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धर्मरत्नकरंडक स्वीपज्ञटीका साथे लगभग दस हजार श्लोक प्रमाण काया धरावतो प्रस्तुत ग्रंथ महाराजा जयसिंह शासित श्रीदायिकाकूप नामना जिनमंदिरथी शोभता गाममां रचायो हतो.
दायिकाकूप गाममा हुंवट वंशमा अलंकारसमा जिंदक श्रेष्ठि अने अजित श्रेष्ठि नामे वे भाईओ रहेता हता. आ बन्ने भाईओए बनावेली पौषधशाळामा स्थिरता दरमियान वि. सं. ११७२ मां आ ग्रन्थनी रचना करवामां आवी छे.
ग्रंथरचनामां आ. वर्धमानसूरिजीने तपस्वी अने यशस्वी उपाध्याय पार्श्वचन्द्रजीए सहयोग आप्यो हतो.
___ग्रंथसंशोधनमा उपाध्याय पार्श्वचन्द्रजी उपरांत मनिश्री नेमिचन्द्रजीए पण संदर योगदान आप्युं छे. __आ ग्रंथनो प्रथमादर्श लखवान पुण्यकार्य गणिवरश्री अशोकचन्द्रजी अने मुनिश्री धनेश्वरजीए कर्यु हतु.
वीस अधिकारोमा वहेंचायेला प्रस्तुत ग्रंथमा आवतां अधिकारोना नाम, पेटा विषयो, कथाओना नाम वगेरे विषयानक्रममा विस्तारपूर्वक बताव्यं छे. अभ्यासीओनी सुगमता खातर भिन्न भिन्न टाईपोनो उपयोग कर्यो छे. अहीं अलग आपवामां आवेला विषयानुक्रम उपर नजर नाखता साथे ज जणाई आवे छे के प्रस्तुत ग्रंथy नाम 'धर्मरत्नकरंडक'धर्मरूपी रनोनो करंडियो-तद्दन यथार्थ छे.
ग्रंथना मूळ श्लोकोनी संख्या ३७६ थाय छे'. मोटाभागना श्लोक अनुष्टपछंदमां छे पण केटलाक अन्य छंदोमां पण छे.
श्लोक सरळ सुगम अने हृदयंगम छे. केटलाक श्लोको तो वांचता साथे समजाई जाय एवा सरळ छे. अने एवा सरळ श्लोकोनी व्याख्या करवाने बदले श्लोकोऽयं स्पष्टः लखी देवामां आव्यं छे. __मोटाभागना श्लोको ते ते विषयनां बेनमून सभाषितो बनवानी क्षमता धरावे छे.
सामान्य रीते 'धर्मकरंडक (ध. र. क.)नी बधी हस्तलिखित प्रतिओमा अवतरणिका पछी मूळ श्लोक के श्लोको अने पछी व्याख्या-टीका छे.
व्याख्यामां मोटे भागे श्लोकना प्रतीको लई पर्यायो आप्या छे. सुगम शब्दोना पर्यायो नथी आप्या. अने क्यारेक संपूर्ण श्लोकनी सगम होवाना कारणे व्यख्या नथी करी.
१. जो के ग्रंथना अंतिम श्लोकमां कुल श्लोक ३३५ थता होवानुं जणाव्युं छे. ग्रथितेऽपि हि विज्ञेयं श्लोकानां सर्वसङ्ख्यया । पूर्वापर्येण सम्पिण्डय पञ्चत्रिंशं शतत्रयम् ॥ ३७६॥
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