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दादा भगवान की वैज्ञानिक द्रष्टि से
चमत्कार
चमत्कार है क्या? चमत्कार उसके कारणों के बिना हुआ किस तरह से, वह बता । कारण के बिना कोई कार्य होता नहीं है। चमत्कार हो रहे हैं, वे तो परिणाम हैं। यानी कि साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स हैं। इसलिए वह चमत्कार नहीं है, साइन्स है!
-दादाश्री
ISBN 978-81-89933-66-1
97881891933661
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दादा भगवान कथित
चमत्कार
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन अनुवाद : महात्मागण
प्रकाशक अजीत सी. पटेल महाविदेह फाउन्डेशन
'दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
प्रथम संस्करण : ३००० प्रतियाँ,
भाव मूल्य: 'परम विनय' और
मुद्रक
द्रव्य मूल्य १५ रुपये
अगस्त २०१०
'मैं कुछ भी जानता नहीं, यह भाव !
लेसर कम्पोज़ दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीजन), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद- ३८००१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
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त्रिमंत्र
( दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
हिन्दी
१.
२.
३.
४.
५.
ज्ञानी पुरूष की पहचान
सर्व दुःखों से मुक्ति
कर्म का विज्ञान
आत्मबोध
मैं कौन हूँ ?
६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर २३. दान
स्वामी
७.
भूगते उसी की भूल
८. एडजस्ट एवरीव्हेयर
९. टकराव टालिए
१०. हुआ सो न्याय
११. चिंता
१२. क्रोध
१३. प्रतिक्रमण
*
१४. दादा भगवान कौन ? १५. पैसों का व्यवहार १६. अंत:करण का स्वरूप १७. जगत कर्ता कौन ? १८. त्रिमंत्र
१९. भावना से सुधरे जन्मोजन्म
२०. पति-पत्नी का दीव्य
व्यवहार
२१. माता-पिता और बच्चों का
व्यवहार
२२. समझ से प्राप्त ब्रह्मचर्य
२४. मानव धर्म
२५. सेवा - परोपकार
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२६. मृत्यु समय, पहले और पश्चात्
२७. निजदोष दर्शन से... निर्दोष
२८. प्रेम
२९. क्लेष रहित जीवन ३०. अहिंसा
३१. सत्य-असत्य के रहस्य ३२. चमत्कार
३३. वाणी, व्यवहार में....
३४. पाप-पुण्य
३५. आप्तवाणी - १
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी ५५ पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं।
दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेजीन प्रकाशित होता है।
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दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय. भीड से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घंटे में उन्हें विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत् कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत् के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सम्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करनेवाले. फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष!
उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घंटों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात् बिना क्रम के, और क्रम अर्थात् सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट!
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखते है वे दादा भगवान नहीं है. वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हए हैं. वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।"
'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसीके पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हजारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता है।
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निवेदन
परम पूज्य 'दादा भगवान' के प्रश्नोत्तरी सत्संग में पूछे गये प्रश्न के उत्तर में उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं। उसी साक्षात सरस्वती का अद्भुत संकलन इस पुस्तक में हुआ है, जो हम सबके लिए वरदानरूप साबित होगी।
प्रस्तुत अनुवाद की वाक्य रचना हिन्दी व्याकरण के मापदण्ड पर शायद पूरी न उतरे, परन्तु पूज्य दादाश्री की गुजराती वाणी का शब्दश: हिन्दी अनुवाद करने का प्रयत्न किया गया है, ताकि वाचक को ऐसा अनुभव हो कि दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है। फिर भी दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा । जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वे इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है ।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं। पाठकों से...
इस पुस्तक में मुद्रित पाठ्यसामग्री मूलत: गुजराती 'चमत्कार' का हिन्दी रुपांतर है।
इस पुस्तक में 'आत्मा' शब्द का प्रयोग संस्कृत और गुजराती भाषा की तरह पुल्लिंग में किया गया है।
जहाँ-जहाँ पर 'चंदूलाल' नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ-वहाँ पाठक स्वयं का नाम समझकर पठन करें।
पुस्तक में अगर कोई बात आप समझ न पाएँ तो प्रत्यक्ष सत्संग में पधारकर समाधान प्राप्त करें।
दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों 'इटालिक्स' में रखे गये हैं, क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालाँकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द ( ) में अर्थ के रूप में दिये गये हैं। ऐसे सभी शब्द और शब्दार्थ पुस्तक के अंत में भी दिए गए हैं।
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संपादकीय
लोगों की मान्यताओं का प्रवाह उल्टी दिशा में खींच ले जानेवाला
प्रबल परिबल इस काल में जगह-जगह पर छा रहा है, और वह है चमत्कार के बारे में तरह-तरह की अंधश्रद्धाओं को जन्म देनेवाले विज्ञापन ! जिस देश की प्रजा चमत्कारों को मानती है, उसमें रची-बसी रहती है। और पूजती है, उस देश के अध्यात्म का पतन कहाँ जाकर रुकेगा, उसकी कल्पना ही हो सके वैसा नहीं है। चमत्कार कहें किसे? बुद्धि से नहीं समझ में आए वैसी बाहर की क्रिया हुई, वह चमत्कार ? पर उसमें बुद्धि की समझ की सापेक्षता हरएक व्यक्ति के लिए भिन्न-भिन्न होती है। एक की बुद्धि में नहीं समाए तो दूसरे की बुद्धि में समाती है। बुद्धि की सीमा भी हरएक की भिन्न-भिन्न ही है न!
इस काल में चमत्कार की भ्रांत मान्यताओं को जड़मूल से उखाड़ देनेवाले परम कृपालु दादाश्री सदा कहते थे कि, 'चमत्कार की यथार्थ डेफिनेशन तो समझनी चाहिए न? पर चमत्कार किसे कहा जाए, वह डेफिनेशन इस दुनिया में बनी नहीं है। इसलिए उसकी डेफिनेशन नहीं है, वैसा नहीं है। उसकी डेफिनेशन मैं देने को तैयार हूँ। चमत्कार वह कहलाता है कि दूसरा कोई कर ही नहीं सके। और सिद्धि उसे कहते हैं कि जो कोई दूसरा उसके बाद में आनेवाला कर सके।'
अत्याधुनिक समय में जहाँ बुद्धि विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये आश्चर्यों की परंपरा सर्जित करने में विकसित हुई है, वहाँ भारत के लोग बुद्धि के द्वार बंद करके भ्रांत श्रद्धा में डूबे रहें, वह नहीं पुसाएगा । कितनी ही विज्ञान की सिद्धियाँ होती हैं, वे जब तक जाहिर नहीं हुईं, तब तक चमत्कार मानी जाती हैं, पर पब्लिक में प्रकट होने के बाद वह चमत्कार नहीं कहलातीं। आज से सौ वर्ष पहले चंद्रमाँ पर चमत्कार का दावा करके
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पदार्पण करनेवाले चमत्कारिक पुरुष को साक्षात् परमात्मा कहकर लोग नवाजते! और आज?!!!
धर्म में चमत्कार आजकल बहुत देखने को मिलते हैं, जैसे कि माताजी किसीके शरीर में आती हैं, कुमकुम झरता है, हवा में से भस्म आती है, वस्तुएँ आती हैं वगैरह-वगैरह। हमारे लोग उससे खूब प्रभावित भी होते हैं। थोड़े समय के लिए अंत:करण वहाँ स्थंभित हो जाता है और दु:ख सारे विस्मृत हो जाते हैं और आशा की एक नवीन किरण प्रकट होती है कि, 'हा..., अब मेरे सब दुःख जाएँगे। देव-देवियों की कृपा बरसी!' पर थोड़े ही समय के बाद देखें तो सब वैसे का वैसा ही। एक चिंता कम नहीं हुई होती है। अंतरशांति थोड़ी भी नहीं हुई होती है। मात्र बार-बार याद करने लायक ही रहती है वह बात ! हाँ, लोगों को उतने समय तक धर्म में पकड़कर रखती है, उतना फायदा स्वीकार्य है।
तरह-तरह की पारिवारिक, सामाजिक या व्यक्तिगत मुसीबतों में चारों तरफ से घिरे हए, फिर भी शांति से जीने के लिए अथक प्रयास कर रहे मनुष्यों को जरूरत है जलन में से ठंडक की ओर ले जाने की, अंधकार में से प्रकाश की तरफ रास्ता दिखाने की, न कि थोडे-बहत उजाले को भी घोर अंधेरा कर देने की!
अध्यात्म के सच्चे मार्ग पर जानेवालों, नर में से नारायण पद पर जानेवालों की कक्षा के महान मूल पुरुषों ने कभी भी कोई चमत्कार किया नहीं और उन्होंने कभी भी चमत्कार को महत्व नहीं दिया है। बाद के संत, भक्त सामान्य प्रकार से समझी जा सकें, वैसी बातों को भी एक्जाजरेट (जरूरत से ज्यादा बड़ा दिखाकर) करके चमत्कारों की तरह दिखाते हैं। भक्ति के बावरेपन में भक्त भगवान को क्या नहीं कहते? वह भी स्वीकार्य है उनके लिए। पर आज हम पढ़े-लिखे समझदार लोगों को इतना तो सोचना चाहिए कि इन चमत्कारों का सहारा लेकर अंत में हमें मिला क्या? कृष्ण, राम या महावीर ने कोई चमत्कार नहीं किए थे और उस तरफ लोगों को भ्रमित भी नहीं किया था। वे खुद का आदर्श जीवन जी गए। जो आज लोगों को कथानुयोग की तरह काम में आता है और
दूसरी तरफ अध्यात्म का अचीवमेन्ट कर गए जो कि लोगों को ज्ञान प्राप्ति की राह दिखाते हैं। संक्षेप में, आत्मा जानकर मोक्ष में ही जाने की ज्ञानवाणी का प्रतिबोध किया है।
चमत्कार कौन ढूंढता है? ढूंढने की ज़रूरत किसे है? जिसे इस संसार के भौतिक सुखों की कामना है. फिर वह स्थल स्वरूप या सूक्ष्म स्वरूप की हो सकती है। और जिसे भौतिक सुखों से परे, ऐसे मात्र आत्मसुख पाने की लगन है, उन्हें आत्मसुख से परे, करनेवाले चमत्कारों की क्या ज़रूरत है? अध्यात्म जगत् में भी जहाँ अंतिम लक्ष्य तक पहुँचना है और वह है 'मैं कौन हूँ' की पहचान करनी, आत्म तत्त्व की पहचान करके निरंतर आत्मसुख में डूबे रहना है, वहाँ इस अनात्म विभाग के लुभानेवाले चमत्कारों में फँसने का स्थान कहाँ रहता है?
मूल पुरुषों की मूल बात तो एक तरफ रही पर उनकी कथाएँ सुनते रहे, गाते रहे और उसमें से जीवन में कुछ उतारा नहीं और ज्ञान भाग को तो दबा ही दिया तले में! इन मल परुषों की मल बात को प्रकाश में लाकर चमत्कार से संबंधित अज्ञान मान्यताओं को परम पूज्य दादाश्री ने झकझोर दिया है। चमत्कार के बारे में सच्ची समझ दादाश्री ने बहुत कड़ी वाणी में प्रस्तुत की है। वाचक वर्ग को उसके पीछे का आशय समझने की विनती है।
- डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद
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चमत्कार
हो, उसमें लोग क्या करें? लोग एक्सेप्ट क्यों करें? आप जिसे चमत्कार कहते हो, वह अधिक बुद्धिशाली हो, वह क्यों एक्सेप्ट करे?
इसलिए चमत्कार की जो डेफिनेशन आप समझो तो चमत्कार की 'डेफिनेशन' 'वर्ल्ड' में किसीने दी नहीं है। फिर भी मैं देने को तैयार हूँ। चमत्कार वह कहलाता है कि दूसरा कोई कर ही नहीं सके, वह चमत्कार है!
चमत्कार
नहीं हो सकती नकल चमत्कार की
चमत्कार किसे कहें? प्रश्नकर्ता : अध्यात्मिक साधना करते हुए चमत्कारिक शक्तियाँ आती हैं, वह बात सच है या गलत?
दादाश्री : नहीं। ऐसा है, यह चमत्कार की डेफिनेशन समझो। यह गिन्नी है न, वह गोल्ड गिन्नी है, तो उसकी डेफिनेशन चाहिए या नहीं चाहिए? या चलेगा? वैसा ही तांबे का सिक्का हो और उस पर गिलेट करके लाएँ तो डेफिनेशन नहीं माँगेगा? सिक्का वैसा ही है, गोल्ड जैसा दिखता है। गोल्ड ही है वैसा कहें तो चलेगा? अब यह डेफिनेशनवाला जो है, उसके सामने गिलेटवाला तौल में रखें तो वह कम पड़ता है। किसलिए कम पड़ता है? सोना वज़न में अधिक होता है। इसलिए हम कहते हैं कि यह दूसरा सिक्का डेफिनेशनवाला नहीं है। उसी तरह चमत्कार का भी डेफिनेशनपूर्वक होना चाहिए। पर चमत्कार किसे कहा जाए, वह डेफिनेशन इस दुनिया में बनी नहीं है। इसीलिए उसकी कोई डेफिनेशन नहीं है वैसा नहीं कह सकते। हरएक वस्तु की डेफिनेशन होती है या नहीं होती? आपको कैसा लगता है?
प्रश्नकर्ता : ठीक है।
दादाश्री : तो चमत्कार की डेफिनेशन आप कहो। डेफिनेशन आपको क्या लगती है? क्या डेफिनेशन होनी चाहिए?
प्रश्नकर्ता : कुछ भी नया हो और बुद्धि से बाहर की बात हो, वह चमत्कार।
दादाश्री : वह चमत्कार नहीं है, क्योंकि आपकी बुद्धि लिमिटेड
प्रश्नकर्ता : हाँ। पर उसके ही अलग-अलग नाम दिए हैं कि यह सिद्धि कहलाती है, यह फलाना कहलाता है, उसे ही लोग चमत्कार कहते हैं न?
दादाश्री: सिद्धि वह कहलाती है कि जो दूसरा, उसके पीछे आनेवाला कर सके। और चमत्कार वह कहलाता है कि किसीसे भी किया नहीं जा सके।
प्रश्नकर्ता : आपने चमत्कार की जो डेफिनेशन कही, वैसी डेफिनेशन तो दुनिया में है ही नहीं!
दादाश्री : वैसी होगी ही नहीं न! वैसी डेफिनेशन नहीं होने से तो लोग चमत्कार के गुलाम हो गए हैं। चमत्कार का सेठ बनना है, तब चमत्कार के गुलाम हो गए हैं!
इसलिए दूसरा कोई कर ही नहीं सके, वह चमत्कार कहलाता है। क्योंकि सिद्धि उत्पन्न होती ही रहती है हमेशा और उस सिद्धि को भुनाएँ, तब कम सिद्धिवाला, उसे चमत्कार कहता है और अधिक सिद्धिवाला उस पर तरस खाता है कि यह सिद्धि का दुरुपयोग करने लगा है! आपको समझ में आती है मेरी बात?
प्रश्नकर्ता : हाँ जी, हाँ जी। दादाश्री : सिद्धि को भुनाना मतलब क्या कि आप साधना करते
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चमत्कार
करते जो कुछ शक्ति प्राप्त करते हो, उस शक्ति का दूसरों के लिए उपयोग करते हो, इसलिए वह दूसरों के लिए बड़ा आश्चर्य हो जाता है, उसे सिद्धि भुनाना कहा जाता है। अब वह चमत्कार माना जाएगा क्या? क्योंकि दूसरा कोई सिद्धि को भुनाए तो वैसा ही चमत्कार हो सकता है, इसलिए दूसरा कर सके वह चमत्कार कहलाता ही नहीं !
शुद्धि वहाँ सिद्धि
अब सिद्धि यानी, ऐसा है न, 'ज्ञान' नहीं हो तो भी अनंत- अपार शक्तियाँ है । अज्ञानदशा में भी अहंकार तो है ही न! पर अहंकार को शुद्ध करे, खुद खुद के लिए कुछ भी उपयोग न करे, खुद के हिस्से में आया हो तो भी दूसरों को दे दे, खुद सकुचाकर रहे, तो बहुत सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। अर्थात् संयम के अनुपात में सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं और वह भी आत्मज्ञान के बिना खरी सिद्धि तो होती ही नहीं। इन लोगों को तो हृदयशुद्धि की सिद्धि होती है। सिर्फ हृदयशुद्धि ही होती है और ज्ञान भले ही न हो, हिन्दुस्तान के लोगों को ज्ञान (आत्मज्ञान) तो है ही नहीं, परन्तु हृदयशुद्धि होती है न, यानी कि वह चोखा होता है, गलत पैसे भी नहीं लेता है, गलत खर्चा भी नहीं करता है, जहाँ एक पैसे का भी दुरुपयोग नहीं होता, लोगों से पैसे नहीं ऐंठता, और खुद के अहंकार का नशा नहीं रखता, दूसरा ऐसे गप्प नहीं लगाता कि ऐसा कर दिया और उसको ऐसा कर डाला, वहाँ उन लोगों को हृदयशुद्धि की सिद्धि होती है। वह बहुत अच्छी चीज़ कहलाती है, पर वहाँ कुछ भी 'ज्ञान' नहीं होता।
सिद्धि की सिमिली
सिद्धि का अर्थ आपको समझाऊँ, वह आपकी भाषा में आपको समझ में आए इसलिए। आप कौन-से बाज़ार में व्यापार करते हो?
प्रश्नकर्ता: लोहा बाज़ार में।
दादाश्री : अब उस पूरे लोहा बाज़ार में वह व्यक्ति इतना अधिक इज्ज़तदार माना जाता है कि 'भाई, नूर महम्मद सेठ की तो बात ही मत
चमत्कार
पूछो, कहना पड़ेगा उन सेठ के लिए तो !' हरएक व्यापारी ऐसा कहे और वहाँ पाँच लाख रुपये आपने रखे हों न, फिर आप कहो कि, 'साहब, एक महीने के लिए मैंने रखे हैं, तो वापिस मिलेंगे?' तब वह कहे, 'महीना पूरा हो तब ले जाना।' तब महीना पूरा हो और सभी वापिस दे देते हैं। पर फिर दूसरे लोग वापिस रखकर जाते हैं क्या? क्यों? वे इतना तो जानते हैं कि अब लोग पैसा दबाते हैं, फिर भी इनके यहाँ रख जाते हैं, उसका क्या कारण है? उसने सिद्धि प्राप्त की है। अब सिद्धि होने के बावजूद खुद पैसे नहीं दबाता, सिद्धि का उपयोग नहीं करता, इस सिद्धि का दुरुपयोग नहीं करता और दुरुपयोग एक बार करे तो ? सिद्धि भुना दी। फिर कोई पैसा उधार देगा नहीं, बाप भी नहीं देगा। ये दूसरी सिद्धियाँ भी इसके जैसी ही हैं। इस उदाहरण पर से मैंने सिमिली (उपमा) दी
है।
अब वह सेठ बाज़ार में से दस लाख रुपये इकट्ठे करके और फिर ले आए। फिर समय आने पर वापिस सबको दे दे और समय से दे दे, इसलिए कभी पच्चीस लाख रुपये चाहिए तो उसे सिद्धि है या नहीं?
प्रश्नकर्ता: इसमें वह सिद्धि नहीं कहलाती। यह तो नोर्मल पावर की बात हुई, व्यवहार की बात हुई, और सिद्धि तो एब्नोर्मल पावर की बात है।
दादाश्री : हाँ, पर वह सिद्धि भी इसके जैसी ही है। मनुष्य ने किसी पावर का उपयोग नहीं किया हो न, तो वह उपयोगी हो जाता है। पर फिर पावर का उपयोग करे तो सिद्धि खतम हो जाती है ! इसलिए वह आदमी चलते-फिरते पच्चीस लाख रुपये इकट्ठे कर सकता है, हम नहीं समझ जाएँ कि ओहोहो, कितनी सिद्धि रखता है! सिद्धि कितनी है इसकी !
ऐसे प्राप्त हों सिद्धियाँ
और एक आदमी रुपये जमा करवाने फिरे तो भी लोग कहेंगे, 'नहीं भाई, हम किसीसे लेते ही नहीं है अभी।' तब यह कितना झगड़ेवाला
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चमत्कार
चमत्कार
नहीं है यह सिद्धि प्रश्नकर्ता : पर काफी कुछ योगियों को चमत्कार आते हैं, जो सामान्य प्रकार से लोग देख नहीं सकते, समझ नहीं सकते, ऐसी वस्तुएँ वे लोग कर सकते हैं। उनके पास सिद्धियाँ होती हैं, कुछ विशेष शक्तियाँ होती हैं, वह क्या है?
होगा कि कोई पैसे लेने को भी तैयार नहीं है?! वह क्या है, वह आपको समझाऊँ। आप ऐसा कहो कि मैंने किसीके पैसे नहीं रखे, फिर भी मेरे वहाँ लोग पैसे क्यों नहीं रखकर जाते? और कितने ही लोगों के वहाँ लाखों रुपये जमा रखकर जाते हैं! यह तो आपको उदाहरण दे रहा हैं। आपके अंदर के जो भाव, आपकी श्रद्धा, आपका वर्तन उस प्रकार का है कि आपके वहाँ कोई पैसा जमा करवाकर नहीं जाएगा और जिसके भाव में निरंतर इस तरह दे देनी की इच्छा है, किसीका लेने से पहले दे देने की इच्छा हो, ऐसा डिसीज़न ही हो और वर्तन में भी वैसा हो और श्रद्धा में भी वैसा हो, निश्चय में भी वैसा हो, उसके वहाँ लोग रख आते हैं! क्योंकि उसने सिद्धि प्राप्त की है। क्या सिद्धि प्राप्त की है? कि सबको पैसे वापिस दे देता है। माँगते ही तुरन्त वापिस दे देता है और जो माँगने पर भी वापिस नहीं दे, तो उसकी सिद्धि खतम हो जाती है। जैसी यह पैसों के लिए सिद्धि है, वैसी ही ये दसरी तरह-तरह की सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं।
सिद्धि मतलब खुद का एकदम रेग्युलर खाता रखना और अधिक सिद्धि तो कौन-सी होती है? जो कुछ उसे सभी लोग खाने को दें, वहाँ कम खाकर भी लोगों को खुद भोजन करवा दे, उसे अधिक सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं। अपने यहाँ ऐसे संत हुए हैं।
यहाँ एक व्यक्ति किसीको भी गालियाँ नहीं देता हो, किसीको डाँटता भी नहीं हो, किसीको दु:ख नहीं देता हो, उसका शील इतना अधिक होता है कि उसे देखते ही सब आनंदित हो जाते हैं। वह भी सिद्धि उत्पन्न हुई कहलाती है।
फिर किसी व्यक्ति ने कुछ निश्चित किया हो कि मुझे इस-इस प्रकार का भोजन नहीं लेना है। वह खाना बंद कर दिया, उस समय उसे सिद्धि उत्पन्न होती है। वैसे ही एक व्यक्ति प्याज़ नहीं खाता हो और उसे रास्ते में प्याज़ पड़ी हो तो भी गंध आती है और आपको तो यहाँ पास में पड़ी हो तो भी उसकी गंध नहीं आती। आपने खुद ने प्याज़ खाई हो तो भी गंध नहीं आती। वैसा सिद्धियों के लिए होता है!
दादाश्री : विशेष शक्तियाँ आपने किन लोगों में देखी हैं? अभी तो चमत्कार के लिए किसीने इनाम घोषित किया है न, वहाँ एक भी व्यक्ति खड़ा नहीं रहता है। यानी विशेष शक्तियाँ एक के पास भी नहीं है। कहाँ से लाएँ? चमत्कार तो होते होंगे? सिर्फ एक यशनाम कर्म होता है कि भाई, इनका नाम लें, तो ऐसा हो जाता है। या फिर शुद्ध हृदय का व्यक्ति हो न, तो उसके कहे अनुसार सब हो जाता है। ऐसी हृदयशुद्धि की सिद्धियाँ होती हैं।
प्रश्नकर्ता : पर योगविद्या से कुछ ऐसी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं न? कुछ चमत्कार हो सकें वैसी सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं न?
दादाश्री : सिद्धियाँ कुछ भी प्राप्त नहीं होती हैं। यानी चमत्कार हो सके वैसी सिद्धियाँ ही नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : ये योगी लोग सिर पर हाथ रखकर शक्तिपात करते हैं और फिर उससे सामनेवाले को शांति मिलती है, वह भी सिद्धि कहलाती है न?
दादाश्री : ऐसा है न, अभी बैठा नहीं जा सकता हो, बोला नहीं जा सकता हो, पर जड़ीबूटी घिसकर पिलाएँ न, तो क्या हो जाता है? चलने-बोलने लगता है, वैसा इन मानसिक परमाणुओं का होता है। पर उससे फायदा क्या? कोई ऐसा व्यक्ति जन्मा है कि जिसने किसी व्यक्ति को मरने ही नहीं दिया हो?! तो हम जानें कि चलो वहाँ तो हमें जाना ही पड़ेगा। अपने माँ-बाप को नहीं मरने दिया हो, अपने भाई को नहीं मरने दिया हो, वैसा कोई जन्मा है? तो फिर इसमें कैसी सिद्धियाँ?
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चमत्कार
चमत्कार
इन चोरों को ऐसी-ऐसी सिद्धियाँ होती हैं कि निश्चित करें कि आज मुझे इस जगह पर इस समय पर ही चोरी करनी है। उस समय एक्जेक्ट हो जाती है, वे सिद्धियाँ कम कहलाएँगी? उसमें वह नियम पालते हैं सारे। और नियम पालने से सिद्धि उत्पन्न होती है।
अब अपने लोग सिद्धि किसे कहते हैं, वह मैं आपको बताता हूँ। कोई शीलवान पुरुष हो, तो वह अंधेरे में मुहल्ले में प्रवेश करे, पूरा मुहल्ला साँप से ही भरा हुआ हो, ऐसे साँप ही चलते रहते हों और वह शीलवान नंगे पैर वहाँ उस मुहल्ले में प्रवेश करे, उस घड़ी अंधेरे में उसे पता नहीं चलेगा कि अंदर साँप थे या नहीं? क्या कारण होगा कहो? उसकी सिद्धि होगी? पूरे मुहल्ले में एक इंच भी बिना साँप की जगह नहीं है। पर यदि उस घड़ी वह प्रवेश करे तो साँप थे, ऐसा उसके रास्ते में नहीं होता। क्योंकि थोड़ा भी यदि साँप उसे छए तो साँप जल जाए। इसलिए साँप ऐसे एक-दूसरे पर चढ़ जाते हैं। अंधेरे में आगे से आगे एक-दूसरे के ऊपर चढ़ जाते हैं। वैसा तो उसका ताप लगता है। अब, वैसा कभी लोग देखें न, तो क्या कहेंगे? कि ओहोहो, कैसी सिद्धि है! यह तो उसका शील है। अज्ञानी हो तो भी शील उत्पन्न होता है, पर संपूर्ण शील उत्पन्न नहीं होता, अहंकार है न?
संतों की सिद्धि, संसारार्थ प्रश्नकर्ता : कुछ संत तो बरसात करवाते थे। तो वह सिद्धि है या नहीं?
सुनी है, उसने जिसके पास से सुनी थी, ऐसी प्रत्यक्ष दो-तीन पीढ़ियों से देखकर सुनाई गई बात है।
एक साल बड़ौदा में अकाल पड़ा था। तो राजा को एक व्यक्ति ने जाकर कहा कि, 'एक महाराज आए हैं। वे तो ऐसे ही बरसात कर दें वैसे हैं।' तब राजा ने कहा, 'नहीं हो सकता ऐसा. किस तरह से मनुष्य बरसात करवा सकता है?' तब उसने कहा, 'नहीं, वे महाराज ऐसे हैं कि बरसात करवा सकते हैं!' इसलिए फिर नगर के बड़े-बड़े सेठ थे, वे इकट्ठे हुए और गाँव के पटेल सब इकट्ठे हुए और आकर सभी नगरसेठों से बात की। नगरसेठ राजा से कहते हैं कि, 'हाँ, साहब, उन महाराज को बुलाइए। नहीं तो अकाल में तो यह पब्लिक मर जाएगी।' तब राजा ने कहा, 'हाँ, तो आने दो उन महाराज को!' इसलिए फिर सब उन महाराज के पास पहुँचे। तब वे महाराज भी क्या कहते हैं? 'ऐसे बारिश नहीं हो जाएगी। हमें गद्दी पर बिठाओ।' तो राजा खुद दूसरी जगह बैठे और उन महाराज को गद्दी पर बैठाया। लालच है न! राजा को भी लालच हो जाए तब क्या? सबकुछ ही सौंप दे! अब ये महाराज एक तरफ गद्दी पर पेशाब करें और बाहर मूसलाधार बारिश बरसे। इस तरह उत्पन्न हुई सिद्धियों का ये लोग उपयोग कर देते हैं ! इसलिए अज्ञानियों की तो ये सभी सिद्धियाँ खर्च हो जानेवाली हैं। वे कमाते भी हैं और खर्च भी हो जाती हैं बेचारों की। ज्ञानी सिद्धियों का उपयोग नहीं करते। भगवान भी सिद्धियों का उपयोग नहीं करते। नहीं तो महावीर भगवान ने एक ही सिद्धि का उपयोग किया होता न, तो दुनिया ऊँची-नीची हो जाती।
तीर्थंकरों की सिद्धियाँ, मोक्षार्थ भगवान महावीर के दो शिष्यों को गोशाला ने तेजोलेश्या छोड़कर भस्मीभूत कर दिया था। तब दूसरे शिष्यों ने भगवान से कहा, विनती की कि, 'भगवान आप तीर्थंकर भगवान होकर, यदि हमारा रक्षण नहीं कर सकेंगे तो दुनिया में फिर रक्षण ही कौन देगा?' तब क्या रक्षण दे सकें वैसे नहीं थे भगवान महावीर? इन सब सिद्धियोंवालों से तो वे कुछ कच्चे थे? कैसे भगवान, तीर्थंकर भगवान! क्या जवाब दिया जानते हो आप?
दादाश्री : फिर भी यह बरसात तो अपनी सरकार कुछ केमिकल छिड़कती है न, तब भी नहीं हो जाती? होती है! और खरी सिद्धियोंवाले तो ऐसी बरसात नहीं करवाते। ऐसी सिद्धि अज्ञानी को उत्पन्न होती है, पर लालच के मारे फिर उसका उपयोग कर देता है। यहाँ पर, बड़ौदा में बरसात नहीं हो रही थी। तब कोई महाराज आए थे। वे कहते हैं, 'मैं बरसात करवाऊँगा।' इसलिए यह तो एक घटना हुई थी उसकी बात कह रहा हूँ। हो चुकी मतलब मैंने खुद देखी नहीं पर मैंने जिसके पास से
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चमत्कार
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भगवान कहते हैं, 'मैं जीवनदाता नहीं हूँ, मैं मोक्षदाता हूँ। मैं, कोई मरे उसे जीवन का दान देनेवाला नहीं हूँ, मैं मोक्ष का दान देने आया हूँ!' अब उन लोगों को तो ऐसा ही लगे न कि ऐसे गरु से तो दूसरे गुरु बनाए होते तो अच्छा था। पर मेरे जैसे को तो कितना आनंद हो जाए! धन्यभाग्य गुरु ये! कहना पड़ेगा! इनके ही शिष्य होने की ज़रूरत है। तो उनका ही शिष्य बना था। उन्हीं महावीर का शिष्य बना था। कैसे भगवान महावीर! गोशाला ने धोखा दिया, बहत सारों ने उन्हें धोखा दिया, पर भगवान टस से मस नहीं हुए, सिद्धि का उपयोग नहीं किया!
फिर गोशाला ने भगवान पर क्या किया था, जानते हो आप? तेजोलेश्या छोड़ी थी। उन दो शिष्यों पर भी तेजोलेश्या ही छोड़ी थी उसने, वे खत्म हो गए, वैसे ही भगवान भी खत्म हो जाते, पर भगवान तो चरम शरीरी थे इसलिए उन पर किसी भी प्रकार का घात नहीं हो सकता था। चरम शरीर तो काटने से कटता नहीं, पुद्गल भी वैसा सुंदर! पर फिर छह महीनों तक संडास में बहुत रक्त निकला। फिर भी उस पुरुष ने थोड़ी-सी भी सिद्धि का उपयोग नहीं किया !
सिद्धि का दुरुपयोग न करें वे ज्ञानी
और 'ज्ञानी पुरुष' भी सिद्धि का उपयोग नहीं करते। हमारा सहज ही हाथ छू जाए न तो भी सामनेवाले का कल्याण हो जाए। बाक़ी, 'ज्ञानी पुरुष' अपने घर पर भी सिद्धि का उपयोग नहीं करते और बाहर भी नहीं करते, शरीर के लिए भी उपयोग नहीं करते! किसलिए डॉक्टर के पास जाएँ? ये डॉक्टर तो कहते हैं, 'आपको ज्ञानी पुरुष को किसलिए आना पड़ता है?' तब मैंने कहा, 'मैं पेशेन्ट हूँ, इसलिए आना पड़ता है।' मतलब देह के लिए भी किसी सिद्धि का उपयोग नहीं करना है।
अज्ञानी तो सिद्धि को जहाँ-तहाँ खर्च कर देता है। जितनी उसके पास इकट्ठी हुई हो, तो लोगों ने उसे 'बापजी, बापजी' कहा तो वह वहाँ खर्च हो जाती है। जब कि ज्ञानी के पास तो, उनकी जितनी जमा हुई हो न, उसमें से एक आना भी सिद्धि खर्च नहीं होती।
और 'ज्ञानी पुरुष' तो गज़ब ही कहलाते हैं। जगत् तो अभी तक उन्हें समझा ही नहीं है। उनकी सिद्धियाँ तो, हाथ लगाएँ और काम हो जाए। ये यहाँ जो लोगों में सब परिवर्तन हए हैं न, वैसे किसीसे एक व्यक्ति में भी परिवर्तन नहीं हुए हैं। यह तो आपने देखा न?! क्या परिवर्तन हुए हैं? बाक़ी यह तो कभी हुआ ही नहीं, प्रकृति बदलती ही नहीं मनुष्य की! पर वह भी हुआ है अपने यहाँ! अब ये तो बड़े-बड़े चमत्कार कहलाते हैं, गज़ब के चमत्कार कहलाते हैं। इतनी उम्र में ये भाई कहते हैं कि, 'मेरा तो, मेरा घर स्वर्ग जैसा हो गया है, स्वर्ग में भी ऐसा नहीं होगा!'
प्रश्नकर्ता : वही शक्ति है न!
दादाश्री : गज़ब की शक्ति होती है 'ज्ञानी पुरुष' में तो, हाथ लगाएँ और काम हो जाए! पर हम सिद्धि का उपयोग नहीं करते। हमें तो कभी भी सिद्धि का उपयोग नहीं करना होता है। यह तो सहज उत्पन्न हुई होती हैं, हम उपयोग करें तो सिद्धि खतम हो जाए!
ये दूसरे सभी लोगों की तो सिद्धि वापिस खर्च हो जाती है, कमाया हो वह खर्च हो जाता है। आपकी तो खर्च नहीं हो जाती न? ।
प्रश्नकर्ता : ना, खर्च नहीं करेंगे। पर वैसी सिद्धि उत्पन्न हों तो अच्छा ।
दादाश्री : अरे, थोड़ा यदि चढ़ाएँ न आपको, तो तुरन्त ही सिद्धि का उपयोग कर दोगे आप! और हमें चढ़ाओ देखें, हम एक भी सिद्धि का उपयोग नहीं करेंगे!
जिनके पास इतनी सारी सिद्धियाँ होने के बावजूद, उन्होंने एक फूंक मारी होती तो जगत् उल्टा-सीधा हो जाए, उतनी शक्ति रखनेवाले महावीर, ऐसे भगवान महावीर ने क्या कहा? 'मैं जीवनदाता नहीं हूँ, मैं मोक्षदाता हूँ!' अब वहाँ यदि यह सिद्धि भुना दी होती महावीर ने, तो उनका तीर्थकरपन चला जाता! इन शिष्यों के कहने से चढ़ गए होते महावीर, तो तीर्थंकरपन चला जाता। पर भगवान चढ़े नहीं, शायद मेरे
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चमत्कार
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डिप्रेशन में हो नहीं सकते हैं। एलिवेशन में तो रहते ही नहीं पर डिप्रेशन भी नहीं होता! वे परमानंद में ही होते हैं!
जैसा चढ़ जाए! जब कि मैं भी चढूँ वैसा नहीं हूँ। मैंने चढ़कर ही तो मार खाई है, इसलिए अब सावधान हो गया हूँ। मतलब एक बार चोट लग गई हो तो फिर से लगने देंगे क्या?
इसलिए भगवान चमत्कार नहीं करते और सिद्धि का उपयोग भी नहीं करते।
सिद्धि का दुरुपयोग करने से, क़ीमत कौड़ी की
मतलब सिद्धि समझे न आप?
अभी मुझे करोड़-दो करोड़ रुपये इकट्ठे करने हों तो हो सकते हैं क्या? मेरे बोलते ही हो जाएँ। लोग तो पूरी जायदाद देने के लिए तैयार हैं, उसका क्या कारण है? सिद्धि है मेरे पास। उसको मैं भुनाऊँ तो मेरे पास रहा क्या फिर? कितने प्रयोग करके यह सिद्धि प्राप्त होती है और मुझे पैसों की ज़रूरत नहीं है। पर मेरी जो दूसरी सिद्धियाँ हैं, आंतरिक सिद्धियाँ हैं, वे तो जबरदस्त सिद्धियाँ हैं। पर भगवान महावीर ने सिद्धियों को भुनाया नहीं। भगवान कच्चे नहीं पड़े। तो मैं भी उनका शिष्य हूँ। बहुत पक्का शिष्य हूँ। मैं गोशाला जैसा नहीं हूँ। बहुत पक्का शिष्य, असल!
और वह इतना पक्का कि पूरा जगत् ही विरुद्ध हो जाए तो भी डरूँ नहीं ऐसा पक्का हूँ। फिर उससे अधिक क्या प्रमाण चाहिए? सिद्धि का दुरुपयोग नहीं करता, इसलिए न! और यदि सिद्धि का दरुपयोग करें तो? कल चार आने के हो जाएँ दादा! फिर लोग 'जाने दो न, दादा ने तो अंदर-अंदर लेना शुरू कर दिया है!' कहेंगे। पर मैं गारन्टी के साथ कहता हूँ कि यहाँ सीक्रेसी जैसी वस्तु ही नहीं है। चौबीसों घंटे, चाहे जब तुझे देखना हो तब आ जा यहाँ, सीक्रेसी ही नहीं है जहाँ पर! और जहाँ सीक्रेसी नहीं है वहाँ कुछ है ही नहीं और 'कुछ है' वाले सीक्रेट होते हैं। उनके रुम में कुछ खास समय तक घुसने नहीं देते। यहाँ तो चाहे जिस समय, एट एनी टाइम प्रवेश कर सकते हैं. रात को बारह बजे. एक बजे! कोई सीक्रेसी ही नहीं, फिर क्या? सीक्रेसी नहीं वैसे कोई डिप्रेशन देखने में नहीं आता। चाहे जब 'एट एनी टाइम', किसी भी मिनट दादा
तो मुझे इन सिद्धियों का उपयोग करना हो तो समय लगेगा क्या? क्यों समय लगेगा?! जो माँगे वह मिले, पर मैं भिखारी नहीं हूँ। क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' किसे कहा जाता है? स्त्रियों की भीख नहीं, लक्ष्मी की भीख नहीं, सोने की भीख नहीं, मान की भीख नहीं, कीर्ति की भीख नहीं, किसी भी प्रकार की भीख नहीं हो तब यह पद प्राप्त होता है!
आए आफत धर्म पर, तब... बाक़ी, ज्ञानी पुरुष तो देहधारी परमात्मा ही कहलाते हैं। इसलिए वह बात तो अलग ही है न?! वे चाहें उतना कर सकते हैं, पर वे करते नहीं हैं न, वैसी जोखिमदारी मोल ही नहीं लेते न! हाँ, यदि धर्म दब रहा हो, धर्म पर आफत आ रही हो, धर्म मुश्किल में हो तब करते हैं, नहीं तो नहीं करते।
प्रश्नकर्ता : मतलब लौकिक धर्म पर कुछ आफत आए, तब 'ज्ञानी पुरुष' सिद्धियों का उपयोग करते हैं?
दादाश्री : नहीं, लौकिक धर्म पर नहीं, सिर्फ धर्म मतलब जो अलौकिक वस्तु है न, वहाँ आफत आई हो तब सिद्धि का उपयोग करते हैं। बाक़ी, यह लौकिक धर्म तो लोगों का माना हआ धर्म है, उसके कोई ठिकाने ही कहाँ हैं? अपने महात्मा मुश्किल में हों, तब उपयोग करनी ही पड़ती है न! वह भी, हम सिद्धि का उपयोग नहीं करते। वह तो सिर्फ पहचान से (देवी-देवताओं को) खबर ही देते हैं। सिद्धि तो यों ही खर्च की ही नहीं जा सकती न!
प्रश्नकर्ता : सिद्धि उत्पन्न हो और उपयोग नहीं करें, तो फिर उसका अर्थ क्या?
दादाश्री : जो उपयोग करे उसकी जिम्मेदारी आती है। वह सिद्धि तो अपने आप ही खर्च हो जाती है, हमें खर्च नहीं करनी होती।
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चमत्कार
चमत्कार
प्रश्नकर्ता : सिद्धि का यदि उपयोग नहीं होना हो तो फिर वह सिद्धि काम क्या आएगी?
दादाश्री : ऐसा है, सिद्धि मतलब सिद्ध होने के अंश! वे अंश हम सिद्ध होने से पहले ही भुना लें तो सिद्ध हो सकेंगे क्या?! बाक़ी मनुष्य जैसे-जैसे ऊँचा जाता है न, वैसे-वैसे सिद्धि उत्पन्न होती है। अब उस सिद्धि का दुरुपयोग हो तब सिद्धि खतम हो जाती है।
नहीं है चमत्कार दुनिया में कहीं भी? यानी यह तो सिद्धि का उपयोग करते हैं, उसे अपने लोग चमत्कार कहते हैं। तो फिर दूसरा सिद्धि का उपयोग करे वह भी चमत्कार कहलाएगा। पर वह चमत्कार नहीं कहलाता। चमत्कार तो, दूसरा कोई नहीं कर सके, वह चमत्कार कहलाता है। दूसरा करे मतलब उसका अर्थ उतना ही कि आप भी उस डिग्री पर जाओगे, तब आप अपनी सिद्धि भना दोगे तो उसे भी वैसा ही चमत्कार माना जाएगा और नहीं भुनाए उसके पास चमत्कार नहीं है?!
मेरी बराबरी का बैठा हो तो वह मेरे जैसा ही सबकुछ करेगा या नहीं करेगा? अवश्य होगा। इसलिए वह चमत्कार नहीं माने जाते। वह तो बाय प्रोडक्ट हैं सिद्धि के! मेरी इच्छा नहीं है कि ऐसे चमत्कार करूँ, पर फिर भी इतना बाय प्रोडक्ट है, यानी यशनाम कर्म है उसके कारण यह प्राप्त होता है!
किया?!' जो विद्या दूसरों को सिखाई जा सके और फिर दूसरा करे तो फिर उसे चमत्कार नहीं कह सकते। चमत्कार दूसरा कोई व्यक्ति कर ही नहीं सकता! इसलिए यह चमत्कार नहीं कहा जा सकता। इसलिए चमत्कार किसी जगह पर मानना नहीं। कोई चमत्कारी पुरुष दुनिया में हुआ ही नहीं!
छुपी है वहाँ कोई भीख चमत्कार करनेवाला तो कोई अभी तक पैदा ही नहीं हआ है दुनिया में! चमत्कार तो किसे कहा जाता है? इन सूर्यनारायण को यहाँ हाथ में लेकर आए, तो उसे हम बड़े से बड़ा चमत्कार कहेंगे। जब कि ये दूसरे तो चमत्कार माने ही नहीं जाएँगे! कदाचित कोई व्यक्ति सूर्यनारायण को हाथ में लेकर आए तो भी वह चमत्कार नहीं कहलाएगा। क्योंकि उसे कुछ भूख है, भूखा है किसी चीज़ का वह ! हम तो उसे कहें कि, 'किसके भिखारी हो, कि उन्हें वहाँ से हिलाया? वे जहाँ से प्रकाशमान कर रहे हैं, वहाँ से तू किसलिए हिलाता है? वहाँ से यहाँ लाने का कारण क्या था? तू किसी चीज का भिखारी है। इसलिए तू यह लाया है न?' किसी चीज़ का इच्छुक हो, वह लाएगा न? कोई भी इच्छा होगी, विषय की इच्छा होगी, मान की इच्छा होगी या लक्ष्मी की इच्छा होगी। 'यदि तू लक्ष्मी का भिखारी है, तो तुझे हम सारी लक्ष्मी इकट्ठी करके देंगे। अब सूर्यनारायण को हिलाना नहीं। इसलिए जा तू उन्हें वापिस रख दे!' क्या जरूरत है उसकी? सूर्यनारायण वहाँ पर हैं, पर वह यहाँ पर दिखावा करने के लिए लाया है? सच्चा पुरुष तो किसी चीज़ को हिलाता नहीं। फिर उल्टा-सीधा कुछ करें, हम उसकी दानत नहीं समझ जाते कि दानत खराब है उसकी! और उससे हमें क्या फायदा होगा? हमारी एक पहर की भूख भी नहीं मिटेगी! अभी देवताओं को यहाँ बुलाकर दर्शन करवाए, तो भी हमें क्या फायदा? वे भी व्यापारी और हम भी व्यापारी! हाँ, मोक्ष जानेवाले हों ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' या तीर्थकर हों तो हमें फायदा होगा। जिनके दर्शन करने से ही अपने भाव प्र-भाव को प्राप्त हों, भाव ऊँचे आएँ तो काम का!
यानी दूसरा कोई न कर सके, वह चमत्कार कहलाता है! यह डेफिनेशन आपको पसंद आए तो स्वीकार करना। और नहीं तो यह डेफिनेशन हमारी स्वतंत्र है। किसी पुस्तक की लिखी हुई नहीं कहता
इस चमत्कार का अर्थ आपको समझ में आया न? कोई कहे, 'मैंने यह चमत्कार किया' तो आप क्या कहोगे? कि 'यह तो दूसरा भी कर सकता है, आपकी डिग्री तक पहुँचा हुआ व्यक्ति, उसमें आपने क्या
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चमत्कार
इसलिए जहाँ समझदार लोग होते हैं न, जिनकी फूलिशनेस खतम हो गई है न, वे लोग चमत्कार को मानते ही नहीं। यह चमत्कार तो बुद्धुओं को बुद्ध बनाने का मार्ग है, समझदारों को नहीं !!
इसलिए मैंने इन सभी से कहा हुआ है कि ऊपर से सूर्यनारायण भी कोई लाकर दिखाए तो सबसे पहले पूछना कि 'तू किस चीज़ का भिखारी है, वह तू बता हमें एक बार ? !' अब इतना बड़ा तो कोई कर सके ऐसा नहीं है न? तो दूसरे तो ये चमत्कार कहलाते ही नहीं ! चमत्कार या विज्ञान?
प्रश्नकर्ता: तो यह चमत्कार जैसी जो वस्तु कहते हैं वह मेस्मेरीज़म ( सम्मोहन ) है ? वह वास्तव में क्या है?
दादाश्री : चमत्कार मतलब मूर्ख बनाने का धंधा ! हमें समझ में नहीं आए न, उसे हम चमत्कार कहते हैं। पर वह होता क्या है? वह विज्ञान है। जो विज्ञान हम नहीं जानते हों, उसे चमत्कार के रूप में दिखाते हैं और दूसरा, वे नज़रबंदी करते हैं। बाक़ी, यह चमत्कार जैसा तो होता ही नहीं है, इतना तो आपको पक्का मान लेना है। जहाँ किंचित् मात्र चमत्कार है, वह जादूगरी कहलाता है।
प्रश्नकर्ता: पर दादा, कुछ लोग चमत्कार तो करके बताते हैं न सभी को और सभी को चमत्कार दिखता भी है न!
दादाश्री : वह तो विज्ञान नहीं जानने के कारण चमत्कार लगता है। अपने यहाँ एक महात्मा को चमत्कार करना आता है। मैंने उसे कहा, 'तू चमत्कार करता है, पर चमत्कार तो गलत बात है।' तब उसने कहा, 'दादाजी, वह तो आप ऐसा कह सकते हैं। मुझसे तो ऐसा नहीं कहा जाएगा न!' मैंने कहा, 'तू चमत्कार करता है, वह क्या है, वह मुझे दिखा तो सही!' उसने कहा, 'हाँ, दिखाता हूँ।' फिर उसे प्रयोग करने के लिए बिठाया। उसने दस पैसे का सिक्का एक भाई के हाथ में दिया और मुठ्ठी में बंद रखवाया। फिर उसने क्या किया? एक दियासलाई सुलगाकर दूर रखकर ऐसे-ऐसे, ऐसे दूर से हाथ घूमाकर मंत्र पढ़ने लगा। थोड़ी देर में
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चमत्कार
वह सिक्का अंदर मुठ्ठी में गरम होने लगा। इसलिए उसने फिर दूसरी दियासलाई सुलगाई। उससे पहले तो वह सिक्का इतना अधिक गरम हो गया कि उसने सिक्का छोड़ दिया, जल जाए वैसा था ! फिर मैंने उससे कहा, 'दूसरे चमत्कार करने हों तो कर, पर तू इस चमत्कार का मुझे खुलासा कर दे।' तब उसने कहा, 'उसमें ऐसी चीजें आती हैं, केमिकल्स कि हम वह केमिकल्स सिक्के पर ऐसे थोड़ा घिसते हैं और फिर दे देते हैं, उस घड़ी ठंडा बर्फ जैसा होता है। थोड़ा टाइम होने पर गरम गरम हो जाता है।' इसलिए यह साइन्स है, चमत्कार नहीं है! या फिर हम जो जानते नहीं हैं कि वह विज्ञान है या दूसरा कुछ उसकी हाथ की सफाई है । और कोई ऐसा करें, तब हम इतना कह सकते हैं कि 'आपकी चालाकी को धन्य है कि मेरे जैसे को भी उलझन में डाल देते हो आप !' इतना कह सकते हैं पर 'आप चमत्कार करते हो' ऐसा नहीं बोल सकते!
तली पकौड़ियाँ कागज की कढ़ाई में !!!
मैं अट्ठाईस साल का था, तब हमारे दसेक दोस्त बैठे हुए थे, तब चमत्कार की बात निकली। तब तो मुझमें अहंकारी गुण था न, इसलिए अहंकार तुरन्त फूट पड़ता था। अहंकार फूटे बगैर रहता नहीं था। इसलिए मैं बोल उठा कि, 'क्या चमत्कार - चमत्कार करते हो? ले, चमत्कार मैं कर दूँ।' तब सबने कहा, 'आप क्या चमत्कार करते हो?' तब मैंने कहा, 'यह कागज़ है। उसकी कढ़ाई में पकौड़ियाँ तल दूँ, बोलो!' तब सबने कहा, 'अरे, वैसा होता होगा? यह तो कुछ पागल जैसी बात कर रहे हो?" मैंने कहा, 'कागज़ की कढ़ाई बनाकर, अंदर तेल डालकर, स्टोव पर रखकर पकौड़ियाँ बनाकर दूँ और आप सभी को एक-एक खिलाऊँ ।' तब सबने कहा, 'हमारी सौ रुपये की शर्त।' मैंने कहा, 'नहीं। उस शर्त के लिए यह नहीं करना है। हमें घुड़सवारी नहीं करनी है। सौ के बदले दस रुपये निकालना। उसके बाद हम चाय-नाश्ता करेंगे।' और उन दिनों तो दस रुपये में तो बहुत कुछ हो जाता था !
हमारे वहाँ बड़ौदा में न्याय मंदिर है, उसका बड़ा सेन्ट्रल हॉल था । वहाँ एक व्यक्ति की जान पहचान थी। इसलिए वहाँ हॉल में यह प्रयोग
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चमत्कार
चमत्कार
रखा गया। बहुत लोग इकट्ठे नहीं हुए थे। दस हम और दूसरे पाँचपच्चीस लोग थे। वहाँ मैंने यह प्रयोग किया और एक स्टोव मँगवाया, कागज़ की कढ़ाई बनाई और पकौड़ी का घोल बनाया। ऐसे पकौड़ियाँ तो मुझे बनानी आती थीं। बचपन में खाने की आदत थी न, इसलिए घर पर कोई नहीं हो तो हम खुद ही बनाकर खा लें। इसलिए ये यहाँ पर मैंने तो तेल रखा और कढ़ाई स्टोव पर रखते ही पहले मैंने क्या किया? ऐसा किया। हाथ ऊँचे-नीचे करके जादुमंतर बोले, वह अभिनय किया। इसलिए वे लोग सब ऐसे समझे कि यह कुछ मंत्र पढ़ा। क्योंकि वैसा नहीं करूँ तो वे लोग डर जाएँ। मतलब हिम्मत रहे इसलिए किया। नहीं तो उनके डर का असर मुझ पर पड़ता, 'साइकोलोजी' पड़ती है न? कि अभी जल जाएगा! वह मंत्र पढ़ा न इसलिए लोग उत्कंठा से देखते ही रहे कि कोई मंत्र पढ़ा होगा! फिर मैंने कढ़ाई स्टोव पर रखी। पर जली नहीं इसलिए वे समझे कि मैंने ज़रूर मंत्र बोला है! तेल गरम हुआ और फिर एक-एक पकौड़ी अंदर रखी। पकौडी तो अंदर पकने लगीं! फिर दस-बारह पकौड़ियाँ बनाई और सबको एक-एक खिलाई। जरा शायद कच्ची रह गई होगी। क्योंकि यह बड़ा नहीं बनता न! बर्तन छोटा न! यह तो सिर्फ उतना उन्हें समझाने के लिए करना था कि यह हो सकता है। फिर सब मुझे कहने लगे कि, 'आप तो चमत्कार करना जानते हो, नहीं तो यह तो कहीं होता है?' मैंने कहा, 'यह तुझे सिखाऊँ तब तू भी कर सकेगा। जो दूसरों को आता है, उसे चमत्कार नहीं कह सकते।'
मैं आपको एक बार कागज़ की कढ़ाई में पकौड़ियाँ बनाकर बताऊँ इसलिए फिर दूसरे दिन फिर आप बना सकोगे। आपको श्रद्धा बैठ जानी चाहिए कि यह मंत्र बोले बिना हो सकता है। तब आपसे हो सकेगा!
यानी कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है कि जिसे चमत्कार आता हो। यह तो सब विज्ञान है। विज्ञान का स्वभाव है, यदि कागज़ में तेल रखो तो कैसी स्थिति में कागज़ जल जाता है और कैसी स्थिति में कागज़ नहीं जलता, वह विज्ञान जानता है। नीचे स्टोव जले. ऊपर तेल है, पर कौनसी स्थिति में कागज़ नहीं जलता! यह तो मैंने खुद अनुभव किया है।
प्रश्नकर्ता : कागज़ जला नहीं, वह किस तरह?
दादाश्री : उसका तरीका नहीं है, वह तो कागज़ का स्वभाव ही ऐसा है कि यदि नीचे थोड़ा भी तेल लगा हुआ होता न, तो विस्फोट होता।
प्रश्नकर्ता : पर कागज़ तो तेल सोखता है न?
दादाश्री : हाँ, तेल सोखता है। अंदर तेल सोखा हआ दिखता है हमें। उसका दाग़ दिखता है। पर तेल टपकाता हुआ नहीं दिखता। आश्चर्य है यह एक! और वह कागज़ का वैज्ञानिक स्वभाव है। पर बुद्धि तो ऐसा ही कहेगी न कि कागज़ को अग्नि जला देती है और तेलवाला है, इसलिए जल्दी जल जाएगा। पर नहीं, कागज़ के नीचे तेल टपक रहा होता तो जल जाता। इसलिए विज्ञान की कितनी ही बातें जाननी चाहिए। यह तो उनकी मति पहुँचती नहीं है, इसलिए इसे चमत्कार की तरह लोग एक्सेप्ट भी करते हैं ! मति पहुँचती हो, उसे दूसरे विचार भी आएँगे ! ये बड़ेबड़े दर्पण रखते हैं, वे धड़ाक से टूट जाते हैं! उसे सब लोग, चमत्कार किया, ऐसा कहते हैं। पर यह तो सब औषधियाँ हैं विज्ञान की!
यानी कोई देहधारी मनुष्य चमत्कार नहीं कर सकता। और या तो हम उस विज्ञान के जानकार नहीं हों, तो वह विज्ञानवाला मनुष्य हमें मूर्ख बनाता है कि 'यह देखो मैं करता हूँ।' तब हमें ऐसा लगता है कि यह चमत्कार किया और विज्ञान जानने के बाद वह चमत्कार दो टके का!
भगवान ने भी भोगे कर्म इसलिए यह सब फँसाव है। और सभी का मानना चाहिए, पर वह साइन्स कबूल करे वैसा हो तो मानना चाहिए। ऐसे गप्प नहीं होनी चाहिए। ऐसा गलत नहीं होना चाहिए। क्योंकि कृष्ण भगवान को आप जानते हो? ये कृष्ण भगवान ऐसे पैर पर पैर चढ़ाकर सो गए थे और शिकारी को ऐसा लगा कि हिरण है वह। उस बेचारे ने तीर मारा। और तीर लगा और भगवान ने देह छोड़ दी, वह बात जानते हो? जबकि वे
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चमत्कार
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तो नारायण स्वरूप थे। वह जानते हो आप? आपको उनकी जितनी कीमत नहीं है, उतनी क़ीमत हमें है। क्योंकि नारायण स्वरूप मतलब नर में से नारायण हुआ पुरुष! कौन वह पुरुष! शलाका पुरुष, वासुदेव नारायण! तो वासुदेव नारायण की आबरू ले ऐसा यह जगत्, तो दूसरे लोगों का क्या हिसाब? तो दूसरे लोग तो बेकार रौब ही मारते हैं न! आपको समझ में आता है न?
ही यहाँ पर आएँगे। नहीं तो इसमें हम एक ही साधना करें न, तो यह टेबल ऐसे ही उछलता रहे। पर उससे तो सभी लोग इकट्ठे हो जाएँगे, फिर क्या जवाब दें हम लोग?! और भीड का क्या करना है? इसमें से बीन-बीन-बीनकर मोती, सच्चे हीरे निकाल लेने हैं ! इस दूसरे सब कचरे का क्या करना है? नहीं तो यह टेबल तो चारों पैरों पर कूदेगा, ऐसे ही, कुछ भी यंत्र रखे बिना कूद सके ऐसा है, वह साइन्स है। उसमें आज के साइन्टिस्ट नहीं समझेंगे कि क्या साइन्स है यह!! यह रियल साइन्स है। और उन लोगों का तो रिलेटिव साइन्स है। अब वह उन्हें क्या समझ में आएगा बेचारों को?
इसलिए, 'दादा' चमत्कार करते हैं, वैसा लोग सुनें न तो सारा उल्टा माल घुस जाएगा, गलत माल सारा यहाँ पर आ जाएगा! यह चमत्कार देखने जो बुद्धिशाली वर्ग है न, वह तो यहाँ आएगा ही नहीं। सारा कौन-सा वर्ग आएगा? सारे चमत्कार में माननेवाले लोग ही आएँगे! चमत्कार को सच्चा मनुष्य देखना ही नहीं चाहता। बुद्धिशाली वर्ग तो चमत्कार की बात सुने न, तो वहाँ से भाग जाए। बुद्धिशाली को चमत्कार पुसाता ही नहीं। चमत्कार तो जादू है, मूर्ख बनाने के धंधे हैं ऐसे !
द्रौपदी के चीर का चमत्कार (?) प्रश्नकर्ता : फिर भी कृष्ण भगवान ने द्रौपदी के चीर बढ़ाए थे, ऊपर रहकर, ऐसा कहते हैं न? और एक वस्तु है न, कि ऐसी वस्तुओं के कारण प्रजा के अंदर धार्मिक भावना बनी रहती है न?
दादाश्री : धर्म की भावना बनी रहती है न, वह कितने ही वर्षों तक बनी रही और फिर बाद में रिएक्शन आया। ऐसा होता होगा?! उल्टा धर्म से पर हो गए ये लोग! इसलिए वैज्ञानिक, सच्ची रीत ही होनी चाहिए कि जिसके कारण भावना भले ही देर से बैठे. पर हमेशा के लिए टिके। वह दिखावा तो नहीं चलेगा। नहीं तो वह पोल कितने वर्षों तक चलेगी?! फिर भी अपने हिन्दुस्तान में यह सब ऐसे ही किया हुआ है। ऐसे गप्प लगाकर ही पोल चलाई है। 'ऐसी पोल किसलिए मारते हो? आपको क्या चाहिए कि यह पोल मारते हो? किसी चीज़ के भिखारी हो!' ऐसा कहना चाहिए।
और अपने 'यहाँ' पर तो कैसा है? बिलकुल पोल नहीं है न! मतलब ऐसा चोखा हो जाएगा तो ही हिन्दुस्तान के दिन बदलेंगे!
चमत्कार को नमस्कार करें, वे... यह तो हमें एक व्यक्ति बड़ौदा में कहने लगा। कहता है, 'दादा, कुछ चमत्कार करो न कि पूरी दुनिया यहाँ पर आए।' पर मैंने कहा, 'इस दुनिया के मनुष्य तो चमत्कार करें तो नमस्कार करने आते हैं। पर गायेंभैंसें, भेड़, कुत्ते कहाँ चमत्कार को नमस्कार करते हैं? सिर्फ ये मनुष्य
चमत्कार मतलब अंधश्रद्धा
प्रश्नकर्ता : सत्पुरुष चमत्कार करते हैं क्या?
दादाश्री : सत्पुरुष चमत्कार नहीं करते और चमत्कार करें तो वे सत्पुरुष नहीं हैं। वे फिर जादूगर कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता : पर मुक्ति साधना में सफलता प्राप्त करनेवाले चमत्कार तो सर्जित कर सकते हैं न?
दादाश्री : उनके चमत्कार ऐसे नहीं होते, उनमें इस तरह कुमकुम निकालने के या ऐसे-वैसे चमत्कार नहीं होते हैं। उसमें तो जगत् में देखा नहीं हो वैसा हमें परिवर्तन लगता है। पर फिर भी उसे चमत्कार नहीं मान सकते। ये चमत्कार तो जादुई कहलाते हैं!
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चमत्कार
चमत्कार
प्रश्नकर्ता : पर दादा, एक संत ने आम का पत्ता लेकर चमत्कार किए थे। ऐसे दो अनुभव मैंने खुद देखे हैं!
दादाश्री : हाँ। पर वह जो पत्ता मँगवाया था, वह किसका पत्ता मँगवाया था? आम का न? अब उसके बदले, हम कहें कि, 'भाई, इस महुए का पत्ता है, वह लेगा?' तब वह कहेगा, 'नहीं, यह नहीं चलेगा। मुझे आम के पत्ते दो!' इसलिए हम यदि कहें कि इस महुए के पत्ते लेकर तू वैसा चमत्कार कर दे, तो वह नहीं हो सकेगा। मतलब ये सारे एविडेन्स हैं। यह 'स्टील' तो ऐसा है कि लाख चमत्कार करे तो भी मुड़े नहीं!
प्रश्नकर्ता : तो ये सब निकालते हैं, राख और कुमकुम या चावल, वह जादूगरी है या चमत्कार है?
दादाश्री : जादूगरी, हाथ की सफाई! हमें समझ में नहीं आता इसलिए अपने मन में ऐसा होता है कि चमत्कार किया। पर चमत्कार होगा किस तरह? उसे संडास जाने की शक्ति नहीं है, वह किस तरह चमत्कार करेगा?! चाहे जैसा हो, पर संडास जाने की शक्ति हो तो मझे कह कि मेरी शक्ति है और नहीं हो तो चमत्कार किस तरह करनेवाला है तू?
प्रश्नकर्ता : तो फिर चमत्कार का जीवन में कितना स्थान है? चमत्कार अंधश्रद्धा की ओर ले जा सकता है क्या?
की मनुष्य में शक्ति कैसे हो सकती है? भगवान में वह शक्ति नहीं थी। कृष्ण भगवान जैसे बड़े व्यक्ति चमत्कार के बारे में कुछ बोले नहीं और ये सामान्य लोग, बिना काम के बोलते रहते हैं! यह बहुत अधिक बोलने का कारण क्या है कि इन लोगों ने हिन्दुस्तान पर बहुत अत्याचार किया है। यह नहीं होना चाहिए। जब कि मुझे उन लोगों के प्रति चिढ़ नहीं है, किसी व्यक्ति के प्रति मुझे चिढ़ नहीं है। मनुष्य तो जो करता है, वह कर्माधीन है। पर आप उसे सत्य मनवाते हो? ऐसा करवाते हो? क्या लाभ उठाना है आपको? लाभ उठाने के लिए ही होता है न ऐसा? जिसे लाभ नहीं उठाना हो, वह कहता है कुछ? और फिर भी उस सिलोनवाले वैज्ञानिक ने कहा कि, 'चमत्कार साबित कर दो, तो उसे मैं लाख रुपये का इनाम दूँगा।' तब क्यों कोई लाख रुपये लेने नहीं गया? तब ये सब कहाँ गए थे? क्योंकि पूछनेवाले होते हैं न वे, लाख रुपये देनेवाला कोई ऐसा-वैसा होगा? ऐसे पूछेगा, वैसे पूछेगा, उसका दिमाग घुमा देगा, उस घड़ी वे सभी भाग जाएँगे।
बड़े-बड़े 'जज' वहाँ बैठे हों, तो वे तुरन्त ही पकड़ लेंगे कि यह चमत्कार यहाँ नहीं चलेगा। इन लोगों ने चमत्कार के बारे में बहुत गलत दिमाग़ में फिट कर दिया है, पर अपने लोग भी लालची हैं ! इसलिए ही यह सब झंझट है न! फ़ॉरेन में भी चमत्कार चलते हैं। वे भी थोड़े-थोड़े लालची हैं। ये तो 'मेरा बेटा है न, उसके वहाँ बेटा नहीं है' ऐसा कहते हैं। अरे, तेरा तो बेटा है न? यह सिलसिला कब तक चलेगा? यह तो लौकी के पीछे दूसरी लौकी उगती ही रहती है। कोई एक ही लौकी उगनेवाली है? बेल चढ़ी उतनी लौकियाँ उगती रहती हैं। बस, यह एक ही लालच, 'मेरे बेटे के घर बेटा नहीं है।'
दादाश्री : यह सारी अंधश्रद्धा, वही चमत्कार है। इसलिए चमत्कार करते हैं न, वह कहनेवाला ही अंधश्रद्धालु हैं। खुद अपने आप को मूर्ख बनाता है तो भी नहीं समझता ! मैं तो इतना आपको सिखाता है कि हमें चमत्कार करनेवाले से पूछना चाहिए कि, 'साहब, कभी संडास जाते हो?' तब वह कहे, 'हाँ।' तो हम उसे पूछे 'तो वह आप बंद कर सकते हो? या फिर उसकी आपके हाथ में सत्ता है?' तब वह कहे, 'नहीं।''तो फिर संडास जाने की आपमें शक्ति नहीं है, तो किसलिए इन सब लोगों को मूर्ख बनाते हो?' कहें।
इसलिए चमत्कार का जीवन में स्थान नहीं है! यह चमत्कार करने
बाक़ी. चमत्कार जैसी वस्तु नहीं है और तू चमत्कार करनेवाला हो तो ऐसा चमत्कार कर न कि भाई, इस देश को अनाज बाहर से नहीं लाना पड़े। इतना कर न, तो भी बहुत हो गया। वैसा चमत्कार कर। ये यों ही राख निकालता है और कुमकुम निकालता है, वैसे लोगों को मूर्ख बनाता है। दूसरे चमत्कार क्यों नहीं करता? वही का वही कमकुम और
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चमत्कार
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वही की वही राख! और कुछ निकाल दिया, फलाना निकाल दिया, तो हम कहें न कि भाई, अनाज निकाल न, ताकि फ़ॉरेन से लाना नहीं पड़े।
प्रश्नकर्ता : ये सब लोग जो चमत्कार करते हैं, ये चमत्कार करके वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं?
दादाश्री : चमत्कार करके उनकी खुद की महत्ता बढ़ाते हैं। महत्ता बढ़ाकर इस भेड़चाल में चलनेवाले के पास से खुद का लाभ उठाते हैं सारा। पाँच इन्द्रियों के विषय संबंधी सभी लाभ उठाते हैं और कषाय संबंधी भी लाभ उठाते हैं, सभी प्रकार का लाभ उठाना है। इसलिए अब हम चमत्कार वस्तु को ही उड़ा देना चाहते हैं कि भाई, ऐसे चमत्कार में फँसना नहीं। पर भेड़चालवाला प्रवाह तो फँसनेवाला ही है, लालची है इसलिए। और कोई भी व्यक्ति यदि लालची हो तो उसे बुद्धिशाली कह ही नहीं सकते। बुद्धिशाली को लालच नहीं होता और लालच हो तो बुद्धि है नहीं!
वह प्रकट करे धर्मभावना और कितने ही संत कहते हैं, 'अरे ऐसा हो गया, निरंतर राख गिरती रहती है।' अरे, मुझे राख से क्या काम है? मुझे श्रद्धा बैठे ऐसा बोल कछ। ऐसे राखवाली श्रद्धा कितने दिन रहेगी? तु ऐसा कुछ बोल कि मैं हिलं नहीं तेरे पास से! पर बोलने की शक्ति नहीं रही, तब राख गिरानी पड़ी!
चमत्कार करके राख निकालता है और फलाना निकालता है। अब वह जो करते हैं न, वह उनकी साधना है एक प्रकार की! और उससे धर्म के रास्ते मोड़ते हैं लोगों को। इसलिए मैंने कहा था लोगों से कि, 'भाई, वह अच्छा है। ऐसा हो तो उसकी बात का खंडन करके उड़ा मत देना। क्योंकि जो लोग धर्म जैसी वस्तु ही नहीं समझते, उन लोगों को रास्ते पर लाते हैं, धर्म के लिए प्रेरित करते हैं और फिट (लायक) बना देते हैं, वह अच्छा है!' इसलिए वहाँ जानेवाले फिर मझसे मिलने आते हैं। मुझे मिलने आते हैं तब मैं कहता हूँ, 'वहाँ पर जाओ।' क्योंकि वे
आपको इस रास्ते पर चढ़ा देंगे। उनमें इतनी शक्ति है कि वे आपकी श्रद्धा जीत लेते हैं। वे ऐसा नहीं कहते कि आप मुझ पर श्रद्धा रखो। वह तो अभी चमत्कार दिखाकर तुरन्त ही श्रद्धा बैठा देते हैं। पर वह 'लो स्टेन्डर्ड' के लिए है, 'हायर स्टेन्डर्ड' के लोगों के लिए वह नहीं है। 'हायर स्टेन्डर्डवालों' की तो बुद्धि कसी हुई होती है, इसलिए वहाँ मत जाना। बुद्धि कसी हुई नहीं हो, तो वहाँ पर जाना। यानी हरएक प्रकार के लोग होते हैं। 'स्टेन्डर्ड' तो हरएक प्रकार के होते हैं न? आपको कैसा लगता है?
प्रश्नकर्ता : वे भक्त दूसरे जन्म में ज्ञानी होनेवाले हैं क्या?
दादाश्री : अभी तो कई जन्म होंगे, तब तक ऐसे का ऐसा ही चलता रहेगा। उसके बाद कसी हुई बुद्धिवाले विभाग में आएंगे और कसी हुई बुद्धिवाले विभाग में तो कई जन्म होते हैं, तब वे धीरे-धीरे ज्ञान के रास्ते पर आएँगे!
हम अमरीका गए तब एक व्यक्ति मुझे कह रहा था कि, 'मुझे आत्मज्ञान जानना है?' मैंने कहा, 'अभी आप क्या करते हो?' तब उसने कहा, 'ये, संत का कहा करता हूँ।' मैंने कहा, 'वे आपको क्या हेल्प करते हैं?' तब उसने कहा, 'हम आँख बंद करें और वे दिखते हैं।' मैंने उसे कहा, 'तुझे वहाँ स्थिरता रहती है तो यहाँ मेरे पास आने का तुझे क्या मतलब है? मेरे यहाँ तो, आपको स्थिरता नहीं रहती हो तो यहाँ आना।' जिसे किसी भी जगह पर स्थिरता रहती है, उसे बिना काम के स्थिरता छुड़वाकर यहाँ आने दूँ तो वह डाली भी तू छोड़ दे और यह डाली भी तू छोड़ दे तो तेरी क्या दशा होगी? अपने कहने से वह डाली छोड़ दे
और यह डाल उससे पकड़ी नहीं जाए तो? बिगड जाएगा न हिसाब?! जो एक जगह में रंगा हुआ हो, उसे मैं यहाँ आने के लिए मना करता हैं, पर जिसे किसी भी वस्तु से संतोष ही नहीं होता उसे मैं कह देता हँ, 'भाई, आना यहाँ पर!' संतोष नहीं होता हो, उसे ! क्योंकि 'क्वॉन्टिटी' के लिए नहीं है यह मार्ग, 'क्वॉलिटी' के लिए है। क्वॉन्टिटी मतलब यहाँ लाखों लोग इकट्ठे नहीं करने हैं मुझे। यहाँ क्या करना है, लाखों इकट्ठे करके? बैठने की जगह न मिले और ये आपके जैसों को, इन सबको
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कौन बैठने देगा यहाँ ? यहाँ तो क्वॉलिटी की ज़रूरत है। क्वॉन्टिटी की ज़रूरत नहीं है। तो भी यहाँ धीरे-धीरे पचास हज़ार लोग हो गए हैं। और क्वॉन्टिटी ढूंढने गए होते तो पाँच लाख इकट्ठे हो जाते ! फिर हम लोग क्या करें? कहाँ बैठाएँ सबको? यहाँ कोई बैठने का स्थल नहीं है। यह तो जिनके यहाँ जाते हैं, वही स्थल। किसीके घर पर जाते हैं न? क्योंकि अपने यहाँ तो क्या कहते हैं कि, 'जो सुख मैंने पाया वह सुख तू प्राप्त कर और संसार में से छुटकारा प्राप्त कर।' बस, अपने यहाँ दूसरा मार्ग नहीं है।
इसलिए एकाध धर्म ऐसा होता है कि कुछ लोगों को कुसंग मार्ग से डराकर मोड़ लेता है और उन लोगों को सत्संग में धकेलता है, वे चमत्कार अच्छे हैं। जो लोग कुसंगियों को धर्म में लाने के लिए भगवान के नाम से डराते हैं, तो हम उसे एक्सेप्ट करते हैं कि उन्हें थोड़ा डराकर भी धर्म में लाते हैं, उसमें हर्ज नहीं है, वह अच्छा है। उनकी नीयत खराब नहीं है। कुसंग मतलब गालियाँ देता हो, ताश खेलता हो, चोरियाँ करता हो, बदमाशी करता हो, उसे डराकर सत्संग में डाले, उसमें हर्ज नहीं है। जैसे बच्चों को हम डराकर ठिकाने पर नहीं रखते? पर वह बालमंदिर का मार्ग निकाले तो वह बात अलग है। पर दूसरे जो चमत्कार से नमस्कार करवाना चाहते हैं, वे सब यूजलेस बातें हैं। शोभा नहीं देता वैसा मनुष्य को! बाक़ी, वीतराग साइन्स तो ऐसा कुछ करता नहीं है।
देवताओं के चमत्कार सच्चे
प्रश्नकर्ता: कितनों के पास भभूत आती है न?
दादाश्री : उन भभूतवाले से मैं ऐसा कह दूँ कि, 'मुझे भभूत नहीं पर तू वह स्पेन का केसर निकाल । मुझे बहुत नहीं चाहिए, एक तौला ही निकाल न । बहुत हो गया।' ये तो सभी मूर्ख बनाते हैं।
अब इसमें, इस संबंध में दूसरी एक बात है, ताकि हम सभी को गलत नहीं कहें। क्योंकि ऐसे देवी-देवता हैं कि वे भभूत डालते भी हैं। उनके वहाँ कहाँ से भभूत होगी? पर वे तो यहाँ से उठाकर यहाँ दूसरी
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जगह पर डालते हैं, और उनके वैक्रियिक (देवताओं का अतिशय हल्के परमाणुओं से बना हुआ शरीर जो कोई भी रूप धारण कर सकता है) शरीर होते हैं। हम लोगों को उसका पता ही नहीं चलता। वैसे चमत्कार ये देवी-देवता भी करते हैं। इसलिए इसमें किसीने उन देव को साध्य किए हों, उससे ऐसा होता है। फिर भी वह चमत्कार नहीं है। वह किसीकी मदद ली है, बस ! चमत्कार तो खुद स्वयं स्वतंत्र प्रकार से करता हो, वह है। अब यह मैं कहता हूँ, उस तरह तो एक ही प्रतिशत करते होंगे, दूसरा सब 'एक्ज़ेजरेशन' (अतिशयोक्ति) है। निन्यानवे प्रतिशत तो सारे गलत एक्ज़ेजरेशन हैं, बिलकुल !
अपने हिन्दुस्तान में कुछ संत हैं, वे भभूति निकालते हैं। पर वह देवी-देवताओं का है, उसमें बनावट नहीं होती। पर उसमें चमत्कार जैसा नहीं है।
वह नहीं है मेरा चमत्कार
एक बार पालीताणा में भगवान के मंदिर में त्रिमंत्र ज़ोर से बुलवाए। त्रिमंत्र खुद मैंने बोला था और फिर चावल और वह सब गिरा । तब लोग कहते हैं, 'अरे... चमत्कार हो गया।' मैंने कहा, 'यह चमत्कार नहीं है। इसके पीछे करामातें हैं।'
प्रश्नकर्ता: किसकी करामातें हैं?
दादाश्री : देवी-देवता थोड़ा इसमें ध्यान रखते हैं। लोगों के मन धर्म से दूर जाते हैं न, तब देवी-देवता ऐसा करके भी उन्हें ऐसे मोड़ते हैं, श्रद्धा बैठा देते हैं। अब ऐसा एक ही बार होता है और जो सौ बार होता है, उसमें निन्यानवे बार तो एक्ज़ेजरेशन है इन लोगों के। पर उनका भी इरादा गलत नहीं है, इसलिए हम उन्हें गुनहगार नहीं मानते। उसमें क्या खराब इरादा है ? लोगों को इस ओर मोड़े तो अच्छा ही है न !
अब चावल गिरे, उस समय एक आदमी के ऊपर चावल नहीं गिरे। इसलिए वह मुझे कहता है कि, 'आज सुबह आपका कहा मैंने नहीं
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माना, उसका मुझे यह फल मिला है।' अब यह भी गलत था और वह 'चमत्कार किया' वह भी गलत था। मैंने ऐसा किया ही नहीं था।
प्रश्नकर्ता : मंदिर में दादा त्रिमंत्र बोले, तभी चावल गिरे ऐसा क्यों
हो, जादूगरी कहते हो, उसे चालाकी कहा और यह जो चावल की वृष्टि हुई, वह तो देवताओं की कृपा है।
हुआ?
दादाश्री: हाँ, तो कौन मना करता है? वह तो है ही न! पर उसे हम चमत्कार नहीं कहते। यह तो देवताओं की कृपा लगती है। पर अपने लोगों को यह चमत्कार शब्द बोलने की आदत है, वह हम निकालना चाहते हैं!
मूर्ति में से अमृतवर्षा प्रश्नकर्ता : अब कितनी जगह पर मूर्तियों में प्राणप्रतिष्ठा करते हैं, उस समय अमृतवर्षा होती है, तो वह क्या वस्तु है?
दादाश्री : वह तो निमित्त ऐसा बनता है न! मैं देखू न, तब उधर से डालते हैं।
प्रश्नकर्ता : दादा निमित्त तो हैं न?
दादाश्री : वह तो हमारी हाज़िरी से सब खुश होकर गिरते हैं कभी, पर उसमें मैंने किया नहीं है!
प्रश्नकर्ता : वह तो चमत्कार कहलाएगा या नहीं?
दादाश्री : ना, वह चमत्कार नहीं कहलाएगा। देवता ऐसा सब करते हैं, वह भी सिर्फ एक हेतु है उसके पीछे, कि लोगों की श्रद्धा बैठाने के लिए।
प्रश्नकर्ता : हाँ, मनुष्य करे वह तो चमत्कार नहीं कहलाएगा, पर देवता करें वह चमत्कार नहीं कहलाएगा?
दादाश्री : यदि वे देवता चमत्कार कर सकते तो फिर यहाँ मनुष्य में किसलिए आएँगे? उन्हें तो अवधिज्ञान भी है न, उन्हें जब जाने का समय आता है तब माला मुरझा जाती है.... तब उपाधि (बाहर से आनेवाला दुःख) होने लगती है कि अरेरे, यह तो तेली के वहाँ मेरा जन्म है! और आप चमत्कारवाले हो, फिर यहाँ किसलिए जन्म लेते हो? वहीं बैठे रहो न!
सिर्फ तीर्थंकर अकेले ही न होनेवाली वस्तु कर सकते हैं, जो दूसरों से नहीं होती, उनका इतना सामर्थ्य है। पर वैसा करें तो उनका तीर्थकर पद चला जाएगा, तुरन्त खो देंगे!
प्रश्नकर्ता : तो ये दो वस्तुएँ अलग हुईं। जो हाथ की सफाई कहते
दादाश्री : जिनकी प्रतिष्ठा करते हैं न, उनके शासनदेव होते हैं, वे शासनदेव उनका महात्म्य बढ़ाने के लिए सभी रास्ते करते हैं। जितने मत हैं, उतने उनके शासनदेव होते हैं। वे शासनदेव अपने-अपने धर्म का रक्षण करते हैं।
प्रश्नकर्ता : यहाँ पास में एक मंदिर है. वहाँ महोत्सव चल रहा है। तो दो दिन पहले वहाँ अमृतवर्षा हुई थी, और वह दो-तीन घंटे तक चली थी। फिर आज कहते हैं, वहाँ केसर के छींटे गिरे हैं। बहत पब्लिक वहाँ इकट्ठी हुई है।
दादाश्री : पर घर जाकर फिर आपके मतभेद तो वैसे ही रहे न! क्रोध-मान-माया-लोभ वही के वही रहे। इसलिए अमृतवर्षा बरसे या नहीं बरसे उससे अपना कुछ बदला नहीं!
प्रश्नकर्ता : पर अमृतवर्षावाली जो मूर्ति होती है, उनके दर्शन करने से कुछ लाभ तो होता होगा न, दादा?
दादाश्री: लाभ होता हो तो घर जाकर मतभेद कम होने चाहिए न? ऐसी अमृतवर्षा कितनी ही बार हुई है, पर मतभेद किसीके कम नहीं हुए हैं। हमें मुख्य काम क्या है कि मतभेद कम होने चाहिए, क्रोध-मान
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माया- लोभ कम होने चाहिए और शांति बढ़नी चाहिए। इतना काम है न? वह अमृतवर्षा बरसे या न बरसे, उससे हमें क्या काम है? फिर भी देवता ऐसा सब करते हैं। इसलिए हम उन्हें गलत नहीं कह सकते। पर अपने क्रोध - मान-माया - लोभ कम नहीं हों, उसका हमें क्या करना है?
प्रश्नकर्ता: पर दादा, इसमें अपने ज्ञान लिए हुए महात्माओं को क्या समझना चाहिए?
दादाश्री : महात्मा किसलिए झंझट करें? वहाँ केसर बह रहा हो तो भी महात्मा किसलिए देखने जाएँ? ऐसे ढेर सारा बह रहा हो तो भी किसलिए जाएँ ? समय बिगड़ेगा बेकार में ऐसा समय बिगाड़कर क्या काम है फिर ? हम शुद्ध उपयोग में न रहें? जिसे शुद्ध उपयोग मिला है, वह शुद्ध उपयोग में नहीं रहेगा? वह तो, जिसे श्रद्धा नहीं बैठती हो, उसे श्रद्धा बैठाने के लिए देवी-देवता करते हैं या दूसरे लोग भी ऐसा करते हैं! कितनी बार देवी-देवता भी नहीं करते, उसमें मनुष्य चमत्कार कहकर कारस्तानी अधिक करता है और परेशानी बढ़ाता है बिना काम के! पर उनका इरादा गलत नहीं है, उसमें लोग दर्शन करने आते हैं न! पर अपने को इसकी जरूरत नहीं है, हमें क्या फायदा?
प्रश्नकर्ता: पास में मंदिर है न, तो सब लोग कहते हैं कि दर्शन करने जाओ। तो हम तो 'दादा भगवान' की साक्षी में दर्शन कर के आ गए।
दादाश्री : उसमें हर्ज नहीं है। दर्शन तो हम मूर्ति के कर सकते हैं, पर ऊपर से अमृत ऐसे झरा या वैसे झरा, उसमें हमें क्या लेना-देना? अपने क्रोध-मान-माया लोभ कम हुए या नहीं, शांति हुई या नहीं, वह देखने की ज़रूरत है।
इसलिए कृपालुदेव ने कहा न, कि धर्म उसे कहते हैं कि धर्म होकर परिणमित हो । ऐसे परिणमित नहीं होता हो तो उसे धर्म कहा ही कैसे जाए? अनंत जन्मों से आवन जावन की, दौड़भाग की, पर थे, वैसे के वैसे ही रहे। बाक़ी क्रोध-मान- माया लोभ कम हों, तो बात समझें
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चमत्कार
कि भीतर मतभेद कम हुए हैं, शांति बढ़ी, तो हम जानें कि कुछ इसमें भला हुआ, कर्म बंधन रुक जाएगा और ये तो निरे कर्म ही बंधते हैं, इसलिए ऐसा अमृत टपके, फिर भी हमें उसका क्या काम है?
कुमकुम के बदले केसर गिराओ न !
मतलब अमृत टपके या चाहे जो हो, पर हमने 'गलत है' वैसा नहीं कहा है। वह तो कितनी जगह पर केसर गिरता है। कितनी जगह पर कुमकुम गिरता है, चावल गिरते हैं। केसर तो नहीं गिरता पर कुमकुम तो गिरता ही है। केसर जरा महँगा है, इसलिए नहीं गिरता । हाँ, केसर के छींटे होते हैं पर केसर ऐसे ढेर सारा नहीं गिरता । और केसर गिरता हो तो भी क्या बुरा है? थोड़ा-थोड़ा लाकर घर पर कुछ बनाकर खाएँगे !
और मैं तो कह दूँ कि, 'हे देवी-देवताओं, आपको नमस्कार है। पर ये आप छींटे छिड़क रहे हो, उसकी मुझे ज़रूरत नहीं है। आपको चावल डालने हों, तो डालो और नहीं डालने हों, तो भी उसका मुझे कोई काम नहीं है। मुझे तो क्रोध-मान- माया-लोभ कम हों, शांति हो ऐसा कर दीजिए। ' हमें ऐसा कहने में हर्ज क्या है?
प्रश्नकर्ता:
नहीं, पर यह जिसे श्रद्धा नहीं हो, उसे भगवान में श्रद्धा बैठे उसके लिए ऐसा होता होगा न ? !
दादाश्री : यह तो अंधश्रद्धालु लोगों को श्रद्धा बैठाने के लिए है। और उसमें तो कितनी जगहों पर अरे.... रात को मंदिरों में घंट बजते हैं, इसलिए दूसरे दिन लोग सब दर्शन करने आते हैं, एक साथ ! और मैं तो कहूँ कि लाख बार तू घंट बजाए तो भी मेरे किस काम का ? मुझे तो भीतर ठंडक हो जाए ऐसा हो, तो आऊँ तेरे वहाँ दर्शन करने। नहीं तो मुझे क्या काम है उसका ? मुझे तो बहुत दर्द होता हो, तो भी मैं ध्यान नहीं दूँ। ऐसे ध्यान दिया जाता होगा? हम कोई बच्चे हैं कि ज़रा-सा प्रसाद दिया कि दौड़भाग करें? आपको समझ में आता है न?
बाक़ी, जगत् तो सारा ऐसा ही है, लालची है और यदि पेड़े गिरें
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न, तो पूरा मुंबई वहाँ इकट्ठा हो जाए। क्यों रुपये नहीं गिरते? गिन्नियाँ गिरें तो कितना काम हो जाए! लोगों की दरिद्रता ही मिट जाए न दुसरे दिन से! एक-एक गिन्नी हिस्से में आई हो तो दूसरे दिन लोग बेचारे आम लाएँगे या नहीं लाएँगे? पर यह तो वही की वही राख किसी जगह पर गिरती है, तो किसी जगह पर कुमकुम के छींटे होते हैं!
इस वीतराग मार्ग में आत्मा मिले तो सच्ची बात है, नहीं तो बात सब बेकार है। और आत्मा मिलने की यदि भूमिका है तो सिर्फ यह मनुष्यगति ही एक भूमिका है। बाक़ी दूसरी सब जगहों पर आत्मा मिले वैसी भूमिका ही नहीं है। वहाँ तो भटक-भटककर मर जाना है। यानी भीतर ठंडक होनी चाहिए, शांति होनी चाहिए। हमें ऐसा विश्वास हो जाए कि अब मोक्ष होगा मेरा! आपको विश्वास हो गया है, मोक्ष होगा, वैसा?
प्रश्नकर्ता : एक सौ एक प्रतिशत हो गया है!
दादाश्री : हाँ, वैसा विश्वास हो जाना चाहिए। अपना तो यह मोक्षमार्ग है और वीतरागों का मार्ग है, चौबीस तीर्थंकरों का मार्ग है! ये तो दूषमकाल के लोग हैं, इसलिए कर्म से बेचारे फंसे हुए हैं। इसलिए मेरे साथ उनसे रहा नहीं जा सकता। नहीं तो खिसकते ही नहीं मेरे पास से। ऐसी ठंडक दें, फिर वहाँ से कौन खिसके? पर कर्मों से सब फँसे हुए हैं और निरी अपार 'फाइलें' हैं, फिर क्या करें वे!
कलश हिला... वह चमत्कार? प्रश्नकर्ता : कितनी ही जगहों पर लोग यात्रा पर हर वर्ष जाते हैं, अब वहाँ पर एक मंदिर का जो कलश है, सब कहते हैं, उसे हिलता हुआ देखते हैं - वह क्या है?
दादाश्री : उसमें बहुत गहरे उतरने जैसा नहीं है। जिसे दिखता है न, उनके लिए ठीक है। बाक़ी, आज का साइन्स यह स्वीकार नहीं करेगा। आज का साइन्स स्वीकार करेगा क्या?
प्रश्नकर्ता : नहीं।
दादाश्री : हो चुका तब! विज्ञान स्वीकार करे, उतनी बात सच माननी। दूसरा सब तो अंधश्रद्धा है। कितने ही देवी-देवता लोगों को श्रद्धा बैठाने के लिए चमत्कार करते हैं, तो वैसा होता है किसी समय। बाक़ी, सारा साइन्टिफिक होना चाहिए। ये 'साइन्स' जो-जो माने उतना ही मानने जैसा है। साइन्स से बाहर कुछ है ही नहीं। कितना तो नासमझी से अंधश्रद्धालु सारा जबरदस्ती घुसा देते हैं। जहाँ-तहाँ सब लोगों ने, अज्ञान प्रजा को श्रद्धा बैठाने के लिए सारे साधन खडे किए हैं। वे समझदार लोगों के लिए नहीं है। आपके लिए वह नहीं है। वह सब तो दूसरे लोगों के लिए है।
वह कलश हिले, उससे हमें क्या फायदा? उससे हमें आत्मा प्राप्त हो जाएगा? इसलिए यह तो जिसे भगवान पर श्रद्धा नहीं बैठती हो, उन्हें श्रद्धा बैठे उसके लिए वे हिलाते हैं, तो उन लोगों को श्रद्धा वहाँ बैठती है। पर उससे हमें क्या फायदा? यह दुनिया पूरी हिला दे, तो भी मैं कहूँ कि 'तू किसलिए सिरफोड़ी करता है, बेकार बिना काम के! बैठा रह न, सो जा न चुपचाप! इसमें हमें क्या फायदा?' अज्ञान हटे तो जानें कि फायदा हुआ। बाक़ी, यह अलमारी यहाँ से ऐसे खिसकी तो हमें क्या फायदा? यानी हमें इतना कहना चाहिए कि मुझे क्या फायदा?
प्रश्नकर्ता : मुझे ऐसा लगा था कि वह जगह पवित्र हो गई!
दादाश्री : सारा पवित्र ही है न, जगत् तो! ये तो सारे विकल्प हैं। हमें तो अपना काम हुआ तो सच्चा। बाक़ी यह सारी पोल है। अनंत जन्मों से यही किया है न! अरे..., फलानी जगह पर देवता हिले, मूर्ति हिली। अरे, उसमें तुझे क्या फायदा हुआ?! लोग तो कहेंगे, ऐसा हो गया और वैसा हो गया। पर हमें अपना फायदा देखना चाहिए।
मुझे लोग कहते हैं, यह तिपाई कुदवाइए ऐसे! वह हो सकता है। उसका प्रयोग होता है। पर वह करने से क्या होगा? वह कूदे उससे क्या होगा? यहाँ पर फिर लोग समाएँगे नहीं, ये सीढ़ियाँ टूट जाएँगी, और आप
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जो सच्चे ग्राहक हो, आपको धक्का देकर बाहर निकाल देंगे और दूसरे सब घुस जाएंगे, चमत्कार देखने घुस जाएँगे। अपने को वैसा क्या काम है पर? यह तो सच्चे ग्राहक की जगह है। सच्चा ग्राहक कि जिसे मोक्ष में जाना है, जिसे भगवान की पहचान करनी है. साक्षात्कार करना है, उनके लिए यह जगह है। यह अंतिम स्टेशन है! यहाँ ऐसा-वैसा नहीं होता। दूसरी सभी जगहों पर तो चमत्कार इसलिए करते हैं कि लोगों को श्रद्धा बैठे। बाक़ी, वह आप जैसो के लिए नहीं है!
अरे, कई लोग तो किसी सोए हुए व्यक्ति का हाथ ऊँचा कर देते हैं! वह तो सो रहा है तो क्यों हाथ ऊँचा हुआ? हाथ ऊँचा हुआ मतलब क्या जाग गया? वह तो सो रहा है। ये सभी मशीनरी हैं! इसमें अपना कुछ काम नहीं होता है।
किसीका दर्द कोई ले सकता है? प्रश्नकर्ता : एक संत ने एक आदमी का दर्द ले लिया था। जिससे फिर पूरा जीवन उन्होंने अपंग अवस्था में बिताया था। उसमें आपका क्या मानना है?
दादाश्री : किसीका दर्द किसीसे लिया नहीं जा सकता, यह हमारा मानना है। और उनकी भूल होती हो तो उन्हें नुकसान करेगी न? वह कोई आपको नुकसान नहीं करेगी। यानी ऐसा किसीसे हो नहीं सकता। इसलिए यह वहम मन में से निकाल दो ऐसा सब!
___ अपने हिन्दुस्तान के संत हैं, वे सामनेवाले के शरीर में से रोग भी ले लेते हैं (!) ऐसा पुस्तकों में खुल्ले आम लिखा हुआ है। अरे, इस हिन्दुस्तान के बुद्धिशालियों, आपको यह समझ में ही नहीं आता कि उसे संडास जाने की शक्ति नहीं है, वह क्या लेनेवाला था फिर?! और वे तो निमित्त होते हैं। निमित्त मतलब क्या कि कर्म के उदय ऐसे हैं इसलिए इनके निमित्त से परिवर्तन हो जाता है। परन्तु यह 'हम रोग ले लेते हैं, ऐसा ले लेते हैं, आयुष्य बढ़ा देते हैं. ये सारी बातें हैं न, वे दिमाग़ में कीड़े पड़ें वैसी बातें करते हैं!
प्रश्नकर्ता : जिन संतों के कहने से सामनेवाले के दर्द निकल जाते हैं वैसा होता है तो उन संतों का यशनाम कर्म होगा, ऐसा न?
दादाश्री : वह सब हो सकता है। सामनेवाले का दर्द चला भी जाए, वैसा संत का निमित्त होता है। यानी कि यशनाम कर्म होता है। पर ये 'दर्द ले लेते हैं' वे जो कहते हैं न. वह गलत बात है। वे यदि ऐसा कहें तो हम पूछे कि, 'साहब, आपको इतने सारे रोग किसलिए हैं?' तब कहेगा, 'दूसरों का ले लिया इसलिए!' देखो प्रमाण अच्छा मिल गया न ! अब उन संत से मैं पूछू कि, 'अरे साहब, आपको संडास जाने की शक्ति है? हो तो मुझे कहिए।' आप दर्द किस तरह से लेनेवाले हो? बड़े दर्द लेनेवाले आए, संडास जाने की शक्ति नहीं है और!
अरे, मेरे बारे में भी लोग ऐसा कहते थे न! तीन साल पहले इस पैर में फ्रेक्चर हुआ था। तब अहमदाबाद के बडे साहब आए थे, दर्शन करने। मुझे कहते हैं कि, 'दादा, यह आप किसका दर्द ले आए?' यह आप पढ़े-लिखे आदमी यदि ऐसा बोलोगे तो अनपढ़ की तो बिसात ही क्या बेचारे की! आप पढ़े-लिखे हो। आपके खुद के ऊपर आपको श्रद्धा है न और ऐसा आप मान लेते हो? इस दुनिया में किसीका किंचित् मात्र दर्द कोई थोड़ा भी ले नहीं सकता। हाँ, उसे सुख दे सकता है। उसका जो सुख है, उसे वह हेल्प करता है, पर दर्द नहीं ले सकता। यह तो मुझे मेरा कर्म भुगतना था। हर किसीको खुद अपने-अपने कर्म भोगने ही पड़ते हैं। इसलिए ये सारी बातें पैदा की गई हैं। यह तो लोगों को बेवकूफ बनाकर दम निकाल दिया है और वह फिर अपने हिन्दुस्तान के पढ़े-लिखे लोग भी मानते हैं! प्रतिकार करो न, कि 'लो, यह ऐसे करके दो।' पर वैसा पूछने की भी शक्ति नहीं है न! ऐसी पोल नहीं चलने देना चाहिए।
नहीं बढ़ती आयु पलभर प्रश्नकर्ता : मैंने तो इतना तक सुना है न कि कहते हैं, हमारे जो आचार्य हैं, उन्होंने फलाने वकील का दस वर्ष का आयुष्य बढ़ा दिया।
दादाश्री : अब ऐसा बोलते हैं उससे तो धर्म पर लोगों को जो
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प्रेम आता है न, वह भी छोड़ देंगे सब। और ऐसा कहें तो हम पूछें, 'अरे भाई, इस वकील को ही क्यों दिया? दूसरे को क्यों नहीं देते? उसका क्या कारण है? कहो चलो? और आप देनेवाले हो तो दस वर्ष ही क्यों दिया? चालीस वर्ष दे देने थे न !' ऐसे सब मैं तो सौ प्रश्न खड़े करूँ। क्या कह रहे थे? यहाँ पर दस वर्ष का आयुष्य दिया?
प्रश्नकर्ता: ऐसा मैंने सुना था ।
दादाश्री : सुना हुआ गलत भी होता है कभी। दूसरा कुछ सुना है ऐसा? किसी मनुष्य या गुरु की निंदा नहीं करनी चाहिए। क्या गलत है और क्या सच है, उसकी बात ही करने जैसी नहीं है! आपने भी सच मान लिया था ऐसा सब? आप तो पढ़े-लिखे हो, आपको इस बात पर अब शंका होती है या नहीं होती?
प्रश्नकर्ता: शंका होती है।
दादाश्री : शंका हो, वह बात छोड़ देना, मानना नहीं उसे ! लिखे हुए लेख नहीं मिटते किसीसे प्रश्नकर्ता: संत लेख को मिटा सकते हैं क्या?
दादाश्री : यह फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट है न, उसमें लेख को मिटाया जा सके ऐसा है ही नहीं और मिटा दिया वैसा दिखता है, हमें अनुभव में आता है, संत के माध्यम से या ज्ञानी पुरुष के माध्यम से, यह उनके यशनाम कर्म का फल आया है! इसलिए लेख को कोई मिटा नहीं सकता। नहीं तो कृष्ण भगवान नहीं मिटा देते? उन्हें मिटाना नहीं आता था? वे तो खुद वासुदेव नारायण कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता: पर कितने संत ऐसा भी कहते हैं कि उन्होंने मृत्यु को दूर करने का प्रयत्न किया था !
दादाश्री : ऐसा है न, हिन्दुस्तान में सब संतों ने मृत्यु को दूर करने के प्रयत्न किए हैं। पर किसीको ऐसा लगा है कि मृत्यु दूर हो गई है,
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ऐसा? इसलिए यह सब अहंकार है। अहंकार से बाहर कोई संत निकले नहीं हैं। वह सारा अहंकार है, और अहंकारियों को समझाने के लिए है। निर्अहंकारी तो ऐसी बातें सुनें भी नहीं। पागल आदमी बोलता हो न, उस जैसी बात करते हैं ये तो! ये तो अपने सभी संत ऐसा बोलते हैं, पर वे तो अहंकार से बोलते हैं और सुननेवाले भी अहंकारवाले हैं, इसलिए चल गया ! यह तो साइन्टिफिक तरह से समझ में आए वैसा है। विज्ञान से समझ में आएगा या नहीं आएगा? यह तो विज्ञान है और विज्ञान क्या कहता है कि संडास जाने की शक्ति किसीको नहीं है, संतों को भी संडास जाने की शक्ति नहीं है और हमें भी संडास जाने की शक्ति खुद की नहीं है।
भगवान महावीर का जब अंतिम निर्वाणकाल आ गया तब देवताओं ने विनती की कि, 'वीर, आयुष्य बढ़ाइए जी! दो-तीन मिनट का आयुष्य बढ़ाएँ तो इस दुनिया पर भस्मक ग्रह का असर नहीं पड़ेगा।' पर भस्मक ग्रह का असर पड़ा, इसलिए ये दुःख उठाए। वे दुःख नहीं पड़ें इसलिए देवताओं ने भगवान से कहा था। तब भगवान बोले कि, 'वैसा हुआ नहीं, होगा नहीं और भस्मक ग्रह आनेवाला है और वह होने ही वाला है।' यह विज्ञान की भाषा ! और इस अहंकार की भाषा में तो जिसे जो अच्छा लगे वैसा बोलते हैं न! 'मैंने आपको बचाया ऐसा भी कहते हैं। अपने सभी संत ऐसा का ऐसा ही बोलते हैं। उसमें उन संतों ने एक आना भी अध्यात्म का कमाया नहीं है। अभी आत्मा के सन्मुख गए नहीं हैं। अभी तो तीन योगों में ही हैं। मन-वचन-काया के योग में ही हैं, आत्मयोग की तरफ मुड़े ही नहीं। अब बहुत खुल्ला करूँ तो बुरा दिखेगा। मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए। मतलब, ये लोग अभी योग की प्रक्रिया में ही हैं और वश करते हैं- मन को, वाणी को, देह को। पर वश करनेवाला कौन? अहंकार ।
इसलिए आयुष्य कोई बढ़ा नहीं सकता। कोई व्यक्ति वैसा शोर मचाए कि 'मुझे ऐसी शक्ति है।' तो हम कहें कि, 'संडास जाने की शक्ति तो है नहीं और किसलिए बेकार शोर मचाता है ऐसे? तेरी आबरू जा
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रही है!' विज्ञान मना करता है। यह मेरी बात समझ में आती है क्या? आपको क्या लगता है?
प्रश्नकर्ता : समझ में आता है।
दादाश्री : क्योंकि मनुष्य जाति को ऐसी बाते बहुत पसंद है। यह तो मैं भी ऐसा बोलूँ कि मैं आपको सब ऐसा कर दूंगा और ये लोग भी कहते हैं, 'दादा, आप ही यह करते हैं।' अरे भाई, मेरी करने की शक्ति नहीं है। यह तो सारा मेरा यशनाम कर्म है। इसलिए वह आपका काम कर रहा है। हमसे एक भी शब्द उल्टा नहीं बोला जा सकता और इन्हें क्या? अहंकारी तो चाहे जैसा बोलें। फिर भी हमें उनका उल्टा-सुल्टा नहीं बोलना है। क्योंकि उनके भक्तों के लिए यह बात बहुत बड़ा विटामिन है और उनके भक्तों को वहाँ एकाग्रता रहती है न, चित्त चिपका हुआ रहता है न?| इसलिए हम लोगों को दूसरा कुछ नहीं बोलना चाहिए। हम उनके भक्तों के चित्त उखाड़ने के लिए यह बात नहीं करते हैं। यह तो आपको समझाने के लिए है कि विज्ञान क्या है यह ! वीर भगवान ने आयुष्य तीन मिनट भी नहीं बढ़ाया। इसलिए ऐसा कुछ होता नहीं है।
प्रश्नकर्ता : आयुष्य का मनुष्य के श्वास के साथ संबंध है? दादाश्री : हाँ, संबंध है, ठीक है वह।
रौब मारते हैं।
ऐसा है, वह तो दुनिया में सभी तरफ श्वासोच्छश्वास कम करें, उससे आयुष्य बढ़ता है, ऐसा तो नियम ही है। उसमें उससे ऐसा नहीं बोला जा सकता कि हम आयुष्य बढ़ाते हैं। वैसा बोलना वह बड़ा गुनाह है। महावीर भगवान भी नहीं बोल सकते, कोई भी नहीं बोल सकता! यह संडास जाने की शक्ति नहीं और आयुष्य क्या बढ़ानेवाले थे वे? वर्ल्ड में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जन्मा है कि जिसे संडास जाने की शक्ति हो, उसकी गारन्टी लिख देता हूँ। और, कुछ भी 'मैं करता हूँ' ऐसा पुस्तकों में लिखते हैं, वे सब अहंकारी हैं। यह मैंने किया और मैंने ऐसा किया
और मैंने फलाना किया' कहते हैं न, वे सभी अहंकारी हैं। हमारी पुस्तक में 'मैं करता हूँ, तू करता है और वे करते हैं वह होता ही नहीं है किसी जगह पर। दूसरे सभी में यही होता है न 'मैं करता हँ', वह जहाँ पर हो, वहाँ पर वे पुस्तकें अहंकारियों को सौंप देनी चाहिए। यदि मोक्ष में जाना हो तो वह पुस्तक अपने पास नहीं रखनी चाहिए। 'मैं ऐसा करूँ
और मैं वैसा करूँ, मैं तार दूं और मैं डूबो दूं।' वे सब अहंकारी बातें हैं। बाक़ी किसीमें करने की शक्ति ही नहीं है न! यह तो ऐसा है न, भोलीभाली प्रजा है, इसलिए चला फिर!
इसलिए ये संत तो कहेंगे, 'मरना हमारे स्वाधीन है, हमें जब मरना हो तब हम मरेंगे।' अरे, एक मिनट किसीकी ताकत नहीं है ऐसी! ये तो मूर्ख लोगों को फँसा देते हैं! तो मुझे ऐसा ही लगेगा न कि कब तक ऐसे मूर्ख रहोगे आप?! भगवान महावीर कहते हैं, 'हे देवों, ऐसा हुआ नहीं है, होगा नहीं और होनेवाला नहीं है।' और ये लोग तो देखो, लोगों को श्रद्धा बैठे इसलिए कहते हैं, 'मैंने इतना आयुष्य बढ़ाया!' पर थोडे दिनों के बाद यह बैठी हुई श्रद्धा भी उठ जाती है। भीतर शंका-कुशंका नहीं होती, पढ़े हुए मनुष्य को? तो वह श्रद्धा सच्ची कहलाएगी?
पर टिकिट चिपकती ही नहीं वहाँ गुरु हाज़िर हों तो ही काम होता है, फिर काम नहीं लगते। फिर
प्रश्नकर्ता : उसमें ये योगी श्वास को रोककर, श्वास की गति अथवा श्वास का अनुपात कम करें तो उनके आयुष्य में फर्क पड़ता है?
दादाश्री : वह ठीक है। वह तो स्वाभाविक है। वह तो आयुष्य बढ़ाना,कहने का मतलब क्या है कि श्वासोच्छ्श्वास खर्च नहीं होने देता वह, श्वासोच्छ्श्वास पर आयुष्य आधारित है। पर वह उसके लिए नहीं कहता है, वह तो रौब मारता है। उसके लिए कहता हो तो अच्छी बात है। वह तो हरएक को होता है, इसमें नया क्या है वह? जितने श्वासोच्छ्श्वास कम खर्च होंगे, उतने वर्ष बढ़ते हैं। पर ये क्या कहते हैं? आयुष्य बढ़ाना मतलब वर्ष बढ़ाना- वैसा नहीं, पर ये तो श्वासोच्छ्श्वास बढ़ा दिए, ऐसा
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भी उनके फोलोअर्स पुस्तक में क्या लिखते हैं? 'हमारे गुरु ने ऐसा किया और वैसा किया!' सभी झूठे चमत्कार लिखते हैं। जिसे छोटे बच्चे भी ऐसा कहें कि ये पागलपन किया है, ऐसे चमत्कार लिखते हैं! उसे इस ज़माने के बच्चे तो मानेंगे ही नहीं न! वे पहले के जमाने के लोग चमत्कार में मानते थे।
प्रश्नकर्ता: पर दादा, हिन्दुस्तान में सारे ही लोग चमत्कार में मानते हैं न! फिर कोई भी व्यक्ति हो, बेरिस्टर, डॉक्टर, एन्जिनियर सभी मानते हैं।
दादाश्री : वे लालची हैं, इसलिए ही मानते हैं। नहीं तो चमत्कार जैसी वस्तु ही इस दुनिया में होती नहीं है। और जो चमत्कार है, वह गोपित विज्ञान है। बाक़ी, चमत्कार जैसी वस्तु ही नहीं है।
प्रश्नकर्ता: पर ये जो चमत्कार करते हैं न, उसे तो लोग 'ये ज्ञानी पुरुष हैं' ऐसा कहते हैं।
दादाश्री : वे तो ऐसा ही कहेंगे न, पर वैसा न कहे तो उनके चमत्कार चलेंगे नहीं। उन्हें पूछा जाए, उनका निवेदन लिया जाए कि ये चमत्कार किसलिए करते हो? किस हेतु के लिए करते हो? आप निवेदन कीजिए, कहें, तो मजा आए !
प्रश्नकर्ता: तब वे लोग ऐसा कहते हैं कि, 'श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए।'
दादाश्री : श्रद्धा यदि उस पर होती ही नहीं हो, तो ऐसा गलत करके फिर श्रद्धा उत्पन्न करवाना गुनाह है। वह यदि इस तरह श्रद्धा उत्पन्न करवाने के लिए जो व्यक्ति करता है, उसे पकड़कर दंड देना चाहिए।
मैं पच्चीस वर्ष का था, उस समय एक संत आचार्य के पास गया था। वे मुझे कहते हैं, 'मुझ पर श्रद्धा रखो।' मैंने कहा, 'पर मुझे श्रद्धा आती ही नहीं।' तब बोले, 'पर आप श्रद्धा रखते रहो।' तब मैंने कहा,
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'मैं आपको उदाहरण दूँ। यह टिकिट है, वह हम पानी चुपड़कर चिपकाएँ, पर गिर जाती है। तो हम नहीं समझ जाएँ कि कुछ कमी है उन दोनों के बीच? ! जिस पर हमें टिकिट चिपकानी है और वह टिकिट, उन दोनों के बीच में कौन-सी वस्तु की कमी है ऐसा अपने को पता चलता है या नहीं चलता? किस वस्तु की कमी है?
प्रश्नकर्ता: गोंद की कमी है।
दादाश्री : हाँ। इसलिए मैंने कहा, 'ऐसा कोई गोंद लगाओ कि मेरी टिकिट चिपक जाए।' तो भी वे बोले, 'वैसा नहीं, आपको मुझ पर श्रद्धा रखनी पड़ेगी।' मैंने कहा, 'नहीं, वैसी श्रद्धा मैं नहीं रखता हूँ। श्रद्ध बैठती ही नहीं मुझे ! यदि आप वैसे लुभावने होते तो लुभावने के आधार पर मैं थोड़ी श्रद्धा रखता। वैसे लुभावने भी नहीं हैं। यदि आप वैसी वाणी बोलते तो आपकी वाणी सुनकर मैं खुश हो जाता, तो मेरी श्रद्धा बैठती । या फिर आपका वर्तन देखकर मेरी श्रद्धा बैठती। पर वैसा कुछ दिखता नहीं है मुझे आपमें । फिर भी मैं दर्शन करने आऊँगा ऐसे ही, आप त्यागी पुरुष हैं इसलिए। बाक़ी, श्रद्धा तो मेरी बैठती ही नहीं ! '
अब वहाँ चमत्कारी बात करने जाएँ तो मैं तो अधिक डाँ कि ऐसी जादूगरी किसलिए करते हो? पर हिन्दुस्तान के लोग लालची हैं इसलिए चमत्कार देख आएँ, वहाँ श्रद्धा बैठा देते हैं। उस चमत्कार करनेवाले को हम लोग कहें, 'हिन्दुस्तान के लोगों को अनाज - पानी की कमी है, आप अनाज- पानी इकट्ठा करो। वह चमत्कार करो, आपकी जो शक्ति है, वह इसमें खर्च करो।' पर वैसा कुछ नहीं करते! यह तो मूर्ख बनाया है लोगों को !
प्रश्नकर्ता: अभी तक वैसे मूर्ख बनते ही आए हैं।
दादाश्री : पर ऐसा जीवन कब तक जीना है? किसलिए लालच होना चाहिए? मनुष्य को लालच किसलिए होना चाहिए? और वह भला देनेवाला कौन? उसे संडास जाने की शक्ति ही नहीं, तो वह क्या देनेवाला है ?
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धोखा खाया विचारकों ने भी.... और मैंने चमत्कार किया वैसा कौन बोलता है? कि जिसे कुछ लाभ उठाना है, वह बोलता है। और किसके पास से लाभ उठाना है? जो लोग उसके पास से कुछ माँगते हैं, वहाँ लाभ उठाते हो? जो लोग खुद के दु:ख दूर करने के लिए सुख मांगने आए हैं, उनसे लाभ उठाते हो?! जो सुख के भिखारी हैं, उनके पास से आप सुख लेते हो? किस तरह के हो आप? उनके पास से एक पाई भी कैसे ली जाए? यह तो वह आपके पास भिखारी हैं और आप उसके पास भिखारी हो! आपका भी भिखारीपन छूटता नहीं है! फिर किस तरह ज्ञान भीतर प्रकट हो? ज्ञान प्रकट ही नहीं होगा न! ज्ञान तो, किसीका किंचित् मात्र सुख छीन लेने की जिसे इच्छा नहीं है, वहाँ ज्ञान प्रकट होता है। किसी भी प्रकार की भीख नहीं, मान-तान की भीख नहीं, अपमान करे तो भी हर्ज नहीं, मान करे तो भी हर्ज नहीं, विषयों संबंधी भीख नहीं, वहाँ ज्ञान प्रकट होता है। तब ये लोग कहते हैं, 'हम ज्ञान लेकर फिरते हैं।' पर चारों तरफ से तो भीख में है तू, किस तरह ज्ञान हो सकता है वहाँ पर?!
और वह तो इस भेड़चाल में चलेगा। यहाँ पर बुद्धिशालियों के पास नहीं चाहिए!
पर अपने यहाँ बुद्धिशाली कैसे हैं? कच्चे हैं, आपके जैसे नहीं हैं। 'होगा, हमें क्या?' ऐसा कहते हैं इसलिए चमत्कार करनेवाले लोगों को तो बुद्धिशालियों का रक्षण मिल गया। पर बुद्धिशाली उनके रक्षण तोड़ दें तो अभी सीधे हो जाएंगे। पर अपने हिन्दुस्तान के लोग, 'हमें क्या?' ऐसा ही करते हैं! मुझे तो 'हमें क्या' वह नहीं पुसाता। साफ-साफ कह दो। भले ही दो जन्म अधिक हों! पर वे अपने बुद्धिशाली भी चमत्कार में मानने लग गए हैं। अरेरे, क्यों लोग ऐसे हो गए! सारे विचारशील मनुष्यों में इतना घुस गया है कि यह चमत्कार जैसी कोई वस्तु है। यह जो भेड़चाल उसे माने, उसका हमें हर्ज नहीं है, पर विचारशील मनुष्य भी मानें तो समझो कि अपने हिन्दुस्तान की जो बुद्धिशक्ति है, वह 'फ्रेक्चर' होने लगी है।
प्रश्नकर्ता : यानी लोगों की भाषा में वह चमत्कार कहलाता है?
दादाश्री : इस भेडचाल में, बदिशालियों की भाषा में नहीं। और बुद्धिशाली मेरे पास आते थे, वे कहते थे कि, 'यह चमत्कार!' तब मैंने कहा, 'आपके जैसे बुद्धिशाली ऐसा मानते हैं?' तब वे बोले, 'हमें तो बहुत ऐसा होता है, पर हमें दिमाग़ पर बार-बार टकोरे लगने से फिर उसी रूप हो जाता है।' फिर मैंने सभी प्रकार से समझाया, तब उन्हें एक्सेप्ट हो गया, समझ में आ गया। फिर कहने लगे, 'अब नहीं मानेंगे।'
और समझ गए कि चमत्कार नहीं होते। मनुष्य चमत्कार कर ही नहीं सकता।
चमत्कार चीज़ बुद्धिशालियों को नहीं माननी चाहिए और अपने ज्ञान लिए हुए महात्माओं को तो जानना ही नहीं चाहिए। कोई चमत्कारी हों तब कहो कि, 'तू चमत्कारी है तो मुझे क्या है, उससे?'
इसलिए इसमें बुद्धिशाली तो उलझते नहीं हैं। दूसरे सब तो समझो कि उलझनेवाले ही हैं। वे तो चार भेड़ आगे चलें न, उन्हें देखे न, उनके पैर देखकर ही चलनेवाले हैं। मुँह नहीं देखेंगे। उनके पैर ही किस तरफ मुड़ते हैं, उस तरफ चलते जाते हैं। लाइन भी नहीं बनानी पड़ती! सब बैठ जाएँ, तब वह भी बैठ जाता है। सब हरे कहें, तब वह भी हरे कहता है। कोई पूछे, 'क्या समझें?' तब वह कहता है, 'समझ में आएगा, किसी दिन!'
चमत्कार बुद्धिजन्य, नहीं है ज्ञान में प्रश्नकर्ता : पर वे लोग तो दुनिया में यही कहते हैं कि यह मिरेकल हुआ। जो घटना हमेशा नहीं होती वह घटना हो, उसे मिरेकल कहते हैं, चमत्कार कहते हैं।
दादाश्री : वे फ़ॉरेनवाले कहते हैं, हम लोगों से ऐसा कहा जाता होगा?
प्रश्नकर्ता : यह तो आपके पास आएँ, वे समझते हैं। बाक़ी तो
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हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे लोगों की भाषा वही है न?
दादाश्री : हाँ। वही भाषा है। इसलिए कहता हूँ न, अपने लोगों को तो झूठा है या सच्चा उससे मतलब नहीं है। चमत्कार दिखाए, तब सीधा रहता है, नहीं तो सीधा नहीं रहता। पर मैं तो चमत्कार दिखाए तो समॉ कि बनावट की, इन लोगों ने। चमत्कार किस तरह हो सकता है मनुष्य से? वह किस तरह से पोसिबल (संभव) है? विज्ञान कबूल करे तो ही चमत्कार पोसिबल है! चमत्कार, वह बुद्धिगम्य वस्तु नहीं है, और ज्ञानगम्य में चमत्कार होता नहीं है। बुद्धिगम्य में जो चमत्कार होते हैं, वे तो कम बुद्धिवाले को अधिक बुद्धिवाला फँसाता है। इसलिए चमत्कार जैसी वस्तु नहीं होती है!
प्रश्नकर्ता : यानी दादा, यह कोई बुद्धि से परे वस्तु है, जो भले ही चमत्कार नहीं है, पर बुद्धि से परे कोई वस्तु है?
दादाश्री : ना, वह भी नहीं। ये चमत्कार करते हैं, वह वस्तु बुद्धि से परे भी नहीं है। बुद्धि से परे एक ही वस्तु है, वह ज्ञान है। वह तो स्व-पर प्रकाशक ज्ञान है और ज्ञान में चमत्कार नहीं होता। और यदि चमत्कार कहो, तो वह बुद्धि में आएगा। पर बुद्धि में भी उसे चमत्कार नहीं कहा जा सकता।
यह तो खुदाई चमत्कार!!! इसलिए ज्ञान में चमत्कार नहीं होते हैं। ऐसा है, मैं तो ज्ञानी पुरुष हूँ पर भीतर खुद खुदा प्रकट हो गए हैं। वे खुदाई चमत्कार दिखाएँगे या नहीं दिखाएंगे, थोड़ा-बहुत? खुदाई चमत्कार मतलब क्या कि सामनेवाले को गाली देनी हो तो भी उससे नहीं दी जा सके। यहाँ गले तक शब्द आए पर बोला नहीं जाए। ऐसा होता है या नहीं होता? एक आदमी यहाँ आया था, वह घर से पंप मार मारकर आया था, कि आज तो दादा को जाकर बोलूँ। वह मुझे गालियाँ देने आया था। पर यहाँ बैठा न, तो यहाँ गले से शब्द ही नहीं बोला गया। वह कैसा चमत्कार कहलाएगा? खुदाई चमत्कार! ऐसे कितने ही खुदाई चमत्कार 'ज्ञानी पुरुष' के पास होते हैं,
जिन्हें चमत्कार नहीं करना है, वहाँ चमत्कार बहुत होते हैं। फिर भी हम उसे चमत्कार नहीं कहते।
प्रश्नकर्ता : फिर भी जो अनुभव चमत्कारी रूप से स्वप्न में होते हैं, उसे क्या कहेंगे? मेरी भयंकर बीमारी में दादा ने स्वप्न में आकर हार पहनाकर विधि करवाई, और दूसरे ही दिन सुबह चमत्कारिक रूप से मेरा सारा ही दर्द-बीमारी चली गई और नोर्मल हो गया। वह अनुभव सत्य होता है?
दादाश्री : यह चमत्कार नहीं है, वास्तविकता है। मैं रूबरू मिला होऊँ, उसके जैसा यह सूक्ष्म स्वरूप से मिला है। यह वास्तविकता है, इसमें चमत्कार कोई नहीं है।
प्रश्नकर्ता : पर दादा, ऐसा होता है इसलिए सभी को चमत्कार तो लगेगा या नहीं?
दादाश्री: ऐसा तो हजारों जगह होता है। और इसे मैं चमत्कार कहूँ तो लोग मुझे साधुबाबा बना दें कि आप चमत्कारी बाबा हो। मैं बाबा नहीं हूँ।
कितनों को दादा स्वप्न में आते हैं, बातचीत करते हैं। अब यह तो कुछ मेरा कहा हुआ नहीं है। दिस इज़ बट नेचरल। जैसी जिसकी चित्तवृत्तियाँ होती हैं न, कोई भगवान को ढंढ रही होती है, तो उसे वैसे सारे दर्शन होते हैं! मुसलमानों को भी 'दादा' ख्वाब में आते हैं, उसकी मुझे खबर भी नहीं होती।
प्रश्नकर्ता : दादा ऐसा नहीं कहते कि मैं चमत्कार करता हूँ, पर ऐसे चमत्कार होते हैं न?
दादाश्री : वे होते हैं न। जगत् तो इसे चमत्कार कहता है। पर हम लोग यदि चमत्कार कहेंगे तो जगत् अधिक पागलपन करेगा। वह चमत्कार भाषा ही उड़ा दो! इसके लिए मैंने यह शोध की कि संडास जाने की शक्ति नहीं, वे चमत्कार क्या करनेवाले हैं? ऐसा कहें इसलिए
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यह चमत्कार का ऐसा भूत लोगों में पैठ गया हो, तो वे लोग इसमें से बाहर निकलें बाहर!
प्रश्नकर्ता : इन्हें जो अनुभव हुआ वह क्या है?
दादाश्री : मैंने कहा था न कि आपकी तैयारी चाहिए?! यहाँ सभी तैयारियाँ रखी हुई हैं। जितनी आपकी हार्ट की प्योरिटी, जितना आप बटन दबाओ, उतना तैयार ! यानी आपके बटन दबाने की देर है। बाक़ी, जगत् तो इसे चमत्कार ही कहेगा। हम यही तो कहना चाहते हैं कि इसे यदि चमत्कार ठहराएँगे तो जगत् को तो ऐसा चाहिए ही है। अपने माध्यम से. अपने हस्ताक्षर माँगते हैं कि चमत्कार होता है या नहीं वह ! जगत् अपने हस्ताक्षर माँगता है कि चमत्कार सही बात है या गलत? चमत्कार गलत बात है।
प्रश्नकर्ता : परन्तु ऐसा होता है, दादा।
दादाश्री : ऐसा सब बहुत जगह पर होता है। इसलिए उन्हें समझा देता हूँ कि 'हाँ, आया था।' क्योंकि सूक्ष्म शरीर घूमता रहता है, वह मैं देख सकता हूँ। अमरीका में भी जाता है। मैं अमरीका में था तब यहाँ पर अहमदाबाद के संघपति रमेशभाई, उन्हें बड़े सवेरे आकर विधि करवा गया था, उनका वहाँ पर पत्र आया था कि 'आप यहाँ आकर विधि करवा गए, मेरा तो कल्याण हो गया!' ऐसे तो कितने लोगों के अपने यहाँ पत्र आते हैं। ऐसा तो बार-बार हुआ करता है। पर हम लोग यदि चमत्कार कहें तो इससे उल्टा अर्थ अधिक फैलेगा। तो वे कमजोर लोग इसका अधिक लाभ उठाएंगे। इसलिए हम लोग ही चमत्कार को उड़ा दें न यहाँ से ही! जिसे बदले में कुछ चाहिए वह बोलता है, कबूल करता है कि हाँ भाई, चमत्कार है मेरा (!) हमें बदले में कुछ चाहिए नहीं। इसलिए इसे उड़ा दो। यह चमत्कार नहीं है।
दो सौ-दो सौ चमत्कार होते हैं। पहले के संतों ने दस चमत्कार किए होंगे, उसका वे लोग बहुत बड़ी पुस्तक रचकर बड़ा दिखावा करते हैं। वैसे तो यहाँ हररोज दो सौ-दो सौ चमत्कार होते हैं निरे!
कोई कहता है, 'घर पर मेरे भाई को बुखार बहुत रहता है, आज पंद्रह-बीस दिनों से उतरता नहीं है।' मेरी एक माला उसे देता हूँ न, तब दूसरे दिन पत्र आता है कि बुखार बिलकुल चला गया है। माला पहनते ही चला गया है। ऐसे बहुत सारे 'केस' होते हैं। यह तो हमारा यशनाम कर्म है। और वे संत भी जो चमत्कार करते हैं न, वह भी यशनाम कर्म होता है।
पहले तो अपने यहाँ फूलों के हार पहनाते थे। तब पाँच-पच्चीस हार होते थे, वह कोई व्यक्ति यहाँ से लेकर जाते और फिर अस्पताल में जाकर वहाँ मरीजों को पहनाते थे और उन्हें कहते, 'दादा भगवान के असीम जय जयकार हो' बोलो। तो सुबह डॉक्टर कहते कि 'इन मरीजों में इतना फर्क किस तरह आया?'
प्रश्नकर्ता : फिर भी वह चमत्कार जैसा नहीं है, ऐसा आप कहते
दादाश्री : हाँ, चमत्कार किया वैसा हम नहीं कहते और यह जो सुना न, उससे तो कई बड़े हो चुके हैं, जगत् आफरीन हो जाए वैसे हुए हैं, पर उन्हें यदि चमत्कार कहोगे तो दूसरों के चमत्कार चलते रहेंगे। इसलिए मैं इन चमत्कारों को तोड़ने के लिए आया है। असल में, हक़ीक़त में, वास्तविकता में वह चमत्कार है ही नहीं।
यह हमारा फोटो भी बहुत काम करता है। इसलिए लोगों को हम आखिर में फोटो देते हैं। क्योंकि इतना यदि काम नहीं करे तो ये 'बर्तन' चमकाए जा सकें वैसे नहीं हैं। बर्तन इतने अधिक गंदे हो गए हैं कि चमकाए जा सकें वैसा नहीं है। इसलिए यह कुदरत उसके पीछे काम कर रही है। सब हो रहा है, चमत्कार नहीं है यह ! ऐसे-ऐसे तो रोज़ कितने ही पत्र आते हैं कि 'दादा, उस दिन आपने कहा था कि जा, तुझे
यह तो हमारा यशनाम कर्म
अब वह चमत्कार कहलाता हो तो वैसे अपने यहाँ रोज़ सौ-सौ,
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चमत्कार
नौकरी मिल जाएगी, तो मुझे नौकरी मिल गई!' यह सब कुदरत करती
तो मेरा कुछ हल ला दीजिए न।' तो मैं विधि करूँ उसके बाद वे छूट जाते हैं। इसलिए क्या वह मैंने किया? नहीं। मैं निमित्त था इसमें। ये यशनाम कर्म था मेरा!
तो मुझे बहुत सारे लोग कहने आते हैं कि 'दादा, आपने ही यह सब किया है। यह चमत्कार आपने ही किए हैं।' तब मैं कहता हूँ. 'भाई. मैं तो चमत्कारी नहीं हूँ। मैं कोई जादूगर नहीं हूँ और ऐसा कुछ मैं कर सकूँ वैसा नहीं हूँ।' तब कहते हैं, 'यह किया किसने?' यह तो ऐसा है न, दादा खुद का यशनाम कर्म लेकर आए हैं, यानी दादा का यशगान होता है और वह यशनाम कर्म आपका भला करता है। आपका निमित्त होता है उसमें, इसमें मेरा क्या? मैं कर्ता नहीं हूँ न इसमें? इसलिए मैं कहाँ ऐसा माल खा जाऊँ? ये लोग तो बिना काम के यश देने के लिए आते हैं और वे यश खानेवाले सभी यश खाते रहते हैं। लोग तो यश के भूखे होते हैं, वे खाया करते हैं। ये संतपुरुष भी खा जाते हैं, पर वह उन्हें पचता नहीं है बेचारों को, उल्टे अधिक भटकते हैं!
हर किसी के जो यशनाम कर्म होते हैं न, इसलिए उन्हें यश मिलता है। जो थोड़ा भी संत हुआ हो, उन्हें थोड़ा यशनाम कर्म होता है, और हमारा यशनाम कर्म बड़ा! मुझे तो संसारी दशा में भी यश मिलता था। यों ही हाथ लगाऊँ न तो भी उसके पास रुपयों का ढेर हो जाता था। पर सिर्फ मेरे घर पर ही रुपया नहीं आता था! और मुझे भी उस रुपये की ज़रूरत भी नहीं थी। जरूरत थी तब आए नहीं। अब ज़रूरत नहीं है, तब आने को तैयार हैं। तब मैंने कहा, 'जाओ, हीराबा के वहाँ, हमें अब क्या ज़रूरत है?'
इसलिए यह मैंने नहीं किया है। यह तो हमारा यशनाम कर्म जो है, तो यह नामकर्म ही आपको सारा फल देता है। और उसे लोग चमत्कार मानें, वैसा सिखाया गया ! चमत्कार तो हो ही नहीं सकते। मैं एक तरफ ऐसा भी कहता हूँ कि वर्ल्ड में किसीको संडास जाने की शक्ति नहीं है, तो चमत्कार किस तरह करेगा?
एक आदमी ने करोड़ रुपयों का मेरे साथ सौदा किया। कहता है, 'मेरी करोड़ रुपये की जायदाद सारी फँस गई है और मेरे पास आज मेन्टेनन्स (गुजारा) करने के भी पैसे नहीं हैं।' इसलिए सबने कहा, इसकी कुछ विधि कर दीजिए न, बेचारे की कुछ जायदाद बिके। उसे जायदाद तीन-तीन वर्षों से बेचनी थी, वह बिक नहीं रही थी। तो विधि कर दी, फिर एक महीने के अंदर सत्तर लाख में बिक गई। मैंने कहा, 'उस फेक्टरी में सत्यनारायण की कथा करवाओ और दूसरी फेक्टरी में जैनों की पूजा करवाओ।' वह फिर मुझे कहता है, 'दादाजी, तीस लाख की बाक़ी है, कुछ करो न!' में समझ गया कि इस आदमी के साथ सौदा भूल से हो गया है। यह आदमी भगवान का उपकार माने तो बहुत हो गया। मुझे तेरे पास से कुछ लेना नहीं है। तू भगवान का उपकार माने कि ओहो, भगवान के प्रताप से मैं छूट गया, उतना करे तो भी अच्छा।
और यदि मैं कर्ता होऊँ तो दलाली नहीं रखंगा? ऐसा नहीं कहता कि इतने प्रतिशत रख जाना, यदि सफल हो जाए तो? इसलिए हमने बंद कर दिया वह व्यापार । काम करना और नहीं करना दोनों बंद कर दिया न!
प्रश्नकर्ता : आत्मा की बात तो जारी ही है न!
दादाश्री : वह आत्मा की बात तो, इसमें कुछ ले नहीं सकते। इसका बदला ही नहीं होता और इसका बदला देने का रहता हो तो यह बात फलेगी ही नहीं।
प्रश्नकर्ता : इस ज्ञान में तो लेने की बात ही नहीं है। देने की ही बात है न इसमें तो?
दादाश्री : हाँ। बस। क्योंकि वह तो बदले में आप क्या दोगे? पुद्गल दोगे? दूसरा क्या दोगे? और इसकी कीमत यदि पुद्गल हो तो
कई लोग फिर आकर कहते हैं, 'दादाजी, मैं ऐसे फँस गया हूँ।
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फिर आत्मा ही नहीं है वह। अमूल्य चीज़ की वेल्यु नहीं होती!
मुझे ही चूरण लेना पड़ता है वहाँ..... यहाँ एक भाई आते हैं। उनके फादर अठहत्तर वर्ष के थे। वे हमारे गाँव के थे। मैं वहाँ पर उन्हें दर्शन देने जाता था, उनके घर पर। उन्होंने फादर से कहा कि, 'आज दादा दर्शन देने आनेवाले हैं।' अठहत्तर वर्ष के मनुष्य को किस तरह यहाँ लाया जाए? पर उन्होंने क्या किया? घर में से बाहर निकलकर और रोड पर बैठ गए। फिर मैं वहाँ गया तब मैंने पछा कि, 'ऐसे इस रोड पर बैठो, अच्छा दिखता है यह सब? क्या फायदा है इसमें? वह कहो।' तब उन्होंने कहा, यहाँ नीचे दो मिनट पहले दर्शन होंगे न! घर में तो आप आओ उसके बाद दर्शन होंगे न! पर मैंने कहा, नीचे धूल....? तब बोले, 'भले ही धल है, अनंत जन्म धूल में ही गए हैं न हमारे! अब इस एक जन्म में आप मिले हैं तो हल ले आने दीजिए न!' तब मैंने कहा, 'ठीक है फिर!' मैं हँसा। तो वे पैरों से लिपट गए, दर्शन करने के लिए। मैंने ऊपर से ऐसा किया, धन्य है, ऐसा कहने के लिए पीठ थपथपाई। तो बारह वर्ष से उनकी कमर में जबरदस्त दर्द था, वह दूसरे ही दिन 'स्टोप'!
इसलिए फिर उन्होंने क्या किया? पूरे गाँव में कह आए कि, 'दादा भगवान ने, जो मेरा बारह वर्ष से दर्द नहीं मिट रहा था, इतने-इतने इलाज करवाए, पर एक थपकी मारते ही दु:ख खतम हो गया।' तब गाँव के लोगों में दस-बीस लोग थे न, जो दु:ख से परेशान हो गए थे, वे सभी मेरे यहाँ पधारे! मुझे कहते हैं, 'आपने इन्हें कुछ ऐसा किया तो हमें भी कुछ कर दीजिए।' फिर मैंने उन सबको समझाया कि मुझे संडास नहीं उतरता, तब चूरण लेना पड़ता है। कभी कब्ज हो गया हो तो मुझे चरण लेना पड़ता है तो आप समझ जाओ न! मुझसे कुछ हो सके ऐसा नहीं है, यह सब! वह तो 'हवा चली और खपरैल खिसका और उसे देखकर कुत्ता भौंका, कोई कहे मैंने देखा चोर, और वहाँ मच गया शोर चारों
ओर!' उसका नाम संसार। यह साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है, यह चमत्कार नहीं है।
वह मुझे तुरन्त पता चल गया। इसलिए मैंने कह दिया कि चूरण खाता हूँ तब मुझे संडास होता है। मुझे हआ कि अब कुछ ढूंढ निकालो, नहीं तो ये तो रोज़ बला खड़ी होगी। व्यापार कौन-सा था और कौनसा व्यापार खड़ा हो जाएगा!
प्रश्नकर्ता : इस बात में फिर आत्मा विस्मृत हो जाता है न?
दादाश्री : हाँ, आत्मा भूल जाते हैं और ये दूसरे लोग तो अपने सबको तो घुसने ही नहीं देंगे न ! सारे वे लोग ही आकर बैठ जाएंगे और ये मिलमालिक मुझे यहाँ से उठाकर ले जाएँ। ये पैसेवाले लोग झंझट करें, चाहे सो करें। मेरे आसपास के लोगों को चाहे जैसा भी करके यहाँ से उठा लें मुझे। एक व्यक्ति मुझे कह रहा था, 'दादा, आपका हरण करके ले जाएंगे।' मैंने कहा, 'हाँ, जगत् है यह तो!'
हम जादूगर नहीं हैं इसलिए अभी अपने यहाँ ऐसे रोज़ के कितने ही चमत्कार होते हैं। पर सभी से मैं कहता हूँ कि दादा चमत्कार नहीं करते हैं। दादा जादूगर नहीं हैं। यह तो हमारा यशनाम कर्म है। इतना सारा यश है कि हाथ लगाएँ और आपका काम हो जाता है।
अपने वहाँ एक ज्ञान लिए हुए महात्मा है। उनकी सास टाटा केन्सर होस्पिटल में थीं। तो उनकी सास को होस्पिटलवालों ने छुट्टी दे दी कि अब दो-तीन दिन में यह केस फेल होनेवाला है, इसलिए दो-तीन दिनों में आप घर पर ले जाओ। तब उस व्यक्ति के मन में ऐसा हुआ कि, 'दादा यहाँ पर मुंबई में ही हैं, तो मेरी सास को दर्शन करवा दूं। फिर यहाँ से ले जाऊँगा।' इसलिए मुझे आकर वहाँ पर कहने लगे कि, 'मेरी सास है न, उन्हें यदि दर्शन दे सकें तो बहुत अच्छी बात है।' मैंने कहा, 'चलो, मैं आता हूँ।' मैं वहाँ टाटा होस्पिटल में गया। उसने कहा, 'दादा भगवान आए हैं।' तब वह स्त्री तो बैठ गई। और किसीके मन में आशा भी नहीं थी, वे चार वर्ष तक जीवित रहीं वापिस। उन डॉक्टरों ने भी नोट किया कि ये दादा भगवान कोई आए और न जाने यह क्या किया!
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पर मैंने कुछ भी नहीं किया था। सिर्फ पैर पर विधि करवाई थी! ऐसा बड़ौदा के बड़े होस्पिटलवालों ने भी नोंध की है कि 'दादा भगवान' से इतने केसों में परिवर्तन हो गए हैं।
फिर तीन लोगों ने तो हमें ऐसी खबर दी थी कि प्लेन हिला कि हम 'दादा भगवान के असीम जय जयकार हो' बोलने लगे। अंदर लोगों में हाहाकार मच गया था। पर हम 'दादा भगवान के असीम जय जयकार हो' बोले कि प्लेन रेग्युलर हो गया!
यहाँ संसार मुक्त, युक्त नहीं ऐसे हमारे कितने सारे चमत्कार होते हैं, फिर भी हम उसे चमत्कार नहीं कहते हैं। लोग मुझे आकर कहते हैं, 'दादा, यह आपने चमत्कार किया। मुझे ऐसा लाभ हो गया।' मैंने कहा, 'यह चमत्कार नहीं है।' बाक़ी अपने यहाँ तो ऐसे अपार चमत्कार होते हैं। कोई थोड़े-बहुत होते हैं? पर वह क्या है? यह तो मेरा यशनाम कर्म है। इसलिए मेरा हाथ लगा कि आपका कल्याण हो जाता है और आप मुझे यश देते रहते हो कि यह सारा दादा ने किया। पर उसमें मेरा क्या है? यह तो यशनाम कर्म ने किया है! किसने किया?
प्रश्नकर्ता : फिर भी दादा ने किया कहलाएगा न?
दादाश्री : ना, दादा ने नहीं, यशनाम कर्म जो है न. वह कर्म होता है। कर्म अलग और हम लोग अलग। वह कर्म हमें फल देता है। तो यह यशनाम कर्म बहुत बड़ा होता है, इसलिए हमें हरकोई यश ही देता रहता है।
मिलता रहता है। यानी अपयश बांधा हुआ है उसने, और मैं नहीं करता हँ तो भी यह यश मिलता है, उसका क्या कारण है? यशनाम कर्म के कारण है।
मैं कईयों से कहता हूँ कि, यह ज्ञान होने से पहले सांसारिक बातों में यश मिलता रहता था। मैं कहता कि, 'भाई, इसमें मैं नहीं पड़ा हूँ, मैंने कुछ किया नहीं है, मैं जानता तक नहीं और ये दूसरे किसीने किया होगा, इसलिए यह यश दूसरे को दे आओ।' क्योंकि मैं जानता हूँ कि आपका यश हो, वह मुझे दे जाए, तो आपको रुखा रखते हैं न? किया हो आपने और यश मुझे दे जाते हैं। आपके मन में कैसी आशा होती है? कि यह व्यक्ति मुझे यश भी नहीं देता। इसलिए मैं क्या कहता हूँ उसे कि, 'यह दूसरे किसी ने किया है, इसलिए वहाँ जाकर दे आओ।' तो भी कहेगा, 'ना, ना, आपके बिना तो होगा ही नहीं। आप तो जब हो तब ऐसा ही बोलते हैं न!' इसलिए वापिस आकर मुझे ही देकर जाते हैं। कुछ भी करके, वह पोटली डालकर चला जाता है, अब उसका क्या हो? अब मैं क्या करूँ? इसका तो उपाय ढूंढना पड़ेगा न? फिर मैं समझ गया कि यह यशनाम कर्म है।
प्रश्नकर्ता : फिर उस पोटली का आप क्या करते हो?
दादाश्री : कुछ नहीं। हम ऐसे विधि करके उसे वापिस फेंक देते हैं। क्योंकि वह हम रखते नहीं हैं और हमने किया हो तो भी हम नहीं रखते हैं न! क्योंकि हम कर्ता ही नहीं हैं, निमित्त हैं सिर्फ। क्या हैं? निमित्त। ये हाथ लगा इसलिए कोई, 'मैं' हाथ भी नहीं हूँ और पैर भी नहीं हूँ, ये तेरे कर्म का उदय आया है और मेरा हाथ लगा। तेरा दर्द हाथ मिटने का था और मेरा हाथ लगा। क्योंकि यश मुझे इतना ही मिलना था कि दादा ने मिटाया यह। वह सब यश मिलता है! तब मुझे कहते हैं कि, 'आप करते हैं वह?' मैंने कहा कि, 'यह सारा यशनाम कर्म ही है।' वह मैंने बताया अभी। जो अभी तक लोग बताते नहीं थे 'यह मेरा यशनाम कर्म है', लोग वैसा नहीं कहते हैं। उस घड़ी लोगों को बहुत मज़ा आता है, अंदर जरा टेस्ट आ जाता है।
इतना आपको विश्वास है कि जैन शास्त्रकारों ने नामकर्म में यशनाम कर्म और अपयश नामकर्म लिखा है? कितने लोग ऐसे होते हैं कि काम करें तो भी अपयश मिलता है, ऐसा आपके सुनने में आया है? वह किस कारण से? अपयश नामकर्म होता है, उसे अपयश का फल मिलता रहता है। तो वह अच्छा काम करे तो भी अपयश का फल
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यानी दिन-दहाड़े ये बातचीत करते हैं। अब मैं जानता हूँ कि मैं वहाँ पर गया नहीं था। पर 'दादा भगवान' वहाँ जाते हैं, वह बात पक्की
प्रश्नकर्ता : और 'ज्ञानी पुरुष' जानते नहीं हैं, वह भी पक्का है?
दादाश्री : मैं जानता नहीं हैं, वह भी पक्का है और 'वे' घूमते हैं वह भी पक्का है, वह भी मैं जानता हूँ।
और वहाँ अमरीकावाले कहते हैं न, 'आज मुझे तीन बार विधि करवाकर गए।' ऐसा कहते भी हैं और मुझे फिर उनका फोन भी आता है कि आज रात को 'दादा भगवान' आकर तीन बार उसे विधि करवा गए! इसलिए यह तो बड़ा आश्चर्य है! फिर भी उसमें नाम मात्र भी चमत्कार नहीं है।
'आपने मेरा दर्द मिटा दिया' सुनते हैं, उस घड़ी उन्हें टेस्ट आ जाता है, यानी वे टेस्ट छोड़ते नहीं हैं। तब यह टेस्ट नहीं छोड़ें तो वह मोक्ष रह जाता है! यहाँ रास्ते में ही मुकाम किया, इसलिए वह ध्येय रह जाएगा न!!
यह तो मेरा हाथ लगा कि उसका काम हो ही जाता है। इसलिए वह ऐसा समझता है कि दादा ने किया यह। दादा को ऐसी कोई फरसत नहीं है, ऐसा सब करने के लिए। दादा तो, वे खुद जो सुख चख रहे हैं, वह सुख आपको देने आए हैं और संसार से मुक्ति दिलाने आए हैं। खुद मुक्त होकर बैठे हैं। संपूर्ण प्रकार से मुक्त होकर बैठे हुए हैं, वे देते हैं, दूसरा कुछ देते-करते नहीं हैं!
यह रहस्य रहा अनबूझा और अपने वहाँ तो ऐसा भी होता है न कि आपके जैसे पढ़े-लिखे लोग, हर प्रकार से विचारशील, वे भी आकर मुझे कहते हैं, 'कल दोपहर को साढ़े तीन बजे आप मेरे यहाँ आए थे। और फिर साढ़े चार बजे तक मेरे यहाँ बैठे रहे। जो बातचीत की थी वह सब मैंने नोट कर ली है। फिर आप चले गए। वह बात सच है?' मैंने कहा, 'सच है!' तो फिर मुझे हाँ कहना पड़ता है और मैं तो गया ही नहीं था, दिन-दहाड़े। फिर मैंने पूछा, 'क्या बोला था, वह मुझे कह।' वह फिर कहता है, 'यह बोले थे।' वह मेरे ही शब्द दिखाता है।
प्रश्नकर्ता : पर वह सूक्ष्म शरीर की बात है न, कहाँ इस स्थूल शरीर की बात है?
दादाश्री : नहीं, उसे यह स्थूल शरीर दिखता है। यह तो मेरे भी मानने में नहीं आता। वे बातें ऐसी-ऐसी आती है, मेरे नाम से कोई देवता घूमते हैं या क्या घूमता है, वह पता ही नहीं चलता। क्योंकि देवताओं का वैक्रिय स्वभाव, जैसा देह धारण करना हो वैसा होता है। दादा के जैसा देह धारण करें, बातचीत ऐसी करें, सबकुछ करते हैं। फिर भी उसमें मैंने कुछ भी नहीं किया होता है।
प्रश्नकर्ता : पर हमें आश्चर्य तो होगा ही न?
दादाश्री : वह आश्चर्य लगता है, पर इसमें मैं उसे चमत्कार की तरह स्वीकार नहीं करता हूँ।
यानी कुछ है इसके पीछे, समझ में नहीं आए वैसा रहस्य है। बुद्धिगम्य रहस्य नहीं है, पर समझ में नहीं आए वैसा रहस्य है यह। पर इसे मैं चमत्कार नहीं कहने दूँगा। चमत्कार कहें तो मैं जादूगर माना जाऊँगा। और मैं क्या कोई जादूगर हूँ? मैं तो 'ज्ञानी पुरुष' हूँ। और संडास जाने की शक्ति भी मुझमें नहीं है। वे 'दादा भगवान' कुछ रहस्य है, वह बात पक्की है।
एक बहन खुद पोस्ट ऑफिस चलाती थीं। वह सुबह में पोस्ट ऑफिस में गईं तब दो लुटेरे अंदर छुपे हुए थे। बहन अंदर गई इसलिए उनको और उनकी बेटी, बीस साल की उन दोनों को बाँध दिया और कहा, 'अब चाबी दे।' तब वह बहन क्या कह रही थीं?
प्रश्नकर्ता : उसने सब दे दिया और फिर एकदम बैठ गई।
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"अब तो क्या होनेवाला है यह मुझे मालूम नहीं है। अब 'दादा भगवान' जो करें, वह सच्चा", ऐसा करके बैठ गई। दूसरी तरफ बीस साल की जवान बेटी भी कहती है, 'मझे किसी तरह का भय नहीं, कुछ भी नहीं और दादा मेरे सामने हाज़िर हो गए। मुझे दादा का साक्षात्कार हुआ।'
दादाश्री : यहाँ आकर मुझे कहती हैं, 'पूरी दुनिया में किसीको साक्षात्कार होने का होगा, तब होगा पर मुझे तो वहाँ साक्षात्कार हो गया।' खुद रूबरू देखे और वह बताने के लिए यहाँ पर आई थी। उसने क्या कहा था?
प्रश्नकर्ता : फिर उन्होंने कहा, 'दादा की दो आँखों में से लाइट मेरी आँखों में आई। दादा की आँख में सिर्फ तेज़ ही था! वैसा कितना टाइम गया वह मुझे मालूम नहीं पर पूरा जगत् विस्मृत। फिर भी मैं कहाँ हूँ, क्या हूँ, वह सब मुझे मालूम था। मैं बेहोश नहीं थी और थोड़ी देर बाद फिर लुटेरे आकर कहते हैं, ये चाबी नहीं लग रही है। दूसरी चाबी लाओ, निकालो।' तब उस बहन ने आँख खोली। तो कहती हैं. 'जो लाइट दादा की आँखों में से मेरी आँखों में आ रही थी, वही लाइट मैंने उसकी आँखों में जाते हुए देखी। वे लोग घबरा गए। उन लोगों ने नकाब बाँधे थे, सिर्फ दो आँखें ही दिख रही थीं' और मुझे कहा, 'पता नहीं, एकदम उनमें चेन्ज हो गया। उस बहन ने कहा, 'देख भाई, यह तो टाइम लॉक (ताला) है। मेरे पास दूसरा कुछ है नहीं। मैं तो कुछ जानती नहीं हूँ। जो कुछ है वह यही है।' 'मैं जो कुछ कहती गई, वह सारा एक्सेप्ट करते गए। उस समय पोस्ट ऑफिस में दस लाख पाउन्ड पड़े थे। दस लाख पाउन्ड की रकम थी कुल मिलाकर, पोस्ट में तो सब लोग रखते हैं न! और आठ-दस हज़ार पाउन्ड तो ड्रॉअर खोलते न तो बाहर ही पड़े थे।' पर उस बहन ने कहा, 'मैंने कहा कि कुछ भी नहीं है।' इसलिए दूसरे ड्रॉवर में सिर्फ सवा सौ पाउन्ड थे, वे लेकर चले गए। वे समाचार आठ-दस दिन तक लंडन के अखबारों में हेडलाइन्स में आए थे।'
दादाश्री : तो सभी पेपरवाले यह छापते रहे!
___ 'दादा भगवान' तो रहें निर्लेप ये जो 'दादा भगवान' का नाम लेते हैं न, उनके हरएक कार्य सफल हुए हैं। इनमें यश का मैं भागीदार हैं। यह मेरा यशनाम कर्म है। ऐसा यशनाम कर्म किसीका ही होता है। बाक़ी संसारी यशनाम कर्म होते हैं, तो यह फलाना विवाह करना था, वह हो गया। यानी वह एक प्रकार
का यशनाम कर्म है। ऐसा मुझे इस बाबत का यशनाम कर्म है। इसलिए 'दादा भगवान''मुझे' यह मेरा यशनाम कर्म पूरा करवा रहे हैं। तो एक, दो नहीं इससे भी बड़ी-बड़ी बाते लाए हैं लोग। बहुत उदाहरण देखे हैं। उसे ये लोग क्या कहते हैं, 'आप चमत्कार करते हैं?' मैंने कहा, 'नहीं, मनुष्य चमत्कार कर ही नहीं सकता। मनुष्य को बुद्धि से ऐसा लगता है कि ये चमत्कार कर रहे हैं। पर यदि शास्त्र समझता हो तो 'यशनाम', वह एक नामकर्म है।
इसलिए यह 'दादा भगवान' का काम है और यशफल मुझे मिलता रहता है। 'उन्हें' यश नहीं चाहिए और यशनाम कर्म तो 'मेरा' है न !
प्रश्नकर्ता : ‘दादा भगवान' को तो कैसा यश? वे तो निर्लेप हैं न?!
दादाश्री : 'उन्हें होता ही नहीं। 'उन्हें' वे आठों कर्म होते ही नहीं हैं। आठ कर्म सारे मेरे हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, नाम, गौत्र, वेदनीय, आयुष्य वे आठों कर्म 'मेरे' हैं।
प्रश्नकर्ता : 'मेरे' मतलब किसके? दादाश्री : इन 'ज्ञानी पुरुष' के ही न!
अक्रम विज्ञान वह सिद्धि का फल प्रश्नकर्ता : बहुत बार मुझे ऐसा होता है कि 'दादा' यह ज्ञान देते हैं तब एक ही घंटे में खुद के स्व-पद में रख देते हैं, उसे क्या कहेंगे?
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चमत्कार
चमत्कार
दादाश्री : वह चमत्कार नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो वह वचनबल कहलाएगा?
दादाश्री : नहीं, वह सिद्धि है। उसे चमत्कार नहीं मान सकते। चमत्कार तो वह कि कोई दूसरा नहीं कर सके और यह तो मेरे जैसा कोई अक्रम विज्ञानी हो तो कर सकेगा। जितना सिद्धत्व प्राप्त किया है, उतना कर सकेगा।
यह यहाँ पर जो होता है न, ऐसे चमत्कार ही नहीं होते न, एक मनुष्य को मोक्ष देना, वह कोई ऐसी-वैसी बात है! अरे, एक मनुष्य को चिंता रहित बना देना वह भी कोई ऐसी-वैसी बात है! इन सब जगहों पर तो घड़ीभर के लिए सत्संग करके गया हो, और फिर बाहर जाए तो चिंता ही चिंता। था वैसा का वैसा ही। और यहाँ तो हमेशा के लिए चिंतामुक्त ही हो जाता है न! फिर भी वह चमत्कार नहीं है, 'साइन्स' है!
हमारे भतीजे के बेटे क्या कहते थे कि दादा को देखते ही आत्मा को ठंडक हो जाती है। दादा आपको देखते ही, मेरे आत्मा को ठंडक हुए बिना कोई क्षण नहीं जाता। तो यह सिर्फ एक मोती देखकर आँख को ठंडक हो जाती है, इसलिए तो मोती की कीमत आँकी है, तो 'दादा आपको देखते ही मेरे आत्मा को ठंडक होती है' ऐसी जिसे समझ हो न, तो वह और कहीं चमत्कार ढूंढने जाएगा?
इसलिए ये भाई कहते हैं कि ये 'दादा' बड़े-बड़े चमत्कार करते हैं। वह यदि देखना आए तो बहुत बड़ा चमत्कार है। वर्ल्ड में नहीं हुआ हो वैसे 'दादा' के चमत्कार हैं, पर देखना आना चाहिए।
इन्सिडेन्ट एन्ड एक्सिडेन्ट प्रश्नकर्ता : साधारण मनुष्य को भी कई बार जीवन में चमत्कारिक अनुभव होते हैं, वह क्या होगा?
दादाश्री : जगत् में लोग जिसे चमत्कार कहते हैं या फिर इस
दुनिया में चमत्कार मतलब 'अचानक हो गया' कहेंगे, यानी एक्सिडेन्ट कहते हैं या फिर चमत्कार कहते हैं। पर 'एन इन्सिडेन्ट हेज़ सो मेनी कॉज़ेज़ एन्ड एन एक्सिडेन्ट हेज टू मेनी कॉज़ेज!' (एक इन्सिडेन्ट कई कारणों से होता है और एक एक्सिडेन्ट होने में बहुत सारे कारण होते हैं) इसलिए अचानक तो कुछ होता ही नहीं न! हो गया वह सारा पहले का रिहर्सल हो चुका है। पहले रिहर्सल हो गया है, वही यह चीज़ है। जैसे नाटक में रिहर्सल पहले करके और फिर नाटक करने भेजते हैं। उसी तरह इस पूरे जगत् का, जीव मात्र का रिहर्सल पहले हो गया है और उसके बाद फिर यह होता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि डर रखने जैसा नहीं है। क्योंकि जो होना है, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता। नाटक सेट हो चुका है यह!
प्रश्नकर्ता : तो उस नाटक का डायरेक्टर कौन?
दादाश्री : यह ओटोमेटिकली ही हो जाता है। यह सूर्य एक ही दिखता है, पर सूर्य तो बदलता ही रहता है (सूर्य के बिंब में रहनेवाले देवता बदलते रहते हैं)। उनका आयुष्य पूरा हुआ कि च्यवन (आत्मा की दैवीय शरीर छोड़ने की क्रिया) हो जाता है (बिंब छोड़ देते हैं) और दूसरे भीतर आ जाते हैं। यानी कि वे भीतर से बदल जाते हैं और यह बिंब वही का वही रहता है। ऐसा रेग्युलर रूप से प्रबंधित है यह जगत्। बिलकुल रेग्युलर प्रबंधित हुआ है। किसीको कुछ करना पड़े वैसा नहीं है। यदि भगवान कर्ता हुए होते तो वे बंधन में आ जाते।
इस दुनिया में दो चीजें नहीं हैं, वे दो चीजें भेड़चाल के लिए हैं। जिसे लोग कहते हैं न कि ऐक्सिडेन्ट हआ तो वैसी वस्तु ही नहीं है, वह भेड़चाल के लिए है। विचारवंत के लिए एक्सिडेन्ट होता ही नहीं न! और एक चमत्कार, वह भी भेड़चालवाले लोग मानते हैं, विचारवंत नहीं मानते।
___ 'एन इन्सिडेन्ट हेज़ सो मेनी कॉज़ेज़, एन एक्सिडेन्ट हेज़ टू मेनी कॉजेज!' उसी प्रकार इस चमत्कार में भी सो मेनी कॉजेजवाला है।
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और फिर चमत्कारवाला कहता है कि, 'इस समय नहीं होगा।' 'क्यों तू टाइम की राह देख रहा है? इसलिए चमत्कार नहीं है।' पर ऐसा पूछना आता नहीं है न लोगों को! मैं तो उसका खलासा पछु, क्योंकि मुझे वैसा पूछना आता है। पर हम कहाँ उसके पीछे पड़ें? उसका अंत आए, ऐसा नहीं है। अनंत जन्मों से इन्हीं तूफ़ानों में पड़े हुए हैं। भगवान के समय में चोर्यासी लाख विद्याएँ थीं, तो भगवान सारी विद्याओं का नाश कर गए हैं। फिर भी थोड़ा-बहुत लीकेज रह गया है। यह तो ऐसा है न, सच्चा विज्ञान सारा खो गया है, वह कुदरत अपने आप निकालेगी! हम लोग तो भाव करें न कि ये चमत्कार की विद्याएँ सब जाओ यहाँ से।
- जय सच्चिदानंद
क्योंकि कॉज़ेज़ के बिना कोई कार्य नहीं होता है, तो चमत्कार कॉजेज के बिना हुआ किस तरह? वह बता? उसका बेजमेन्ट चाहिए!
यानी यह चमत्कार है, वह यदि ऐसा ही हो तो उसका कॉज क्या है? वह कहो। कॉज़ के बिना चीज़ होती नहीं और जो हो रहा है, चमत्कार हो रहा है, वह तो परिणाम है। तो उसका कॉज़ बता, तू?! यानी यह तो बिना माँ-बाप का बेटा माना जाएगा! इसलिए सारे बुद्धिशाली लोग समझ जाएँगे कि बिना माँ-बाप के बेटा होता नहीं है, जब कि इसने बिना माँ-बाप का बेटा खड़ा किया है!
प्रश्नकर्ता : वह तो जिसका कॉज़ जानते नहीं हैं, उसे चमत्कार कहते हैं।
दादाश्री : हाँ, उसे चमत्कार कहते हैं, बस! पर वापिस ये लोग दिमाग में डालते हैं और ये दूसरे सब लोग बेचारे लालची हैं, वे फँस जाते हैं!
संजोग जहाँ, चमत्कार कहाँ? इसलिए चमत्कार किसे कहा जाएगा? तो आपको साइन्टिफिक प्रकार से प्रूफ देना हो किसी व्यक्ति को तो किसी भी चीज की, किसी भी संयोग की ज़रूरत नहीं पड़े, उसे चमत्कार कहा जाता है और इस जगत् में संयोग के बिना कुछ भी काम होता नहीं है। क्योंकि सारा डिस्चार्ज संयोगों का मिलन है यानी कि साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स है। कोई कहे कि 26 और 0 दो तो मैं आपको पानी बनाकर दूँ। तो वह तो पानी होने का उसका स्वभाव ही है। तो उसमें तु किस चीज़ का मेकर? मैं तुझे एक H और एक 0, और त पानी बना दे, तब मैं तुझे मेकर कहूँ। तब वह कहे, 'वह नहीं बन सकता!' तब मैंने कहा, 'तू क्या करनेवाला था?! यों ही बिना काम का!' इसलिए संयोगों का मिलन है यह! 'अब वे संयोग नहीं हों और त् करे उसमें मुझे दिखा', कहें। यानी चमत्कार वह कहलाता है कि संयोगों का मिलन नहीं होना चाहिए।
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________________ प्राप्तिस्थान मूल गुजराती शब्दों के समानार्थी शब्द ऊपरी : बॉस, वरिष्ठ मालिक कल्प : कालचक्र गोठवणी : सेटिंग, प्रबंध, व्यवस्था नोंध : अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना नियाणां : अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक वस्तु की कामना करना धौल : हथेली से मारना सिलक : राहखर्च, पूँजी तायफ़ा : फजीता उपलक : सतही, ऊपर ऊपर से, सुपरफ्लुअस कढ़ापा : कुढ़न, क्लेश अजंपा : बेचैनी, अशांति, घबराहट राजीपा गुरजनों की कृपा और प्रसन्नता सिलक : जमापूंजी पोतापणुं : मैं हूँ और मेरा है, ऐसा आरोपण, मेरापन लागणी : भावुकतावाला प्रेम, लगाव उपाधि (बाहर से आनेवाला दु:ख) च्यवन (आत्मा की दैवीय शरीर छोड़ने की क्रिया) वैक्रियिक (देवताओं का अतिशय हल्के परमाणुओं से बना हुआ शरीर जो कोई भी रूप धारण कर सकता है) दादा भगवान परिवार अडालज : त्रिमंदिर संकुल, सीमंधर सिटी, अहमदाबाद-कलोल हाईवे, पोस्ट : अडालज, जिला : गांधीनगर, गुजरात - 382421. फोन : (079) 39830100, email : info@dadabhagwan.org अहमदाबाद : दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसाइटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८००१४. फोन : (079)27540408, 27543979 राजकोट : त्रिमंदिर, अहमदाबाद-राजकोट हाईवे, तरघड़िया चोकड़ी, पोस्ट : मालियासण, जिला : राजकोट. फोन : 9924343478 भुज : त्रिमंदिर, हिल गार्डन के पीछे, सहयोगनगर के पास, एयरपोर्ट रोड, भुज (कच्छ), गुजरात. संपर्क : 02832 236666 मुंबई : 9323528901 पुणे : 9822037740 वड़ोदरा : (0265)2414142 बेंगलूरः 9341948509 कोलकता : 033-32933885 U.S.A. : Dada Bhagwan Vignan Institue : Dr. Bachu Amin, 100, SW Redbud Lane, Topeka, Kansas 66606. Tel : 785-271-0869, E-mail: bamin@cox.net Dr. Shirish Patel, 2659, Raven Circle, Corona,CA92882, Tel. : 951-734-4715, E-mail: shirishpatel@sbcglobal.net U.K. : Dada Centre, 236, Kingsbury Road, (Above Kingsbury Printers), Kingsbury, London, NW9 0BH, Tel. : 07956476253, E-mail: dadabhagwan_uk@yahoo.com Canada : Dinesh Patel, 4, Halesia Drive, Etobicock, Toronto, M9W6B7. Tel. : 416675 3543 E-mail: ashadinsha@yahoo.ca Canada : +1416-675-3543 Australia :+61421127947 Dubai : +971 506754832 Singapore : +65 81129229 Website : www.dadabhagwan.org, www.dadashri.org