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'ज्ञानी' की निर्दोष भूमिका को क्या कहना!!
'ज्ञानी पुरुष' को भी प्रतिक्रमण करने पड़ते है, लेकिन ये प्रतिक्रमण सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोषों के होते है। शद्ध उपयोग चूकने पर तुर्त वे प्रतिक्रमण कर लेते है। स्वयं निर्दोष होकर सारे विश्व को निर्दोष देखने की द्रष्टि पाकर 'ज्ञानी' सारे विश्व को निर्दोष देखते है। प्रत्येक जीव को व्यवहार से भी वे निर्दोष देखते है। निरंतर अकर्तापद में स्थित 'ज्ञानी' अन्यों को तत्त्वद्रष्टि से देखते है याने अन्यों को भी अकर्ता देखते है, फिर उन्हें कौन दोष करनेवाला दिखेगा?
अनंत अवतार से जिस पूर्ण पुरुषोत्तम को वे ढूँढते रहे, वह इस अवतार में उनके ही देह में प्रगट हो गये। अज्ञानी को जरा सी सत्ता मिली तो वह उन्मत हो जाता है। ज्ञानी पुरुष' को सारे ब्रह्मांड का साम्राज्य मिलने पर भी जरा भी उन्मत नहीं होते। इसीलिए श्रीमद् रामचंद्रजी ने 'ज्ञानी पुरुष' को देहधारी परमात्मा कहा है। दूसरे ओर किसी परमात्मा को ढूंढने जाने की जरूरत ही नहीं है। ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' के बिना किसी का देहाध्यास नहीं जा सकता।
'ज्ञानी पुरुष' विज्ञान घन आत्मा में याने 'एब्सोल्युट' आत्मा में स्थित है। याने अंत में तो 'ज्ञानी पुरुष' भी साधन स्वरूप है। साध्य तो 'विज्ञान स्वरूप आत्मा' है।
'आत्मा' विज्ञान स्वरूप है, ज्ञान स्वरूप नहीं। ज्ञान में करना पडता है, विज्ञान तो स्वयं क्रियाकारी है, विज्ञान सिद्धांतिक होता है, अविरोधाभास होता है। धर्म और विज्ञान में बड़ा अंतर होता है। धर्म से संसार के भौतिक सुख मिलते है, पुण्य बँधते है और विज्ञान से मोक्ष होता है। विज्ञान है वहाँ पुण्य नहीं, पाप नहीं, कर्मबंध भी नहीं. कर्मो की सिर्फ निर्जरा है. सँवर सहित। विज्ञान में कुछ छोडने का नहीं होता। विज्ञान में तो 'खुद' ही अलग हो जाने का है। खुद' अलग हो गया, उसका पझल सोल्व हो गया।
श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि 'ज्ञानी पुरुष' में वह सामर्थ्य है कि
दूसरों के सब पापों को एक साथ भस्मीभूत कर सकते है। क्योंकि जो कोई भी एक पल भी देह में नहीं रहते, मन में नहीं रहते, वाणी में नहीं रहते, वही पापों को नाश कर सकते है। इतना ही नहीं, बल्कि निजस्वरूप का ज्ञान प्रदान करते है और दिव्यचक्षु देते है, जिससे हर घट में आत्मदर्शन होता है, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' और एक घंटे में ही इतनी बड़ी प्राप्ति करानेवाले अक्रम मार्ग के 'ज्ञानी' तो 'न भूतो न भविष्यति' है।
'ज्ञानी पुरुष' के पास से आत्मा की अनुभूति हो जाने के बाद आत्मा निरंतर लक्ष में रहता है। मन-वचन-काया की सारी क्रियाएँ होती रहती है किन्तु उसमें 'खद' कर्ता नहीं है. इतना ही नहीं, कौन इसका कर्ता है, उसकी स्पष्ट जागृति रहती है। फिर चिंता कभी नहीं होती, संसारी दुखों का अभाव रहता है।
क्रोडों जन्मों का पुण्य प्रकट होता है, तब 'ज्ञानी पुरुष' के दर्शन होते है और सिर्फ दर्शन से तृप्त न होते 'ज्ञानी पुरुष' ने जो 'वस्तु' पाई है, वह 'वस्तु' 'खुद' को भी प्राप्त हो जाये, वह दर्शन में आ जाये तो फिर जनम-जनम के फेरे का अंत आता है। 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तथा आत्म जागति प्रकट हो जाती है। तत् पश्चात् खुद के सारे दोष देख सकते है और जो दोष देखे कि वे सब अवश्य क्षय होते है।
'अक्रम ज्ञान' प्राप्त करने के बाद आर्तध्यान-रौद्रध्यान बिलकुल नहीं होते। आर्तध्यान-रौद्रध्यान तब ही हो जाते है, जब निज स्वरूप का ज्ञान-भान नहीं होता। निज स्वरूप की जागृति रहने से आर्तध्यान-रौद्रध्यान नहीं होते, निरंतर अंदर शुक्लध्यान और बाहर व्यवहार में धर्मध्यान रहता है। शुक्लध्यान ही प्रत्यक्ष मोक्ष का कारण है। जहाँ तक अपनी आत्मा का स्पष्ट अनुभव नहीं होता, वहाँ तक 'ज्ञानी पुरुष' ही अपनी आत्मा है। 'अक्रम मार्ग' पूरा समज लेने की जरूर है, क्योंकि यह विज्ञान है, उसे
वैज्ञानिक ढब से समज लेना जरूरी है। 'ज्ञानी' के सान्निध्य में उनको पूछ पूछकर 'समज' पूरी तरह 'फीट' कर लेनी चाहिए।
'ज्ञानी पुरुष' के पास 'करने' का कुछ नहीं होता, बात को सिर्फ
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