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________________ पुरवणीरूप नोंध “समुद्र वहाण संवाद नो रसास्वाद करावतां तथा तेनी विविध रचनाखूवीने चर्चतां लेखो पूर्वे लखाया ज छे. कर्तानी अनुवाद - कुशलता प्रत्ये पण अभ्यासीओनं ध्यान गयेलं छे, छतां प्रस्तुत नोधमा उपाध्याय यशोविजयजीनी अनुवादनिपुणतानां केटलांक वधु उदाहरणो समद वहाण संवादमा जडी आवे छे, तेने रज करवानी लालच रोको शकाती नथी. संस्कृतप्राकृत सुभाषितो तथा लोकोक्तिओ - कहेवतोनो उचित रीते अने लाघवपूर्ण शैलीमा विनियोग करवानी उपाध्यायजीनी क्षमता साचे ज अनुपम छे. विद्वानेव विजानाति विद्वज्जनपरिश्रमम् । नहि वन्ध्या विजानाति, गुवी प्रसववेदनाम् । आ सुभाषितनो विनियोग तेमणे आ रीते कर्यो छे : "वांझि न जाणइ रे वेदना, जे हुइ प्रसवतां पुत्र; मूढ न जाणइ परिश्रम, जे हुइ भणतां सूत्र (ढाल २/१०) तो ९मी ढालना चोथा दूहाना उत्तरार्धमां – अने वस्ततः ते दूहामा ज जिम विद्या पुस्तक रही, जिम वलि धन पर-हत्थ - अहीं "पुस्तकस्था तु या विद्या, परहस्तगतं धनम् (कार्यकाले समुत्पन्ने, न सा विद्या न तद्धनम् ॥) आ सुभाषितनो भाव तेमणे सरस रीते गूंथी दीधो छे. जैन दार्शनिक ग्रंथोमा एक प्राकृत सूक्ति आवे छ : रूसऊ वा परो वा मा, विसं वा परियत्तऊ । भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिया ॥ आनो भाव उपाडीने उपाध्यायजी कहे छे : "निज हित जाणी बोलिई नवि शास्त्रविरुध; रूसो पर वलि विष भखो, पणि कहिइं शुद्ध ॥ (ढाल १२/३) हरख नहीं वइभव लाइ, संकटि दुख न लगार; रणसंग्रामिं धीर जे, ते विरला संसारि" (ढाल १६ ना दूहा-३) आमां - सम्पदि यस्य न हर्षो [६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520502
Book TitleAnusandhan 1993 00 SrNo 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1993
Total Pages90
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationMagazine, India_Anusandhan, & India
File Size4 MB
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