। नाटक में राजा भर्तृहरि का अभिनय करता है, वह नट, लक्ष्मीचंद अलग और भर्तृहरि का अभिनय अलग, ऐसे रखता है। उसी तरह पति का, शेठ का, पिता का अभिनय करनेवाला अलग
और स्वयं शुद्धात्मा अलग, यह भेदरेखा को कायम हाजिर रखकर इस जीवन नाटक के सामने आयी हुई हर अदाकारी पूर्ण वफादारी से अदा करने की प्रतिक्षण जागृति अक्रम विज्ञान द्वारा 'ज्ञानी पुरुष' प्रदान करते है। अर्थात् 'ज्ञानी पुरुष' सिर्फ आत्मज्ञान ही नहीं देते, बल्कि संसार व्यवहार का निकाल करने के लिए व्यवहार ज्ञान भी सर्वोच्च प्रकार का देते है। उनकी पांच आज्ञाएं व्यवहार को संपूर्ण शुद्ध बना देती है।
दादाश्री वही द्रढ़ता से हमेशा कहते है कि मुझे मिलने के बाद अगर तुम्हे मोक्ष अनुभव में न आये तो तुम्हें 'ज्ञानी' मीले ही नहीं। यही पर, सदेह मोक्ष वर्तना में आना चाहिए।
पक्ष और मोक्ष दोनों विरोधाभास है, 'ज्ञानी पुरुष' निष्पक्षपाती होते है। उनकी द्रष्टि में सभी अपनी अपनी जगह पर 'करेक्ट' ही दिखते है। जीवमात्र के साथ अभेद रहते है। ज्ञानी पुरुष' सेन्टर में बैठे हुए है, इसलिए