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ज्ञानी पुरुष की पहचान
ज्ञानी पुरुष की पहचान
बिना ज्ञानी द्रष्टिभेद कौन कराये? प्रश्नकर्ता : बूरी आदतों से छूटकारा कैसे पाये?
दादाश्री : सब लोग क्या करते हैं? बूरी आदतें को निकाल देते है और अच्छी आदतें को ग्रहण करते है। सारी दुनिया ये ही काम करती है। और 'विज्ञान' क्या कहता है? बूरी और अच्छी आदतें, दोनों को छोड दो। दोनों में से किसी की भी जरूरत नहीं है। मोक्ष में जाना है, तो भगवान के दर्शन करने चाहिये, भगवान को पहचानना चाहिये।
हमें कोई अच्छा-बुरा नहीं है। हमको सब समान है। ये अच्छा है, ये बूरा है, वो सब रोंग विझन(मिथ्या द्रष्टि) है, राईट विझन (सम्यक् द्रष्टि) नहीं है। यह बहुत अच्छी चीज है, वह खराब चीज है, वो रोंग विझन है। राईट विझन चाहिये। राईट विझन से हमको समान ही दिखता है। हमारी द्रष्टि ऐसी निर्मल हो गई है कि जगत में हमको कोई भी आदमी दोषित ही नहीं दिखता। हमको गाली दे, नुकसान करे तो भी दोषित नहीं दिखता। हमको गाली दे तो द्वेष नहीं होता और फल चढाये तो राग नहीं होता। भगवान की द्रष्टि में कोई दोषित नहीं है और जगत की द्रष्टि में दोषित है। ये अच्छा आदमी है, ये बूरा आदमी है, वो भ्रांत द्रष्टि है, सच्ची द्रष्टि नहीं है।
कोई जरूरत नहीं। कोई चीज की जरूरत नहीं।
प्रश्नकर्ता : ये ही तो कठिन है। अर्जुन की भी ये ही समस्या थी।
दादाश्री : हाँ, मगर कृष्ण भगवान ने दिव्यचक्षु दिये थे, तो सब जगह पर भगवान ही दिखे, 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' हो गया। आपको औरत में, लडके में भगवान दिखते है?
प्रश्नकर्ता : नहीं, वो तो अधिकार चाहिये न? दादाश्री : अधिकारी किसको बोलते है? प्रश्नकर्ता : पात्र-अपात्र।
दादाश्री : पात्र-अपात्र कोई होता ही नहीं। जो पात्र बोला जाता है वो ही अपात्र होता है, खराब होता है। जगत के लोग जिसे पात्र बोलते है, वो खुद अपात्र होते है। इसमें तो पात्र-अपात्र होता ही नहीं। हिन्दुस्तान के लोग चाहिये, दूसरे लोग नहीं। जो पुनर्जन्म नहीं समझते, वो इसके लिए अधिकारी नहीं है। आप तो पुनर्जन्म समझते है न?
प्रश्नकर्ता : हाँ।
दादाश्री : तो फिर आप अधिकारी है। हमको मिला वो ही अधिकारी !! हमको मिला कैसे? किसने भेज दिया आपको? वो हम जानते है। जिसने भेज दिया वो ही आपका अधिकार है।
प्रश्नकर्ता : ये जन्म में self realise हो जायेगा?
दादाश्री : क्यों नहीं होगा? आपकी मरजी हो तो ये जन्म में हो जायेगा, नहीं तो फिर कब होगा?
हमारी द्रष्टि में से एक भी जीव, उसके अंदर बिना भगवान देखे जाता नहीं, ऐसा उपयोग रहना चाहिये। इसको आत्मा का शुद्ध उपयोग बोला जाता है। सब जीव की परमेनन्ट चीज को देखो। टेम्पररी को टेम्पररी देखो और परमेनन्ट को परमेनन्ट देखो। परमेनन्ट है वो ही शुद्धात्मा है, वो ही भगवान है। आत्मवत् सर्वभूतेषु' हो गया तो सब काम पूरा हो जाता है। टेम्पररी द्रष्टि से जगत की निष्ठा है और परमेनन्ट द्रष्टि से भगवान की निष्ठा है। भगवान की निष्ठा हो गयी फिर आनंद ही मिलता है। जगत निष्ठा में तो जगत में सुख है, भौतिक में सुख है ऐसी निष्ठा है। हम वो द्रष्टि घुमा देते है और भगवान में सुख है ऐसी द्रष्टि करवा देते है। फिर भगवान की निष्ठा मिल गयी। सिर्फ द्रष्टि फिराने की जरूरत है। शास्त्र पढ़ने की
प्रश्नकर्ता : कभी कभी मरजी में हो तो भी नहीं होता। मेरा एक फ्रेन्ड था, वह घर-बार, बीबी-बच्चों को छोडकर बद्रीनाथ भाग गया मगर वहाँ उसको कहा गया कि आप यहाँ के लिए फिट नहीं हो। इसलिए वह वापस आ गया!