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SEKSHEESERECERENESE मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू ('ठाणंग'सूत्र, ५२९) 'मुखरता सत्यवचननी विघातक छे'
अनुसंधान प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
KHE
संकलनकार : मुनि शीलचन्द्रविजय
हरिवल्लभ भायाणी
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TUSHITUTERIATTARAINE 000
TANDEDNESKSEEDEDESEEM
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अमदावाद १९९३
MEENERSEENESERECENER
,
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मोहरिते सच्चवयणस्स पलिमंथू (ठाणंग-सूत्र, ५२९)
'मखरता सत्यवचननी विधातक छे
अनुसंधान प्राकृत भाषा अने जैन साहित्य विषयक संपादन, संशोधन, माहिती वगेरेनी पत्रिका
संपादक : मुनि शीलचंद्रविजयजी
हरिवल्लभ भायाणी
શ્રી હેમચંદ્રાચાર્ય
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य नवम जन्मशताब्दी
स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि
अमदावाद
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१९९४ अनुसंधान : २
संपर्क :
हरिवल्लभ भायाणी २५/२, विमानगर, सेटेलाइट रोड अमदावाद - ३८० ०१५
प्रकाशक :
कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति संस्कार शिक्षणनिधि, अमदावाद १९९४
किंमत :
रू. २० -००
प्राप्तिस्थान :
सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोळ, अमदावाद-३८० ००१
मुद्रक :
कंचनबेन ह. पटेल तेजस प्रिन्टर्स ९६६, नारणपुरा जूना गाम, अमदावाद-१३ फोन : ४८४३९३
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प्राक्कथन
अनुसंधान-१ मां आ प्रकाशननं शं प्रयोजन छे ते निवेदित कर्य हतं. जैन परंपरा अने प्राकृत भाषा-साहित्यना विषयमा चाली रहेला संशोधनकार्य विशे, ते पछीना ढूंका गाळामां कशी वधु जाणकारी आपवानी न होईने, प्रस्तुत अनुसंधान-२ मां केटलाक संशोधन-लेखो अने संपादित करेल अप्रकाशित जूनी गुजराती कृतिओ आपी छे. आ रीते अढळक अप्रकाशित साहित्यमाथी थोडाकनो पण उद्धार थतो रहे अने प्रकाशितनां अनेक पासांनी तरतपास थती रहे तो ज टीपे टीपे सरोवर भरातुं जाय.
शीलचंद्रविजय
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अनुक्रमणिका
वाचक यशोविजयरचित
मनि शीलचंद्रविजय १ समुद्र-वहाण-संवाद श्रद्धा, प्रसाद अने अध्यात्मप्रसाद नगीन जी. शाह केटलाक मध्यकालीन
जयंत कोठारी गुजराती शब्दप्रयोगो जैन प्राकृत-संस्कृत प्रयोगोनी पगदंडीए हरिवल्लभ भायाणी २५ 'सिद्धहेम-शब्दानुशासन प्राकृत अध्यायनां हरिवल्लभ भायाणी २५
उदाहरणोना मूळ स्रोत 'व्याश्रय काव्यना एक पद्यानी मुनि शीलचंदविजय ५०
__ वृत्ति परत्वे 'गांगेयभंग प्रकरण-सस्तबक ना
मुनि शीलचंद्रविजय ५२ कर्ता विशे 'यतिदिनचर्या ' : वृत्तिनी गवेषणा मुनि प्रद्युम्रविजय वर्धमान सूरि-रचित
'धर्मरत्नकरणडक विशे मुनि मुनिचंद्रविजय 'धर्मसूरि-बारमासा
संपा. रमणीक शाह ६९ 'सुभद्रा-सती-चतुष्पदिका
संपा. कनुभाई शेठ ७८ संशोधन-वर्तमान
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"वाचक यशोविजयरचित समुद्र-वहाण संवाद" [कर्तानी स्वहस्तलिखित प्रति(खरडा)ना आधारे पाठ-संशोधन ]
- मुनि शीलचन्द्रविजय मध्यकालीन साहित्य, विशेषतः जैन साहित्य संवाद प्रकारनी अनेक रचनाओथी समृद्ध छे. १७-१८ मा शतकना समर्थ जैन ग्रन्थकार उपाध्याय श्रीयशोविजयजीए पण, वि.सं. १७१७ मां, दरियाकिनारे आवेला घोघा बंदरे पोताना चातर्मास दरमियान "समद-वहाण संवाद नामे एक स-रस कृति रची छे. आ कृति ई.स. १९३६मा प्रकाशित गर्जर साहित्य संग्रह -प्रथम विभाग मां श्री मोहनलाल दलीचंद देसाईए संपादित करीने मुदित करावी छे. तेमां प्रान्ते जोवा मळती नोंध प्रमाणे ते संपादन खेडा भंडार नी प्रतिना आधारे थयान जणाय
छे.
पंक्ति
-
ताजेतरमा ज आ कृतिनी कर्ताए स्वहस्ते आद्या खरडा (Draft) रूपे लखेली प्रति जोवामां आवतां तेना तथा मदितना पाठो मेळववानं मन थयं. भाषानी रीते तो घणावधा भेदो छे ज, जे माटे अवसरे आ कृतिने तेना कर्तानी ज भाषामा प्रकाशित करवा जोग गणाय; परंतु पाठोनी दृष्टिए पण केटलाक तफावतो नजरमा आवतां ते तफावतो अहीं रजू कर्या छे.
मुद्रित
प्रति (१) दूहा : ४-१ एहने
एहोनई मांहो मांहे माहोमाहिं
थइ ढाल १ नं मुखडु - मु. फागनी; - थाहरां मोहलां उपर मेह झरोखें वीजळी रे
के वीजळी ए देशी. ॥ प्रतिमां-त्रिभुवन तारण तीरथ पास
चिंतामणी रे २ ए देशी ढाल १ :
तूरहि वाजे तूर दिवाजइ सुर बहू रे
सुरवहू रे साह्य
साई
तणई गर्वे चढावे पर्वत गर्व चडावइ पर्वति पर-को पर-कहिया
ग्रह्या
तिणे
ग्रह्यो
[१]
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३-४
(२) दूहा :
ढाल २ :
जाणे
जाणो देशीनू सूचक पद प्रतिमा छे नहि.
मोटाई रे मोटाई छइ रे समृद्धि
समृद्ध दीप जिहां दीपइ जिहां जातिफल जातीफल
मचकुंद
मुचुकुंद कुंद
कंद साची ० कारणे लाभंत
शुचि
०कारण तेजंत
बले
बलिई
९-१
मुजथी मति
तुझथी
मत
१-४
(३) ढाल ३ : २-३ वाध्याजी वाधीरे
साध्याजी साधीरे मोटाई
मोटाईई लोग लोगाईजी लोक नई लोई रे
=(मार्जिनमा स्वहस्ते लुगाई
लख्यं छे. ८-१
वहरोजी चहरोजी ९-२ गोख्युजी घोष्युंजी
१०-३ बहियो० वहयो० (४) ढाल ४ : ७-१ कुल श्यो कुलनो श्यो (५) ढाल ६: आंकणी पछी "जे जाचिकने धन छेतरे लो - ए पंक्ति प्रतिमां नथी.
छे नहि छतइ २-३ भारणी
भारिणी मच्छादि माछादिक
[२]
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कृषि गोप्यो
जिम कृषि गोख्यो
(६) दूहा :
मले
ढाल ७ :
-५
0
m
उत्पति तिम सहुं हुं छु जलहरे पुण्य भव० देखता वीचि खंपे ठामनो दाधे धन वृष्टि रे
मलई ऊपति मनि सहूं छु हूं जल हरई पुण्य ए भव० देखतो वीचि पंखइं ठामना दाधी घननुं वृष्टिं रे
5
६-४
८-१
८-२
दृष्टि
रे
दृष्टिं रे दृष्टिं
(७) दूहा :
५-४
दृष्टि माननी साथ तूं
मानिनि
साचलं
७-४
ढाल ८:
उव संगी रे
बिंदु उचसंगी रे रहतइ
(८) दूहा :
२-१
सणाजा जातिनो सणीजा नातिनो जे पणि पणि जे दिवसे दिवस
(९) दूहा :
४-२
ढाल १० :
४-४
निश्रूक निशूक सरमोहता सरडोहता ऊधांण वलियां ऊधाण बलियां मेळवी
भेळवी निशितशिर धार निशितशर धुर
[३]
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ओसरी
११-६
उसरी खालतो बाळतो बालतो गालतो फेरवे
फोरवइ भोग
योग
(१०) दूहा :
ढाल ११ :
कृष
कृखि भचके
भकइ नीति ऋजुमार्ग तें नीतिमार्ग ते तिं सबल
सयल झकोले
छकोलइ पाडीन
पाठीन बोले
बोली
(११) ढाल १२:४-३
१०-१
(१२) दूहा :
२-२
लइ
लहइ रूसो परि रूसो पर शोकनी परि नीत शाकिनि परि निति ऊगरस्यै तो पंक ऊगरस्यइ पंक वृथा
यथा पिठि
पिट्ठि विंध्य वंध्य विंध्याचल वंध चल वनने कुंज वननिकुंज भोलिडा रे हंसा रे भोलूडा रे हंसा देखो
देखी ते उत्पत्ति रे ते उत्पातिं रे
ढाल १३:
१०-१
(१३) दूहा :
तालक्ख
नालक्ख
१-४ २-४ ३-४ ९-३
मूकने करे सागरस्यु फिरिअ पाओ
मुंझइ करि समुद्रस्यु फिरि नींपाउं
ढाल १४ :
.. [४]
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________________
सघलो
0
ढाल १६:
20
मानं
वसाणे
(१४) दूहा :
सबलो वाहणथी वाहणनी फिरत अंबर अंबर फिरत फिरती कीरति पवनहींथे पवनहीं थई प्रतिमा – “मान व्यवहारीतणां हो एवा पाठ लखेल छ, पछी पोते ज मार्जिनमा मान जिहाजना लोकना हो एम उमेर्यु छे. चोपाइ
चोपड़ तिहां सोहे सोहइ तिहां
मावं १०-१ केसर छवि अनिं केसर छवि अगनिं
१४-३ वसाणां (१५) ढाल १७: ४-४ केसर वचि केसर छवि
हरख न माइ न हरख माइ ९-२ कर्या
धरिया १०-२ मेहलि
मेल्ही ११-१ वाज्यां वाजा वाजा वागां १३-३ हुआ वधामणां हुआं हो वधामणां आंगी
अंगी १५-४ वळिक कलस. वली कनक कलस
विधु मुनि संवत "मुनि "विधु संवत १९-३ पहेला "कवि जसविजयई ए रच्यों एम लखेल छ, पछी
स्वयं मार्जिनमा घोघा बंदिरि ए रच्यों उमेयं छे.. नोंध :- मदित प्रतिमा दरेक ढालना मथाले अलग अलग “देशी नी पंक्ति छे. ज्यारे कर्तानी प्रतिमा ढाल १, ६ (मात्र ढाल लो नी एटलं ज), ७, ९, १३, १४ (मात्र समरिओ साद दिई ए देव ए देसी एटलं ज), १५, १६, १७ (मात्र गछपति राजिओ हो लाल एटलं ज), ए नव ढालोमा ज ते जोवा मळे छे.
।
।
।
।
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पुरवणीरूप नोंध “समुद्र वहाण संवाद नो रसास्वाद करावतां तथा तेनी विविध रचनाखूवीने चर्चतां लेखो पूर्वे लखाया ज छे. कर्तानी अनुवाद - कुशलता प्रत्ये पण अभ्यासीओनं ध्यान गयेलं छे, छतां प्रस्तुत नोधमा उपाध्याय यशोविजयजीनी अनुवादनिपुणतानां केटलांक वधु उदाहरणो समद वहाण संवादमा जडी आवे छे, तेने रज करवानी लालच रोको शकाती नथी. संस्कृतप्राकृत सुभाषितो तथा लोकोक्तिओ - कहेवतोनो उचित रीते अने लाघवपूर्ण शैलीमा विनियोग करवानी उपाध्यायजीनी क्षमता साचे ज अनुपम छे.
विद्वानेव विजानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् ।
नहि वन्ध्या विजानाति, गुवी प्रसववेदनाम् । आ सुभाषितनो विनियोग तेमणे आ रीते कर्यो छे :
"वांझि न जाणइ रे वेदना, जे हुइ प्रसवतां पुत्र;
मूढ न जाणइ परिश्रम, जे हुइ भणतां सूत्र (ढाल २/१०) तो ९मी ढालना चोथा दूहाना उत्तरार्धमां – अने वस्ततः ते दूहामा ज
जिम विद्या पुस्तक रही, जिम वलि धन पर-हत्थ - अहीं "पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं धनम्
(कार्यकाले समुत्पन्ने, न सा विद्या न तद्धनम् ॥) आ सुभाषितनो भाव तेमणे सरस रीते गूंथी दीधो छे. जैन दार्शनिक ग्रंथोमा एक प्राकृत सूक्ति आवे छ :
रूसऊ वा परो वा मा, विसं वा परियत्तऊ ।
भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥ आनो भाव उपाडीने उपाध्यायजी कहे छे :
"निज हित जाणी बोलिई नवि शास्त्रविरुध; रूसो पर वलि विष भखो, पणि कहिइं शुद्ध ॥ (ढाल १२/३) हरख नहीं वइभव लाइ, संकटि दुख न लगार;
रणसंग्रामिं धीर जे, ते विरला संसारि" (ढाल १६ ना दूहा-३) आमां - सम्पदि यस्य न हर्षो
[६]
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विपदि विषादो रणे च धीरत्वम् । तं भुवनत्रयतिलकं
जनयति जनना सुतं विरलम् ।। आ सभाषितना तात्पर्यने केटली खूबीथी वणी लेवामां आव्यं छे ! “आवश्यक - निर्यक्ति” मां एक गाथा आवे छे, तेमा “तीर्थ"नी व्याख्या वांधवामां आवी छ :
“दाहोवसमं तण्हाइछे अणं मलपवाहणं चेव । तिहि अत्थेहि निउत्तं तम्हा तं दव्वओ तित्थं ॥
हवे आ ज वात जरा जदी रीते, "महाभारत मां पण करवामां आवी छे. -(दर्भाग्ये, महाभारतना सन्दर्भस्थाननं अत्यारे विस्मरण थयं छे. पण ते पद्य आ प्रमाणे छे :) -
पङ्क-दाह-पिपासाना - मपहारं करोति यत् । तद्धर्मसाधनं तथ्यं तीर्थमित्युच्यते बुधैः ।।
अने आ वातने उपाध्यायजीए आ रीते ढाळी छे :
"टालइ दाह, तृषा हरइ, मल गालइ जे सोइ; त्रिहुं अरथे तीरथ कहिउं, (ते तुझमां नहिं कोई). (ढाल ७ ना दूहा -६) अने हवे थोडीक कहेवतो - लोकोक्तिओ पण जोईए : "खंड भलो चंदन तणो रे लो, स्यो लाकडमो भार रे सज्जन संग घडी भली रे लो, स्यो मूरख अवतार रे" (ढाल ६/८)
आ वांचता ज - चंदन की चटकी भली, झाझां काष्ठनां भारा;
चतुरकी घडी भली, मूरखनां जन्मारा -
ए लोकोक्ति सहेजे ज याद आवी जाय. अने एमनी आ उक्तिओ - " मा आगलि मूंसाल, ए सवि वर्णन साच (ढाल ३, दूहो १), गरजे कहिई खर पिता (ढाल ७, दूहो ८) छोरू कुछोरू होइ तो पणि, तात अवगुण नवि गणइ (ढाल ७/२) "इम चित्त म धरे शकट हेठिं, श्वान जिम मनमा धरई (७/९)
वांचतां ते ते लोकभाषा-प्रसिद्ध रूढ प्रयोगो अनायासे ध्यानमां आवे छे. यशोविजयजीनी विलक्षणता ए छे के ज्यां अन्य कविओने पोतानी वात, विधान के
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प्रसंगने दृढ/पष्ट वनाववा माटे उक्तं च के यदुक्तं - कहीने नीतिशास्त्रादिना साक्षात श्लोको टांकवा -- उध्दरवा पडे छ, त्यां यशोविजयजी, तेवं न क तां, उपर जोयं तेम, जे ते नीतिवचन वगेरेने पोतानी शैलीथी भाषामां ज ढाळी रई पोताना प्रवाहने अस्खलित चाल राखे छे.
श्रद्धा, प्रसाद अने अध्यात्मप्रसाद
__नगीन जी. शाह
बौद्ध धर्मदर्शन अने योगदर्शन बंने चित्तशास्त्र छे. तेमनी महत्त्वनी विभावनाओ अने पारिभाषिक शब्दोन साम्य नोंधपात्र छे. अभिधर्मकोशभाष्यमां श्रद्धानी व्याख्या आ प्रमाणे छे - श्रद्धा चेतसः प्रसादः । (२.२५). पांतजल सूत्र (१.२०) उपरना पोताना भाष्यमां व्यास श्रद्धानं लक्षण नीचे मजब आपे छे - श्रद्धा चेतस : संप्रसादः। आ बंने व्याख्याओ शब्दशः एक ज छे. प्रसाद शब्दनो अर्थ अनास्रवत्व छे, निर्मलता छे, शुद्धि छे. प्रसादोऽनाम्रवत्वम्। स्फटार्था टीका ८.७५. यद्धि निर्मलं तत् प्रसन्नमित्युच्यते । अभिधर्मदीपवृत्ति, पृ. ३६७. तत्त्वपक्षपात चित्तनो स्वभाव छे. तत्त्वपक्षपातो हि धियां (चित्तस्य) स्वभावः । योगवार्तिक १.८. राग-द्वेष-मोह ए चित्तनी अशद्धिओ छे. ते चित्तना आ स्वभावने आवरे छे. ए अशुद्धिओनं दूरीकरण चित्तने शुद्ध करे छे. चित्तनी आवी शुद्धि चित्तनो संप्रसाद छे, ते ज श्रद्धा छे.
बौद्ध धर्मदर्शन अने योगदर्शन बंने ए निर्वितर्क - निर्विचार ध्यान या समापत्तिनी भूमिकाए चित्तमा जे वैशारद्या या शुद्धि प्रगट थाय छे तेने माटे 'अध्यात्मप्रसाद पदनो प्रयोग कर्यो छे. बंने स्वीकारे छे के आ ध्यानमा वितर्क अने विचाररूप क्षोभ चित्तमांथी दूर थतां चित्तमां विशेष शुद्धि, वैशा, वैशारा प्रगटे छे. ते ज अध्यात्मप्रसाद छे. वितर्कविचारक्षोभविरहात् प्रशान्तवाहिता सन्ततेरध्यात्मप्रसादः । अभिधर्मकोशभाष्य ८.७. "निर्विचारवैशारोऽध्यात्मप्रसादः । योगसूत्र १.४७ प्रशान्तवाहिता पद पण बंने चित्तशास्त्रमा पारिभाषिक अर्थमा प्रयक्त छे अने बंने स्थाने अक ज अर्थ छे.
[८]
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केटलाक मध्यकालीन गुजराती शब्दप्रयोगो
जयंत कोठारी
जयत १. अउले खाले वहै जिनराजसूरिकृत शालिभद धन्ना चोपाई (र.इ. १६२२)मां शालिभदनी रिद्धिना वर्णनमां नीचेनी पंक्ति आवे छ :
जीहो अउले खाले वहै, जीहो कस्तूरी घनसार. (४,११)
संपादक अगरचंद नाहटा (जिनराजसूरिकृतिकुसुमांजलि, सं. २०१७) अउले ना तरल, अवलेह एवा अर्थो आपे छे, जे अहीं कोई रीते बेसता नथी. अउले खाले वहै ए रूढिप्रयोग होवानं समजाय छे. अवळी खाळे वहेवं एटले ऊभरावं, छलकावं. शालिभदने घरे कस्तूरी अने कपूर अंगलेपमा एटलां वपराय छे ने धोवाईन खाळमां एटलां वहे छे के खाळ एनाथी ऊभराय छे. ए नोंधपात्र छे के आवो रूढिप्रयोग राजस्थानी शब्दकोश के रूढिप्रयोगकोशमां नोंधायेलो नथी.
२. अउल्हाइ जिनराजसूरिना गोडी पार्श्वनाथ स्तवन मां नीचेनी पंक्तिओ आवे छ : देव घणाइ देवले, गउडेचा राय,
दीटा ते न सुहाइ रे, गउडेचा राय, इक दीठा मन हुलसइ, गउडेचा राय,
इक दीठा अउल्हाइ, रे गउडेचा राय, ओलावू शब्द बझावं, ठरवं एवा अर्थमा जाणीतो छे. पण ए अर्थ अहीं नथी ए स्पष्ट छे. हुलसई (उल्लास पामे) ना विरोधी अर्थनो ज ए शब्द होई शके. नाहटा संकचित थवं एवो अर्थ ले छे. पण उल्लास पामें ना बराबर विरोधी अर्थमां आ शब्द नांधायेलो मळे छे. 'देशीशब्दसंग्रह ओहुल्ल एटले खिन्न अने ओहुल्लिय एटले ‘म्लान अर्थ आपे छे. तो अहीं पण एक देवने जोतां मन उल्लास पामे, एक देवने जोतां मन खिन्न थाय एम अर्थ बराबर बेसे.
३. अउगनाइ साधुसुन्दरगणि (ई. १७ मी सदी पूर्वार्ध) कृत उक्तिरत्नाकर' (संपा. मुनि जिन विजय)मा अउगनाइ शब्द नोधायेलो छे ते ध्यान खेंचे छे. एनो संस्कृत पर्याय एमां 'अपकर्णयति अपायेलो छे.
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आ अउगनाइ ते अवगणे ? उक्तिरत्नाकर मां संस्कृत पर्यायो घडी काढेला मळे छे अने संस्कृत कोशो अपकर्णयति शब्द नोंधता नथी. पण उक्तित्नाकर ने 'अवगणे ज अभिप्रेत होय तो संस्कृत ‘अवगणयति ए न आपी शके एम मानवं मश्केल छे. वीजी वाजुथी, अवगणे नुं जून रूप अउगणई होय अने ए ज अवगणयति परथी आवे, अउगनाई नहीं. एटले अउगनाइए अउगणई थी जदो शब्द होवानो संभव रहे छे. एनो अपकर्णयति ए पर्याय आपवामां आव्यो छे तो तेनो अर्थ सांभळे नहीं, ध्यानमां न ले एवो अभिप्रेत होवान संभवित छे.
४. अउगउ, उगउ 'उक्तिरत्नाकर मां अउगउ-मगउ अने 'उगउमगउ ए शब्दो नोंधायेला छे अने एनो पर्याय अवाङ्मकः आपवामां आव्यो छे. देखीती रीते ज ऊगोमूगो ए द्विरुक्त शब्द छे. एनो अर्थ तो मूगो' ज. ऊगो ने अवाङ्परथी व्युत्पन्न करी शकाय ?
अउगउ के उगउ शब्द एकलो पण मूगो ना अर्थमां वपरायो छे. जेमके,
अउगी अच्छि, सखि झखि म-न आल, (विनयचंद्रसूरिकृत नेमिनाथ -चतुष्पदिका, ई. १३ मी सदी उत्तरार्ध
गुरे भणिउं - म वच्छ ! उगउ रहि को कांइ नहीं कहई (तरणप्रभसूरिकृत ‘षडावश्यक-बालावबोध', र. ई. १३५५)
बीजा उदाहरण परत्वे संपादक प्रबोध पंडिते Agitated, alarmed ' एवो अर्थ आप्यो छे. पण त्यां बीजा साधुए दडवडावतां चेलो लागणीना आवेशमा आवी ध्रुसका भरे छे त्यारे गुरु एने वत्स, रड नहीं. मूगो रहे एम कहे छे तेवो अर्थ लेवानो छे.'
५. अखाडो अखाडो शब्द कस्ती, व्यायाम के स्पर्धा माटेनी जग्याना अर्थमां जाणीतो छ. सं. अक्षपाटकं परथी ए ऊतरी आव्यो छे. उक्तिरत्नाकर', 'अक्षपाटक एवो पर्याय आपी अखाडउ शब्द नोंधे छे. मध्यकालीन गजरातीना बेत्रण प्रयोगो आ संदर्भमा नोंधपात्र छे.
पार्थे एक दल कोडि विहाडइ, इणि स्यउं कोइ मिलइ न अखाडइ २.५३ (शालिसूरिकृत विराटपर्व, ई. १४२२ पहेलां)
संपादको चिमनलाल त्रिवेदी अने कनुभाई शेठ अखाडई नो अर्थ मल्लयुद्धमा अने गुर्जर रासावली ना संपादको (ठाकोर, देसाई, मोदी) 'a wrestling ground' अम अर्थ आपे छे. आमां कस्ती के कस्तीनं मेदान एवो अर्थ अभिप्रेत होय तो ते योग्य नथी. सर्व प्रकारनी शौर्यस्पर्धामा पार्थनी तोले कोई न आवे एम ज अर्थ होई शके. पार्थ कस्तीबाज नथी, बाणावळी छे.
[१०]
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गर्जर-रासावली मां अन्य त्रणेक स्थान आ शब्द वपरायेलो छ : तुम्हि मंडावउ नवउ अखाडउ, नवनव भंगि पुत्र रमाडउ. ४.१ राधावेधु करीउ दिखाडइ, तिसउ न कोई तीण अखाडइ. ४. ८ इम परीक्षा हुई अखाडइ, तीछे अरजुनु चडीउ पवाउइ ४.२० (शालिभदसूरिकृत पंचपांडवचरित्ररास, र. ई. १३५४)
अहीं प्रसंग कौरव-पांडवोनी शस्त्रविद्यानी परीधनानो छे. तेथी अखाडउ एटले 'शौर्यस्पर्धा एवो अर्थ बधे स्पष्ट छे. शौर्यस्पर्धानं स्थान एवो अर्थ पण लई शकाय.
वधारे रसप्रद छे ते तो अखाडउ ना वीजा बे प्रयोगो. षडावश्यक -बालावबोध मां चैत्यवर्णनना प्रसंगे द्वारे द्वारे अखाडामंडप साथे प्रेक्षामंडप होवानो उल्लेख आवे छे. संपादक प्रवोध पंडिते अखाडामंडप नो अर्थ 'pavilion' आप्यो छे ते तो देखीती रीते ज भूलभरेलो छे. पण अहीं अखाडामंडप एटले 'शौर्यस्पर्धान स्थान एवो अर्थ होवा करता रमतनुं स्थान, क्रीडाभमि एवो होवा वधारे संभव छे. चैत्यमां शौर्यस्पर्धा होई शके ? नरसिंह महेताना एक पदमांनो अखाडो, शब्दनो प्रयोग आ संदर्भमां उपयोगी नीवडे तेवो छ : वृंदावनमां रच्यो अखाडो, नाचे गोपी गोवाल. ५४.१
___ (नरसैं महेतानां पद, के. का. शास्त्री) अखाडों शब्द अहीं शौर्यस्पर्धा ना अर्थमां नथी ते स्पष्ट छे.गोपी-गोपाल नृत्य करे छे, एटले क्रीडाभूमि एवो अर्थ ज लेवानो रहे. षडावश्यक - बालावबोध मां पण नृत्यादि क्रीडाओनं स्थान एवो अर्थ बंध वेसे. आ अखाडो शब्दनो जरा जुदो पडतो प्रयोग गणाय.'
६. अछिवउं, अछीउं अछई, छई मध्यकालीन साहित्यमा व्यापकपणे मळतां क्रियारूपो छे, पण उक्तिरत्नाकर', अछिवउं एवं विध्यर्थकृदंतनुं अने अछीउ ए कर्मणिर्नु रूप नोंधे छे ए विरलपणे प्राप्त रूपो छे. अछिवउं नो पर्याय स्थातव्यम् होवं, रहेवं अपायो छे अने 'अछीउं नो पर्याय स्थीयमानम् (थएँ, रहेवावं, रखावू) आपवामां आव्यो छे.
७. अछूतउ अछूत शब्द अस्पृश्य, हलकी जातिनो माणसए अर्थमां खूब जाणीतो छ. उक्तिरत्नाकर मां अछूतउ शब्द जुदा अर्थमां होय एम समजाय छे.एमां पर्याय अच्छुप्त अपायेलो छे, जेनो अर्थ अस्पृष्ट थाय. पण मइलउ, छोति, अछुतउ एम शब्दक्रम छे ने उक्तिरत्नाकर मां शब्द कया जूथमा मकायो छे तेमाथी केटलीक वार एना अर्थनी चावी मळे छे. अहीं मइलउ नो विरुद्धार्थी शब्द अछूतउ समजीए एनो अर्थ स्पर्शदोषना अभाववाळो, निर्मल एम करवो जोईए. छोति नो अर्थ स्पर्शदोष थाय ज छे.५
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८. कटरि 'अनसंधान : १ मा हरिवल्लभ भायाणीए नोंघेला प्राकृतना आश्चर्यवाचक 'कटरिनो जूनी गुजरातीमां पण एक प्रयोग सांपडे छे : । कटरि गंभीरिमा, कटरि वय - धीरिमा,
कटरि लावन्न - सोहग्ग जायं, कटरि गुण-संचियं, कटरि इंदिय जयं,
कटरि संवेग - निव्वेय-रंगं. ३७-३८. (मेरुनन्दनगणिकृत जिनोदयसूरि विवाहलउ, र. ई. १३७६ पछी)
ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ना संपादक अगरचंद नाहटाए कटरिं नो अर्थ आश्चर्य और प्रशंसावोधक अव्यय एम आपेलो ज छे. अहो गांभीर्य । ए प्रकारना आ उद्गारो होवार्नु देखाय छे.
पूरक नोंध १. 'मों करमायं जेवामां करमावं जेम, ओलावं नो लाक्षणिक अर्थ निस्तेज थर्बु लईए तो अर्थ कदाच बेसे. ओहुल्ल – ने मूळ तरीके लेतां पण अर्थ घटे छे. ओहुल्ल- ना मूळमां अव + फुल्ल-'करमा छे. अपभ्रंशसाहित्यमा ते वपरायो छे. जेम के स्वयंभूकृत पउमचरिउ मां, पुष्पदंतकृत महापुराण'मां. त्यां मुख'नुं ते विशेषण छे. टीकाकारे म्लान', सुकायेलं अर्थ करेल छे. ओहल्ल् - एवो पाठ लिपिदोष जणाय छे. ओहुर- पण मळे छे. विशेष माटे जुओ रत्ना श्रीयन् 'Des'ya and Rare words, पृ. ६१, ६२.
२. नामधातु अवकर्णय - ध्यानमां न लेवू बाणनी कादंबरी मां वपरायान मोनिअर विलिअम्झे नोंध्यं छे.
३. में 'अनुशीलनो' (१९६५, पृ. ९३-९५)मां अउगउ, उगा विशे नोंध आपेली छे. तेमा प्राकृत, जूनी तथा मध्यकालीन गुजरातीना ११ मीथी १७मी शताब्दीमां मळता प्रयोगो, तथा मराठी प्रयोगनी नोंध लीधी छे. 'अनुसंधान ना प्रस्तुत अंकमा ज कनुभाइ शेठ संपादित 'सुभद्रासति- चतुष्पदिका' (१३मी सदी)मां पण आ शब्दनो प्रयोग मळे छे :
'अउगी आछु न बोलिसि माए' (कडी ३४).
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४. पुष्टिमार्गीय वैष्णव कवि हरिदासना मुख-परंपरामां पण मळता एक धोळमां 'कीडाभूमि' (रासक्रीडा माटेनी रंगभूमि) एवा अर्थमां ‘अखाडो'नो प्रयोग मळे छ :
'एक रच्यो अखाडो रे, सज्ज थया पोते '
(संदर्भ कृष्ण-गोपीओनी रासलीलानो : जुओ ‘हरि वेण वाय छ रे हो वनमा', पृ. ७४, कडी २).
५. सं. 'छुप्त-', प्रा. छुत्त- = 'स्पृष्ट', पछीथी, 'दृषित स्पर्शवाळं'. प्राकृतमा पण छुत्ति 'अशौच' एवा अर्थमां वपरायेलो छ, जेना परथी ज. गुज. 'छोति', हिं. 'छूत' थया छे. 'अछूत' शब्द 'अस्पृष्ट' (हिं. 'अछूता'), तेम ज 'अस्पृश्य' (हिं. अछूत) बंने अर्थमां रूढ छे. 'छूताछूत' मां धात्वर्थ जळवायो छे. प्रस्तुत नोंध क्रमांक ७मां पण 'अछूतउ' 'अस्पृश्य' ए अर्थमा होवानी शक्यता छे.
६. ए ज प्रमाणे 'वपरि'नो प्रयोग पण प्राचीन गुजरातीमाथी टांकी शकाय. 'अनुसंधान'ना प्रस्तुत अंकमां रमणीक शाह संपादित 'धमसूरि-बारहनामउंमा ३५ मी कडी- पहेलुं चरण आ प्रमाणे छे. 'बापुरि सहइ कुसुंभडीय.' आथी में सूचवेली व्युत्पत्ति पण समर्थित थाय छे.
- ह. भायाणी
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जैन प्राकृत-संस्कृत प्रयोगोनी पगदंडीए
- हरिवल्लभ भायाणी
१. शब्दप्रयोगो (१) सं. चेलक्नोपम्, (२) प्रा. पाणद्धि, (३) दे. मोरउल्ला, (४) प्रा. उट्ठब्भ के उटठुब्भ् ? (५) दे. साइतंकार, (६) गुज. चणवं, हिं. चुगना.
(१) सं. चेलक्नोपम् कपडा तरबोळ बनी जाय तेटलुं (वरस)
हेमचंद्राचार्यना योगशास्त्रमा योग द्वारा केवलज्ञाननी प्राप्ति थती होवाना संदर्भे वृत्तिमा आपेली भरत चक्रवर्तीनी दृष्टांतकथामां ऋषभदेवना विवाहवर्णनमां, देवगण सहित इंद्र विवाह माटेनी जे विविध तैयारी करे छे तेमां विवाहमंडपना द्वारे वादळाए जळ वरसाव्यानो निर्देश नीचे प्रमाणे छ :
ववषर्मण्डप-द्वारे चेलक्नोपं पयोमुचः । (योगशास्त्र', १-१०; वृत्ति-श्लोक १,७६.) मंडपना द्वार पासे वादळो कपडां तरबोळ बनी जाय तेटलुं वरस्या.
सं. क्नय् धात भीनं थवं (उन्दन) अर्थमां नोंधायो छे. (पाणिनीय धातुपाठ, १४, १४; हैम धातुपाठ, (०२). तेना प्रेरक अंग क्नोपय् (अष्टाध्यायी - ७-३-३६, ८६) परथी अम् - प्रत्ययवाळं संबंधक भूतकृदंतनुं रूप क्नोपम्, ज्यारे वस्त्रवाचक पद साथे समस्त थईने वपराय छे, त्यारे ते केटला मोटा प्रमाणमां वरसाद पड्यो ते सूचवे छे. जेम के चेलक्नोपं । वस्त्रक्नोपं । वसनक्नोपं वृष्टो देवः / मेघः ('अष्टाध्यायी - ३-४-३३ उपरनी वृत्तिमा; सिद्धहेम” परनी लघवृत्तिमां). ___शिशुपालवध मां वस्त्रक्नोपम् नो प्रयोग थयो छे. पण संस्कृतसाहित्यमाथी चेलक्नोपम्नो कोई प्रयोग नोंधायो नथी. वैयाकरण हेमचंद्राचार्ये करेला तेना प्रयोगने बीजा कोई प्रयोग ध्यानमा न आवे त्यां सुधी अनन्य गणवानो रहेशे.
१. चेलार्थेषु कर्मसूपपदेषु वनोपेणमुल स्याद् वर्षप्रमाणे । यथा वर्षणेन चेलानि क्नोप्यन्ते तथा वृष्ट इति चेलक्नोपं वृष्टः ॥ तथा चेलार्थाद् व्याप्यात् परात् क्नोपयतेस्तुभ्यकर्तृकार्थाद् वृष्टिमाने गम्ये धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् ॥
२. उपयुक्त संदर्भ :- संस्कृत अंग्रेजी कोश. मोनिअर विलिअम्झ. धातुरूपकोश. धर्मराज नारायण गांधी. योगशास्त्र. संपादक, मुनि जंबूविजयजी.
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(२) प्रा. पाणद्धि 'शेरी', 'गली'.
हेमचन्द्राचार्यकृत 'देशीनाममाला' मां (६-३९) पाणद्धि शब्द रथ्याना अर्थमा आपेलो छे. प्राकृतकोशमां तेनो साहित्यमा थयेलो कोई प्रयोग नोंधायो नथी. पण भोजकृत सरस्वतीकंठाभरण ं (पृ. ६३५) अने 'शृंगारप्रकाश' (पृ. ७९०, ११९७) मां टांकेली नीचेनी उदाहरणगाथामां तेनो प्रयोग मळे छं. (जुओ, वी. एम. कुलकर्णी, ग्रंथ - १, पृ. १६० (क्रमांक ५९२), २, पृ. ६५, ८०५.).
ग्रंथ
-
हो कण्णुलीणा भणामि रे किंपि सुहअ मा तूर । संकडम्मि पुण्णेहिं लद्धो सि ॥
णिज्जण - पाणद्धी
"अरे सुभग, जवानी उतावळ न कर. मारे तने कांईक कानमां कहेवुं छे. आगला भवनां पुण्ये तुं सांकडी निर्जन गलीमां भेगो थयो छे. *
(३) दे. मोरउल्ला 'व्यर्थ'
सिहे. ८-२-२१४ मां मोरउल्ला क्रियाविशेषण मुधा निरर्थक, नकामुं एवा अर्थमा आप्यो छे. पासम. मां मोरकुल्ला एवं रूप पण नोंध्युं छे, अने तेनो प्रयोग 'चउपन्न - महापुरिसचरिय', 'कुमारपालचरित ं (मा तम्म मोरउल्ला 'तुं निरर्थक दुःखी न था, ४, २०) अने सुमतिजिन-चरित्र' मां थयो होवानं जणाव्युं छे. रत्नप्रभसूरिकृत उपदेशमाला - दोघट्टीवृत्ति (ई.स. ११८२ ) मां पण एनो प्रयोग मळे छे : मरेसु मा मोरउल्लाए निरर्थक न मर ं (पृ. ८, पद्य ८७ ).
* कंठपरंपराना एक वैष्णव धोळनी पंक्तिओ सरखावो :
सांकडी शेरीमां श्री वल्लभ मळ्या, बोल्या कांई वेण - कवेण,
श्री वल्लभ विना घडी नहीं चाले.
(४) उट्ठब्भ्- के उट्ठब्भ्- ?
'सिद्धहेम ं ८, ४, ३६५ नीचे ( अपभ्रंश - विभागमां), सं. इदम् नुं स्थान अपभ्रंशमां आय ले छे ते दर्शाववा आपेलां त्रण उदाहरणोमां त्रीजुं नीचे प्रमाणे छे :
आयहो दड्ढ-कलेवरहो, जं वाहिउ तं सार ।
जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु ॥
शरीरनुं असारपणुं दर्शाववा आ दोहामां कह्यं छे के मृत्यु थतां शरीर कां तो सडी जाय छे, नहीं तो (जो तेने बाळी मूकवामां आवे तो) राख थई जाय छे. आमां उट्ठब्भइनो ( १ )
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'दोधकवृत्ति मां आच्छाद्यते (= ढांकी रखाय) स्थाप्यते (= राखी मुकाय) एवो अर्थ कर्यो छे. वैद्ये अने में पण तेनुं अनुसरण कर्य छे. पिशेले 'दाटी देवाय' एवो जे अर्थ कर्यो छे, तेनी टीका करता आल्स्डोर्फे सूचव्युं छे के राखी मूकवामां आवे ( एटले के 'दाटी देवामां न आवे ) तो शरीर सडी जाय - एवां अर्थ ज बंध बेसे. व्यासे आनी नोंध लीधी छे. योगीन्दुदेवना 'परमप्पपयास मां आ दोहानुं रूपांतर नीचे प्रमाणे मळे छे
:
बलि किउ माणुस - जम्मडा, देक्खंतहं पर सारु । जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु ॥
उत्तरार्ध उपरना दोहा साथै समान छे. पूर्वार्ध थोडोक जुदो छे, पण सडवानी के राख थवानी वात मनुष्यशरीरने लागु पडे तेम मनुष्य जन्मने सीधी लागु न पडी शके - एटले उपरना सुसंगत अर्थ वाळा दोहानं आ कांईक नबळं रूपांतर जणाय छे. अहीं ब्रह्मदेवनी संस्कृत वृत्तिमां उट्ठब्भइनी अवष्टभ्यते एवी छाया आपीने भूमौ निक्षिप्यते एवो अर्थ कर्यो छे. परंतु उट्ठब्भ - नो राखी मुकवु, पड्युं रहेवा देवं' के 'दाटी देवु एवा अर्थनो कोई अन्य प्रयोग नोंधायो नथी.
हकीकते उट्ठब्भइ पाठ भ्रष्ट छे. तेने वदले उट्ठब्भइ जोईए. सं., स्तुभ् उपरथी थयेला छुभ् नो अर्थ 'बहार फगावी देवु एवो थाय छे. पालि निछुभति, निट्ट्ठहइ नो अर्थ गळं खखारीने थुंकी काढवं एवो छे. धातुपाठमां स्तुभ्य् धातु निष्कासन ना अर्थमा आयो छे. प्राकृत उट्टुभ् नो पण एवो अर्थ छे. पण प्रा. उच्छूढ ( उट्ठभ् नुं भूतकृदंत ) नो ‘त्यक्त, निष्कासित, उज्झित एवो अर्थ पासम. मां आप्यो छे अने प्रयोगनां उदाहरण तरीके उच्छूढसरीर-धरा आपेल छे. आ संदर्भमां शरीरने संस्कारथी - परिकर्मथी वंचित राखवुं, साफसूफी अने सजावट प्रत्ये उपेक्षा सेववी एवो अर्थ छे. पण उपर्युक्त बधा संदर्भे जोता नाखी देव, ‘उपेक्षाभावे एमने एम पड्युं रहेवा देवें एवो अर्थ सहेजे लई शकाशे, अने ते हेमचंद्राचार्ये उद्धृत करेल दोहा माटे बंधबेसतो थाय छे, एटले पाठ उट्ठब्भइ नहीं, पण उट्ठब्भइ होवो जोईए.
(पू) दे. साइतकार विश्वस्त, सप्रत्यय'
हरिभद्रसूरिनी 'आवश्यक - वृत्ति मां साइतंकार (२, पृ. १४२ ) अने पिंडनिर्युक्तिभाष्यं मां साइयंकार ( ३३मां) विश्वस्त', 'सप्रत्यय एवा अर्थमां वपरायो होवानुं 'देशी शब्दकोश मां नोंध्युं छे अने ते माटे नीचे प्रमाणे उद्धरणो आपेल छे :
(१) जं च राएण उल्लवियं साइतंकारो तेण तं पत्तए लिहियं । (२) पुच्छा समणे कहणं साइयंकार - सुमिणाई ।
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आवृ. मां जे शब्दरूप मळे छे ते त्श्रुति वाळं छे. एटले मूळ साइयंकार ज छे. पासम. मां साइयंकार माटे पिंभा. ४२ नो निर्देश छे. अपभ्रंशमा साइउ शब्द आलिंगन ना अर्थमा वपरायो छे. साइउ देइ एटले ‘स्नेहीजनने मळतां तेने 'भेटे छे. गजरातीमां सांई आ ज अर्थमा प्रचलित छे. परगाम रहेता स्वजनने माटे ते गाम जनारने एमने मारा वती साई देजो कहेवानो रिवाज छे. कहेवत छे के नहीं संदेशो के नहीं सांई, तमे त्यां ने अमे आंही . एटले कुशळप्रश्न, कुशळवार्ता एवो अर्थ विचारणीय छे.
__ (विगत माटे जुओ रत्ना श्रीयान, Des'ya and Rare Words from Puspadanta's Mahapurana १९६९).
(६) गुज. चणवू, हिं चुगना ग. चणवं नो एक अर्थ छे 'चांचथी एक एक दाणो पकडी गळी जवानी पक्षीनी क्रिया. चण (स्त्री.) एटले 'पक्षीओने माटे आ सारु नखाता अनाजना दाणा.
वृ.ग.को. मां एना मूळ तरीके सं. चिनोति एकळं करवं, ढगलो करवों, आप्यो छे. प्रा. चिणइनो पण ‘फूल वगेरे चूंटीने एकठां करवा एवो अर्थ छे.
प्राकृतमा चिणइ उपरांत चुणइ पण मळे छे. हेमचंदे अनियमित रीते एक स्वर- स्थान बीजो स्वर लेतो होवानं गणीने चणइने चिणइ उपरथी थयेलो मान्यो छे (सिहे. ४.२२८). टनर तुन्न जेवाना प्रभावे इ नो उ थयानं सूचव्यं छे (इ लें. '४८१४). अर्थ थोडोक बदलायो छे. काओ लिंबोहलिं चुणइ (पासम.) एवा प्रयोगमा 'चांचथी ठोलीने खावं एवो अर्थ छ, जे चणवा ना अर्थनी निकट छे. एथी चणवू ना मूळ तरीके प्रा. चिणइ नहीं पण चुणइ ज स्वीकारवानो रहे.
आनं समर्थन चौदमी शताब्दी लगभगना एक जैन परातन प्रबंधथी मळे छे. (मनि जिनविजय संपादित परातन प्रबंध संग्रह मां G संज्ञक हस्तप्रतमाथी आपेल भोजराजाना वृत्तान्तमां, पृ. २२ उपरनो, परिच्छेद ४१ नीचे आपेलो प्रसंग). भोजराजानी सवारी नीकळी त्यारे सौ तेने नमस्कार करता हता, पण एक हाटमा उभेला एक माणसे नमस्कार न कर्या. राजाए तेनी सामे जोयं एटले तेणे त्रण आंगळी ऊंची करीने बतावी. राजाने ए संकेत समजायो नहीं. बीजे दिवसे त्यांथी राजानी सवारी नोकळी त्यारे पेलाए बे आंगळी अने त्रीजे दिवसे एक आंगळी ऊंची करीने राजाने बतावी. पछी भोजे तेने बोलावीने संकेतोनो खुलासो पूछयो. एटले ते माणसे कहयं पहेली वार आपनां दर्शन कर्या त्यारे मारे घरे त्रण दिवसनी चूणि हती, पछी बे दिवसनी, पछी एक दिवसनी. राजाने नमस्कार करीने पण शं? अहीं चूणि एटले 'चण - एटले के 'पेट पूरत अनाज. एटले भोजे तेने वर्षासन बांधी आप्युं.
अहीं चूणि रोज खावाना अनाज माटे लाक्षणिक अर्थमा वपरायो छे. चुणइ उपरथी मध्यकालीन गजरातीमां थयेला उ > अ एवा परिवर्तनने परिणामे चणवं थयो. पण अहीं तो
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दीर्घ ऊ वाळो चूणि छे, अने गुजराती कोशोमां पण चूणवू, चूण एम दीर्घ स्वरवाळां रूप नोंधायां छे. आनो खुलासो मेळववानो रहे छे. चुणि उपरथी चण थाय, चूणि उपरथी चूण.
हिंदी वगेरेमा चणवाना अर्थमां चुगना के चूंगना छे. पंजावीमा चोग्गा एटले चण. टनर ए धातओ अने तेमाथी साधित शब्दो माटे मूळ तरीके चुग्यति के चुंगति होवानं मान्यं छे. ('इलें ४८५२, ४८५३, ४९१९, ४९२०). पण सादृश्यनो आधार लईने ए धातने अने साधित शब्दोने चुणइ साथे जोडी शकाय तेम छे. चिणइ उपरथी कर्मणि चिव्वइ, चिम्मइ अने चिज्जइ थाय छे. ते अनुसार चुणइ उपरथी कर्मणि चुज्जइ. अने पछी जेम प्राकृत भज्जइ, भू. कृ. भग्ग, रज्जइ - रग्ग, वज्जइ - वग्ग वगेरे तेम चुज्जइ - चुग्ग. अने ए भूतकृदंत परथी धातु चुगना अने नाम चोग्गा वगेरे सधाया.
२. छंदचर्चा, पाठचर्चा वगेरे
(१). सिहे. ८-४-३३० ना उदाहरणनो पाठ अने छंद 'सिद्धहेम ना अपभ्रंश विभागना ३३० मा सूत्र प्रमाणे नामिक विभक्तिना प्रत्यय पूर्वे नामना अंगनो अंत्य स्वर हूस्व होय तो दीर्घ थाय छे, अने दीर्घ होय तो हुस्व थाय छे. तेनं उदाहरणपद्य नीचे प्रमाणे छ :
ढोल्ला सामला धण चंपावण्णी । णाई सुवण्ण-रेह कसवट्टइ दिण्णी ।
'नायक शामळो छ, नायिका चंपावणी छ. जाणे के कसोटीना पथ्थर पर सोनानी रेखा पडी होय (तेवां ते शोभे छे.). दोग्धकवृत्ति अनुसार अहीं नायक - नायिकाना विपरीत रतनी परिस्थितिनं वर्णन छे.
__ अहीं समस्या ए छे के उदाहरणपद्यनो छंद जे रूपे पाठ सचवायो छे ते रूपमा अनियमित छे. एकी चरणोमां का नव मात्रा जोईए, कां तो दस. पण उपर आपेला पाठमां पहेला चरणमा नव मात्रा छे, पण त्रीजा चरणमा दस. आ बाबत तरफ अपभ्रंश व्याकरणना संपादको - संशोधकोनं ध्यान नथी गयं.
'परातन प्रबंध संग्रह (संपा. जिनविजय मनि, सिंजैन., २, १९३६)नी ई. स. १४ मी शताब्दीनी G हस्तप्रतमां आपेल भोजचरित्रमा एवो प्रसंग छे (पृ. २०-२१ परिच्छेद ३६) के मालवपति मुंजे ज्योतिषीने पूछतां तेणे जणाव्यु के तमने पुत्र थशे नहीं, पण श्रावण सुद पांचमना पहेला प्रहरे जे तमारी समस्या पूरशे ते तमारा पछी राजा थशे. ते दिवसे मंजे कोईक प्रासादमा रहेला श्याम पति अने गोरी पत्नीने जोयां अने तेने पद्यार्ध स्फुर्य : ढुल्लउ सामलउ धण चंपावन्नी । एनी समस्यापूर्ति बीजा कोईथी न थई शकी, पण भोजे ते करी : छज्जइ
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कणयारह कसवट्टइ दिन्नी. आमां बे-त्रण बाबत ध्यानपात्र छे. पहेलं तो ए के हेमचंदना उदाहरणमां ढोल्ला सामला छे त्यारे अहीं छे ढुल्लउ (के ढोल्लउ) साामलउ. अंत्य अ नो आ थयानं उदाहरण आपवानं होवाथी हेमचंद्राचार्य समक्ष ढोल्ला सामला एवो पाठ ज होई शके. पण आ प्रकारनां कंठपरंपरामा प्रचलित रहेलां पद्योनो पाठ केटलेक अंशे प्रवाही रहेतो. तेमां शब्दस्वरूपनी पण एकवाक्यता घणी वार नथी जोवा मळती. प्रथमा एकवचन जे बोली-प्रदेशमा अउ प्रत्ययवाळु हतुं ते प्रदेशनो आ पाठ छे.
बीजं कणयारह पाठ भ्रष्ट छे. तेने स्थाने कणय-रेह जोईए. रनी पडिमात्रा य नो कानो बनी गई छे.
त्रीजं, हेमचंद्रीय उदाहरणना उत्प्रेक्षावाचक णाई ने स्थाने अहीं छज्जइ छे. ए पाठमां, संदर्भथी समजाइ जतुं जे अनुक्त राख्यं छे ते खुल्लुं व्यक्त थयु छे. एटले एने पाछळनो पाठ गणी शकीए. आम
ढोल्ला सामला (के ढोल्लउ सामलउ), धण चंपावन्नी । नाई कणय-रेह, कसवट्टइ दिन्नी ॥
एवा पाठमा छंदनी अशुद्धि रहेती नथी. ९+ १०, ९ + १० मात्राना मापवाळी आ मलयमारुत नामना छंदनी आंतरसमा चतुष्पदी छे.
'स्वयंभूछंद नुं मलयमारुततुं उदाहरण : गोरी अंगणे, सुप्पंती दिट्ठा । चंदहो अप्पणी, जोण्ह वि उव्विट्ठा ॥ (स्वछं० ६ - ४२, ९१) (स्वयंभूछंद मां विउविट्ठा पाठ भ्रष्ट छे.) 'आंगणामां सूतेली गोरीने जोई एटले पछी चंदने पोतानी ज्योत्स्ना पण अबखे पडी. 'छंदोनुशासन ने उदाहरण : देक्खिवि वेल्लडी, मलय-मारुअ-धुआ । सुमरिवि गोरडी, पंथिअ-सत्थ मुआ ।। (छंदो० ६-१९, २०) मलयपवने कंपती वेलडीने जोईने पोतानी गोरी सांभरी आवतां पथिको मरणशरण
थया.'
___'कविदर्पण' (१३मी शताब्दी लगभग)मां आपेलं मलयमारुतन उदाहरण ('कोईकनु छे एवा उल्लेख साथे) पण जोईए :
तत्ती सीयली, मेलावा केहा । धण उत्तावली, प्रिय -मंद-सिणेहा ।। (वेलणकर-संपादित पृ. २३, १४-२).
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तप्त अने शीतल वस्तु वच्चे मेळाप क्याथी होय ? नायिका उतावळी, पण नायकनो स्नेह मंद.
(२). सिहे. ८-४-३९५(१)नो पाठ, अर्थ सिहे. ८-४-३९५(१)मा, सं. तक्ष ना छोल्ल एवा आदेश माटे नीचे उदाहरण आपलं छे (बीजी आवृत्तिमा आपेल पाठ अने अनुवाद सुधारवानो छे) :
जिवँ जिवँ तिक्खालेवि किर, जइ ससि छोल्लिज्जंतु । तो जइ गोरिहे मुह-कमलि, सरिसिम का-वि लहंतु ॥
'गमे तेम करीने, मानो के, चंद्रने वधु चकचकतो करवामां आवत तो ते कदाच आ गोरीना मखकमळ साथे किंचित् समानता प्राप्त करत.
रत्नप्रभसूरिकृत 'उपदेशमाला-दोघट्टी-वृत्ति (ई.स. ११८२)मां जिनशासननी उज्ज्वळता दर्शावतं विशेषण छोल्लिय-छण-मय-लंछण-च्छाय चकचकित करेला (कलंक घसी काढेला) पूनमना चंद्रनी कान्तिवाळं वपरायं छे (पृ. १११, पद्य ४१).
(३). सिहे. ८-४-४२२ (२)नो पाठ, अर्थ सिहे. ८-४-४२२ (२) मां, झकट (खरेखर तो संकट)ना घंघल एवा आदेश माटे नीचेन उदाहरण आपेलुं छे :
जिवँ स-पुरिस ति घंघलइँ, जिवँ नई तिवँ वलण.ई। जिवँ डुंगर तिवँ कोट्टर, हिआ विसूरइ काइँ ॥
रत्नप्रभसूरिकृत उपदेशमाला-दोघट्टी-वृत्ति (इ.स. १९८२)मां ते ज (थोडा पाठांतरथी) आपलं छे (पृ. ९८, पा ५१) :
जहिं सु--पुरिस तहिं घंघलई, जहिं नइ तहिं वलणाई। जहिं डुगर तहि खोहरई, सुयण विसूरहि काई ।।
अहीं खोहरई पाठ (कोट्टरई ने बदले) शंकास्पद लागे छे. प्राकृतमा खोहर शब्द मळतो नथी. हिंदीमा खोह (गुज. खो) छे खरो, ज्यारे गुज. मां कोतर (तकार साथे) तो मळे ज छे.
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(४). 'छंदोनुशासन' गत प्राकृत छंदप्रकार द्विभंगीनां उदाहरणोनी पाठचर्चा
१. छंदोनुशासन मां हेमचंद्राचार्ये सामान्य रीते स्वरचित उदाहरणो आप्यां छे. ज्यां कोई पूर्ववर्ती ग्रंथना उदाहरणनो उपयोग कर्यो छे, त्यां पण उदाहरणमां छंदनं नाम गूंथवानं होवाथी तेमणे जरूरी फेरफार कर्या छे. पण केटलीक वार कोई पूर्ववर्ती स्रोतमाथी उदाहरण उद्धृत करेल छे. जेम के चोथा अध्यायना ८७मा सूत्र नीचे विविध छंदोना संयोजनथी थती द्विभंगीओ तरीके (१) गाथा + भद्रिका, (२) वस्तुवदनक + कर्पूर, (३) वस्तुवदनक कुंकुम, (४) रासावलय + कर्पूर, (५) रासावलयक + कुंकुम, (६) वस्तुवदनक अने रासावलयनुं मिश्रण + कर्पूर, (७) वस्तुवदनक अने रासावलयनं मिश्रण + कुंकुम, (८) रासावलय अने वस्तुवदनकनं मिश्रण + कर्पूर, (९) रासावलय अने वस्तुवदनकनुं मिश्रण कुंकुम, (१०) वदनक + कर्पूर, (११) वदनक + कुंकुम एटला छंदप्रकारोनां उदाहरण संभवतः कोई पूर्ववर्ती छंदोग्रंथमांथी लीघेलां छे. आमांना आठ उदाहरण कविदर्पण मां पण मळे छे. ‘कविदर्पणकारे `छंदोनुशासन मांथी ते लीधां होय एवो प्रबळ संभव छे, केम के केटलेक स्थळे ते 'सिद्धहेम ना प्राकृत विभागमांथी प्रयोगना समर्थन माटे उद्धरण आप्यां छे. जो के थोडाक पाठ भिन्न छे. आमांथी रासावलय अने कर्पूरनी द्विभंगीनं उदाहरण नीचे प्रमाणे छे.
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परहुअ - 1-पंचम-सवण-सभय मन्नउं स किर तिण भइ न किंपि मुद्ध कलहंस - गिर |
चंदु न दिक्खण सक्कइ जं सा ससि वयणि दप्पणि मुह न पलोअर तिंभणि मय - नयणि ||
वइरिउ मणि मन्नवि कुसुम-सरु, खणि खणि सा बहु उत्त । अच्छरिउ रूव-निहि कुसुम - सरु, तुह दंसणु जं अहिलसइ ||
('कविदर्पण ं मां कलयंठि-गिर ं अने 'मन्निवि पाठ छे ते वधु सारा छे. छेल्ली पंक्तिमा कुसुम - सर एवो पाठ जोईए, ते संबोधन होवाथी ).
'हुं मानुं छं के ते मुग्धा कोकिलनो पंचम सूर सांभळवाथी डरे छे, अने ते कारणे ज ते कोकिलकंठी पोते कशुं ज बोलती नथी. ए चंद्रवदना चंद्र जोई शकती नथी, ते कारणे ए दर्पणमा पोतानं मुख जोती नथी. मनमा रहेला कंदर्पने शत्रु मानीने ते क्षणे क्षणे घणो त्रास पामी रही छे, ने तेम छतां ए एक अचरज छे के हे रूपनिधि कंदर्प, ए तारं दर्शन करवानी अबळखा सेवे छे. '
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हवे दसमी शताब्दीमां रचायेली धनंजयना दशरूपक उपरनी धनिकनी अवलोक टीकानी एक हस्तप्रतमा चोथा प्रकाशनी ६६मी कारिका उपरनो जे पाठ मळे छे तेमा प्रवासविप्रयोगमा प्रवासचर्चान नीचे एक उदाहरण मळे छे. (ए ज पद्य ई.स. १२५८ मां रचायेल जल्हणकृत 'सूक्तिमुक्तावलि मां पण मळे छ) :
नीरागा शशलांछने मुखमपि स्वे नेक्षते दर्पणे त्रस्ता कोकिलकूजितादपि गिरं नोन्मुद्रयत्यात्मनः । चित्रं दुःसह-दुःख-दायिनि कृत-द्वेषाऽपि पुष्पायुधे मुग्धा सा सुभग ! त्वयि प्रतिकलं प्रेमाणमापुष्यति ।।
स्पष्टपणे आ बे अपभ्रंश अने संस्कृत पद्योमान कोई एक बीजानो चोख्खो अनुवाद ज छे. कयु पूर्ववर्ती अने कयु पश्चाद्वर्ती एनो निर्णय दुष्कर छे.
आनुषंगिक नोंध : उपर छंदोनुशासन मां आपेलां जे द्विभंगीप्रकारोनां उदाहरणोनो निर्देश कर्यो छे तेना प्रा. वेलणकरना संपादनमां आपेला पाठमां केटलाक सधारा करवा इष्ट छे. ते नीचे प्रमाणे छ :
१. त्रीजा प्रकारनं उदाहरण : पहेली पंक्तिमा किनरि विक्खरहि ने बदले कि न रि विक्खिरहि (पाठांतर) जोईए.
२. चोथा प्रकारनं उदाहरण : उपर सूचव्यं छे तेम बीजी पंक्तिमा कलयंठि-गिर (कविदर्पण नो पाठ) अने मन्निवि (पाठांतर) जोईए, अने अर्थने अनुसरीने कुसुमसर जोईए.
३. पांचमं उदाहरण : पहेली, त्रीजी अने पांचमी पंक्तिने आरंभे जइ अ के जइ छे त्यां जइअ (= यदा) जोईए. आने एक पाठांतरनं पण समर्थन छे. टीकाकारे पण संपादकनी जेम यदि अर्थ कर्यो छे ते वरावर नथी. सिद्धहेम८-४-३६५ नीचे यदाना अर्थमां प्राकृतमा जाहे, जाला, जइआनो प्रयोग थतो होवार्नु नोंध्यु छे.
बीजी पंक्तिमा कुसुमदलम्मि पाठ करता दलग्गि पाठ वधु सारो छे. पांचमी पंक्तिमां वयणगुंफने बदले उकार जाळवतो वयणगुंफ पाठ वध सारो रे..
४. छठं उदाहरण : करिहि ने बदले करहि, इच्छि मन्छ इ पणयमुहं ने बदले इच्छि म इच्छि पणयउ-सुहु (कविदर्पण नो पाठ), अने अंतिम क्ति माणिक्किमणंसिणि करिव वलु, हेल्लि खेल्लि ता जूउ तुहं ने बदले माणिक्कि मणंसिणि करि ठवलु, हेल्लि खेल्लि ता जूउ तुहं जोईए. आ छेल्ली पंक्तिनो अर्थ टीकाकार पण खोटा पाठने कारणे समज्यो नथी. तेणे तदा हे हस्तिगमने प्रणतमुखं भर्तृमुखं इच्छि दृट्वा हे मानक-मनस्विनी हे सखि बलं अपि कृत्वा क्रीडितुं युक्तं तव । एवो अर्थ को छे, जे तद्दन प्रान्त छे. मानम् एकं (श्लेषथी माणिक्यम्) हे मनस्विनि कृत्वा दायम्, हे सखि रमस्व तावत् द्यूतं त्वम् । अहीं ठवलु एटले 'जुगारनी बाजीमा जे होडमा मुकाय ते, दाव. ए अर्थमा ठउलु
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शब्दनो प्रयोग स्वयंभूकृत उमचरिउ मां पण मळे छे. त्यां पण रणभूमिने शारिपट्टनं उपमान आपीने तेमां जीवनने होडमा मूकवानुं रूपक छे.
५. सातम उदाहरण : त्रीजा पंक्तिमा ल्हसडउ ने बदले ल्हुसडउ (= लुण्टाकः) जोईए. छेल्ली झुलक्कड़ ने बदले झुलुक्कउ जोईए. (आठमा उदाहरणनी बीजी पंक्तिमा ए ज पाठ छे.)
६. आठम उदाहरण : सहि इ ने बदले सहिइ जोईए. छेल्ली वे पंक्तिनो अर्थ टीकाकार समज्यो नथी. तुहने बदले तह, मयणबाणवेयण कलह ने बदले मयणबाण - वेयण-- कलहि अने तुलहने बदले तुलहि पाठ जोईए. “हे तन्वंगी, तं जेमा मदनवाणनी वेदना छे तेवा प्रेमकलहमा लथडती पड नहीं. हे मानिनी, वल्लभ साथेनु मान तजी दे, तारा प्राणनी संशयतुला उपर चड नहीं.
___७. नवमुं उदाहरण. पांचमी पंक्ति. पयड धाइने वदले पयडत्थय (कविदर्पण नो पाठ) जोईए.
८. दसमुं उदाहरण बीजी पंक्तिमा पहिल्लय ने बदले पहल्लिय (पाठांतर)अने छेल्ली पक्तिमां जाइ जाय' ने बदले जाइजाय' जोईए ।
(५). काव्य-गुंफ काव्य रचवानी क्रिया-प्रक्रिया माटे संस्कृत काव्य अने काव्यशास्त्रनी परंपरामां वस्त्र गूंथवा के वणवानं उपमान घणं जाणीतं छे. संस्कृत काव्यशास्त्रमा काव्यनी रचना अने बंध विशेनी चर्चामा गुंफ संज्ञा वपराई छे. गुंफ नामना अलंकारमा वर्ण, अर्थ, पद, वाक्य वगेरेनी विशिष्ट पसंदगी अने क्रममा गोठवणी करवानो ख्याल समाविष्ट थयो छे. राघवने शृंगारप्रकाश ना पोताना अध्ययनमा आ विषय विगते चर्को छे.
अनामि काव्य-शशिनं विततार्थ-रश्मिम् ।
('अर्थरूपी किरणोना विस्तारवाळो काव्यरूपी चंद्र हं गूंथी रह्यो छं)ए चरण जो के वामने (अने तेने अनुसरीने मम्मटे), उपमादोषो गणावता, सादृश्य निराधार होवाथी उत्पन्न थता अनौचित्य-दोषना उदाहरण तरीके आप्यं छे, तो पण तेमां काव्य गूंथवानी वातनो उल्लेख छ ए नोंधवं घटे.
आ संदर्भमा प्रभाचंद्रकृत प्रभावकचरित मां आपेल हेमचंद्रसूरिचरितमां मळतं (पृ. १९०) तत्कालीन देवबोध कविन नीचे पद्य पण नोंधपात्र छे. ए एक अन्योक्ति छे. वाच्यार्थ छे -गामठी वणकर, तेनाथी वणातां वस्त्र, अने वस्त्र पहेरनारी सुंदरी. गम्यार्थ छे - कवि, रचातां काव्यो अने सहृदय भावको.
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भ्रातर् ग्राम - कुविन्द कन्दलयता वस्त्राण्यमूनि त्वया गोणी - विभ्रम- भाजनानि बहुशोऽप्यात्मा किमायास्यते : अप्येकं रुचिरं चिरादभिनवं वासस्तदासूत्र्यते
यन् नोज्झन्ति कुच - स्थलात् क्षणमपि क्षोणीभृतां वल्लभाः ॥
'हे भाई ! गामठी वणकर, आवां गुणपाट समां ढगलाबंध वस्त्रों वणीने तुं शा माटे नकामुं कष्ट वेठी रह्यो छे ? तुं जोईए तेटलो समय लईने पण मात्र एक ज एवं सुंदर अवनवुं वस्त्र वण ने, जे मानीती राजराणीओ पोताना कुचप्रदेश परथी क्षणमात्र पण अळगुं न करे !
भोजचरित्रमां आपेला एक प्रसंगमां कांईक एत्रा ज तात्पर्यवाळा अने रचनाचातुरीवाळा नीचेना पद्य प्रत्ये शीलचंद्रविजयजीए मारं ध्यान दोर्य
:
काव्यं करोमि न च चारुतरं करोमि यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि । भूपालमौलिमणिलुण्ठितपादपीठ !
हे साहसाङ्क ! कवयामि वयामि यामि ।।
'हुं काव्य करं छं, पण ते सुंदर बनतं नथी प्रयास करुं हुं तो (कदीक) सुंदर बनी आवे छे. जेना पादपीठ पासे (नमता सामन्त राजवी ओना ) मुकुटमणि आळोटे छे (आमथी तेम गति करे छे) एवा हे साहसांक, हुं काव्यरचना करं छं, वस्त्र वणुं हुं, जउं छु.
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सिद्धहेम शब्दानुशासन प्राकृत अध्यायनां उदाहरणोना मूळ स्रोत
- हरिवल्लभ भायाणी प्राकृत अध्यायमां निरूपित प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिकापैशाची अने अपभ्रंश भाषाना व्याकरणना नियमोने उदाहृत करवा हेमचंद्राचार्ये प्रचलित साहित्यमाथी उदाहरणो प्रस्तुत करेलां छे.
ए स्वयं पसंद करेलां होय, अथवा तो पूर्ववर्ती प्राकृत व्याकरणोमाथी अपनावेलां होय (वररुचि, चंड, नमिसाधुन अने कदाच लुप्त थयेल स्वयंभूव्याकरण एटलां तो आपणे आधारभूत होवानो संभव चींधी शकीए) । एमां आपणने हाल मळतां प्राकृतअपभ्रंश साहित्यमांथी ए उदाहरणोनां यथाशक्य मूळ शोधवानो प्रयास अनेक कारणे मुश्केल बने छे. एक तो केटलीक मूळ कृतिओ लुप्त थई गई होय; बीजं, प्राकृत साहित्य अतिशय विशाळ होवाथी पण ए काम विकट बने; त्रीजं, ज्यां उदाहरण मात्र एक-वे शब्दनुं होय त्यां तेने बीजेथी ओळखवान असंभवप्राय गणाय. तेम छतां एवो प्रयास घणो मूल्यवान ए रोते गणाय के ते द्वारा हेमचंद्राचार्यना समय सुधीमा जे प्राकृत-अपभ्रंश साहित्य शिष्टमान्य लेखातुं हतुं तेनुं चित्र आपणने प्राप्त थाय.
आ दिशामां आ पहेलां थयेला केटलाक प्रयासोनी ऊडती नोंध लईए तो वेबरे १८८१ मां पोतानी हालना सप्तशतक (= गाथा-सप्तशती)नी आवृत्ति उपरनी नोंधोमां 'सिद्धहेम मा उदधृत थयेल केटलाक शब्दो - खंडो ओळखाव्या छे. पिशेले पोताना प्राकृत व्याकरणमा सि. हे. ना घणाखरा शब्दो नोंध्या छे, अने केटलेक स्थळे मूळ स्रोत दर्शाव्या छे. नीती दोल्चीए तेमना फ्रेन्च भाषामां लखेला The Prakrita Grammarians, १९३८ (प्रभाकर झा कृत अंग्रेजी अनुवाद, १९७२ )मा वररुचिथी लईने पौर्वात्य संप्रदायना प्राकृत व्याकरणकारोनी साथे सिद्धहेम' ना प्राकृत विभागनी तुलना करीने समान सूत्रो अने उदाहरणो विगते दर्शाव्यां छे. (आमाथी रुदटकृत "काव्यालंकार" उपरना नमिसाधुना टिप्पणमा आपेल प्राकृत व्याकरणनी रूपरेखा अने सि. हे. ना प्राकृत विभाग वच्चेनी समानता दर्शावतो अंश, आपेल परिशिष्टमां उद्धृत कर्यो छे.)
ए पछी सि. हे. ना अपभ्रंश विभागना अनवादमां में केटलांक अपभ्रंश उदाहरणोना मूळ स्रोत, के समान्तर भावार्थवाळां उद्धरणो संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश
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साहित्यमाथी तथा उत्तरकालीन जूनी गुजराती, हिंदी, वगैरेमाथी आपेला'. ते पछी मुनि वज्रसेनविजये प्राकृतअध्यायनी तेमनी आवृत्तिमा एक परिशिष्टमां, प्रत्येक पादनां सूत्रवार जे उदाहरणो आपेलां छे, तेमाथी घणांनी सूचि आपी छे, अने तेमांथी जेटलांनां मूळ स्थान तेमने मळ्यां, तेटलां दर्शाव्यां छे. में आपेली अपभ्रंश उदाहरणोने लगती माहितीनो पण तेमणे समावेश कर्यो छे. परंतु तेमनी अधूरी उदाहरण-सूचि पूरी करीने बने तेटलां वधु मूळ स्थानो शोधवा माटे घणो अवकाश छे. शौरसेनी अने मागधी उदाहरणो घणां ओछी होवाथी तेमना पूरतं आवं काम प्रमाणमां ओछो श्रम मागो ले तेम छे. पैशाची अने चूलिकापैशाचीनां कोई मूळ स्रोत बच्या न होवाथी तेमने माटे कशो श्रम लेवानो अवकाश नथी. बाकी रहेलां सामान्य प्राकृतनां उदाहरणोनां मूळ शोधवा सारी एवी महेनत करवानी रहे छे. 'गाथासप्तशती', 'हरिविजय, 'वज्जालग्ग, 'सेतुबंध, 'गउडवहो, 'लीलावईकहा, 'तारागण वगेरे प्राकृत कृतिओ उपरांत अलंकार-ग्रंथोमां उद्धृत प्राकृत उदाहरणो (त्रणेक हजार जेटलां शुद्ध करीने, डॉ. कुलकर्णीए The Prakrit Verses in Works on Sanskrit Poetics मां आपेल छे.) पण जोवां जोईए. प्रस्तुत प्रयासने आगला प्रयासोनी एक पूर्ति तरीके गणवानो छे.
नीचे मख्य प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, अने पैशाची(चूलिका पैशाची)नां सि. हे. मां आपेलां उदाहरणोनी सूची भाषाभेद अनुसार वर्णानुक्रमे आपी छे. तेमाथी जेनो मूळ स्रोत ओळखी शकायो छे ते त्यां दर्शाव्यो छे. अपभ्रंश उदाहरणोना मूळ स्त्रोत विशे मारा अपभ्रंश व्याकरणमां विवरण आप्यं छे.
नीचेनी सूचीमांथी क्रमांक २, ८, १८, २२, ३४, ३४ क, ३५, ३६, ४५, ५०, ५१, ७०, ७४, ७५, ९५, १०१, १०२, १०६, १११, १२०, १२१, १२२, १३०, १४१, १४२, १५६, १६७, १७०, १७५, १७६, २०६, २१५, २२०, २२१, २२६, २३१, २३२, २४०, २४३, २४७, २५९, २६८, २७१, अने २९७ नां मूळ वज्रसेन विजयजीना 'प्राकृत व्याकरण मां दर्शावेलां छे. क्रमांक २२२, २३९, २५५, २५८, २५९, २६०, २६५, २७२, २७७, २७८, २७९, २८८, २९२, २९५ एटलांना मूळ स्रोत प्रा. विजय पंडयाए खोळी काढ्या छे. बाकीना में ओळखाव्या छे. (गा. = वेबर संपादित सप्तशतक' = 'गाथासप्तशती.)
१. अपभ्रंश व्याकरणनी नवी आवृत्तिमा पचासेक आवां उद्धरणो उमेर्या छे.
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मुख्य प्राकृत (८-१-१ थी ८-४-२५९)
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अइ उम्मत्तिए १-१६९ अइ दिअर किं न पेच्छसि २-२०५
___ गा. ५७१ (प्रथम दल, आरंभनी १२ मात्रा) अइ सप्पइ पंसलि णीसहेहिं अंगेहिं पनरुत्तं २-१७९ अज्ज म्मि हासिआ मामि तेण ३-१०५
गा. २६४ (प्रथम दल, आरंभनी १६ मात्रा) अज्ज वि सो सवइ ते अच्छी १-३३ अणचिंतिअममुणंती २-१९०
____ 'तारागण, ७१ (प्रथम दल, आरंभनी १२ मात्रा) अट्ठारसण्हं समण-साहस्सीणं ३-१२३ अणुवद्धं तं चिअ कामिणीणं २-१८४ अत्थालोअण-तरला वगेरे १-७
'गरुडवहाँ ८६. अप्पणिआ पाउसे उवगयम्मि ३-५७ अप्पणिआ य विअड्डि खाणिआ ३-५७ (वैतालीयन सम चरण) अम्मो कह पारिज्जइ २-२०८ अम्मो भणामि भणिए ३-४१
सरखावो : अत्ता भणामि भणिए : गा० ६७६मा ‘भणिए
भणामि अत्ता (बीजा दलनी आरंभनी १२ मात्रा)नं पाठांतर. अरे मए समं मा करेस उवहासं २-२०१ अलाहि किं वाइएण लेहेण २-१८९ अव्वो किमिणं किमिणं २-२०४ अव्वो तह तेण कया वगेरे २-२०४ अव्वो दलंति हिअयं २-२०४ अव्वो दुक्कर-कारय २.२०४ गा० २७३ अव्वो न जामि छेत्तं २.२०४ गा. ८२१
(पहेला दलनी आरंभनी १२ मात्रा) अव्वो नासेंति दिहिं वगेरे २-२०४ अव्वो सपहायमिणं वगेरे २-२०४ अव्वो हरंति हिअयं वगेरे २-२०४ गा. ५४१. असाहेज्ज देवासुरा १-७९
*
::
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२५.
२८क.
अह कमलमही ३-८७
अह णे हिअएण हसइ मारुय-तणओ ३-८७ २५क.
अह पेच्छइ रहुतणओ ४-४४७
'सेतुवन्ध २-१ (पूर्वार्धनी आरंभनी १२ मात्रा) अह मोहो पर-गण-लहुअयाइ ३-८७
अहयं कय-प्पणामो ३-१०५ २८. अहवायं कय-कज्जो ३-७३ .
अहो अच्छरिअं १-७ 'रत्नावली, त्रीजा अंकमां ११ मा पद्य पछी वासवदत्तानी उक्तिमां ) अंकोल्ल-तेल्ल-तप्पं १-२०० अंगे चिअ न पहुप्पइ ४-६३
अंतावेई १-४ ३२. अंतेउरे रमिउमागओ राया ३.१३६
अंतो वीसंभ-निवेसिआणं १-६० आउंटणं १-१७७
आउंटणाए (आवश्यक सूत्र, प्रतिक्रमणाध्ययन २-२०) ३ ४क. ३४क.
आभासइ रयणीअरे ४-४४७
_ 'सेतबन्ध ११-३४ (पाठ. 'आहासइ अ णिसिअरे : पूर्वार्धनी आरंभनी १२ मात्रा) आम बहला वणोली २--१७७.
गा० ५७८ (प्रथम दल, आरंभनी १२ मात्रा) आरण्ण कंजरोव्व वेलनो १-६६
___ 'सेतुबन्ध ८.५९ आलेठ्ठअं १-२४ आहिआई १-४४
गा. २४ (अंतिम ७ मात्रा. पाठांतरो-आहिजाईए,
आहियाइए, अहिजाइए) इअ जंपिआवसाणे १-९१ इअराइं जाण लहुअक्खराइं पाअंतिमिल्ल सहिआण ३-१३४
_ 'वृत्तजातिसमुच्चय १-१३ (गाथार्नु पूर्व दल) इअ विअसिअ-कुसुमसरो १-९१ इअ विंझ-गुहा-निलयाए १-४२ __'गरुडवहों-३३८ (पूर्व दलनी आरंभनी १३ मात्रा)
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इमिआ वाणिअ-धूआ ३-७३ इहरा निसामन्नेहि २-२१२ उअ निच्चल-निप्फंदा २-२११
गा० -४ (पूर्व दलनी आरंभनी १२ मात्रा) उन्नम न अम्मि कविआ ३--१०५ उप्पज्जते कइ-हिअअ-सायरे कव्व-रयणाई ३-१ ४२.
‘वज्जालग्ग, १९ (उत्तर दल) उम्मीलंति पंकयाई ३-२७ । उवकंभस्स सीअलत्तणं ३-१० उवमास अपज्जतेम वगेरे. १-७
_ 'गरुडवहों-१८८ उसभमजिअं च वंदे १-२४
_ 'आवश्यक-सूत्र, चतुर्विशतिस्तव-२ ऊ कह मुणिया अहयं २-१९९ ऊ किं मए भणिअं २-१९९ ऊ केण न विण्णायं २-१९९ ऊ निलज्ज २-१९९ एअं खु हसइ २-१९८
गा० ६ (पाठांतर-उत्तर दलनी आरंभनी ६ मात्रा) एवं किल तेण सिविणए भणिआ २-१८६ एवं दोण्णि पहू जिअ-लोए ३-३८ एस सहाओ च्चिअ ससहरस्स ३-८५ ऐ बोहेमि १-१६९ ओ अविणय-तत्तिल्ले २-२०३ ओ न मए छाया इत्तिआए २-२०३ ओमालयं वहइ १-३८. |
गा० २-९८ (उत्तर दलनी अंतिम १० मात्रा : पाठ०
ओमालिय) ओ विरएमि णहयले २-२०३ कल्लं किर खर-हिअओ २-१८६ गा० ८६. (पूर्व दलनी आरंभनी १२ मात्रा) किणो धवसि २-११६. गा० ३६९; 'प्राकृतप्रकाश, ९-९
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६६.
६६क. ६७.
६८.
६८क.
६९.
७१.
७१क.
७३क.
किलित्त-कसमोवयारेस १-१४५ किं उल्लावेंतीए वगैरे २-१९३ किं पम्हुट्ठम्हि अहं ३-१०५ कुंकुम-पिंजरयं २-१६८ केलि-पसरो विअंभइ ४-१५७ को ख एसो सहस्स-सिरो २-१९८ खासियं १-१८१ 'आवश्यक-सूत्रं कायोत्सर्गाध्ययन खीरोओ सेसस्स व निम्मोओ २-१८२ खेड्डयं कयं वगेरे ४-४२२ गईए णइ २-१८४ गज्जंते खे मेहा १-१८७; ३-१४२ ('कविदर्पण-वृत्ति, पृ. १६, २-१६ पूर्व दलना आरंभनी १२ मात्रा; पादलिप्तसूरिकृत गाथा.) गामे वसामि नयरे न यामि ३-१३५
'सरस्वतीकंठाभरण, ३-१५३ गूढोअर-तामरसाणसारिणी भमर-पंति-व्व १-६
___ 'गउडवहों, १८८ उत्तर दल, 'गाहारयण--कोस-९ गेण्हइ र कलम-गोवी २-२१७ चउवीसं पि जिणवरा ३-१३७
पिशेल-पेरे० ३४, पृ. ३९ चिरस्स मुक्का ३-१३८ चिंचव्व कूर-पिक्का २-१२९
ची-वंदणं १-१५१ छिंछई २-१७४ गा० ३०१ : आअओ अज्ज कुलहराओ त्ति छेछई जारं । (पाठा. छिंछई) जउँणयडं, जउँणायडं १-४ जलहरो खु धूमपडलो खु २-१९८ जहिं मरगय-कंतिए संवलियं ४-३४९ जं चेअ मउलणं लोअणाण २-१९४ जं जं ते रोइत्था ३-१४३ जाइ विसुद्धेण पहु ३-३८
७४क.
७५
७६.
७७.
८१.
८१ क.
८२.
८३.
८४.
[३०]
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________________
जाई वयणाई अम्हे ३-२६
__गा० ६५१ (पूर्व दलना आरंभनी १२ मात्रा) जाला ते वगेरे १-२६९ (जओ क्रमांक-९८) जिण्णे भोअणमत्तेओ १-१०२ 'आवश्यकसूत्र-चूर्णि (अनुष्टुभ्नं प्रथम चरण) जम्हदम्ह-पयरणं १-२४६ जेण हं विद्धा ३-१०५ तद्दिअस निहट्ठाणंग २-१७४ तरिउं ण हु णवर इमं २-१९८ तस्स इर २-१८६ तह मन्ने कोहलिए १-१७१ गा० ७६८ (उत्तर दलना आरंभनी १२ मात्रा) तं खु सिरीए रहस्सं २-१९८ तं तिअस-बंदि-मोक्खं २-१७६ "सेतबन्ध-१-१२ (आरंभनी १२ मात्रा) तं पि हु अच्छिन्न-सिरी २-१९८ ताओ एआओ महिलाओ ३-८६ ताला जाअंति गुणा वगेरे ३-६५ ('ध्वन्यालोक बीजो उद्योत, बीजं उदाहरण; आनंदवर्धनकृत 'विषम बाणलीला मांथी; 'काव्यप्रकाशमां पण उद्धृत; गा. ९८९) तिरिच्छि पेच्छइ २-१४३ तिसु तेसु अलंकिया पुहवी ३-१३५ तिस्सा मुहस्स भरिमो ३-१३८ ते च्चिअ धना वगेरे २-१८४ 'स्वयम्भूच्छन्दस १-१-५; 'परमप्पपयास २-११७ मां उद्धृत तेसिमेअमणाइण्णं ३-१३४ 'दसवेयालिय-सुत्तं ३-१ तो णेण करयल-ट्ठिआ ३-७० थाणणो रेहा २-७ थू निलज्जो लोओ २-२०० दणुइंद-रुहिर-लित्तो वगेरे. १-६
(सरखावो ‘सेतुबन्ध-१०२)
९८क.
१००.
१०१
१०२.
१०३.
१०४.
१०५.
१०६.
[३१]
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________________
१०७.
१०८.
१०९.
११०. १११क. १११.
११२क.
११२.
११३. ११४.
११६.
११७.
दर विअसिअं २-२१५ दरिअ-सीहेण १-१४४ गा० १७५ ('ध्वन्यालोक मां उद्धृत) दासो वणे न मुच्चइ २-२०६ दिअ-भूमिसु दाण-जलोल्लिआई ३-१६ दिठिक्क-थणवठं १-८४
वालसंगो १-२४४ 'नंदिसत्त-११५ दुस्सहो विरहो १-११५ दुहावि सो सुर-वहू-सत्थो १-९७ दहिअए राम-हिअए २-१६४ दे आ पसिअ निअत्तसु २-१९६ दे पसिअ ताव संदरि २-१९६ देवं-नाग-सवण्ण १-२६ 'आवश्यक-सूत्र', श्रुतस्तव देविंदो इदमब्बवी ३-१६२ 'उत्तरज्झाया, नमिपवज्जा दोण्णि वि न पहप्पिरे बाहू ३-१४२ धणस्स लद्धो ३-१३४ धरणीहर पक्खुम्भंतयं २-१६४ 'सेतबन्ध २-२४ (गलितकना बीजा चरणनी पाछळनी १५ मात्रा) धारा-किलिन्न-वत्तं १-१४५ 'गरुडवहो, ४१० (प्रथम दलनी आरंभनी १२ मात्रा) धीरं हरइ विसाओ १-१५५ 'सेतबन्ध ४-२३ (पूर्वार्धनी आरंभनी १२ मात्रा) न उणाइ अच्छीई २-२१७ नच्चावियाई तेणम्ह अच्छीई १-३३ नत्थि वणे जं न देइ विहि-परिणामो २-२०६ न मरं ३-१३४ नमिमो हर-किरायं १.१८३ 'गरुडवहीं, ३५ (उत्तर दलनी अंतिम ११ मात्रा) नयरे न जामि ३-१३५
११८. ११९.
१२०
०१२१.
१२२.
१२२क.
१२३.
१२४.
१२५.
१२६.
१२६क.
[३२]
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________________
१२८.
१२९.
१३०.
१३३. १३४. १३५.
१३६क.
१३७क. १३८.
नवर पिआई चिअ निव्वडंति २-१८७ णवरि अ से रहवइणा २-१८८ 'सेतुवन्ध, १५-७९ (पाठ० : सो. पूर्वार्धनी आरंभनी १२ मात्रा) णवि हा वणे २-१७८ न वेरि-वग्गे वि अवयासो १-६ 'गरुडवहीं - २२० (उत्तरदलनी अंतिम १५ मात्रा) न ह णवरं संगहिआ २-१९८ निअंव-सिल-खलिअ-वीइ-मालस्स १-४ निएइ कह सो सकम्माणे ३-५६ निज्जिआसोअ-पल्लविल्लेण २-१६४ निठ्ठो जं सि ३-१४६ निसमणप्पिअ-हिअस्स हिअयं १-२६९ निस्सहाई अंगाई १-९३ नीलप्पल-माला इव २-१८२ नीसासूसासा १-९ पणवह माणस्स हला २-१९५ गा० ८९३ (पूर्वदलनी आरंभनी १२ मात्रा) परदक्खे दक्खिआ विरला २-७२ (उत्तर दलनी अंतिम १५ मात्रा) परिअड्ढइ लायण्णं ४-२२० पहीण जरमरणा १ -१०३. 'आवश्यक सूत्र, चतुर्विंशतिस्तव ५ (पूर्व दलनी अंतिम १० मात्रा) पंथं किर देसित्ता १-८८ 'आवश्यक-नियुक्ति १४६ पिअ-वयंसो हिर २-१८६ पिट्ठि-परिट्ठविअं १ -१२९ पिट्ठिए केस-भारो ३-१३४ पनामाई वसंते १-१९० बले पुरिसो धणंजओ खत्तिआणं २-१८५ बले सीहो २-१८५
१३९.
१४०.
१४१.
१४२.
१४३.
१४४.
१४७
१४८.
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________________
१४९. १५०.
१५१.
१५१क.
१५२. १५२क.
१५४.
१५५.
१५६.
१५७. १५८. १५९.
१६०.
१६१. १६२.
बहु-जाणय रुसिउं सक्कं ३-१४१ बंधेउं कुज्जय-पसूणं १-१८१ बाह-सलिल-पवहेण उल्लेइ १-८२ गा० ५४१ (पाठा० णिवहेण ओल्लेइ : उत्तरदलनी अंतिम १७ मात्रा) विसतंतु-पेलवाणं १-२३८ वीहते रक्खसाणं च ३-१४२ भणिअं च णाए ३-७० भमर-रुअं जेण कमल-वणं २-१८३ भमररुअं तेण कमल-वणं २-१८३. भुआ-यंत, भुअ-यंतं १-४ भोच्चा सयलं पिच्छिं वगेरे 'शान्तिनाथचरित्रं माथी मइ वेविरीए मलियाई ३-१३५ मउअत्तयाइ २-१७२ मलय-सिहर-खंडं २-९७ महण्णव-समा सहिआ १-२६९ मह पिउल्ला ओ २-१६४ महमहइ मालई ४-७८ महमहिअ-दसण-किसरं १-१४६ महरे-व्व पाडलिउत्ते पासाया २-१५० मंदरयड-परिघटुं २-१७४ माई काहीअ रोसं २-१९१ मामि सरिसक्खराण-वि २-१९५ गा० ८५० (प्रथम दलनी आरंभनी १२ मात्रा) मुद्ध-विअइल्ल-पसूण-पंजा १-१६६ 'कर्पूरमंजरी, १-१९ : वसंततिलकाना छेल्ला चरणना अंतिम ११ अक्षर
रे हिअय मडह-सरिआ २-२०१ गा० १०५ (प्रथम दलनी आरंभनी १२ मात्रा) लज्जालुइणी २-१७४ गा. १२७ (प्रथम दलनी आरंभनी १२ मात्रा : अहअं लज्जालुइणी) लोगस्सज्जोअगरा १-१७७ 'आवश्यक सूत्र, चतुर्विशति-स्तव १
[३४]
१६३क.
१६४.
१६५.
१६६.
१६७.
१६८.
१६९.
१७०.
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________________
७१.
१७२.
१७३.
१७४.
१७५.
१७६.
१७७.
१७८.
१७९.
१८०.
१८१.
१८२.
१८३.
१८४.
१८५.
१८६.
१८७.
१८८.
१८९.
१९०.
वक्कंतरेसु अ पुणो २-१७४ वच्छेहिं कया छाही ३ - ७.
वड्ढइ पवय- कलयलो ४-२२०
वणे देमि २- २०६
बहुआई नहुल्लिहणे वगेरे.
बहुआइ नहुल्लिहणे आबंधंतीए कंचुअं अंगे । मयरध्दय-सर- धोरणि-धारा-छेअ-व्व दीसंति ॥
वंदामि अज्ज - वइरं १-६
'नंदिसूत्र
वंदे उस अजिअ १-२४
१-३६
वामेअरो बाहू
वारीमई, वारिमई १-४
'लीलावई - कहा - ४२३ ( उत्तरदल) : ससिमणि घडिया वाउल्लियव्व वारीमई जाया; 'गाहारयणकोस' - ३२९: पाठा० सा तस्स) दिट्टीए तस्स ससहर - कर-सलिल झलझला सलोणाए बाला ससिमणि-धीउल्लिय-व्व सेउल्लिया जाया ॥ (सुभासिय पज्जसंगहो, ३)
२१२०
वासेसी १-५
विअड-चवेडा - विणोआ १-१४६
विद्ध-कइ-निरूविअं २-४०
सरखावो 'वृत्तजातिसमुच्चय, २, ८ : वुड्ढ - कइ-निरूवियं विसयं विअसंति अप्पणो कमल-सरा २- २०९
विससिज्जंत महा - पसु वगेरे १-८ 'गरुडवहों' ३१९
विहवेहिं गुणाई मग्गति १-३४
'गरुडवहों, ८६६ (पाठ० : विहवाहि गुणे विमग्गति : उत्तरदलनी
अंतिम १५ मात्रा) . वेलूवणं, वेलुवणं १-४ वेव्व गोले २ - १९४
वेळवे त्ति भए वगेरे २-१९३
वेवे मुरंदले वहसि पाणिअं २-१९४.
वोदह - द्रहम्मि पडिआ २-८०.
[३५]
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________________
ते च्चिअ सहआ ते च्चिअ, सप्परिसा ते जिअंत जिअलोए । वोदहि-दहम्मि पडिआ, तरंति जे श्वेअ हेलाए । ('स्वयम्भूच्छन्दस्, पूर्वभाग १-१-५; विदग्ध-कवि-कृत)
आ गाथा ‘परमप्पपयास मां उद्धृत करेल छे (२-१२७). त्यांना पाठांतर : ते च्चिय धन्ना; ते जियंत, वोद्दह-दहम्मि; लीलाए.
'छन्दोनुशासन मा पण (१-७-६)मा, लघु अक्षर पछी 'हू आवे त्यारे प्राकृत छन्दमां ते गरु नथी थतो तेनां वे उदाहरण आपेला छे. 'वोदह-दहम्मि पडिआ, अने 'कवलय खित्त दहि. आमाथी पहेला उदाहरण उपरना ‘पर्याय-टिप्पण मां पूरी पद्यो आपेलां छे. तेमाथी उपर्यक्त गाथानां पाठांतर : ते च्चिअ पंडिआ ते जयंति; 'लीलाए. वळी 'वोदहदहम्मिनो अर्थ 'ग्रामीण-तरुण-समूह-हदें ए प्रमाणे आप्यो छे. परंतु 'वोदहि पाठ वध सारो छे. वीजा पद्यनो पर्याय-टिप्पण मां आपेलो पाठ घणे स्थाने भ्रष्ट छे. तेना शुद्ध पाठ माटे जुओ वा. म. कुलकर्णी PRAKRIT VERSES IN SANSKRIT WORKS ON POETICS भाग-१, मां शुद्ध करेल अपभ्रंश उदाहरणोनी सूचि, परिशिष्ट१, क्रमांक-४१ . ए पद्या भोजकृत सरस्वतीकंठाभरण तथा शृंगारप्रकाश मा उदधृत थयेल छ. पण बंने स्थळे 'दहिं ने वदले हस्तप्रतोमा 'दहिं -एम र-कार वगरनो पाठ मळे छे. मूळ पाठ 'छन्दोनुशासन मा सचवायो छे.
शृंगारप्रकाश पृ. ८९३ उपर उद्धृत एक गाथामां पण 'वोदह शब्द मळे छे. __गामे वादह-पररम्मि (कलकर्णीनं उपर्युक्त पुस्तक, २, पृ. ४३७, क्रमांक, ३०) १९१. सच्च य स्वेण सच्च 4 सीलेण २-१८४ १९१क. मणियमवगूढो २-१६८
सत्तावीसा १ -४ १९२क. सद्दहमाणो जीवो ४-९
सभिक्ख १-११ ‘उत्तरझाया-सत्त, ययन १५ सयं चेअ गणसि करणिज्ज २-२०९ ।।
गा० ८५१ (उत्तरदल अंतिम १५ मात्रा) १९४क. सव्वस्स वि एस गइ ३-८५
१९५. सञ्चंग-सिज्जिरीए ४-२२४ । १९५क. सहि एरिसि च्चिअ गई २-१९५.
गा० १० (प्रथम दल, आरंभनी १२ मात्रा)
साऊअयं १-५ १९७.
सालाहणी भासा १-२११
१९२.
[३६]
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________________
१९९.
२००.
२०१.
२०१ क.
२०२.
२०३.
२०४.
२०४क.
२०५.
०२०६.
सिक्खंतु वोदहीओ २-८०
गा० ३९२ (उत्तरदल, आरंभनी १२ मात्रा) सीमाधरस्स वंदे ३-१७४
'आवश्यक-सूत्र, श्रुतस्तव-२ सुअ-लक्खणाणुसारेण २-१७४ सरहि-जलेण कड़एल्लं २-१५५ संदर-सव्वंगाउ विलासिणीओ पेच्छंताण ४-१३८ सूरिसो १०८ सूसइरे गाम-चिक्खल्लो ३-१४२ सोअइ अ णं रहवई ३-७० 'सेतबन्ध, १-४१ (पूर्वार्धना आरंभनी १२ मात्रा) सोसउ म सोसउ वगेरे ४-३६५ हत्थन्नामिअ - मही णं (भणइ) तिअडा ३-७०
___ 'सेतुबन्ध-११-८७ (उत्तरार्धनी अंतिम २० मात्रा) हयं नाणं किया-हीणं २-१०४ 'आवश्यक-निर्यक्ति, १०१ (अनुष्टुभ्नं प्रथम चरण) हरए मह-पुंडरिए २-१२० हरस्स एगा गाई १-१५८ हरिण-ट्ठाणे हरिणंक वगेरे ३- १८० 'गाहारयणकोस, ५५२: २।२० ससहर हरिण-ट्ठाणि जइ, सीह-सिलिंब धरंत । ता दक्कत
तुह राहु जइ, माणुम्मलणु करंतु ।। 'सुभासियगाहा-संगहों, ८८ हरे निल्लज्ज २-२०२ हरे बह-वल्लह २-२०२ हले हयासस्स २-१९५ गा० ४३० : हला हयासस्स : पूर्वदलनी अंतिम ९ मात्रा) हंद पलोएसु इमं २-१८१ गा० २०० (पाठा० गेण्हह/गिण्हइ/गेण्ह; हंद, हंदि, पलोअह) हंदि चलणे णओ वगेरे. २-१८० हंदि चलणे णओ सो ण माणिओ हंदि ... एत्ताहे । हंदि न होही भणिरी सा सिज्जइ हंदि तह कज्ज ॥ हासाविओ जणो सामलीए ३-१५३
२०७.
२०८.
२०९.
२१०. २११.
२१२.
२१३.
२१४.
[३७]
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________________
२१६.
२१७.
२१८.
२१९.
२२०.
२२१.
२२२.
२२३.
२२४.
२२५.
०२११. अनंत - करणीयं दाणिं आणवेदु अय्यो २७७ ('अभिज्ञान शाकुन्तल, पहेलो अंक) अपुरवं नाडयं २७०
२२६.
२२७.
२२८.
२२९.
२३०.
२३१.
२३२.
गा० १२३ ( पूर्वदलनी आरंभनी १६ मात्रा) हिअए ठाइ १-१९९
हुं गेह अप्पणो च्चिअ २-१९७. ('प्राकृतप्रकाश ९-२)
हुं निलज्ज समोसर २ - १९७
गा० ९४६ ( पूर्वदलनी आरंभनी १२ मात्रा) हुं साहस सम्भावं २-१९७
गा० ४५३ पाठ० : सहि साहस सब्भावेण / सब्भावं )
('प्राकृतप्रकाश', ९-२)
हेट्ठ-ट्ठिअ - सूर- निवारणाय वगेरे. ४-४४८
‘गउउवहों, १५.
होइ वणे न होइ २- २०६
शौरसेनी (८-४-२६०थी २८६ )
'अभिज्ञान शाकुन्तल, पहेलो अंक, प्रस्तावनामां पद्य चोथो पछीना नटीना संवादमां)
अम्महे एआए सुम्मिलाए सुपलिगढिदो भवं २८४ अय्यउत्त पय्याकुलीकदम्हि २६६
असंभाविद-सक्कारं २६०
'अभिज्ञान शाकुन्तल, पहेलो अंक, ३० मा पद्य पछी चोथो संवाद; पाठभेद अदिहि-सक्कारं 1)
:
एदु भवं २६५
कयवं करेमि काहं च २६५
किं एत्थभवं हिदएण चिंतेदि २६५
जुत्तं मिं २७९
अफलोदया २८३
णं अय्यमिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्तं २८३ 'अभिज्ञान शाकुन्तल, पहेला अंकमा
णं भवं मे अग्गदो चलदि २८३ 'अभिज्ञान - शाकुन्तल', बीजा अंकमा
[३८]
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________________
२४०.
२४१.
२४२.
२४३.
२४४.
२४५.
२४६.
तदो पू िद-पदिशेण मारुदिणा मंतिदो २६० तधा करेध जधा तस्स राइणो अणुकंपणिआ भोमि २६० ता अलं एदिणा माणेण २७८ ता जाव पविसामि २७८ नमोत्थुणं २८३ (आर्षे) पंजलिदो भयवं हुदासणो २६५ भयवं कुसमाउह २६४
(रत्नावली, बीजो अंक, सातमो सागरिकानो संवाद) भयवं तित्थं पवत्तेह २६४ मघवं पागसासणे २६५ मम य्येव बंभणस्स २८० समणे भयवं महावीरे २६५ 'कल्पसूत्र १ सयल-लोअ-अंतेआरि भयवं हुदवह २६४ संपाइअवं सीसो २६५ सो य्येव एसो २८० हला सउंतले २६० 'अभिज्ञान-शाकन्तल, पहेला अंकमांथी. हंजे चरिके २८१ हीमाणहे जीवंत-वच्छा मे जणणी २८२ 'उदात्तराघवं माथी हीमाणहे पलिस्संता हगे एदेण निय-विधिणो २८२
दुव्वसिदेण २८२
'विक्रान्तभीम माथी हीही भो संपना मनोरथा पिय-वयस्सस्स २८५
मागधी (८-४-२८७ थी ३०२) अमच्च-ल-कशं पिक्खि, इदो य्येव आगश्चदि ।
___ 'मदाराक्षस', चोथो अंक, चोथा पद्य पछीना बीजा संवादमा अम्महे एआए शुम्मिलाए शुपलिगढिदे भवं ३०२ (= २८४) अय्य एशे खु कुमाले मलयकेदू ३०२
२४७. .
२४०
२४९.
२५०.
२५१.
२५२.
२५३.
२५४.
२५५.
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________________
२५६.
२५९.
२६०.
२६१. २६२. २६३.
२६४.
२६५.
२६६.
अय्य किल विय्याहले आगदे २९२
'मदाराक्षस, चोथो अंक, चोथा पद्य पछी वीजो संवाद अले कि एशे महंदे कलयले ३० 'वेणीसंहार त्रीजो अंक, त्रीजा पद्य पछी सोळमो संवाद ) अले किं एशे महंदे कलयले शुणीअदे ३०२ 'वेणीसंहार त्रीजा अंकना. प्रवेशकमां. अले कंभिला कधेहि ३०२ 'अभिज्ञान शाकुन्तल माथी अहंपि भागलायणादो मई पावेमि ३०२ 'मद्राराक्षस पांचमो अंक, प्रवेशकनी अंतिम पंक्ति अहिमञ्ज-कुमाले ३०२ आपन्न-वश्चले २९५ एशे पलिशे २८७ एशे मेशे (२८७) ओशलध अय्या ओशलध ३०२ 'मदाराक्षस, चोथो अंक, चोथा पद्यनी पहेलां कयरे आगच्छइ २८७ करेमि भंते २८७ कं ख शोभणे बम्हणे शि त्ति कलिय ला पलिग्गहे दिण्णे ३०२ 'अभिज्ञान-शाकन्तल, छठ्ठो अंक, पृ. १८२ खय-यलहला २९६ गिम्ह-वाशले २८९ णं अवशलोपशप्पणीया लायाणो ३०२ ।। 'अभिज्ञान-शाकन्तल, छठ्ठो अंक, पृ. १८५ ता कहिं न गदै लहिलप्पिए भविस्सदि ३०२ 'वेणीसंहार', पहेलो अंक, पहेला पद्य पछी त्रीजो संवाद. ता याव पविशामि ३०२ पञ्जा-विशालं २९३ पविशद आवत्ते शामि-पशादाय ३०२ 'अभिज्ञान--शाकुन्तल माथी पोराणमन्द्र-मागह-भासा-निययं हवइ सत्तं २८७ प्रक्खलदि हस्ती २८९ भगदत्त-शोणिदाह कभे २९९ 'वेणीसंहार, त्रीजो अंक, त्रीजा पद्य पछी ५मो सवार
[४०]
२६८.
२६९.
२७०.
तर.
२७२क.
२७३.
२७५.
२७६.
२७७.
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७८.
३७९.
२८०.
२८१.
२८२.
२८३.
२८४.
- २८५.
२८६.
२८७.
२८८.
२८९.
२९०.
२९१.
२९२.
२९३.
२९४.
२९५.
२९६.
२९७.
२९८.
भयवं कदंते ये अप्पणी प=कं उज्झिय पलस्स प=कं पमाणीकलेशी ३०२ 'मुद्राराक्षस' चोथो अंक, २१मा पद्य पछीनो छडो संवाद भीमशेणस्स पश्चादो हिंडीयदि २९९
'वेणीसंहार, त्रीजो अंक, त्रीजा पद्य पछीनो १३मो संवाद भो कंचुइआ ३०२
मालेध वा घलेध वा अयं दाव शे आगमे ३०२
त्तं मं ३०२
लहश - वश - नमिल- शुल- शिल- विअलिद-मंदाल - लायिदंहि-युगे । वील- यिणे पक्खालदु मम शयलमवय्य-यंबालं ॥ २८८
शमणे भयवं महावीले ३०२
शयणाहँ सुहं ३००
शलिशं णिदं ३०२
शस्प-कवले २८९
शुध दाणिं हगे शक्कावयाल-1 ल-तिस्त- णिवाशी- धीवले ३०२, ३०१ 'अभिज्ञान - शाकुन्तल', छट्ठो अंक, प्रवेशक, बीजो संवाद, चोथो
संवाद
शस्क - दालु २८९
शुटु कदं २९०
से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए २८७
'दशवैकालिक सूत्र, अध्ययन ८, गा० ६३, प्रथम चरण
हगे न एलिशाह कम्माह काली २९९
'हगे शक्कावयाल' वगेरे (= ३०२) हगे चदुलिके ३०२
हिडिंबाए धडुक्कय-शोके ण उवशमदि । २९९
'वेणीसंहार, त्रीजो अंक, त्रीजा पद्य पछीनो पांचमो संवाद
हीमाणहे जीवंत / वश्चा मे जणणी ३०२
'उदात्तराघव' : राक्षसनी उक्ति
हीमाणहे पलिस्संता हगे एदेण- णिय-विधिणो दुव्ववशिदेण ३०२ 'विक्रान्तभीम' : राक्षसनी उक्ति
हीही संपत्रा में मणोलधा पिय-वयस्सस्स ३०२
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२९९.
३००.
३०१.
३०२.
३०३.
३०४.
३०५.
३०६.
३०७.
३०८.
३०९.
३१०.
३११.
३१२.
३१३.
३१४.
३१५.
३१६.
पैशाचिक (८-४-३०३थी ३२८)
अध स- सरीरो भगवं मकरधजो एत्थ परिब्भमंतो हुवेय्य ३२३ आ पैशाची 'वृहत्कथा' मांथी होवानी अटकळ करी शकाय. : तौ च दृष्ट्वा तमुत्थाय प्रवौ मदन - शङ्कया । अवोचतां नमस्तुभ्यं, भगवन् कुसुमायुध ॥
सरखावो
('कथासरित्सागर, १३, १०४, १२)
एवं चिंतयमानो गतो सो ताए समीपं ३२२
एवंविधाए भगवतीए कधं तापस-वेस- गहनं-कतं ३२३
एतिसं अतिट्ठ- पुरवं महाधनं तद्धून ३२३ किंपि किंपि हितपके अत्थं चिंतयमानी ३१० तत्थ च नेन कत - सिनानेन ३२२
तं तद्धून चिंतितं रज्ञा का एसा हुवेय्य ३२०
ताव च तीए तूरातो य्येव तिङ्ठो सो आगच्छमानो राजा ३२३ पुधुमतंसने सव्वस्स य्येव संमानं कीरते ३१६
पूजितो च नाए पातग्ग - कुसुम - प्पतानेन ३२२
भगवं यति मं वरं यच्छसि राजं च दाव लोके ३२३
मकरकेतू ३२४
मतन - परवसो ३०७
राचित्रा लपितं ३०८
सगर - पत्त-वचनं ३२४
वतनके वतनक समप्पेतून २.२६४
विजयसेनेन लपितं ३२४
सरखान्रो : सुहृद् विजयसेनो मां सप्रहर्षोऽब्रवीदिदम् । ('कथासरित्सागर, १३, १०४, ३६ )
चूलिका - पैशाचिक (८-४-३२५ थी ३२८ )
पनमथ पनय-पकुप्पित-गोली चलनग्ग - लग्ग - पतिबिंब | तस सु नख - तप्पनेसुं एकातस-तनु-थलं लुद्दं ॥ नच्चं तस्स य लीला-पातुक्खेवेन कंपिता वसुथा 1 उच्छल्लंति समझ सइला निपतंति तं हलं नमथ ।। ३२६
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आ वंने गाथाओ गाथामुक्तावली मां उद्धृत; भोजकृत सरस्वती कंठाभरण मां पहेली उद्धृत (२-४). गाथा मु० मां पाठांतर : ‘पनअ-प्पकुपित; 'कोली; 'पटिबिंब. 'सरस्वतीकंठाभरण उपरनी आजडनी टीकामां पहेली गाथा गुणाढ्यनी वृहत्कथा (= 'वड्डकहा )ना मंगळाचरणनी गाथा होवान जणाव्यं छे. बीजी गाथा पण ते ज संदर्भनी होवाथी तेमाथी होवानो घणो संभव छे. बृहत्कथा नी भाषा पैशाची होवानू जाणीतुं छे. परंतु हेमचंद्राचार्य पासे जे परंपरा हती ते अनुसार ते पैशाचीनो एक प्रकार-चूलिकापैशाचिक के चूलिकापैशाची छे.
परिशिष्ट नित्ती-दोल्चीए पोताना प्राकृत व्याकरणकारो विषेना पस्तकमां नमिसाधना टिप्पणमां आपेल प्राकृत व्याकरणनो सार अने सिद्धहेमनो प्राकृत विभाग - ए बेमा जे समान सूत्रो अने उदाहरणो मळे छे तेनी जे सूची आपी छे, ते अहीं नीचे रजू करी छे.
मागधी नमिसाधु
हेमचंद्र १. रसयोर् ल-शो मागधिकायाम् । रसोर् ल-शौ (२८८)
(रेफस्य लकारो दन्त्य-सकारस्य (मागध्या रेफस्य दन्त्य-सकारस्य तालव्य-शकारः)
च स्थाने तालव्य-शकारः । यथासंख्य
लकारस्तालव्य-शकारश्च भवति ।) २. एत्वमकारस्य सौ पंसि ।
अत एत्सौ पुंसि मागध्याम् (२८७) (एसो पुरिसो : एशे पुलिशे । (एशे पलिशे ।
स्येवैत्वम् : तं शलिलं) पुंसीति किम् : जलं ।) ३. अहं वयमोर् हगे आदेशः । अहं वयमोर् हगे । (३०१)
(हगे शंपत्ते । हगे शंपत्ता ।) (हगे शंपत्ता) ४. जद्ययोर् यकारो भवति । यस्य च । ज-द्य-यां यः (२९२)
(याणदि । याणावदि । मय्यं । (याणदि । यणवदे । मय्यं । अय्य विय्याहले ।)
किल विय्याहले आगदे) ५. क्षस्य स्कोऽनादौ ।
क्षस्य-कः । (२९६) (यश्के । लश्क-शे ।
(मागध्यामनादौ वर्तमानस्य क्षस्यको
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अनादावित्येव । क्षय-जलधर : जिह्वामूलीयो भवति । खय-यलहले इति न स्यात् ।) यके । ल-कशे । अनादावित्येव ।
खय-यलहला । क्षयजलधरा इत्यर्थः।) ६. स्कः प्रेक्षाचक्ष्योः ।
स्कः प्रेक्षाचक्षोः । (२९७) (प्रेक्षाचक्ष्योर् धात्वोः क्षस्य स्कादेशः। (मागध्या प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराक्रान्तः पेस्कदि । आचस्कदि ।)
को भवति । जिह्वामूलीयापवादः ।
पेस्कदि । आचस्कदि ।) ७. छस्य श्चो भवति ।
छस्य श्चोऽनादौ (२९५) (पिश्चिले । आवण्णवश्चले ।) (पिश्चिले । लाक्षणिकस्यापि ।
आपबवत्सल:- आवनवश्चले)
८. सषो : संयोगस्थयोस्तालव्य-शकारः । सषोः संयोगे सोऽग्रीष्मे (२८९) (विश्नू । विहश्पदि । काश्यगालं ।) (मागध्या सकार-षकारयोः संयोगे वर्तमानयोः
सो भवति । ग्रीष्मशब्दे तु न भवति ।
ऊर्ध्वलोपाद्यपवादः।। बहस्पदी । विस्नु ।) ९. अर्थस्थयोः स्थस्य स्तादेशः । स्थ-र्थयोस्तः । (२९१)
(एशे अस्ते । एषोऽर्थ ।) (उवस्तिदे । अस्तवदी । शस्तवाहे) १०. ञ-ण्य-न्य-व्रजिना जो भवति । न्य-ण्य-ज्ञ-जा ञः । (२९३)
अञलि। अञ्जलिः। पुञकम्मे । व्रजोः जः । (२९४) पण्यकर्मा । पजाहं । पण्याहम्। मागध्यां न्य-ण्य-ज्ञ-ञ अहिमञ । अभिमन्यः। कञका । इत्येतेषां द्विरुक्तो जो भवति ।। कन्यका । व्रजेः कृतादेशस्य । वच्चइ अहिममञ-कमाले । कञका वलणं (? वच्चदि) ॥ वञ्जइ - । पुञवंते । पुञ्जाहं । शव्वझे ।
अञ्जली । वञ्जदि ।) ११. तस्य दकारोऽन्ते ।
तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य । (२६०) ('शेषं शौरसेनीवत् । ३०२नी नीचे)
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शौरसेनी नमिसाधु
हेमचंद्र अस्व-संयोगस्यानादौ तस्य दो भवति । तो दोऽनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य । (२६०) (तदो । दीसदि । होदि । अंतरिदं । अधः क्वचित् । (२६१) अस्व संयोगस्येति किम् ? मत्तो (अनादौ वर्तमानस्य । पसुत्तो । स्व-ग्रहणात् - निच्चिंदो। तकारस्य दकारो भवति न चेदसौ अंदेउरं इति स्यादेव । अनादावित्येव । वर्णान्तरेण संयक्तो भवति । तेन तदेत्यादौ न भवति ।) एदाहि । एदाओ । अनादाविति किम् ।
अयुक्तस्येति किम् । मत्तो । अय्यउत्तो। हला सउंतले ॥ महंदो । निश्चिंदो ।
अंदेउरं । ) १. यस्य य्यो भवति । यथालक्ष्यम् । न वा ? य्य : । (२६६)
(अय्यउत्त पय्याकुलीकदम्हि । (शौरसेन्या र्यस्य स्थाने य्यो वा भवति । यथालक्ष्यमित्येव । तेन कय्य- अय्यउत्त पय्याकुली कदम्हि । पक्षे । परवसो वज्ज-कज्ज-इत्यादौ अज्जो । पज्जाउलो । कज्ज-परवसो ।) न भवति ।) . इह-थ-धानां धो वा भवति । थो धः । (२६७) । इह-हचोर् हस्य ।
(२६८) (इध । होध । परित्तायध । पक्षे । इध । होध । परित्तायध । पक्षे-इह । इह । होह । परित्तायह ।) होह । परित्तायह ।) ४. पूर्वस्य पुरवो वा ।
पूर्वस्य परवः । (२७०) (न कोवि अपुरवो ।
(अपुरवं नाडयं । अपुरवागदं । पक्षेपक्षे अपुव्वं पदं।)
अपुव्वं पदं । अपुव्वागदं ।) ५. कदुय करिय । गद्य गच्छिय ।। म्त्व इय-दूणौ । (२७१) इति क्तवान्तस्यादेशः ।
(भविय । भोदूण । हविय । होदूण ।
पढिय । पढिदूण । रमिय । रंदूण ।) ६. एद भयवं । जयद भवं । मो वा । (२६८) तथा आमन्त्रणे भयवं
(शौरसेन्यामामन्त्र्ये सौ परे नकारस्य मो
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कुसुमाउह इत्यादि ।
वा भवति । भो रायं । भयवं कसमाउह भयवं तित्थं पवत्तेह ।)
७. इनः आ वा ।
आ आमन्त्र्ये वेनो नः । (२६३) भो कंचुइया । अतश्च भो वयस्सा । (भो कंचुइआ । भो सुहिआ । पक्षे भो वयस्स ।)
भो तवस्सि । भो मणस्सि ।) ८. इ-लोप इदानीमि ।
इदानीमो दाणिं । (२७७) किं दाणिं करिस्सं ।
अनंतर-करणीयं दाणिं आणवेद अय्यो निलज्जो दाणिं सो जणो । ९. अन्त्यनियमादि-(?अन्त्यादमादि-) __मोऽन्त्याण्णो वेदेतोः । (२७९) देतोर णो भवति ।
(जत्तं णिमं । सरिसं णिमं । किं णेदं (जत्तं णिमं । किं णिमं । एवं णेदं ।) एवं णेदं ।) । १०. तदस् ता भवति ।
तस्मात् ताः । (२७८) (ता जाव पविसामि)
(ता जाव पविसामि । ता अलं एदिणा
माणेण ।) ११. एवार्थे य्येव ।
एवार्थे य्येव । (२८०) (मम य्येव एकस्स ।)
मम य्येव बंभणस्स । सो य्येव एसो ।) १२. हंजे चेटयाह्वाने ।
हंजे चेटयाह्वाने । (२८१) (हंजे चतुरिए।)
(हंजे चदुरिके ।) १३. हीमाणहे निर्वेद-विस्मययोर् निपातः। हीमाणहे विस्मय-निदे। (२८२)
(हीमाणहे पलिस्संता हगे एदिणा (हीमाणहे जीवंत-वच्छा मे जणणी नियविहिणो दुव्विलसिदेण । हीमाणहे पलिस्संता हगे एदेण
हीमाणहे जीवंत-वच्छा मे जणणी ।) निय-विधिणो दुव्ववसिदेण ।) १४. णं निपातो नन्वर्थे ।
णं नन्वर्थे । (२८३) (णं भणामि ।) १५. अम्महे हर्षे निपातः ।
अम्महे हर्षे । (२८४) १६. हीही भो विदूषकाणां हर्षे । हीही विदूषकस्य । (२८५)
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(हीही इति निपातो विदषकाणां हर्षे द्योत्ये प्रयोक्तव्यः । हीही भो संपना मणोरधा पिय-वयस्सस्स ।)
शेषं प्राकृतवत् । (२८६) पैशाची
१७. शेष प्राकृतसमं दृष्टव्यम् ।
नमिसाधु
१. णनोर् नकारः पैशाचिक्याम् ।
(आगंनू । नय । नमति ।)
हेमचंद्र णो नः । (३०६) (गुन-गन-युतो । गुनेन) तदोस्तः (३०७) (भगवती : फकवती । पव्वती । सतं । मतन-परवसो । तामोतरो । वतनकं ।
२. दस्य वा तकारः ।
(वतनं : वदनम् । )
३. टस्य न डकारः ।
(पाटलिपुत्रं ।)
न क-ग-च-जादि-षट्शम्यन्त -सूत्रोत्कम् । (३०९)
४. पस्य न वकारः । (पदीपो । अनेकपो ।)
५. क-ग-च-ज-द-प-य-वानां अनादौ
यथाप्रयोगं लोपः स्वर-शेषता च न कर्तव्या । (आकासं । मिगंको । वचनं । रजतं । वितानं । मदनो । सपरिसो । दयालू | लावण्णं । सको ।
सुभगो । सूची । गजो । नदी ।) ६. ख-ध-थ-ध-फ-भाना हों न भवति ।
(मखं । मेघो । रथो । विद्याधरो । विफलं । सभा । )
७. थ-ठयोर् ढोऽपि न भवति ।
(पथमं । पथवि । मठो । कमठो ।
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८. ज्ञस्य जो भवति । ( यञकोसलं राजा लपितं )
९.
हृदये यस्य पः ।
( हितपर्क 1)
१०. सर्वत्र तकारो न विक्रियते । (एति बिंबं (?) 1)
ज्ञो ञ्ञः पैशाच्याम् । (३०३) (पञ । सञ्ज । सव्वज्ञ । जनं । विज्ञानं ) राज्ञो वा चिञ् । (३०८) राचित्रा लपितं । रज्ञा लपितं । राचिजो धनं । रज्ञो धनं 1) हृदये यस्य पः । (३१०)
(हितपकं । किंपि किंपि हितपके अत्थं चिंतयमानी । )
निष्कर्ष
सिद्धम ना आठमा अध्याय गत सामान्य प्राकृत, शौरसेनी अने मागधीने लगतां उदाहरणोमांथी जे ओळखी बताव्यां छे तने आधारे केटलांक तारणो काढी शकाय छे.
2
सामान्य प्राकृत माटेनां उदाहरणो मुख्यत्वे 'गाथासप्तशती', 'सेतुबन्ध' अने 'उडवतो माथी, वज्जलग्ग 'वृत्तजातिसमुच्चय, लीलावईकहा, 'विषमबाणलीला, 'शान्तिनाथचरित्र जेवा ग्रंथोमांथी के 'स्वयंभूछंद अने 'प्राकृतप्रकाश मां टांकेला उदाहरणो परथी लेवायां छे.
शौरसेनीनां उदाहरणो 'शाकुन्तल, रत्नावली', 'कर्पूरमंजरी', 'विक्रान्तभीम' जेवां नाटकोमांथी, तो मागधीना 'शाकुन्तल', 'मुद्राराक्षस', 'वेणीसंहार', 'विक्रान्तभीम', 'उदात्तराधव' जेवां नाटकोमाथी लेवायां छे.
मुख्य प्राकृत विभागमां आर्षप्रयोग तरीके नोंघेलां उदाहरणो 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन', 'नंदिसूत्र', 'आवश्यकसूत्र नां विविध अध्ययनो के विभागो, आवश्यकनिर्युक्ति अने आवश्य चूर्णि माथी लेवायां छे.
शौरसेनी विभागमां कल्पसूत्र माथी अने मागधी विभागमां दशवैकालिक मांथी आर्ष उदाहरण आपेल छे. प्राकृत विभागमां आपेल आर्ष उदाहरणो सामान्य प्राकृतनां शब्दो अने रूपो उपरांत वपरायेला होवानुं 'अपि द्वारा दर्शाव्युं छे.
मागधीना निरूपणना आरंभे ज हेमचंद्राचार्ये स्पष्ट कर्यु छे के आगमसूत्रोनी भाषा अर्धमागधी होवानुं वृध्धो ए जे कह्युं छे ते मुख्यत्वे तो अकारान्त-नामोनी प्रथमा विभक्तिना एकवचनमां रूप एकारान्त होय छे ए लक्षण पूरतं ज समजवुं
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चळी सामान्य प्राकृतना निरूपणमां आरंभे ज हेमचंद्राचार्ये स्पष्ट कहयुं छे के आर्ष प्राकृतमा आगळ उपर जे नियम अपाशे ते बधा विकल्पे प्रवर्तता होवान समजवं.
आनुं तात्पर्य एवं समजी शकाय छे के हेमचंद्राचार्यनी पासे जे आगमग्रंथोनी हस्तप्रतो हती तेनी भाषामा सामान्य प्राकृतनां, शौरसेनीनां अने मागधीनां जे विशिष्ट लक्षणो व्याकरणकारोए मान्यां हता, ते बधां लक्षणो वधतेओछे अंशे धरावता प्रयोगो हता. एटले आर्ष प्राकृत के अर्धमागधीनू आगवं, स्वतंत्र लक्षण बांधी शकाय तेवू भाषास्वरूप हेमचंदाचार्यने जैन आगमसाहित्यमा जोवा मळतुं न हाँ.*
*कया हेतुथी प्राकृत भाषाओनां व्याकरण रचातां हता, अने ते अनुसार हेमचंद्राचार्य- लक्ष्य शुं हतुं ते समज्या विना नित्ती दोल्चीए पोताना पुस्तक The Prakrit Grammarians (अंग्रेजी अनुवाद)मां हेमचंद्राचार्यना प्राकृत व्याकरणनी जे टीका करी छे, ते अज्ञानमूलक अने अन्यायी ज कही शकाय. पण तेनी विगते विचारणा करवानुं अहीं अप्रस्तुत छे. पिशेले पण हेमचंद्राचार्ये देशीनाममाला मां जे उदाहरणपद्यो आपेला छे तेनी वगर समज्ये टीका करी हती. ए विद्वानोए प्राकृत भाषाना अध्ययनक्षेत्रे जे महत्त्वनुं योगदान करेलुं छे ते आदरणीय छ, परंतु आ बाबतने लगतां तेमना विचारो अने मंतव्य भूल भरेला छे.
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'याश्रय' काव्यना एक पद्यनी शंकास्पद वृत्ति परत्वे विचारणा
- शीलचन्द्रविजय गणि १. श्री हेमचंदाचार्ये गुजरातना चावडा - सोलंकी - राजाओना चारित्रवर्णन सार्थ स्वरचित 'सिद्धहेमचन्दशब्दानसासन द्वारा सिद्ध थता शब्दप्रयोगोने गूंथी लेता 'व्याश्रय महाकाव्य उपर श्रीअभयतिलकगणिए वृत्ति रचेली छे । आ वृत्ति काव्यना अर्थाने तेम ज व्याकरणना प्रयोगोने पण खोली आपे तेवी सुगम छ । जो के आ वृत्तिने सर्वग्राही वृत्ति कहेवानं साहस न करी शकाय । केम के हजी काव्यतत्त्व तथा अलंकार-वर्गोनी दृष्टिए 'याश्रय उपर विवेचन थवानं बाकी ज रहे छे । आम छता, आजे तो 'द्रुयाश्रय ना अर्थोद्घाटन माटेनं एकमात्र सरस साधन आ वृत्ति ज छे ।।
'व्याश्रय ना प्रथम सर्गमा अणहिल्लपरपत्तननं नगरवर्णन थयं छे. चोथा पाथी आरंभीने कल १३० पद्योमा पथरायेलं ए नगरवर्णन अत्यन्त रोचक अने कल्पनोत्तेजक छे । वृत्तिकारे ए रोचकताने झीलवानो पोतानी क्षमता अनुसारे सारो प्रयत्न कर्यो छे । परंत आ वर्णनमा ५८ मा पद्यनी वृत्ति, मूल पद्यना रहस्यथी विपरीत जती होय तेवं जणाय छे । ए पद्य तथा तेनी वृत्ति आ प्रमाणे छ :
न यथा कोऽपि संस्कर्ता संचस्कार यथा न च । ___ अरोचकी गुणेष्वा संस्कतु यतते तथा ।। ५८ ।।
वृत्ति : - अत्र पुरे न रोचते धान्यं क्षुधोऽभावादस्मिन् “नाम्नि पुंसि च” (पू. ३.१ २२) इति णके अरोचको बभक्षाया अभावः सोऽस्त्यस्य" प्राणीस्थाद०" (७.२.६०) इत्यादिना रुग्वाचित्वादिनि अरोचकी नरो गुणेष व्यञ्जनेषु विषये संस्कर्तु हिङ्गकर्पूरादिक्षेपेण तथा तेन प्रकारेण यतते प्रवर्तते यथा कोऽपि पमान् न संस्कर्ता न संस्करिष्यति यथा कोऽपि न च संचस्कार संस्कृतवान् ।
वृत्तिनो सार ए समजाय छे के "आ नगरना लोकोने 'अरोचक नामनो रोग होवाथी, अथवा अहींना लोकोने बह भूख न लागती होवाथी, भूख लागे ते खातर, तेओ गणो एटले शाक-दाळ प्रकारनां व्यंजनोमां हिंग अने कपूर आदि संस्कार (वघार व.) करता हता, के जेवो कोईए क्यारेय कर्यो न होय के करशे पण नहि ।"
अत्यंत ग्राम्य, बेहूदो अने नगरनी प्रशस्तिने बदले अपकीर्ति गणाय तेवो - आवो अर्थ वृत्तिकारे आ पद्यनो केवी रीते अने केम तारव्यो हशे ? ते समजमां आवे तेम नथी ।
वास्तवमां आ पद्य एक उच्च कक्षानं ध्वनिकाव्य गणी शकाय तेवं पद्या छे। आ पद्यमां आवेला 'गण' शब्दनो 'गण अर्थ ज करवाथी, अने 'अरोचकी नो अर्थ आयर्वेदमा वर्णवेल 'अरोचक नामना रोगथी पीडातों ‘एवो न करतां गणो प्रत्ये ज जेने अरुचि छे ते गुणोनो अरोचकी' एवो करीए तो आ पद्यामांथी एवो ध्वनि नीकळे छे के :
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| "आ नगरना लोको एवा तो गुणवंत हता, के जेमने देखीने गुणोनो अरोचकी- अवगुणी दर्जन जण पण, पोतानामां आवा गणो प्रगटाववा माटे एवो प्रचंड उद्यम करतो के जेवो सम पूर्वे कोईए कर्यो न होय तेम भविष्यमां कोई करशे पण नहि "! । आ अर्थने जो यथार्थ स्वीकारीए तो आ पद्यनी व्याख्या आ प्रमाणे करवी घटे :
वृत्ति :
अत्र - पुरे, गुणेषु - गुणानां - सद्गुणानां प्राप्तिविषये, अरोचकी- सदुणान् प्रति रुचिमान् - दुर्जनो निर्गुणो वा जन इत्यर्थ, 'अपिः अध्याहार्य : अतो निर्गुणोऽपि जनः; स्कर्त 'निजं इति शेषः, निजात्मनि गणानां संस्कारमाधातमित्यर्थ; तथा - तेन प्रकारेण त्वरया
तत्येन तीव्रभावादिना वा – यतते - यत्नं कुरुते, यथा – येन प्रकारेण कोऽपि - कश्चिदपि जन्यो जनः न संचस्कार- निजात्मानं न संस्कृतवान् ‘पूर्व 'गणैरिति च शेषः । न च - ना
'कोऽपि इति अत्राप्यपादेयं; अतो न कश्चिदपि जनः संस्कर्ता च -भविष्यकाले निजात्मानं स्करिष्यत्यपि । अयं भावः -एतादृशोऽत्रत्यो जनो गणवान्, यं दष्ट्वा अन्यो निर्गणो जनो अजनिर्गणत्वेन लज्जित्वा निजात्मानं गणसंस्कृतं निर्मातं तथा सयत्नो भवत्यत्र, यथा भूतकाले किनापि जनेन नोद्यातं, न वा भविष्यत्कालेऽपि कोऽपि तादृक् प्रयत्नशीलो भावी ।।
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“गांगेयभंग प्रकरण - सस्तबक" नामे कृतिना कर्ता विषे ऊहापोह
शीलचन्द्रविजय गणि
जैन आमगमग्रंथ श्री विवाहप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्रना नवमा शतकना ३२मा उद्देशमां श्री पार्श्वनाथ- - परम्पराना गांगेय ऋषिए भगवान महावीरने पूछेला भङगप्रश्नो तथा तेना उत्तरोन विराद स्वरूप वर्णवेलुं छे. आ विषय भशगजालमय होवाथी अभ्यासीओने तेनो बोध सुलभ बने ते हेतुथी विविध नानां प्रकरणो रचायां छे, जेमानं एक श्री विजयगणिए रचेलं "अवचूरियुक्त गाङ्गेय भङ्ग प्रकरण" ई.स.१९१६ मां भावनगरथी प्रकाशित छे. ताजेतरमां विख्यात जैन मनीषी उपाध्याय श्रीयशोविजयजीए रचेलं “गांगेयभंग प्रकरण" मळयुं छे. आ प्रकरणमा ३५ गाथा छे. आ प्रकरणनी प्रथम गाथामा 'पुव्वप्पगरणसेस - पदथी समजाय छे के पूर्वे पण कर्ताए आ विषयनुं कोई प्रकरण रच्युं हो, जेमां नहि कहेलो शेष विचार प्रस्तुत प्रकरणम गूंथ्यो छे. ३५मी अन्तिम गाथा जोतां “श्रीनयविजयगुरुना शिष्य सुयश (यशो) - विजये" आ प्रकरण रच्युं छे ते स्पष्ट छे.
आ प्रकरणनो 'टबों पण मळेल छे. टवानी विविध प्रतिओ, जे लगभग १९ / २० मा शतकमा ज लखाई होवानुं तेनी लखावट उपरथी कल्पी शकाय तेम छे, तेमां टवाना रचनार के लखनार विशे कोई निर्देश प्राप्त थतो नथी. टवानो प्रारंभ आम थाय छे
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श्रीमत् शान्तिजिनाधीशं नत्वा वीरस्य वार्तिकम् । पृष्टं बालोपकाराय गंगेयाख्येन बुद्धि ना।। १ ।। किञ्चिन्मद्धी प्रमाणेन श्रुतधर्मानुसारतः । कुर्वे स्वोपज्ञगाथाया यन्त्रयुक्तं पुनस्तथा || २ ||
आ उपरथी मूल गाथाकार पोते ज टबाकार होय तेनुं मानवानं उचित लागे छे. टबासहित आ प्रकरणानी मारी समक्ष पडेली ५ प्रतिओमा जनामां जूनी प्रति संवत १८५०नी छे तेमां ३५मी गाथानो टबार्थ आ प्रमाणे छे" शोभावंत महत् बुद्धनिधान पं. श्री नयविजयगुरुन शिष्य महोपाध्याय श्री श्री जसविजयजी नैयायिकशिरोमणीइं तेणे आ प्रकरण शास्त्रप्रमाणे रच्यं तीक्ष्ण मतिवंत प्राणीनें मन रूप मर्कट चपल छें ते वश्य आणवानें माटें ३५ इति गंगेयकृतपृच्छाप्रकरणार्थ : ।। सं. १८५० । पं. श्री १०८ पं. गुरुजी साहबजी पं. शुभ विजयजी शिष्य मुं. वीरविजयेन लि. मागशिर सुदी १० दीने निर्जार्थे खंभातबिंदरे ||M
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आ विवरण टबाना प्रणेता कोण छे ते नक्की करवामां कोई रीते पण स्पष्ट मार्गदर्शन करतुं नथी. मात्र “पं. वीरविजयजी ('शुभवीर' तरीके जाणीता कवि - साधु ) ए आ टवार्थ-यु प्रकरण लख्युं छे” एटलं ज आथी समजी शकाय छे। अने अन्य ४ प्रतिओ पैकी ३
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प्रतिओ मळी छे तेमा लेखक तथा संवतने बाद करता उपर प्रमाणे ज अन्तिम लखाण जोवा मळे छे.
हवे महत्त्वनी पण विचित्र लागे तेवी वात ए छे के आज प्रकरणनी टवारहित मूलगाथा - मात्रनी प्रतिओ पण पांचेक मळी आवी छे. ए तमाम प्रतिओमा ४१ गाथाओ छे, ए तो ठीक, परंत तेनी छेल्ली - ४१ मी गाथामां आ प्रकरणना प्रणेता श्रीउत्तमविजयना शिष्य श्रीपद्मविजयजी छे तेवो स्पष्ट उल्लेख छे. ते गाथा आ प्रमाणे छ :
सिरिउत्तमविजयाणं सीसो नामेण पउमविजओ त्ति । तेण पगरण रइयं मणमक्कड वस्समाणेउं ॥ ४१ ।।
मूलमात्र पाठनी प्रतिओमा, टवावाळी प्रतिओ करतां जे ६ गाथा अधिक छे, ते आ प्रमाणे छे :- ३५ गाथावाळी वाचनागत - गाथा २७ पछी -
जइसं खा जीवाणं भंगा काउं मणं मि इच्छिज्जा । तत्तो इक्के क्कहिया- रासीछक्कं ठवे यव्वं ।। २८ तस्साहो दुगमाई छगपज्जता धुवा य पण अंका । उवरिअहोसमअंका फुसियव्वा नियमओ ते उ ।। २९ पच्छा धुव अंकेहिं दिज्जइ भागो य जस्स अंकस्स । तट ठाणे जं लद्धं तं अंकं ठवसु नियमे णं ।। ३० पच्छा गुणसु परुप्पर -- सेस धुवं के ण भाइयं संतं ।। जं लब्भइ तस्सं खा भंगपमाणं मुणे यव्वं ।। ३१ अह जइ सेसधुवंको नत्थि तओ जं परुप्परं गुणणे । लद्धं तं चिय माणं इच्छियजीवाण विन्ने यं ।। ३२ आटली (५) गाथा अधिक छे; तथा ३५ मांनी ३८मी गाथा पछी -
सिरिपुज्जो द यसायरसूरिणा गुणवया य बुद्धि मया । काऊण सुहियं तेण विसोहियं गणि य नाणे ण ।।४०
आम समग्र रीते जोतां आ कृतिना कर्ता कोण ? ते प्रश्न आपणी सामे उपस्थित थाय छे. मजानी वात ए छे के जदा जदा भंडारोनी ५ मूळ पाठ धरावती अने ५ टवायक्त पाठ धरावती कुल १० प्रतिओ भेगी करी छे; तेमां मूळ पाठवाळी बधी प्रतिओ ४१ गाथानो पाठ आपे छे, जे पद्मविजयजी-रचित छे. ज्यारे टवावाळी बधी प्रतिओ ३५ गाथानो पाठ आपे छे, जे यशोविजयजी-कृत छे.
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बीजी वात, उपर जणावेली, ४१ गाथावाळी प्रतिओमांनी ५ + १ = ६ गाथाओने बाद करतां शेष ३५ गाथाओनो पाठ तथा क्रम टवावाळी अने टबा विनानी – एम दसे प्रतिओमां समान छे. आथी सहज ज प्रश्न थाय के आ प्रकरणनो खरो कर्ता कोण ?
आ विषे ऊहापोह करतां केटलाक विचारणीय मुद्दा उद्भवे छे : १. यशोविजयजीनी रचना होय, ने बीजा कर्ताए ते पोताना नामे चडावी होय.
२. अथवा एवं य बने के पद्मविजयजीनी रचना. होय अने तेने तेमना प्रत्ये अरुचि धरावता कोईए यशोविजयजीना नामे चडावी दीधी होय.
३. अथवा तो खद पद्मविजयजीए ज कोई कारणसर पोतानी रचनाने यशोविजयजीनं नाम आपी दीधं होय.
आ त्रणमा वीजी अटकळ तथ्यथी वधु नजीक होय तेवू अनुमान आ संपादकना मनमां छे. जो के वीरविजयजीनो टबो छ, अने तेओ पण आ कृति यशोविजयजीनी होवानं जणावे छ; तो पण, संवत १८५० मां तो वीरविजयजीनो दीक्षाकाल हजी मांड वे वर्षनो ज होवान (दीक्षा सं. १८४८ मां थई)अर्थात् ते समये तेमनो अध्ययनकाल के आरंभकाल होवानं तेमना विशे प्राप्त ऐतिहासिक साधनोथी ज्ञात छे, एटले तेमणे पोते पोतानी सामेनी पूर्व-प्रतिनं ज मात्र अनुसरण कर्यु होय तेम विचारवं वधु योग्य जणाय छे.
पू. यशोविजयजीनी प्राप्त अने ज्ञात ग्रन्थ रचनाओनी अद्यतन सूचिओमां आ प्रकरणनो क्यांय निर्देश नथी. आ प्रकरणनी प्रथम गाथामां निर्देश्या प्रमाणेनी आज विषयनी पूर्वरचना पण मळी - मलती नथी. वळी, आजे जे प्रतिओ आ प्रकरणनी मळी छे ते तमाम १९२०मा शतकनी ज छ; अने १७-१८मानी एक पण प्रति हजी प्राप्त थई नथी.
वळी, आ रचनामां उपाध्याय यशोविजयजीनी उद्भर विद्वत्तानो एकाद पण उन्मेष जोवा नथी मळतो. 'एमनी आ आरंभिक रचना होई शके - एवं मनना संतोष खातर विचारीए, तो पण, तेमां वह वजूद नहि आवे. केम के प्रकरणना टबाना मंगलाचरण परथी मूळकार अने टवाकार एक ज होवान सिद्ध थाय छे, अने ए मंगलाचरणना बे श्लोकोन संविधान अने शब्दो जोतां ज 'आ यशोविजयजीनं न ज होय एम कोई पण अभ्यासी तत्क्षण कह्या विना नहि ज रहे.
बधी वातोनो सार एटलो ज के यशोविजयजीना नामे मळी आवती प्रस्तत कृति,वस्ततः पद्मविजयजीकृत होवी जोईए, के जे पोतानी कृति पद्मविजयजीए श्रीपूज्य उदयसागरसूरि पासे संशोधित पण करावी छे. आम छता आ कृतिनी प्रतिओ 'यशोविजयजीनी रचना तरीके मळे छे, ते पद्मविजयजी प्रत्ये कोईनी अभक्ति के पछी यशोविजयजी प्रत्येनी कोईनी अतिभक्तिनं ज परिणाम जणाय छे.
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उपाध्याय श्रीयशोविजय कृत (?)
गांगेय-भङ्ग-प्रकरणम् ।। नमिऊण महावीरं गंगे यसु पुट ठभंगपरिमाणं । पुस्वप्पगरणसे सं वुच्छं सुगुर व एसे णं ॥१ वाणियगामे नयरे भयवं वीरो समोसढो नाणी । पासावच्चिज्जो अह गंगे ओ आगओ तत्थ ।।२ तस्सासं का जाया एसो किमु अस्थि इंदजालु त्ति । पसिणाई महत्थाई पडिपुच्छइ हे उणा ते ण ।। ३ पच्छा--उत्तर सयलं नायव्वं पंचमंग-नवमसया । इह उण संखे वत्थो भणामि निच्चं ससरण ठा ।।४ एगम्मि उ नरगम्मि भंगा सग हुँति जइ असंखेज्जो । इगवीसा दुग निरए पणतीसा तिन्नि नरगम्मि ।।५ च उसु वि पणतीसाओ पंचसु इगवीस भंगसंखाओ । छग नरगे सग भंगा सत्तसु पुढवी सु एगो अ ।।६ जे एगम्मि उ नरए सग भंगा छग्गुणा बियालीसं । दुग निरयाओ दुभागे हवंति हरिया हु इगवीसा ।।७ एगूणा उण किज्जइ निरयपमाणेण दिज्जई भागो । इगवीसा पणगुणिया जायइ पंचुत्तर सयं च ।।८ ते य तिभागे हरिया हुंति पणतीस तिन्नि नरगम्मि । चत्तसयं चउ भागे हरिया पणतीसभंगाओ ॥९ ति गुणा पंचुत्तरसय - भंगा इगवीस पंचभागम्मि । बायालीसं दुगुणा छग भागे सत्त भंगा य ।।१० अह उण विगप्पमाणं एगविगप्पो अ दुन्नि जीवाणं । तिग जीवाणं दु जो गा दुन्नि तिगजो ग एगेव ।।११
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चउजीवाण दुजोगा तिन्नि अ तिग जोग तह य तिन्नेव । चउ जोगो एगेव य अह पणजीवाण सुणसु कमा ।।१२ दु ति चउं पंच य जोगा चउ छ च्चउ एग अह छ जीवाणं । दु ति चउ पंच छ जोगा पण दस दस पणेग नेयं च ।।१३ छ पण दस वीस पण दस छगदु गाइ संगत सत्तण्हं । अट ठण्हं जीवाणं दुगाइ अट्ठं तसं जो गा ।।१४ सग इगविस पणतीसा पणतीसिगवीस सत्त एगो अ । नव जीवाण दु गाई- नवंत संयोग कायव्वा ।।१५ अट्ठ वीस छप्पन्न सयरी छप्पन्न अटठ वीसट्ठी । एगविगप्पो एसिं अह दह जीयाण संजोगा ।।१६ नव छत्तीसय चुलसी छव्वीसुत्तरसयं च पण जोगा । पुण छव्वीसुत्तर सय चुलसी छत्तीस नव एगो ।।१७ इच्चाई य विगप्पा जीवपमाणेन अक्ख चालणया । कायव्वा पुण एसिं सुणसु उवायं समग्गाण ।।१८ जइसं खा हुं ति जी या दु गसं जो गा हवं ति एगूणा । संजो गतिगाई णं तिगाईरासी उ वे यव्वा । १९ पुव्वविगप्पा पढ मंक गुणा य काऊण से सअंकाणं । भाइज्जइ जं लब्भइ मुणस् पमाणं तिगाईणं ।।२०
A
जह पणजीवाणं इह दुगसं जो गा हवं ति चत्तारि । तिगसं जो गाणं पुण ठविज्ज रासी वि तिन्नेव ।।२१ तिन्नि य एगो एगो दुग जोगा पढम अंक गुणियव्वा । बारस से स दुभत्ता तिग जो गा हुँति छच्चे व ।।२२ भंगा य पइविगप्पे पुव्वुत्ता नरगभंग गुणि यव्वा । अह पुण सव्व विगप्पा जीवाणं हुँति ते भणिमो ॥२३
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तिगजीयाण विगप्पा दु गुणे गहिया चउण्ह जीवाणं । ते पुण दु गुणे गहिया पंचजियाणं मुणे यव्वा ।। २४ एवं कमेण सव्वत्थ अह भंगा सव्व जीयरासीणं । एगे गहिया किज्जइ संखामाणं विभत्ताओ ॥२५ सग पढमपुढविभंगा अगुणा ते वि जीवपविभत्ता । अट्ठावीसं भंगा दुगजीवाणं विआणाहि ॥२६ ते वि अ नवगुणिआओ एवं इक्किक्किरूववुड्ढीए । जीवपमाणविभत्ता संखा (वि) बुहे हिं नायव्वा ।।२७ पुव्वसूरीहिं नठु -द्दिट् ठपत्थार भासिओ ने ओ । वित्थर ओ पुण सुत्ता नायव्वो सुहु मदिट्ठीहिं ॥२८ गंगे ओ अह सुच्चा भयवं वीराओ भं गजालमिणं । भयवं - उवरिं जाओ सव्वन्नू पच्चओ तस्स ॥२९ वं दइ नमसइ अह आयर -बहु माण-भत्तिपुव्वं च । गंगे ओ संजाओ सामिओ गुत्तो विसे से णं ।।३० चउजा माओ धम्मा पडिवज्जइ पंचजामधम्मं च । नाण-किरियाहिं जुत्तो विहरइ निच्चं गुरुसगासे ॥३१ जस्सट् ठाए कीरइ सुनग्गभावो य मुंडभावो अ । आराहिओ तमठो सिद्धो परिनिव्वुडो बुद्धो ॥३२ धन्नो सो गंगेओ जेणेवं वीर-जगगुरू पुट्ठो । धन्ना ते च्चिय पुरिसा दिट्ठो पहु वागरं तस्स ।।३३ धन्ना चिय मह जीहा तिलोकनाहो हु वीरपहु थुणिओ । धन्ना गुरूण बुद्धि अत्थो जेणेस परिकहिओ ।।३८ सिरिनयविजयगुरूणं सीसो नामेण सुजसविजओत्ति । तेण पगरण रइयं मणमक्कड वस्समाणे उं ।।३५
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यतिदिनचर्या : वृत्तिनी गवेषणा.
- पं. प्रद्युम्रविजयगणी 'यतिदिनचर्या नामनी बे कृति प्रसिद्ध छे. एक श्री देवसूरिकृत अने एक श्री भावदेवसूरिकृत. तेमां श्री भावदेवसूरि कृत 'यतिदिनचर्या -तेना उपरनी श्री मतिसागरसूरिकृत वृत्ति सहित-पूज्यपाद सागरजी महाराजे संपादित करीने प्रकाशित करी छे. अने वीजी श्री देवसरिकृत 'यतिदिनचर्या हजी अप्रकाशित छे. जो के ते मूलमात्र मनि जिनविजय द्वारा संपादित थई प्रकाशित थनार हती पण तेना फर्मा छपाई गया अने पछी प्रस्तावना न लखवाना कारणे ए ए रीते अप्रकाशित ज रही गई. तेना उपर पण श्री मतिसागरसूरिकृत वृत्ति मळे छे.
आ मतिसागरसूरिजी कोनी परंपरामां आवे, तेओनो गुरुपूर्वक्रम शं छे, तेओनो सत्तासमय कयो, तेओनी आ बे सिवाय कई कई रचना छे, वगेरे बाबतो जाणी शकाई नथी.
अमारे अत्यारे आ श्री देवसूरिकृत ‘यतिदिनचर्या नुं संपादन चाले छे. आना माटेनी सामग्री भंडारोमाथी सारा प्रमाणमां मळी छे. प्राचीनमां प्राचीन एक पोथी छाणीना श्री वीरविजयशास्त्री संग्रहनी ताडपत्रनी मळी छे. लेखनसंवत वि. सं. १३०१ छे. प्रति शुद्ध छे. आमां गाथा ३८९ छे. श्री जिनविजय-संपादित कृतिमा ३३६ गाथा ज मळे छे. तेमने पण घणी घणी प्रतोमा अन्यान्य गाथाओ तो मळी छे पण तेओए एक वाचना स्वीकारीने अन्य प्रतोनी गाथाने पादनोंधमां मूकी छे. अमे तो आ छाणीनी ताडपत्रपोथीने ज आधारे संपादन कर्य छे. बीजी कागळनी सत्तरमा सैकानी घणी प्रतो अलग अलग भंडारोमांथी मळी छे. एक संवेगीना उपाश्रयना भंडारनी पोथी तो "वि.सं. १६४४ वर्षे जगद्गुरु- श्रीहीरविजयसूरिवाचनकृते मुनिमानविजयेन लिखिता- एवी पष्पिकावाळी मळी छे. जो के अमने मळेली. पोथीओमां पण गाथानी संख्या तो ओछी-वधारे मळी ज छे.
श्री भावदेवसूरिकृत 'यतिदिनचर्या नी गाथा तो मात्र १५४ ज छे. एटले पू. सागरजी महाराजे तेनो मिताक्षरी प्रस्तावनामा नोंध्यं ज छे के “एक श्री देवसूरिकृत य.दि.च. मळे छे पण ते मोटी छे माटे संक्षिप्तरुचि जीवो माटे आ नानी प्रकाशित करीए छोए." श्री भावदेवसूरि करतां श्री देवसूरिजी प्राचीन छे. देवसूरिकृत य.दि.च. नी आदि-अन्तिम गाथा आ प्रमाणे छे. आदि गाथा -
तं जयइ सुहं कम्मं निम्भि असम्म जयम्मि जं सूरो, अविरामं पिच्छं तो अज्जवि न करेइ वीसामं ।।१।।
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अन्तिमगाथा
संविग्ग - वग्ग - सायर- पभणिय-सिरिदेवसूरि- उद्धरिया । जाव रवि-दिवस- चरिया ता जयउ जईण दिणचरिया ।। ६८९ ॥
आना उपर मतिसागरसूरिनी वृत्ति छे. तेओनो सत्तासमय अढारमा सैकानो लागे छे. वधीने सत्तरमो सैको - एथी जूना होय तेम जणातुं नथी.
भावदेवसूरिकृत य.दि.च. उपरनी वृत्तिमां तो तेओए प्रारंभमां ज कहयुं छे केदिनचर्या श्रतधर्या कृतवान् श्री भावदेवसूरिवरः । सुकरां तनुते रम्यां मतिसागर एष तद्वृत्तिम् ॥
आ रीते श्रीदेवसूरिकृत य. दि. च.ना आदि भाग के अन्त भागमां तेओनो नामोल्लेख मळतो नथी. भंडारनी नामावलिमां 'टीकाकार मतिसागरसूरि ए रीतनो उल्लेख छे- ४१४४ ग्रन्थाग्रनी वृत्तिनी रचना घणी ज शिथिल बंधवाळी अने कोई शिखाउ व्यक्तिए आ प्रथम प्रयत्न कर्यो होय तेवुं प्रतीत थाय छे. वळी आ टीकानी जेटली पोथी मळी ते बधामां गाथा - ६४ थी ६९ उपर वृत्ति नथी. क्यांक क्यांक वृत्ति अधूरी पण मूकी छे अने आश्चर्य तो ए छे के जेटली पोथीओ मळे छे ते बधी जाणे एक ज लहियाना हाथे लखायेली होय तेम लागे. पत्रसंख्या, कागळनी साइज, जात, अक्षर-मरोड बधुं ज एकसरखं. अने जे पानानी जेटली लीटीथी, जे अक्षरथी वृत्ति अधूरी छे ते ज रीते भावनगर, लींबडी, अम. डेला नी एम बधी पोथीओमां छे.
आवी परिस्थितिमां एक आशानं किरण छे.
डेलाना उपाश्रयनी य. दि. च.नी मतिसागरसूरि कृत टीकानी जे पोथी छे तेनी पहेली पूंठीमां झीणा अक्षरे आखुं पानुं भरीने लखाण छे. सूक्ष्म नजरे ज्यारे ए लखाण वांच्युं - उकेल्युं त्यारे ख्याल आव्यो के आ तो श्री देवसूरिकृत. य. दि. च. नी पहेली गाथानी वृत्तिनी काची नकल छे. ए वृत्तिनी शैली जोईने थयुं के श्री देवसूरिकृत य. दि.च. नी गरिमाने न्याय आपे तेवी आ टीका छे. पण आज दिन सुधी घणां भंडारोमा आ दृष्टिए तपास करी पण हजी नजरे चढी नथी.
कोई पण विद्वान मित्रने ए जोवामां आवे तो जरूर जाण करे.
अत्यारे मूळ अने वृत्तिनुं संपादन थई गयुं छे, पण कदाच आ विद्वत्तापूर्ण वृत्तिमळी आवे तो तेनुं ज संपादन करवुं ए आशाए आनुं प्रकाशन रोकी राख्युं छे. विद्याप्रेमी सहृदय विद्वानोने ख्याल आवे ते माटे बने वृत्तिनो प्रारंभ भाग आ साथे आप्यो छे ते जोवाथी बनेनी शैलीनो पण परिचय मळी जशे.
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अज्ञातकत वत्ति 'यतिदिनचर्या नी टीकावाळी प्रतना पहेला पानानी पहेली पूंठी उपरना पाठनो आ उतारो छे. प्रत नं. ११२५४. आ पाठ डेलानी प्रतमा पहेला पानानी आगळ छे. पोj पानं लखेलं छे.
श्रेयांसि बहुविघ्रानि महतामपीति कृतमङ्गलोपचारैरेव शास्त्रादौ प्रवर्तितव्यम् । तन्मङ्गलं नामादिभेदतश्चतर्विधम् । तद्यथा-नाममङ्गलं स्थापनामङ्गलं दव्यमङ्गलं भावमङ्गलं चेति । यन्मङ्गलार्थशून्यानां जीवाजीवोभयानां ज्वलनादीनां देशीभाषया मङ्गलमिति नाम रूढम् । तत्र जीवस्याग्रेर्मङ्गलमिति नाम रूढं सिन्धुविषये, अजीवस्य दवरकचलनकस्य मङ्गलमिति नाम रूढं लाटदेशे, जीवाजीवोभयस्य सु-मङ्गलमिति नाम रूढं चन्दनमालाया दवरिकादीनामचेनत्वात् पत्रादीनां सचेतनत्वाज्जीवाजीवोभयत्वं नवं वा क्रियते तद् वस्तु = नाम्ना नाममात्रेण मङ्गलमिति कृत्वा = नाममङ्गलं स्वस्तिकादीनां त या स्थापना लोके सा स्थापना मङ्गलं चित्रकर्मादि गतः परममुन्यामपि स्थापनामङ्गलम्। द्रव्यमङ्गलं त द्विधा आगमतो नोआगमतश्चात्रागमो मङ्गलशब्दार्थज्ञानरूपोऽभिप्रेतस्तदावरणक्षयोपशमवानपि यो मङ्गलशब्दार्थेऽनुपयुक्तः स आगमतो द्रव्यमङ्गलमनपयोगो द्रव्यमिति वचनात् । नोआगमतस्तु तद् ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्वयतिरिक्तभेदात् त्रिविधं तत्राद्ये निगदसिद्धे तया जिनप्रणीता मङ्गल्या प्रत्युपेक्षणादि क्रिया अनुपयुक्तेन क्रियते सा अथवा शोभनवर्णादिगणविशिष्ट सवर्णरत्नदध्यक्षतकसममङ्गलकलशादिकं तत्सर्वं तद्वयतिरिक्तं नो आगमतो द्रव्यमङ्गलम् भावमङ्गलमपि द्विविधं आगमतो नोआगमतश्च । तत्रागमतस्तावन्मङ्गलपदार्थज्ञ उपयुक्तश्च । नोआगमतस्त आगमवर्जज्ञानचतष्टयं दर्शनचरित्रणि चाथवा प्रतिक्रमणप्रत्युपेक्षणादिक्रियां कुर्वाणस्य यो ज्ञानदर्शनचारित्रोपयोगपरिनणामः सतो आगमतो भावमङगलमुच्यते । तदत्रचतुर्विधेषु मङ्गलेष्वाधत्रयमनुपयोगित्वात् अनादृत्य शास्त्रारम्भे शास्त्रकारः विघ्नविघातकं द्वितीयं त भावमङ्गलरूपं शभं कर्म-साध्वादेः स्ततिद्वारेणोपन्यसन्नाह-तं जयइ ति तत् शुभं प्रशस्तं निरवद्यत्वात् कर्मचरणाद्यासेवनं जयति प्रकर्षवत्तया व्याप्नोति यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात् यत् शब्दघटनामाह-यत् कर्म निम्मिअसम्म जयम्मि त्ति पूर्वगणस्थानकापेक्षया जयो रागादेर्येन सः निर्मितसम्यक्जयस्तस्मिन्नथवा सम्यक् चासौ जयश्च सम्यग्जयः स त बाह्यारिजयापेक्षया आन्तरारिजय एव निर्मितः सम्यग्जयोपेतः स नि० तस्मिन् साधौ अविरामं ति विलम्बरहितमप्रमादेन यथासमयं यथाकालं साधभिरासेव्यमानत्वात् प्रेक्षमाणो विलोकयन् अद्यापि सरो विश्रामं न करोति साधवदहमपि सर्वजन्तहितदायि कर्म समाचरेयमित्यभिप्रायेण सूरोऽविलम्बेन क्षेत्रं प्रकाशयन् चरतीतिशास्त्रकर्बोत्प्रेक्षितोऽर्थः । ननु शुभकर्मानुष्ठानं कथं नोआगमतो भावमङ्गलम् । को नाम मङ्गलपदार्थः । उच्यते भावो विवक्षितक्रियानभूतियक्तो हि वै समाख्यातः । सोडत्र प्रत्यपेक्षणादिकर्मोपयोगरूपो भावो विवक्षितोऽस्ति नोशब्दोऽस्यात्र देशवाचौ क्रियामिश्रत्वात्।
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मग्यतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मङ्गलम । अथवा मङ्गो धर्मस्तं लाति समादत्ते इति मङ्गलं धर्मोपादानहेतरिति शभानष्ठानं एतादृशं वर्तते एवेति ।।
अन्ये तु द्रव्यमङ्गलमपि भावमङ्गलं तदङ्गत्वात् । यद्यस्य कारणं तत्तव्यपदेशं लभत एव यथा आयघृतं रूपको भोजनमित्यादि । एवं वा त्रयप्रकारेण भावमङ्गलस्य प्रायेण पुण्यप्रकृतिनिमित्तकत्वात् कारणे कार्योपचारं विधाय तदेव स्तुतिद्वारेणोपन्यसन्नाह -
तं जयइ ति तत् शुभं कर्म सान्तवेदनीयादि तीर्थकृन्नामप्रभृतिकं जयति यत् शुभं कर्म जगति निर्मितं प्राणिभिरित्याध्याहारः विश्वे अविराम-न विद्यते विरामोऽवसानमस्य तदविरामं अनन्तं अनेकजीवापेक्षया प्रेक्षमाणोऽद्यापि विश्रामं न करोति । किमुक्तं भवति । नाना के ते नानाजीवानां पुण्यावलोकनार्थमेव अविश्रामं भ्रमतीति पक्षिकोऽर्थः ।
मूल = तं जयइ सुहं कम्मं, निम्मियसम्म जयंमि जं सूरो । अविरामं पिच्छंतो, अज्जवि न करेइ वीसामं ॥१॥
श्री मतिसागरकृत टीकानो प्रारंभभाग
ओं नमो विश्वविख्यातकीर्त ये कान्तमूर्तये । विश्वालङकारभूताय पूताय श्रीमदर्ह ते ।।१।। अष्टकर्मक्षयात् सिद्धि प्राप्ता ये परमेष्टिनः । ते सिद्धाः सिद्धिसौख्यानि दिशन्तु वरदेहिनाम् ॥२॥ स्वयं पञ्चविधाचारमाचरन्तस्तथाऽपरान् । आचारे योजयन्तस्ते जयन्त्वाचार्यकुञ्जरां ॥३।। ये चाङ्गोपाङ्गपाथो धिपारगाः प्रौढबुद्धयः । साधू नध्यापयन्तस्ते जीयासुर्वाचकोत्तमाः ॥४।। ये च साद द्वयद्वीपमध्यगाः सर्वसाधवः । विहरन्ति महात्मानो नमस्ते भ्यस्त्रिशुद्धितः ।।५।। श्रीभारती भगवतीं प्रणम्य सम्यक् कवीन्द्रनतचरणाम् । यतिदिनचर्या विवृतिं करोमि सुगुरुप्रसादेन ॥६॥
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इह हि ग्रन्थकारः सकल शुभक्रियाकलापसाध्यभूतं ऐहिकाऽऽमुष्मिकसौख्यदायकं मङ्गलार्थ मङ्गलभूतं शुभं कर्म स्तौति । यथा -
तं जयइ सुहं कम्मं निम्मिअसम्मं जयम्मि जं सूरो । अविरामं पिच्छंतो अज्जवि न करेइ वीसामं ॥१॥
तं जयइत्ति तत् शुभं कर्म जयति । जयतीति क्रियापदम् । किं कर्तृ कर्म 1 किंविशिष्टं कर्म शुभं शुभप्रकृतिरूपम् । पुनः कथम्भूतं ? निम्माअसम्मं ति सम्यक् निर्मितं सम्यक पुण्यप्रकृत्या निबद्धम् । पुण्यप्रकृतिर्यथा सा उच्चगोअ इत्यादि । सातवेदनीयं कर्म १ उच्चैर्गोत्रं २ मनुष्यद्विकं मनुष्यतिः ३ मनुष्यानुपूर्वी च । पूर्वी वर्ण्यते द्विसमयादिविग्रहेण भवान्तरं गच्छतो जन्तोर्वृषभनासिकारज्जुकगत्या अनुश्रेणिनयनमित्यर्थः ४ देवगतिः ५ देवानुपूर्वी ६ पञ्चेन्द्रियजातिः ७ औदारिक ८ वैक्रिय ९ आहारक १० तैजस ११ कार्मण १२ रूपाणि पञ्च शरीराणि औदारिक १३ वैक्रिय १४ आहारकाणां अङ्गोपाङ्गानि १५ वज्रऋषभनाराचसंहननं १६ समचतुरस्संस्थानं १७ वनचउक्का० शुभवर्ण १८ शुभगन्ध १९ शुभरस २० शुभस्पर्श २१ अगुरुलघुनामकर्म अङ्गं न गुरु न लहुअं इत्यादि २२ पराधातनामकर्म यतोऽपरेषां दुर्धर्षो भवति २३ उच्छ्वासनाम कर्म २४ रविबिम्बे आतपनामकर्म २५ अनुष्णप्रकाशरूपं = अणुसिणपयासरख्वं चन्द्रे उद्योतनामकर्म २६ शुभविहायोगतिर्हंसादीनामिव २७ अंगोवंगनिअमणं निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं २८ । त्रसदशकमाह - तसबायर० त्रसनाम २९ बादर ३० पर्याप्त ३१ प्रत्येक ३२ स्थिर ३३ शुभ ३४ सुभग ३५ सुस्वर ३६ आदेय ३७ जस ३८ एतत् त्रसादिदशकं सुरायुः ३९ नरायुः ४० तिर्यगायुः ४१ तीर्थङ्करत्वं ४२ एवं द्विचत्वारिंशत पुण्यप्रकृतयो भवन्ति । प्रस्तुतमेवाह
जं यत् कर्म पुण्यप्रकृत्योपार्जितं तीर्थकर चक्रवर्ति वासुदेव बलदेव अन्येऽपि महाराजादिरूपं निम्मिअसम्मं ति सम्यक् निर्मितं जयंमि त्ति जगति विश्वे सूरो त्ति सूर्यो दिनकरः अविरामं पिच्छंतो त्ति विरामरहितं विश्रामरहितं ।
१. 'अविराम' : छाणी
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धर्मरत्नकरंडक स्वीपज्ञटीका साथे लगभग दस हजार श्लोक प्रमाण काया धरावतो प्रस्तुत ग्रंथ महाराजा जयसिंह शासित श्रीदायिकाकूप नामना जिनमंदिरथी शोभता गाममां रचायो हतो.
दायिकाकूप गाममा हुंवट वंशमा अलंकारसमा जिंदक श्रेष्ठि अने अजित श्रेष्ठि नामे वे भाईओ रहेता हता. आ बन्ने भाईओए बनावेली पौषधशाळामा स्थिरता दरमियान वि. सं. ११७२ मां आ ग्रन्थनी रचना करवामां आवी छे.
ग्रंथरचनामां आ. वर्धमानसूरिजीने तपस्वी अने यशस्वी उपाध्याय पार्श्वचन्द्रजीए सहयोग आप्यो हतो.
___ग्रंथसंशोधनमा उपाध्याय पार्श्वचन्द्रजी उपरांत मनिश्री नेमिचन्द्रजीए पण संदर योगदान आप्युं छे. __आ ग्रंथनो प्रथमादर्श लखवान पुण्यकार्य गणिवरश्री अशोकचन्द्रजी अने मुनिश्री धनेश्वरजीए कर्यु हतु.
वीस अधिकारोमा वहेंचायेला प्रस्तुत ग्रंथमा आवतां अधिकारोना नाम, पेटा विषयो, कथाओना नाम वगेरे विषयानक्रममा विस्तारपूर्वक बताव्यं छे. अभ्यासीओनी सुगमता खातर भिन्न भिन्न टाईपोनो उपयोग कर्यो छे. अहीं अलग आपवामां आवेला विषयानुक्रम उपर नजर नाखता साथे ज जणाई आवे छे के प्रस्तुत ग्रंथy नाम 'धर्मरत्नकरंडक'धर्मरूपी रनोनो करंडियो-तद्दन यथार्थ छे.
ग्रंथना मूळ श्लोकोनी संख्या ३७६ थाय छे'. मोटाभागना श्लोक अनुष्टपछंदमां छे पण केटलाक अन्य छंदोमां पण छे.
श्लोक सरळ सुगम अने हृदयंगम छे. केटलाक श्लोको तो वांचता साथे समजाई जाय एवा सरळ छे. अने एवा सरळ श्लोकोनी व्याख्या करवाने बदले श्लोकोऽयं स्पष्टः लखी देवामां आव्यं छे. __मोटाभागना श्लोको ते ते विषयनां बेनमून सभाषितो बनवानी क्षमता धरावे छे.
सामान्य रीते 'धर्मकरंडक (ध. र. क.)नी बधी हस्तलिखित प्रतिओमा अवतरणिका पछी मूळ श्लोक के श्लोको अने पछी व्याख्या-टीका छे.
व्याख्यामां मोटे भागे श्लोकना प्रतीको लई पर्यायो आप्या छे. सुगम शब्दोना पर्यायो नथी आप्या. अने क्यारेक संपूर्ण श्लोकनी सगम होवाना कारणे व्यख्या नथी करी.
१. जो के ग्रंथना अंतिम श्लोकमां कुल श्लोक ३३५ थता होवानुं जणाव्युं छे. ग्रथितेऽपि हि विज्ञेयं श्लोकानां सर्वसङ्ख्यया । पूर्वापर्येण सम्पिण्डय पञ्चत्रिंशं शतत्रयम् ॥ ३७६॥
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वेत्रण स्थळे व्याख्या विस्तृत छे. व्याख्यामां आगमादि ग्रंथोना अनेक साक्षीपाठो पण आपवामां आव्या छे. (जओ श्लोक ४७-४८, २४४-४५नी व्याख्या)
क्यारेक मूळ श्लोकना पाठ करतां टीकामां अपायेला प्रतीकनो पाठ भिन्न होय छे. टीका स्वोपज्ञ छे. एटले ग्रंथकारने ज पाछळथी फेरफार करवानो विचार थयो होय एम बनवाजोग छे. अन्य ग्रंथोमां पण आवं बनतुं होय छे. अमे ज्यारे टीकागत पाठ स्वीकार्यो छे त्यारे टिप्पणमा एनो निर्देश अने हस्तप्रतोना पाठ आपी दीधा छे. (जुओ पृ. १६३ टी. १, पृ. २१७ टी. १, पृ. २१८ टी. १, पृ. २२९ टी. १ वगेरे.)
एक स्थळे एवं बन्यं छे के त्रण श्लोकोनी टीका छे पण मूळ श्लोको नथी. अमे टीकागत प्रतीकोना आधारे मूळ श्लोको गोठवीने चोरस ब्रेकेटमा आपी टिप्पणमां निर्देश कर्यो छे. (जुओ श्लोक नं. ८८-९०, पृ. १४१ टी. १)
एक स्थळे एवं बन्यं छे के मूळ श्लोक (१४७)ना स्थळे पूरो श्लोक नथी. अने टीकामां १४५मी गाथानं प्रतीक आपी श्लोकास्त्रयः सुखावबोधा एवं एम लखी दीधं छे. आवा स्थळे श्लोकनी पूर्ति करवानं अमारी पासे कोई साधन न होवाथी ते अधूरो ज मूकवो पडयो छे. (जओ पृ. १९३ टी. १)
आवं ज १८०नी टीका पूरी थया पछी अनमः पर्वताकारः इति श्लोकः सुगम एव (पृ. २२०) लख्यं छे, पण मूळ श्लोको (१७२-१९९) मां आवो कोई श्लोक छे नहीं. अने अना विना ज अवतरणिकामां (पृ. २१७) जणावेल श्लोकानां सप्तविंशतिः थई रहे छे. एटले आ श्लोक ग्रंथकारे पाछळथी काढी नाख्यो होय तेम बने. (पृ. २०० टी. १)
ग्रंथमा चर्च्य विषयो प्रचलित अने जाणीता छे. अष्टप्रकारी पूजाना क्रम अने प्रकारमा वर्तमानमा प्रचलित क्रम अने प्रकार करता फेरफार छे. मलशुद्धिप्रकरणनी गाथा २१ मां पण अहीं ध.र. क. (श्लोक ५०-५८)मां निर्दिष्ट क्रम अने प्रकार मुजब ज वर्णन छे. एटले आ क्रम अने प्रकारनी परंपरा प्राचीन होवानं जणाय छे.
ग्रंथमां के कथामां आवतां विषयोने पष्ट करवा माटे अवतरणो, साक्षीपाठो पण घणां स्थळे आप्यां छे. पांचसोथी वध अवतरणोमां प्राकृत गाथाओनी संख्या मोटी छे. अवतरणोनां मूळ स्थान ज्या ज्या शोधी शकायां छे त्या त्यां ते ते ग्रंथोनां नाम आदि आप्यां छे. अवतरणोने भिन्न टाईपमा मद्रित करवामां आव्यां छे. अवतरणोनी अकादारादिसूचि परिशिष्ट ३मां आपवामां आवी छे. ___ अहीं ध. र. क. मां आवतां अवतरणो मणोरमाकहा वगेरेमां पण मळतां होय
१. विशेष माटे संपादन-उपयुक्त ग्रंथसूचि जुओ. २. जेम के ध. र. क. पृ. ९६ गाथा ८२, मणोरमाकहा पृ. ३२५ गाथा ९९७.
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टीकामा अने कथामा प्रसंगे प्रसंगे संस्कृत - प्राकृत - अपभ्रंशमां सुंदर सुभाषितो, अन्य ग्रंथोनी साक्षीओ आव्या करती होय ज छे. केटलीक विशेष उल्लेखनीय बाबतो ग्रंथमां आवे छे ते आवी छे
:
नवकारमहिमा प्राकृत पद्यमां (पृ. ४३-४४) प्रतिष्ठाविधिवर्णन प्राकृत पद्यमां (पृ. ३१-३५) जिनस्तुति (पृ. ४१, १२६-२७)
अंतिम आराधनानुं वर्णन (पृ. ४५-४७ )
धर्मदेशना (पृ. ५२-५३, ५५-५६, ९९, ११४–१५, ११८)
श्रावक धर्मवर्णन (पृ. १०८ - १०९ )
गुरवर्णन (पृ. ५५)
विद्याप्रसंसा (पृ. १७८)
वसंतऋतुवर्णन (पृ. ६६)
सरोवरवर्णन (पृ. ८२ ) प्रवज्यावर्णन गद्यमां (पृ. ९२ – ९३ ) नरकवर्णन गामां (पृ. ११४)
दारिद्र्यनिंदा (पृ. १०२, ३७२) चार गतिनुं वर्णन (पृ. २७९-८०) स्त्रीमोहवर्णन (पृ. १८० )
आर्यदेश २५॥ (पृ. ८) अशरणभावना (पृ. २१३)
कथाओ
ध. र. क. मां मूळ श्लोकनी व्याख्या कर्या पछी विषयने वधु श्पष्ट करवा माटे प्रसंगे प्रसंगे कथाओ मूकी छे दस हजार श्लोकप्रमाण ग्रंथनो सिंहभाग श्लोकप्रमाण-कथामा रोकायो छे.
मोटाभागनी कथाओ सरळ पहामां छे. कवचित् आलंकारिक उपमा अने श्लेषनो प्रयोग पण छे. मोटाभागना पद्य अनुष्टुप छंदमां छे. कवचित् भिन्न भिन्न छंदो पण छे. कंटलीक कथाओ गद्यमां छे. जेम के १ दुर्गतानारीकथा (पृ. १३२-३), श्रेणिकद्दढता
७०००
१. दुर्गतानारीकथामां पंचाशक टीकानी शब्दशः छाया छे. (पृ. १३३ टी. १) अमृतमुखास्थविरानी कथामा 'मणोरमाकहा' टिप्पण गत प्राकृत कथानुं संस्कृत रूपांतरशब्दशः संस्कृत छाया जोवा मळे छे.
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प्रसंग (पृ. १५३-१५४), कुलवालककथा (पृ. ३३४-४), चोरकथा (पृ. ३८९-९०) अमृतमखास्थविराकथा (पृ. ३७८, ३८६) जेवी केटलीक कथाओ गद्यमां छे. अने केटलीक पद्यकथाओमां पण वच्चे वच्चे गद्य आवे छे. (पृ. २३८-३९, २७९-८०)
गद्यवर्णन पण प्रासादिक शैलीनुं छे. सिद्धर्षिगणिना उपमितिभव पंपचो कथा गद्यनी याद अपावे तेवं. क्यांक समासप्रचुर लांबा आलंकारिक वर्णन पण छे. (पृ. ४०२)
केटलीक कथाओ प्रसिद्ध होवाथी संक्षेपमा ज पूर्ण करी छे. शालिभद्रकथा (पृ. २६७ श्लोक १४), अभयकुमार (पृ. १५५ श्लोक २८), महावीर प्रभु जीवनप्रसंग (पृ. २३३-४ श्लोक १८).
फलसारकथा (श्लोक ४०० प्रमाण), नरकेशरीकथा (श्लोक ४१९) अने चित्रसंभूतिकथा (४४६ श्लोक) जेवी केटलीक दीर्घ कथाओ पण छे.
चालीसथी वध कथाओमां २०थी वध प्राचीन अने प्रसिद्ध ऐतिहासिक छे. दुष्प्रसहसूरि वक्तव्यतामां (पृ. १३९-४०) ईतिहासप्रेमीओने रस पडे तेवी विगतो छे.
अष्टप्रकारीपूजानो महिमा वर्णवती आठ कथाओ, नरचन्द्रकथा (पृ. १६४-१७२), आम्र-लिंबककथा (पृ. ३३५-३३८) वगेरे प्राचीन कथानी शैलीए लखायेली छे. मणोरमाकहा मां पण अष्टप्रकारीपूजाना महिमा उपर अने अन्य विषयो पर पण प्राचीन शैलीनी कथाओ छे. बन्नेमां (ध. र. क. अने 'मणोरमाकहा मां) फलपूजा उपर फलसारनी कथा छे. पण कथा तद्दन जदी जदी छे.
केटलीक कथाओमां केटलंक साम्य पण छे. जेम के मणोरमाकहा मां आवती तेजसारनृपकथानो प्रारंभिक अंश (पृ. २०४-२०७) ध. र. क. मां गंधपूजाना महिमा उपर आवती रनसन्दरकथा (पृ. ५४-६३) जोडे साम्य छे. तेजसारकथाना पाछळना अंश जोडे (पृ. २०७-२१७) ध. र. क. गत दीपकपूजा महिमा उपरनी भानप्रभकथा (पृ. ८०-९३) मळती आवे छे.
मणोरमाकहा ना प्रारंभमां आ. वर्धमानसूरिजीए ग्रंथगत कथाओ बाबतमा लख्यु छे के -
एसो कहापबंधो कओ मए मंदबुद्धिणा वि दढं ।
कत्थइ चरियसमेओ कत्थइ पुण कप्पियाणुगओ ॥ अमुक कथाओ प्राचीन चारित्रानुसार अने अमुक कल्पनानुसार रची छे. एटले आ कथाओ कल्पनानुसार बनी होवानो संभव छे.
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रूपककथाओ
ध. र. क. मां केटलीक रूपककथाओ पण छे. मधबिन्दुनी प्रसिद्ध कथा (पृ. १५-१७) अहीं केटलीक विशिष्टता अने विस्तार साथे जोवा मळे छे.
जुगाइजिणिंदचरिय पृ. १९मां आ कथा संक्षिप्तमा छे.
श्रेष्ठिपुत्रत्रयकथा(पृ. १८-२३)मां पिता द्वारा पुत्रोने अपायेली हितशिक्षा अ नीतिशास्त्रनी वातो मार्मिक छे.
रुद्रदेवनी कथामां कषायोनी भयंकरता बताववा पात्रोनी सरस गूंथणी छे. (: २२१-२२८) आ कथा जगाइजिणिंदचरिय पृ. १९८मां प्राकृत गद्यमां छे.
वसुसार नी कथा (पृ. १६८-६९) छाणामांथी रत्नो बनाववा वगेरे रसप्रद बाव: छे. कथाना पात्रोनी छेल्ले उपनयमां समजण आपी छे. श्रेष्ठि-तीर्थकर, वससार = . पत्रक = जिनागम, भस्म भरेला वहाण = अशुचिमय काया वगेरे. आ कथा मणोरमाकहा'(पृ. १६८-१६९)मा प्राकृत गद्यमा छे.
लोककथाओ अहीं ध. र. क. मा केटलीक लोककथाओ पण छे. आ कथाओ लोकसाहित्यमा घणे ठेकाणे भिन्न भिन्न स्वरूपे जोवा मळे छे.
__ आठसो वर्ष पहेलां आ लोककथाओनं स्वरूप केवं हतं ते जाणवा अने एनी प्राचीनता नक्की करवा माटे आ कथाओवें अध्ययन उपयोगी बने तेवं छे.
ताराचन्द्रनी कथा (पृ. १८६-१९१) अने रत्नचूडरास (रचना सं. १५०९ लगभग) अने रत्नचूडकथानक (रचना वि. सं. १५३०) वगेरेमा आवती रत्नचूडनी कथा' जोडे साम्य धरावे छे.
शुक अने सारिकाना मोढे वेद, पुराण वगेरेना हवाला आपी कहेवाती स्त्रीचरित्र अने परषचरित्रनी कथाओ (पृ. ३४१ -६१) जेवी कथाओ लोकसाहित्यमा विपल प्रमाणमा नजरे चड़े छे'. आने लगती स्वतंत्र रचनाओ पण सूडाबहोंतेरी', शक्सप्तति नामथी थयेली छे.
आमां काष्ठ श्रेष्ठिनी कथा (पृ. ३ ४३-४८) आवश्यक चूर्णि, आवश्यक दारिभद्रीय
१. विशेष माटे जुओ 'लोककथाना मूळ अने कुळ', ले. हरिवल्लभ चू. भायाणी. पृ. २३९-२५३, ३६१.
२. विशेष विगतो माटे जुओ, 'मध्यकालीन गुजराती कथाकोष', भा. १, प्र. साहित्य अकादमी. 'लोककथाना मूळ अने कुळ' (पृ. १०८-१३, ३६१-६२).
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टीका, आवश्यकमलयगिरिटीका (आवश्यकनियुक्तिगाथा ९५९ नी टीकामा), नंदीसूत्रनी टीका, हेमविजयकृत कथारनाकर, उपदेशप्रासाद वगेरेमां पण मळे छे.
रत्नसंदरकथामां (पृ. ५८-५९) पण स्त्रीचरित्रनो प्रसंग आवे छे. आ ज कथामां (पृ. ६०-६२) यक्षागारमा एकठा थयेला कार्पटिको द्वारा कहेवाती आश्चर्यजनक घटनाओनं नजरे जोयेलं बयान वर्णवायु छे..
अमृतमखास्थविराकथा (पृ. ३७७-८६) जवी कथा लोकसाहित्यमा मीठी डोसी अने कडवी डोसीनो कथा तरीके जोवा मळे छे.
आ कथा अने एनी अवांतरकथाओ मणोरमाकहा मां (पृ. ३५-४१) शब्दशः आ ज रीते प्राकृत गद्यमा छे.
शीलसंदरीकथा (पृ. २८१-८५) 'मणोरमाकहां मां (पृ. ८९ थी) प्राकृत गद्यमा छे. आ कथामां आवतां प्राकृत पद्यो ‘मणोरमाकहा मां पण आवे छे.
शीलसन्दरीकथा आख्यानकमणिकोशवृत्ति, पंचशतीप्रबोध, शामळभट्टनी नंदबत्रीसी, नंदोपाख्यान वगेरेमा केटलाक फेरफारो साथे मळे छे'.
आ उपरांत शुभसंग-कुसंग कथामां (पृ. २३४-२ ४०) आवती बे पेटा कथाओ, पिंगलाख्यान (पृ. १८२-१८९) वगेरेनां मूळ लोकसाहित्यमा होवा संभव छे.
३. विशेष माहिती माटे जुओ लोककथाना 'मूळ अने कुळ' पृ. २३९-२५३,
३६१. ४. जुओ 'लोककथाना मूळ अने कुळ' पृ. ७१-७६, १२९-३०, ३५०-५३. ५. विशेष माटे जुओ ‘लोककथाना मूळ अने कुळ' ८. ११, ३०७-११.
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अज्ञातकर्तृक प्राचीन गूर्जर काव्य
धर्मसूरि-बारमासा
संपा. रमणीक शाह
वारमासा काव्यप्रकार प्राचीन गूजराती, राजस्थानी, हिंदी, बंगाळी आदि साहित्यमां शताब्दीओथी प्रचलित छे. प्राचीन गूजरातीमां तो ईस्वीसननी छेक बारमी – तेरमी शताब्दीथी बारमासा-काव्यो मळे छे. उपलब्ध बारमासा-काव्योमांना मोटा भागनां जैन कविओए रचेला छे. बारमासा मळे शृंगारपरक काव्य छे; परंत जैन कविओए शृंगारनिरूपक बारमासा काव्यप्रकारनो वैराग्यबोधक रचनाओमा विनियोग कर्यो छे.' जैनसाहित्यमा आवा शृंगार अने वैराग्य बन्नेने साथे वणी शकाय तेवो विषय धरावतां बे प्रचलित कथानको छे - नेमिनाथ अने राजीमतीनो विवाह-प्रसंग तथा स्थूलभद्र अने रूपकोशानो प्रणयप्रसंग. अने मोटा भागनां जैन बारमासा-काव्यो आ विषयने लईने ज रचायां छे. परंतु आ उपरांत केटलांक बारमासा-काव्यो गुरुनी स्तुतिरूपे पण रचायेला मळे छे. आवं एक विशिष्ट अने प्राचीन बारमासा-काव्य धर्मसूरि-वारहनावउं (धर्मसूरि-बारमासा) नामे, पाटणना हस्तप्रत भंडारनी एक ताडपत्रीय हस्तप्रतमाथी मळी आव्यं छे. अहीं ते प्रथम वार प्रकाशित थाय छे.
पाटणना संघभंडार' नामे ओळखाता हस्तप्रतसंग्रहनी आशरे तेरमा के चौदमा शतकनी ताडपत्रीय प्रत नं. ५६ मा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदिनी नानी मोटी २८ गद्य-पद्य कृतिओ संग्रहाई छे. तेमा क्रमांक २०वाळी प्रस्तुत कृति पत्र २१६थी २२१ पर लखायेली छे. सूचिपत्रमा तेनं नाम धर्मसूरि-स्तति आपेल छे. आ कृतिनी फोटोस्टेट नकल ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अमदावादमा छे. तेना आधारे आ संपादन करवामां आव्यं छे.
प्रस्तुत काव्यना नायक आचार्य धर्मसूरि के धर्मघोषसूरि जैन परंपरामा प्रसिद्ध छे. राजगच्छना आ. शीलभद्रसूरिना तेओ पट्टधर शिष्य हता अने तेमनो समय ईस्वीसननी बारमी शताव्दीनो, लगभग ई.स. ११०० - ११७५ना अरसानो छे.
१. जुओ डॉ. हरिवल्लभ भायाणीनी प्रस्तावना, प्राचीन-मध्यकालीन बारमासा संग्रह भा-१, संपा. डॉ. शीवलाल जेसलपुरा, अमदावाद, १९७४.
२. पत्तनस्थ प्राच्य जैन भाण्डागारीय ग्रन्थसूची, भा. १. संपा. ची. डा. दलाल, वडोदरा, १९३७, पृ. ३७०.
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तत्कालीन राजस्थान तेम ज माळवाना राजेन्द्रो तेमने मान आपता. शाकंभरीना अजयराज, अर्णोराज तथा विग्रहराज चोथाने तेमणे प्रतिबोध्या हता तेवं तेमना शिष्य-प्रशिष्यनी कृतिओमां नोंधायेल छे. अर्णोराजनी सभामां दिगंबर वादि गणचंद्रने तेमणे हराव्यो हतो तेवो उल्लेख तेमां मळे छे. तेमणे सर्वे वादिओने हराव्या हता तेवो संप्रति संपादित काव्यनी १७ मी कडीमा सामान्य निर्देश छे. तेमना नामथी पछीथी धर्मघोष गच्छ नामे स्वतंत्र गच्छ शरू थयो हतो. धर्मघोषसूरिनी स्मृति प्रखर हती अने पोणा प्रहरमां ( छ घडीमां) तेओ ५०० गाथा कंठस्थ करी शकता तेवी किंवदंती ते समये प्रचलित हती. प्रस्तुत काव्यमां कडी ९ मां आ वातनो उल्लेख मळे छे. आवा प्रतिभाशाळी काव्यनायकने काव्यमा भावपूर्वक अंजलि आपवामां आवी छे.
__ आ धर्मघोषसूरिना मुख्य शिष्योमा एक यशोभद्रसूरि हता, जेमणे गद्यगोदावरी' ग्रंथनी रचना करेली. प्रस्तुत काव्यमांना जससूरि ते आ ज आचार्य जणाय छे. आ यशोभद्रसूरिना शिष्य आ. रविप्रभसूरिए धर्मघोषसूरिनी स्तुतिरूपे लखेल एक लघुकाव्य उपरोक्त ताडपत्रीय प्रतमां धर्मसूरि-बारमासानी पूर्वे ज लखायेल मळे छे. आ हकीकत परथी तथा काव्यमांना वर्णन वगेरे परथी कल्पी शकाय छे के प्रस्तुत बारमासा काव्य पण आ. धर्मधोषसूरिना बृहद् शिष्य- प्रशिष्य परिवारमांना ज कोई मुनिए रच्यं हशे. साराये काव्यनो ध्वनि एवो छे के ते समये यशोभदसूरि विद्यमान छे अने कदाच धर्मसूरि पण.
___काव्यनी भाषा गुजराती - राजस्थानी जुदी पडया पूर्वेनी उत्तरकालीन अपभ्रंश, जेने विद्वानोए प्राचीन गूर्जर भाषा' नाम आप्यं छे, ते छे. विविध मात्रामेळ छंदोना यथायोग्य उपयोगथी आणेली गेयता, सुकोमळ मधुर पदावली, चित्रात्मक वर्णनो अने भावाभिव्यक्तिनी कुशळताने कारणे गुरुस्तुति रूपे रचायेल होवा छतां आ बारमासा काव्य प्राचीन गूर्जर काव्योमां अनोखी भात पाडतं काव्य छे. *
काव्यनी फोटोस्टेट नकलनो उपयोग करवा देवा माटे तथा प्रकाशन करवानी संमति माटे हं ला.द. भारतीय संस्कृति विद्यामंदिरनो आभारी छु.
* एक ज हस्तप्रत परथी आ काव्यनं संशोधन कर्य छे. मूळनी अशुद्धिओ पादटीपमा नोंधी छे. पाठशध्धि माटे प्रा. हरिवल्लभ भायाणी साहेबनी सहाय माटे तेओश्रीनो अत्रे आभार मानु छ.
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धमसूरि – बारहनावउं
तिहु यण-मणि-चूडामणिहि, बारहनावउँ धमसुरि' - नाहह । निसुणहु सुयणहु नाण-सह, पहिलउँ सावण-सिरि फुरिय ॥ १ कुवलय-दल-सामल • धणु गज्जइ, न मद्दल-मंडल-झुणि छज्जइ।
विज्जु लडी झबकि हिं लवइ । २ मणहरु वित्थारे वि कलावु, अन्नु करे विणु कलि-केकारवु ।
फिरि फिरि नाचहिं मोरला ॥ ३ मेइणि हार हरिय छवि' णवर, त्री-जण भय उडिढय' नीलंबर ।
वियसिय ६ नव मालइ - कलिय ।। ४ हलि ! तुह कहियइँ गुणहँ निहाणु, धमसुरि अनु जससूरि समाणु ।
अन्न न अत्थि को वि जगि ।। ४ इहु प्रिय ! वरिसंतउ न गणिज्जउ, “ जायवि धमसुरि-गुरु वंदिज्जउ ।
किज्जउ माणु स-जम्मु सफलु ॥ ६
(२) वंदं तह धमसूरि-गुरु', भाद्रव-मासु पहू तु । मयगलि जिम्व गुलुगुलुवि घणि, जलु किउ महिहि प्रभूतु ॥ ७ ११ उहु सहि ! वियसिउ के उडउ, से रउ धवल-विलासु । जससु रि-न यण-परा भविउ, नं से वइ वणवासु ।। ८ पउणि पहरि जिण पंच-सय, पढिविणु१२ विम्हिउ लोउ । तसु धमसुरि-गुरु-तणिय वड, हुयउ न होसइ कोउ १३ ॥ ९
मूल पाठ : १. धमुसुरि २. सामण ३. कलासु ४. छमि पू. उड्डिय ६. वियलिय ७. अनु ८. गणिज्जइ ९. गुरू १०. पहूत्त ११. तह १२. पढिविणि १३. कोइ
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गुज्जरि बोलइ चाल प्रिय, मज्झ म गोरह पूरि । दे सण सुणहु सुहावणिय, वंदे विणु ससूरि ।। १०
महियलि विमलउ सयलु जलु, वय पहुतउ आसोय-मासु । धमसूरि-केरउँ चित्तु जिम्व, वय निम्मलु ठिउ आगासु ॥ ११ चंदा चंदा चंदडा, वय चंदि ण डउं करि चंगु । मंडि-न महि तुहुँ हंसडा, वय ५ भमरुला कमलिहिँ रंगु ॥ १२ जससुरि धवल ह पम्हल हैं, वय कु वलय-दल-सरलाहँ । साव - सलोणह तुम्ह तणहँ, वय बलि-किज्जउँ नयणाहँ ॥ १३ वलि वलि निम्मल रलिय-रूव, वय माणिकथारी'६ रत्ति । प्रिय पलाणि-न सांढडिय, वय वंदहु धमसुरि भत्ति ।। १४
(४)
काति यडउ रलियावणउ, मास पह त उ लोए । पिल्लि-न रहु प्रिया ! देखिवउ, गुरु धमसुरि [......... || १५
हेलि ! ए गुरु धमसूरि ...... ...................] [.......................................] । पाक उ कलम-कियार कण, उहु सू यडउ चणे इ ।। १६
पिल्लि -न रह....... खिल्लि खाउल रासड उ'९, नाचिवि डोल्लिवि बाह । वादिय सवि हाराविया, धमसु रि विद्धि य राह ।। १७
पिल्लि - न....... दी हर-सिह दीवालि यहिं, दीवड़ ला पजलं ति । जससुरि-केरा विमल गुण, तिहु यणु धवलु करंति ॥ १८
पिल्लि - न .......
१४. वय चडावय चंदिण० १५. भमरुल्ला कमलिहिं भरज । १६. राति १७. पेल्ले न १८. धामसूरी १९. रामडउ २०. हाराविय
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२१
रहसाउल मई चल्लिवई, ' किय भावीज खन्न 1 वीख म खंचिसि करहडा, वंदिसु जससुरि धन्न ॥। १९ पिल्लि - न .......
(५)
कमलायर मउलिय सयल, मगसिर ए सिरि पइसारि । पूरि-न प्रियतम ! कोडु महु, चालि-न करहु पलाणि ॥ २० जायवि जससुरि-पय नमहु, [............. धमसुरि-केरइ मुह - कमलि, सरसी ए किउ अवतारु ।। २१ पूरि-न.
J 1
४
भसल विउल परिमल बहल, रणजण " ए सद्दु करंति । धमसुरि तुह सुंदर चरिउ, अनुदिणु ए नं गायति ।। २२ पूरि - न ...........
२५ छद्दं सण निन्नय करण, वादिय ए विहंडण वीर । जय जय सिलसुरि- पाटघर, धमसुरि ए तिहुयण धीर ॥ २३
२
कुंदह कलिय रुहंति नं सिय- दंत हसंति९ ए
,
(६)
2
बहिनि ए मणवण वासु ए नासिवि माण- गइंदु जगि । पहुतउ पोसु सुसीह ए विरहिण - हरिणि हलोहलउ ॥ २४
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समहरि ए सीउ पडेइ चाचरि ए कट्टु करेवि ए.,
२२
८
-
पूरि-न.
मालियडा तुहुँ वाडियहिँ । वियसिय पोस - सिरिहि तणा ।। २५
,
३१
" झलझलइ अंगीठडिय ।
तापहिं नीधण लोकडा || २६
२१. चंधिवहं २२. जसरि वउ । २३. जयवि २४. रणज्झण २५. छाद्दंसण २६. वदिय ए विरुडण धीर । २७. वहिली बहिनि णिए २८. हल्लोहलउ २९. हृयंति ३०. तणी ३१. ज्झेलषढिलइ अगोठडिय ।
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ऊडिवि ए दाडिमडीय२ ए , चडि वायस बीजउरडिय । कुरुलइ ए महुरइ सादि ए , कहि महु धमसुरि - आगविउं || २७
सीयडुलउ माहठु पडइ, रे रे सूया मासु पहूतउ माहु । दंत-वीण-वायणु करहि, रे रे सूया नीधण-जण-मिहुणाई ॥ २८ दलिहिवि पयडिय सरहि महि, रे रे सूया अंगइ ईसर लोय । वात न" पूछहिँ सिरखंडिहिं, रे रे सूया वहइ समालइ कोइ ॥ २९ कुंकुम-पंकिण पिंजरिहिं, रे रे सूया अंगइ ईसर लोय । वात न" पूछहिँ सिरखंडहिं, रे रे सूया ससमइ) सउ अग्घेइ || ३० घडिया-जोयण-लंघणीय, रे रे सूया तुह सा वाहि-न अज्ज । प्रिय आपणा वंदावे, रे रे सूया धमसुरि दुह-गिरि-वज्ज || ३१
(८) पिल्लिवि माहु६ रमाउलउ, मोरा पहुतउ फागुण - मासु । मोरा मुहुर-सरेण लविवि, धमसुरि - आगई नाचु करेहिँ ॥ ३२
..................][............... जगु जिम्व जससुरि-तणउ जसु, मोरा चंदुडउ धवलेइ ॥ ३३ तह सो हहिँ किं सु य-कु सु म, मोरा राता छवछ वडाइं । विरहिय-हियय-महावणह, मोरा दहण- हुयास-समाइं ॥ ३४ बापुरि सहइँ कु सुभडीय, मोरा रुयडी रातु डिलीय । नावइ थवकिय कुंकुमिण, मोरा सयल वि भुंहडलीय ॥ ३५ करहा ! तुहुँ रे वीखडीय, मोरा करि मिल्हे विणु काणि । मणि उमाहु करंति मई, मोरा वंदावि जससूरि [......] ॥ ३६
३२. दाडिवडीय ३३. लोया ३४. पूच्छहिं ३५. समालकेवइ । ३६. ममाउलउ ३७. ना करेहिं ।
......] 1
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चेत्तु पहूतउ मासडउ, रे मालियडा धमसुरि नंदउ लोइ । वणि वणि नव नव फूलडा, रे मालियडा झुंबक झुंबकडेहिं ॥ ३७
हे हेलि म साहेलडि ए, झुंबक झुंबकडेहिं...... राइणि८ झुंबकडिय सहहिं रे मालियडा पाकिय कंचण-तुल्ल । जय जय असभद्रसूरि गुरु, रे मालियडा सुय सुरि-सेहर--फुल्ला ॥३८
हे हेलि म............. मलयानिल विलसेहिं भरु, रे मालियडा मउरिक अंबारामु । धमसुरि अनु जससुरि गुरु, रे मालियडा पुनिहिं लम्भइ सामि ॥ ३९
हे हेलि म.......... ऊडि रे करह ! आजु तुहु, रे मालियडा ३९करिविणु पंखडियाउ । पसरह धमसुरि नामह जिंव, रे मालियडा जससुरि अनु मुणिराउ ॥४०
हे हेलि म............
(१०) पयडउ इहु वइसाहु जगि, पहु तउ आजु गुडे वि । पाडल-परिमल-लोलुअलि, कलयलि पडहुलु देवि ४० ॥ ४१ सहि आजु सु वंदावि मई, धमसुरि नाण - विलासु ......... सहि चालु-न ऊतावलिय, जससुरि-वंदण- रेसि । सहि मज्झ मणु ऊमाहियउ, धमसुरि -- वंदण - रे सि ॥ ४२
सहि आजु सु ...... पाकिय झुंबहिं उववणि, अंबा लुंब रि आज ४१ । कोडि वरिस जं करिज तुहुँ, जससुरि संजम-राज ॥ ४३
____सहि आजु सु.................
.......
....
....
३८. झंबटडिय ३९. करविणु पंखडियाहु । ४०. देइ ४१. अजो
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हरसिय४२ कोइल कुहकुहइ, जित्थु सुकोमल - कंठ ४३ । करहा-आणण-रेसि तुहुँ, प्रिय ! बलावि-न वंठ ॥ ४४
सहि आजु सु ............. वाडि ४४ झोक्कवि करह तुहुँ, खाविसु रुक्खा वेलि । देसु त दावणु तुज्झ हडं, वंदिवि धमसुरि सूरि (?) ॥ ४५
सहि आजु सु........
(११) ४६ झुलकइ दारुण लूय, जिट्ठि ४झुवहिं (?) जुवइ वर । करि लडहिय सिंगारु, नवलु परि पहिरिवि चीवर ॥ ४६ पीयलि करिवि सपिंड, पहिरि किन्नहिं चल कुंडल । ४८ ढलढलंत कंकण-सणाह, हत्थिहिं पुण हत्थल ।। ४७ नवसरु मोत्तिय - हास कंठि कलकंठि ठवे विणु । पाल विसाल चलंत चयलु, पायहिं पहिरेविणु ।। ४८ चालि-न उतावली सहिय, पुरि पुरि विहरं तउ । जायवि धमसुरि नमहु सु, पुणु जससुरि गुणवंतउ ॥ ४९
(१२) माणिणि - माण - महंतु, मयगल - मउ मोडिवि । महि - मंडलि वणि पत्तु ४९, आसाढ सु केसरि ॥ ५० मेहुडलइ नवि गयणि घुडुक्कड़, तहिं खणि विरहिणि-हियउं खुडुक्कड़। पसरिउ इंद्रधणु फुड फारु, किउ ५० विजलिय तरल-झबकारु ॥ ५१ विदलिय-कंद केलि - कपणु ५१ लाविय तणु । ५२विफुरिउ पयणु तवहु दाहिण रवि - संदणु ॥ ५२
४२. केइल्ल डुहडुहइ ४३. कंठो ४४. ज्झोक्कवि ४५. रुखा ४६. ज्झुलकई ४७. ज्यवहिं जवय वर । ४८. ज्झलज्झलंत ४९. पत्तो ५०. विज्जलिय तरल ज्झलकारू । ५१. लालिय ५२. वफरिउ पवयष पयदट्टो
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५२ऊडिय चडि वायस खज्यूरि, लवि महुरई सरि जोइवि दूरि आवंतउ कहि धमसुरि-नाहु, पहुचि जिम्व तसु वंदण जाहु ॥ ५३
(१३) अड् ढाइय - वरिसे हिं, जसु लोए समागमु । अहिय - मासु संपत्तु ५४, मास हिय - मणोरमु ॥ ५४ तहिं वंदउं जससुरि सुहकारु, तवसिरि - कन्नवयंस पयारु । धमसुरि – बाहर – नावउं संतह, हरउ दुरिउ सुह करउ पढंतह ॥ ५५ विन्नत्तिय निसुणे हि, सासण-दिवि सायरु । नंदउ धमसुरि लोए, जा चंद - दिवायरु ।। ५६
॥बारह – नावउं समत्तं ॥
५३. ऊविय ५४. संपत्तो
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धर्मकृत सुभद्रा-सती-चतुष्पदिका (अनुमाने ई.स. १२१० नी आसपास)
कनुभाई शेठ
प्रास्ताविक
प्राचीन – मध्यकालीन गुजराती साहित्यमा विकसेला अनेक काव्यप्रकारोमा चतुष्पदिका (चोपाई) पण एक नोंधपात्र प्रकार छे. चतष्पदिका-चोपाई घणीवार रास प्रकारना पर्याय तरीके पण उल्लेख पाम्यो छे. नेमिनाथ चतुष्पदिका (ई.स. ? ए गजराती साहित्यनी प्रथम चतुष्पदिका कृति छे. अत्रे, 'धर्म कविनी कृति सुभद्रा सती चतुष्पदिका पपरिचय प्रकाशित करी छे.
प्रत परिचय अने संपादनपध्धति प्रस्तुत कृतिनुं संपादन प्राप्त एकमात्र प्रत परथी करवामां आव्युं छे. स्व. अगरचंद नाहटाना (पोथी क्रमांक २१८) संग्रहमा रहेली एक प्राचीन गुटका प्रकारनी हस्तप्रतमा ते पत्र क्रमांक १८८-१९१ पर प्रस्तुत कृति उतारेली छे. प्रतनो पाठ कायम राख्यो छे. क्वचित सुधारो के वधारो ( ) कौंसमा मुक्यो छे.
काव्यना कर्ता : धर्ममुनि प्रस्तुत कृतिना कर्ता धर्ममनि होवानं काव्यना अंते मळता उल्लेख परथी कही शकाय. सुभद्र मंदिर पहुती जाव, सासू ससूरऊ हरखिउ ताव, जिणवर धंम करहु ए कवित्ते, जिनशासण हुइ पर जयवंतो ४०
धर्मे रचेली अन्य बे कृतिओ स्थूलिभद्ररास अने जंबूस्वामिचरिय' २ मळे छे. ते आ ज कविनी रचना होय तेम लागे छे. केम के आ त्रणे कृतिओ एक हस्तप्रतमा सचवायेली छे. जो के अत्रे नोंधवं घटे के आ कृतिनी भाषा एटली प्राचीन रही नथी.
जं फल होइ गया गिरनारे, जं फल दीन्हइ सोना भारे, जं फल लखि नवकारिहि, तं फल स भदा-चरितिं स णिहिं
१. प्राचीन गूर्जर काव्य संचय. संपा. ह. च. भायाणी अने अगरचंद नाहटा. २. प्राचीन गूर्जर काव्य संग्रह. संपा. सी. डी. दलाल
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दियइ घण छह दरिसण श्रवइ, सभग महासइ लाखण कवइ, पहिली सरसति जीभह लग्ग, बंधु तणा तुहु दखउं मग्गा.
२. तास पसाइ कवित हइ धणइ, भणइ चरित स भद्रा तणउ, चंपा-नयरि क हउं विचारो, स भद्र- महासइ निवसइ नारे.
धरम - काजि जसु हरखित चीतो, भवियह निसुणउ कउनिगवीतो ? हाथ पाय पखालइ अंगी, तहिणा धरम ह नाही भंगो.
ने मिसरी-सी दे हरी जाइ, नीका क स म ह पाछी भरइ, जिणु आराहइ चोखइ मंनि, एक वार सो भक्खइ अन्नु
अंबिल निवी करइ उपवास, तप तपेइ सा बारह मास , श्रावक नी छइ उत्तम जाति, जइसी निम्मल पुन्निम - राति
पावास, तप तप सा बारह मासू
म हे सरी घर परिणिय सा ए, पी हरवाटहं धरम करे ए, सासु य पभणइ संभलि वहुए, अवर धरमु तुदु छंडहि सहुए.
अम्ह धरि देउ नारायण अत्थि, वहुडिय जाह म पारसनाथे, सुभदा पभणइ बे कर जोडि, सुर आवहि ते तीसउ कोडि.
८. संभलि सास अक्खउ एहो, जिणवर समउ न अच्छइ देओ, तेउ कोविहि सासू परजलई, जाणहु घिउ वइस करि ढलइ
मणिहि माहि तिनि धरियउ रोस्, एहइ कोवि चढावि म दोसु, मुणिवर एक संसारह भग्गहु, अति धणु तापु तपला लग्गउ.
१०. कठइ देह तसु मनि नवि ढलए, वीस विस्वा तसु संजम पलए, पंचेन्द्रिय तिणि मलियउ मानु, काया कष्ट किधउ अप्पाणु.
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रानि हि जाइवि क वसग देइ, मासह पाखह सो पारे इ. x x x x x x x x x x x x x x x x x
वाउ वाइ तह कोरणु धणउ, मुणिवर अंगहि पडियइ तिणउ, सोनवि हत्थिहिं दे ठउ करए, खरउ ‘दुहेल उ आंखित हझूरए.
१३. पूरिय अवधि चलिउ तहि ठाए, कवणह नयरिय विहरण जाए, अवरि न गइयउ चंपा पइठउ, अंखहि झरं ती सुभदा दीठउ.
सुभद्रा मणइ माह चिंतिं ती, आविउ मुणिवरु तह विहरं ती, वडिय भगति कीयउ विहरणउ, सुभदा अंखहि झडपिउ तिणउं'
सासू हू ती जीमत बै ठी, त्रिणं उ लिपंति स भद्रा दीठी, विकलपु वसि यउ मन्नह मांहिं, वहुडी रहिसिमपीहरि जाहि
सुभद्रा ए भणई संभलि माए, नीकर वयणु कि सहणउ जाए. कवणि काजि तम्हि कीन्हउ रोसो, अम्हह काई चढावि दोसो
वं दइ देव गुणइ नवकारा, नीर गलं ती त्रन्नि वे वारा, महसइ महसइ कहइ न आए, पाच्छिय लोवण देहरि जाए.
१८. अम्हि दीठउ तुम्हारउ चरिउ, धमियउ सोनउ फूकह हरिउ, तउ महसइ निंदइ अप्पाण, ता किवे पहेविदि ऊगेइ भाण.
१९. सुभद्रा भणइं जइ वरतइ धंमु, पाणिउ अन्नु अनेरइ जम्मु . स भद्रा भणइं न पीहरि जाउं, महरि चडाविउ एवड़ नाउ.
२०. सासू ससरासु न मिले हो, भणइ महासइ मई सु कहे हो, खूणो भी तरि छइ लंघती, सासू नणदउला लजंती.
२१.
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सुभद्रा हू या तिन्नि उपवास, गुणि नवकार ह लकळ सहस्स सासणे दे व ति आई य जक्ख, अंबिकदे वी हु इय पर तक्ख.
२२. दूक्खहं रयणिं छइ अधराति, सासणदिवि अनु सुभद्रावाति, चउविह धम्मह हउं सक्खाई, महसइ चिंत म करिजहु काई
२३. सासणदेवि भणिउ सत तोलि, चंपा ढाकिस चारिउ पउलि, नरह नरिंद नाही पाडि, मइ दीन्ही को सकइ उघाडि.
२४. सासणदे वि ति चडिय विमाणि, जाइ देवि आपणइ सुठाणि, स भद भणइं दीठ जंजालो, एक वार जइ उतरइ आलो.
२५. प्रह विहसी जउ हवउ रोलो, नयरि तणिय न उघडहि पउले, ते नवि प्राणिहि पाछी सरहिं, आरडु भरेडु गाविउ करवि.
२६. सासणदेवि ति कहिउ विचारी, सूतु कंताविज कोइ कुमारी, कूवह जल चालणि काढिजे, तिन्नि पऊलि जाइवि छांटिजे.
गयउ वहावउ वे गिहि रायवाला रो विहिं चंपा माहिं, पउलि न उघडहि हुयउ विहाणु, जे वेगि तोलिवि जोयउ पाणु.
२८. तक्खणि नरवइ चडिउ तु खारे, महंता गुपतिय वात विचारे, धूप कडछू पले करि धरि उंहू, देवति दाणव पाछा करहू.
२९. हो वे दियते वेदि ते डाव हू, नयरी माहइ होमू करावउ, जव तिल धीपइ सरिस होम, जाव न लग्गहिं गयणिहिं धूम.
३०. ते खणि महंतउ लागउ भणउ, नाही पाडु को होमहं तणउं, बुध्धि अने री कीजइ काए, पडहु दीयावहु नगरह माहे.
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तेगि चाचरि वाजिउ डागरउ, चंपा पउलि क पाछी करउ करउ कोइ अम्हारउ काजो, नरवइ भणड दिवउ अधराजो.
३२. स भद्रा जइ छीत उ डागरउ, नरवइ राज धणे र उ कर उ, अवर देसि जले धंधोले, सील -. प्रभावि उघाडीस पउले.
३३. धरि थकी सासू ककळरइ (?) विजउ पवाडउ सुभद्रा करइ, अउगी आछु म बोलिसि माए, तुह वयणिहिं महु हियइ दाहो.
सात-वरीसी ते डिप वाला, सत कंतावण लागी ताळा, काचइ तारुणि वांधी चाळणी, सुभद्रा कूवा ऊपरि वूणी(?)
चाबणियह जउ पाणिउ धरे ए, तिन्नि पउलि ऊघाडी करए, लक्खणु कवितु न लंगी घडी, सुभदा सतहिं पउलि उघडी.
तक्खणि राउ रळियात भयउ, तिणि वेगिहि आणिउ हाथियउ. गयवर ऊपरि ठवियउ पाउं, आपण पालउ चलियउं रउ.
३ ७. सुभदा सती बोलइ तिहि ठाए, चउथी पउलि उघाडउ काए, राउ बलइ स भद्रा संभलइ, अवर महासति तह विन तोलइ.
३८. मे घाडं बर धरि यहि छत्त, आगइ नायत जादिति पत्त. करहि कल्याणु भाट नगारी, सूध तालु तसु सुभदा पडी (?)
मिलिय सवासिणि मंगल गायहि, धवल दिपंता वकया -जाहि हू य उछव नगरी मज्झारे, सुभदा पंहु ती सी हदु वारे
४०. सुभद्रा मंदिर पह ती जाव, सासू ससरउ हरखिउ ताव, जिणवर धंमु करहु ए-कवित्ते, जिण-सासणु हुइ पर जयवते.
४१. पढहि गुणहि जे जिणहरि दे हिं, ते नि चइ संसार तरे हि सुभदा-सती- चरित संभलहि सिध्धि सुक्खु लीलइ ने लहहिं.
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संशोधन-वर्तमान १. जीवसमासप्रकरणम्
मूळ - प्राकृत. वृत्ति : मलधारि हेमचन्द्रसूरि-रचित.
वृत्तिकारे पोते स्वहस्ते लखेली गणाती सं. ११६५ नी ताडपत्रीय पोथी(शान्तिनाथ ताडपत्रभंडार - खंभात)ना आधारे पाठसंशोधन-पूर्वकन संपादन; हाल-प्रकाशनाधीन.
सं. पं. शीलचन्द्रविजय गणि.
२.- जीवसमासप्रकरण
सटीकनें विस्तृत गुजराती भाषांतर.
भाषांतरकर्ता - स्व. पंडित चन्दलाल शिनोरवाळा मास्तर. स्व. आचार्य श्रीविजयोदयसूरिजीना मार्गदर्शन हेठळ दायकाओ अगाउ थयेला आ विस्तृत विवेचनन, ताडपत्रीय प्रतिमा मळेला शुद्ध पाठोना आधारे संपादन. हाल - प्रकाशनाधीन.
सं. पं. शीलचन्द्रविजयगणी. ३. प्रबन्ध-चतुष्टय
संपादकः र. म. शाह ४. जैनदर्शन अने सांख्ययोगमां ज्ञान-दर्शन विचारणा. लेखिका : जागृति दिलीप शेठ. आ ग्रंथ मुद्रणस्थ छे. गजरात युनिवर्सिटीनी पीएच. डी.नी पदवी माटे मान्य थयेलो आ महानिबंध छे. तेन जे कंई नूतन प्रदान छे तेनो आछो ख्याल अही आपवामां आवे छे. (१) सांख्ययोगसंमत अने जैनदर्शनसंमत ज्ञान-दर्शननं तलनात्मक अध्ययन अहीं सौ प्रथम रजू थयुं छे. (२) सांख्ययोगनी ज्ञान-दर्शननी विभावना जैनदर्शननी ज्ञानदर्शननी विभावनाने समजवामा केटली सहायभूत छे तेनुं निदर्शन कर्यु छे. (३) जैनसंमत आत्मा सांख्ययोगसंमत आत्मा (पुरष) साथे साम्य नथी.
५. वर्धमानसूरिकृत 'धर्मरत्नकरण्डक' मनि मनिचंद्रविजय वडे संपादित थई शारदाबेन चिमनभाई एज्यकेशनल रिसर्च सेन्टर, अमदावाद तरफथी प्रकाशित थई चूक्यं छे. ए ज सेन्टर वडे 'निग्रंथ नामक संशोधन-वार्षिक ट्रंक समयमा प्रकाशित थशे.
'अनुसंधान-१, पृ. ४१ उपर आपेली माहिती नीचे मुजब सुधारी लेवानी छे.
'कर्मप्रकृति ना संपादक मुनि दिव्यरत्नविजय छे. गुजराती पदार्थसंग्रहकार मुनि अभयशेखरविजय छे. 'धर्मसंग्रहणी -भाग बीजाना अनुवादक मुनि अजितशेखरविजय छे.
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पूरक नोंध क्रमांक पृ. १४, ११४, १४०, १६८, १७३, २१८ ए उदाहरणो प्रा० वा० म० कुलकर्णीए ओळखाव्यां हता, जेनो प्रा. पंडयाए अने में जे ओळखाव्यां छे तेमा समावेश थई जाय छे. प्रा. कुलकर्णी तरफथी माहिती पाछळथी मळी. तेमणे ओळखावेलां नवां उदाहरणो नीचे नोंध्या छ :
पृ. २७, क्रमांक १४ नीचे उमेरो :
'शृंगारप्रकाश, पृ. १००१ अने १००३ उपरनी गाथा. जुओ कुलकर्णी, Prakrit Verses, भाग २, पृ. ४६८, क्रमांक १०५०.
पृ. ३२, क्रमांक ११४ नीचे उमेरो : गाथा० ९६८. 'ध्वन्यालोक अने 'काव्यप्रकाशमां उद्धृत. पृ. ३३, क्रमांक १४० नीचे उमेरो : सेत० १, १० ('लावणं ने बदले 'विग्णाणं) पृ. ३४, क्रमांक १६८ नीचे उमेरो : सेतु० ६, २ (पाठां० दढपरिघटुं). पृ. ३५, क्रमांक १७३ नीचे उमेरो : सेतु० ७, ३६. पृ. ३८, क्रमांक २१८ नीचे उमेरो : 'सरस्वतीकंठाभरण मां तथा 'शृंगारप्रकाशमा उद्धृत जुओ कुलकर्णी, Prakrit Verses, १, पृ, २२७, क्रमांक ९९२. पृ. ४०, क्रमांक २५९ नीचे उमेरो : छठ्ठो अंक, पहेलो संवाद. पृ. ४०, क्रमांक २७४ नीचे उमेरो : छठ्ठो अंक, पद्य १, पछी छठ्ठो संवाद. पृ. ४१, क्रमांक २८१ नीचे उमेरो : 'अभिज्ञानशाकंतल, छठ्ठो अंक प्रवेशकमां पद्य १ पछी. पृ. ४१, क्रमांक २९२ नीचे उमेरो : 'अभिज्ञानशाकुंतल', छठा अंकना प्रवेशकमां.
हेमचंद्राचार्ये जे आर्ष विशिष्टताओनो स्थाने स्थाने निर्देश कर्यो छे, तेनो विचार पिशेल, याकोबी, नित्तीडोल्ची, रिषभचंद्र वगेरेए कर्यो छे. पण ते स्वतंत्र चर्चा मागी ले
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________________ कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य नवम जन्मशताब्दी स्मृति शिक्षण-संस्कार निधिनां प्रकाशनो संपा. मुनि चरणविजयजी 1987 संपा. मुनि पुण्यविजयजी H. C. Bhayani मधुसूदन मोदी 1988 1989 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितमहाकाव्य-मथ 1 (पुनर्मुद्रण) ग्रंथ 2 Studies in Desya Prakrit हेमसमीक्षा (पुनमुद्रण) हेमचंद्राचार्यकृत अपभ्रश व्याकरण (सिद्धहेमगत) (द्वितीय संस्करण) विजयपालकृत द्रौपदीस्वयंवर (पुनर्मुद्रण) कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य स्मरणिका अनुसंधान-१ (अनियतकालिक) अपभ्रंश व्याकरण (हिन्दी अनुवाद) आवश्यक-चूणि संपा. हरिवल्लभ भायाणी 1993 आद्य संपा. जिनविजयजी मुनि 1993 संपा. शान्तिप्रसाद पडया 1993 1993 प्रा. बिन्दु भट्ट मुद्रणाधीन संपा. मुनि पुण्यविजयजी , सहायक रूपेन्द्रकुमार पगारिया संपा. रमणीक शाह प्रबंधचतुष्टय नेमिनंदन ग्रंथमाळाना हमणांनां प्रकाशन अलंकारनेमि मुनि शीलचन्द्रविजय हेमचंद्राचार्य कृत महादेवबत्रीशी-स्तोत्र संपा. मुनि शीलचन्द्रविजय 1989 श्रीजीवसमास-प्रकरण टीकाकार मलधारी हेमचद्रसूरि संपा. मुनि शीलचन्द्रविजय 1994 ,, (गुजराती अनुवाद) च. ना. शिनारवाला 1994 प्राप्तिस्थान : सरस्वती पुस्तक भंडारं, हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८०००१