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की किसी चीज की अपेक्षा नहीं होती, उन्हें अंनत प्रकार की सिद्धियाँ प्रगट होती है।
'ज्ञानी पुरुष' में आत्मशक्ति संपूर्ण व्यक्त हो गई है, उनके निमित्त से दूसरों की भी आत्मशक्ति व्यक्त हो जाती है।
द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से और भव से जो सदा अप्रतिबद्ध होकर विचरते है, वह 'ज्ञानी पुरुष' है। 'ज्ञानी पुरुष' को संसार में किसी भी चीज का बंधन नहीं है।
'ज्ञानी पुरुष' वह है कि जिसे निरंतर आत्मोपयोग रहता है, अंतरंग में नि:स्पृह ऐसे आचरणयुक्त है, अपूर्व वाणी जो कभी भी न कहीं, सुनी या पढ़ी हो, फिर भी प्रत्यक्ष अनुभव में आती है। जिसे न गर्व है, न गारवता है, न अपनापन है, सदा मुक्त हास्य से सभर जिनका मुखाविंद देदिप्यमान है, ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' स्वयं देहधारी परमात्मा है, मूर्तामूर्त मोक्ष स्वरूप है, मोक्षदाता है, अनेकों को मोक्ष सुख दिलानेवाले है। धन्य है इस काल को, धन्य है इस भारत के गुजरात की चरोतर भूमि को और धन्य है उस जननी को, जिसने जगत को आज देहधारी परमात्मा अर्पण किया !!!
'ज्ञानी पुरुष' के गुणों को तो कोई भी पूरा बयान नहीं कर सकता । 'ज्ञानी पुरुष' में १००८ गुण होते है, उनमें से मुख्य चार है; सूर्य जैसे प्रतापी और चंद्र जैसे शीतल, दोनों विरोधाभासी गुण 'ज्ञानी पुरुष' में एक साथ प्रगट होते है, यह बड़ा आश्चर्य है। क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' स्वयं आश्चर्य की प्रतिमा है और उनके पीछे आश्चर्यों की परंपरा सर्जित होती रहती हैं, उन परंपराओं का शास्त्रों में अंकित होकर हजारों मोक्षार्थीओं को पथदर्शक बने रहना, यह आश्चर्यों की परंपरा का परमाश्चर्य है।
'ज्ञानी पुरुष' मेरू समान अड़ोल और सागर समान गंभीर होते है। सहज क्षमा, ऋजुता, मृदुता, करुणा के सागर ऐसे अनेक गुण उनमें होते है । उनको कोई गालीगलोच करे, मारपीट करे तो भी उस पर उनकी विशेष करुणा बहती है। क्षमा उन्हें करनी नहीं पडती, सहज क्षमा ही उनकी रहती है।
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संसार में सर्व याचकपन से मुक्त हुए है, उसे ज्ञानी पद प्राप्त होता
है। 'ज्ञानी पुरुष' आश्रम का श्रम नहीं करते। मंदिर - मठ बांधने की भिख उनमें नहीं होती। सामनेवाले प्रति संसारी अपेक्षा से, भौतिक की अपेक्षा से संपूर्ण नि:स्पृह और आत्म अपेक्षा से संपूर्ण स:स्पृह ऐसे सस्पृह - निस्पृह 'ज्ञानी पुरुष' होते है।
'ज्ञानी पुरुष' संपूर्ण अपरिग्रही होते है । उनके लक्ष में दुनिया की कोई चीज रहती ही नहीं। निरंतर जिसका लक्ष आत्मा में ही रहता है, वह परिग्रह के सागर में रहते हुए भी अपरिग्रही है। जो तमाम द्वन्द्वो से, सुख-दु:ख, राग-द्वेष, मान-अपमान, सत्य-असत्य, पाप-पुण्य जैसे सारे द्वन्द्वो से पर हो गये है, वह 'ज्ञानी पुरुष' है। 'ज्ञानी पुरुष' द्वन्द्वातीत होते है। वह मुनाफे को मुनाफे के रुप से जानते है, घाटे को घाटे के रुप से जानते है। मुनाफे घाटे की उन पर कोई असर नहीं पहूँचती । 'मेरापन ' गया, उसका संसार अस्त हो गया। ऐसी उनकी स्थिति होती है। 'ज्ञानी पुरुष' संपूर्ण निराग्रही होते है। उनमें किंचित् भी आग्रह नहीं होता तो फिर विग्रह तो उन्हें कहाँ से हो सकता है?
'ज्ञानी पुरुष' सर्व काल मुक्तावस्था में ही होते है। सत्संग में भी मुक्त और कामधंधे पर भी मुक्त। प्रत्येक अवस्था में उनको सहज समाधि ही रहती है। 'ज्ञानी पुरुष' को कोई भय नहीं, क्योंकि वे बिलकुल 'करेक्ट' है, कोई गोलमाल उनमें नहीं होती। 'ज्ञानी पुरुष' निरंतर वर्तमान में ही रहते है। काल को उन्होंने बश किया होता है। वर्तमान में रहने से उन्हें जब देखो तब फ्रेश ही दिखते है। भूतकाल और भविष्यकाल का सूक्ष्म भेद तो 'ज्ञानी' के सिवा कोई नहीं कर सकता।
'ज्ञानी पुरुष' निरंतर 'अप्रयत्न दशा' में ही होते है। उनको भी प्रकृति होती है, लेकिन प्रकृति का उन पर कोई प्रभुत्व नहीं होता। वे खुद की संपूर्ण स्वतंत्रता में रहते है। 'ज्ञानी पुरुष' की प्रकृति सहज होती है क्योंकि उनमें अहंकार की दखल नहीं होती। और इसलिए आत्मा भी सहज होती है। 'ज्ञानी पुरुष' सहजात्म स्वरूप होते है, सहज भाव से निरीच्छक दशा में ही विचरते है । 'ज्ञानी पुरुष' को किसी चीज की इच्छा
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