Book Title: Aagam 28 TANDUL VAICHAARIK Moolam evam Chaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८] श्री तन्दुलवैचारिक (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “तन्दुलवैचारिक ” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आद्य संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com, M.Ed., Ph.D.) 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [२८] प्रकीर्णकसूत्र- [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+संस्कृतछाया) ------------ मूलं [-] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया 'तन्दुलवैचारिक' प्रकीर्णक(५) श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अर्थ-ग्रन्थाङ्कः-४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं। चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम्)। प्रकाशका-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहकः शवेरी-वेणीचंद सरचंद । इवं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीथ्यां-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । वीर सं० २४५३. विक्रम सं.१९८३. सन १९२७. [ वेतन रू.२-०-०. तन्दुलवैचारिक-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: २०+१३९ मूलांक: ००१ ०५८ ०९६ सूत्र /गाथा मङ्गलं द्वाराणि धर्मोपदेश: एवं तस्य फलम् अनित्य- अशुचित्वादि पृष्ठांक: ००४ ०२७ ०३७ 'तन्दुलवैचारिक' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम पृष्ठांक मूलांक : ००४ ०६५ ११७ सूत्र // गाथा गर्भ-प्रकरणं देहसंहननं - आहारादि उपदेश:, उपसंहार: ००४ ०२९ ०४० ~2~ मूलांक : ०४३ ०७५ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछ दीप- अनुक्रमाः १६१ सूत्र // गाथा जीवस्य दश दशा काल-प्रमाणं पृष्ठांकः ०१६ ०३० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['तन्दुलवैचारिक' मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास- गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतुः शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं” नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | - * हमारा ये प्रयास क्यों? *आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ || II ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है । हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है । अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन -भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधु रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ....... मुनि दीपरत्नसागर....... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२८] प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [-] || 8 || दीप अनुक्रम [3] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. चारिके ॥ ३१ ॥ “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + संस्कृतछाया) - Jan Eaton mac मूलं [ - ], गाथा [१] ...आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया ॥ अथ तदुपपलिय॥ ॥ निरिपजरामरणं वंदिता जिणवरं महावीरं वोच्छं पन्नगमिणं तंदुल वेयालियं नाम ॥ १ ॥ ४४८ ॥ सुणह गणिए दस दसा वासस्याउस्स जह विभजंति । संकलिए वाससए (बोगसिए) जं चाऊ सेम होइ ॥ २ ॥ ॥ ४४९ ॥ जत्तियमित्ते दिवसे जन्तिय राई मुहुत्त उसासे । गव्र्भमि वसह जीवो आहारविहिं च वोच्छामि ॥ ३ ॥ (द्वारगाथा ) ४५० ॥ दोन्नि अहोरत्तसए संपुण्णे सप्तसप्तारं चैव । गर्भमि वसइ जीवो अद्धमहोरत्तमनं च ॥४॥ ॥ ४५१ ॥ एए उ अहोरत्ता नियमा जीवस्स गन्भवामि । हीणाहिया उ इत्तो उवघाघवसेण जायंति ॥ ५ ॥ ।। ४५२ ।। अट्ठ सहस्सा तिनि उ सया मुहुत्ताण पण्णवीसा य । गभगओ वसई जीवो नियमा हीणाहिया इतो ।। ६ ।। ४५३ ।। तिन्नेव य कोडीओ चउदस् य हवंति सयसहस्साई । दस वेव सहस्सा दोनि सया भगवंत वंदना, दश दशायाः प्रतिज्ञा अथ तन्दुलवैचारिक प्रकीर्णकम् ॥ ५ ॥ निर्जीणंजरामरणं बन्दित्वा जिनवरं महावीरं । वक्ष्ये प्रकीर्णकमिदं तदुवैचारिक नाम ॥ १ ॥ शृणुत गणिते वर्षशतायुष्कस्य यथा दश दशा विभज्यन्ते । सङ्कलिते वर्षशते ( व्यवकलिते) यच्चायुः शेर्पा भवति ।। २ ।। यावन्मात्रान् दिवसान् यावती रात्रीमुंहून उद्भासान् । गर्भे वसति जीवः (तान् ) आहारविधिं च वक्ष्ये ॥ ३ ॥ द्वे अहोरात्रश संपूर्ण सप्तसप्तति चैव गर्भे वसति जीवोऽर्द्धमहोरात्रमन्यथ ॥ ४ ॥ एतान्यहोरात्राणि नियमात् जीवस्य गर्भवासे । हीनाधिकानीत उपघात शेन जायन्ते ॥ ५ ॥ अष्ट सहस्राणि त्रीणि तु शतानि मुहूर्तानां पञ्चविशति च। गर्भगतो वसति जीवो नियमात् हीनाधिका Farate the Ony 12. फन्यतासूचा ~4~ ॥ ३१ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [-],गाथा [७] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया %82 प्रत सूत्रांक 4 [-1 A ||७|| पनचीसा य ॥ ७ ॥ ४५४ ।। उस्सासा निस्सासा इत्तिमित्ता हवंति संकलिया। जीवस्स गम्भवास नियमा! हीणाहिआ इत्तो॥८॥ ४५५ ॥ आउसो!-इत्थीप नाभिहिट्ठा सिरादुगं पुष्फनालियागारं । तस्स य हिट्ठा हजोणी अहोमुहा संठिया कोसा ॥९॥ ४५६ ॥ तस्स य हिट्ठा चूयस्स मंजरी तारिसा उ मंसस्स । ते रिउ काले फुडिया सोणियलवया विमुंचंति ॥१०॥ ४५७ ।। कोसायारं जोणी संपत्ता सुकुमीसिया जइया । तइया जीवववाए जोग्गा भणिया जिणिंदेहि ॥ ११ ॥ ४५८ ॥ वारस चेव मुहत्ता उवरि विद्धंस गच्छई सारी उ। जीवाणं परिसंखा लक्खपुरतं च उक्कोसा ॥ १२ ॥ ४५९ ॥ पणपण्णाय परेणं जोणी पमिलायए महिलियाणं । पणसत्तरीय परओ पाएण पुमं भवेऽयीओ ॥१३ ॥ ४६० ॥ वाससयाउयमेयं परेण जा होइ पुत्वइतः ॥६॥ तिस्र एव कोट्यश्चतुर्दश च भवन्ति शतसहस्राणि । दशैव सहस्राणि द्वे शते पञ्चविंशतिश्च ।। ७ ।। उकढ़ासा निःश्वासा एतावमात्रा भवन्ति सङ्कलिताः । जीवस्य गर्भवासे नियमान हीनायिका इतः ।।८। आयुष्मन् -स्त्रिया नाभेरधः शिराद्विकं पुष्पनालिकाकारम् । तस्य चाधो योनिरपोमुखसंस्थितकोशाकारा ॥ ९॥ तस्या अधभूतस्य यादृश्यो मञ्जयस्तादृश्यो मांसस्य ( मर्यः) ।ता कतुकाले स्फुदिताः। शोणितलवान् विमुञ्चन्ति ॥ १०॥ कोशाकारां योनि संप्राप्ताः शुक्रमिश्रिता यदा (ते) । तदा जीवोत्पादे योग्या भणिता जिनेन्द्रः ।। ११ ॥ द्वादशभ्य एव मुहूर्तेभ्य उपरि विध्वंसनागाछति सा तु । जीवानां परिसञ्जया लक्षपृथक्त्वं चोत्कर्षात् ।। १२ ॥ पञ्चपञ्चाशतः परतो. छायोनिः प्रम्लायते महिलानाम् । पञ्चसप्तत्याः परतः प्रायेण पुमान् भवेवीजः ।।१३।। वर्षशतायुष एतत् परतो यावद् भवन्ति पूर्वकोट्यः ।। दीप अनुक्रम 56-52-56-56-% [७]] JIMEReatinaatmasan अत्र गर्भवास-संबंधी वर्णनं क्रियते ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१],गाथा [१४] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१] ||१४|| -दुला i ng inा वासभागाउ ॥१४॥ ४६१ ।। रतुकडा य इत्थी लक्खपुहत्तं च वारसायोन्याहाचारिकासमुहत्ता । पिउसंग्न सयपुहत्तं पारस वासा उ गम्भस्स ॥१५॥ ४६२ ।। दाहिणकुच्छी पुरिसस्स होइ वामा उ| शरादि इस्थियाए उ । उभयंतरं नपुंसे तिरिए अद्वैव वरिसाई ॥ १६ ॥ ४६३ ॥ इमो खलु जीवो अम्मापिउसंयोगे| ॥ ३२ ॥ माऊओयं पिउमुक्कं तं तदुभयसंसर्ल्ड कलुसं किविसं तप्पढमयाए आहारं आहारित्ता गन्भत्ताए बक्कमइ (म०१)(म०२) सत्ताहं कललं होइ, सत्ताहं होइ अब्बुयं । अन्चुया जायए पेसी, पेसीओवि घणं भवे ॥१७॥ ४६४ ॥ तो पढ़मे मासे करिसूर्ण पलं जायई बीए मासे पेसी संजायए घणा तईए मासे माउए डोहलं जणइ चउत्धे मासे माऊए अंगाई पीणेइ पंचमे मासे पंच पिंडियाओ पाणि पायं सिरं चेव निवत्तेइ लट्टे मासे पित्तसोणियं उवचिणेइ मत्तमे मासे सत्त सिरासयाई पंच पेसीसयाई नव धमणीओ नवनउयं दानमाऽम्लाना, (पुंसः) सर्वायुषो विंशतिनमभागस्तु ।।१४।। रक्तोत्कटा तु स्त्री, लक्षधक्वं च, द्वादश मुहूर्त्तान् । पितृसङ्ख्या शतपृथक्वं, द्वादश वर्षाणि गर्भस्य ।।१५।। दक्षिणकुक्षिः पुरुषस्य भवति वामा नु स्त्रियाच । उभयान्तरं नपुंसकरूप, तिरधि अष्टावेव वर्षाणि ॥ १६॥ अयं खलु जीवो मातापितृसंयोगे मातुरोजः पितुः शुक्र तत्तदुभयसंसृष्टं कलुपं किल्विषं तत्प्रथमनयाऽऽहारमाहार्य गर्भतया व्युत्कामति । हाम्. १) सपाई करलं भवति सप्ताहं भवत्यर्बुदम् । अर्घाज्जायते पेशी, पेशीतोऽपि धनं भवेत् ॥ १७ ॥ ततः प्रथमे मासि कोंन । पढ़ जायते, द्वितीये मासे पेशी संजायते घना, तृतीये मासे नातुर्दोहदं जनयति, चतुर्थे मासे मानुरङ्गानि प्रीणयति, पञ्चमे मासे पञ्च ॥ ३२ ॥ पिण्डिकाः पाणी पादौ शिरति नियति, पप्ठे मासे पित्तशोणितमुपचिनोति, सत्रमे मासि सप्त शिराशतानि पज़ पेशीशतानि नव धमना:। दीप अनुक्रम [१७] JAMERustiniammaunal ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [२] ||१७|| दीप अनुक्रम [१९] “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + संस्कृतछाया) - मूलं [२], गाथा [१७] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ २८ ], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया Estimaal च रोमकुवसयसहस्साई ००००००० निवते, विणा केसमंसुणा, सह केसमंसुणा अजुडाओ रोमकृवकोडीउ निवत्तेह ३५०००००० अट्टमे मासे वित्तीकप्पो हवइ (सू० २) (सू० ३) जीवस्स णं भंते! गभगयस्स समाणस्स अस्थि उधारेइ वा पासवणेइ वा खेलेइ वा सिंघाणे या पित्तेइ वा सुक्केइ वा सोणिएइ वा ?, नो इण्ट्ठे समहे, से केणद्वेगं भंते! एवं बुधइ जीवस्स भगयस्स समाणस्स नत्थि उच्चारे वा जाव सोणिएइ वा ?, गोपमा ! जीवे णं गन्भगए समाणे जं आहारमाहारे तं चिणाइ सोइंदियत्ताए चक्खुइंद्रियत्ताए वाणिदिअत्ताए जिभिदियत्ताए फासिंदियत्ताए अहिअट्टिमिंज केसमंसुरोमनहत्ताए से एए अट्टेणं गोगमा ! एवं बुचइ जीवस्स णं गभगयस्स समाणस्स नत्थि उधारे वा जाव सोणिए या (सृ० ३) (०४) जीवे णं भंते! गभगए समाणे पह मुद्देणं कावलियं आहारं आहारितए ?, गोपमा ! नो इणट्टे समहे, से नवनवतिं च रोमकूपशतसहस्राणि निर्वर्त्तयति, विना केशश्मश्रुणा सह केशश्मश्रुणा अभ्युष्टा रोमकूपकोटी निर्वर्तयति, अष्टमे मासे वृत्तिक भवति (सू० २) जीवस्य भदन्त ! गर्भगतस्य सतः अस्त्युचारो वा प्रश्रवणं या निष्ठीवनं वा नासिका लेप्मा वा वान्तं वा पित्तं वा शुक्रे या शोणितं वा ?, नायमर्थः समर्थः, तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्त्युचारो वा यावच्छोणितं वा ?, गौतम ! जीव गर्भगतः सन यमाहारमाहारयति तं चिनोति श्रोत्रेन्द्रियतया चक्षुरिन्द्रियतया प्राणेन्द्रियतया रसनेन्द्रियतया स्पर्शनेन्द्रियतया अस्थिमाशरमधुरोमनखतया तद् एतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्त्युषारो या यावच्छोणितं वा (सू० ३) जी * भदन्त ! गर्भगतः मन प्रभुमुखेन कावलिकमाहारमाहर्तुम?, गौतम ! नायमर्थः समर्थः । तत्केनार्थेन भरत ! ए-जी ~7~ www Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [४],गाथा [१७] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [४] ||१७|| ५ तंदुलपैकेणटेणं भंते ! एवं बह-जीवे गं गभगए समाणे नो पह मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ?, गोयमा उच्चाराद्यचारिके 18जीवे णं गम्भगए समाणे सबओ आहारेइ सबओ परिणामेइ सबओ ऊससइ सवओ नीससह अभिक्खणंभावः आ आहारेइ अभिक्खणं परिणामेइ अभिक्खणं ऊससइ अभिक्खणं नीससइ आइच आहारे आहञ्च परिणा- हारविधिः Pामेइ आहच ऊससह आहच निस्ससइ, से माउजीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजीवपडियद्धा पुत्तजीवं फुडा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेड़, अवराऽवि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ तम्हा उपचिणाइ, से एएणं अद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-जीवे गं गम्भगए समाणे नो पह मुहेणं कावलि आहारं आहारित्तए (सू. ४) (सू०५)। जीवे णं गभगए समाणे किमाहारं आहारेइ ?, गोयमा ! जं से || माया नाणाबिहाओ रसविगईओ तित्तकडुअकसायंबिलमहुराई दवाई आहारेइ तओ एगदेसेणं ओअमा-131 गतः सन् न प्रभुखेन कावलिफमाहारमाहर्तुम्, गौतम ! जीवो गर्भगतः सन् सर्वत आहारयति सर्वतः परिणमयति सर्वतः उच्छसिति सर्वतो निःश्वसिति अभीक्ष्णमाहारयति अभीषणं परिणमयति अभीक्ष्णमुच्छसिति अभीक्ष्णं निःश्वसिति आहत्याहारयति आइत्य परिणमयति । आहत्योससिति आहत्य निःश्वसिति, अथ मातृजीवरसहरणी पुत्रजीवरसहरणी मातृजीवप्रतिवद्धा पुत्रजीवस्पृष्टा तस्मादाहारयति तस्मातात्परिणमवति, अपराऽपि च पुत्रजीवप्रतिबद्धा मातृजीवस्पृष्टा तस्माचिनोति तस्मादुपचिनोति, तदेतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-जीवो गर्भ गतः सन् मुखेन कापलिकाहारमाहर्नु न प्रभुः । (सू०४) जीवो गर्भगतः सन् किमाहारमाहारयति ? गौतम ! यत्तस्य माता नानाविधा ॥ ३३ ॥ 18 रसविकृतीस्तिक्तपदुककषायाम्लमधुराणि व्याण्याहारयति तदेकदेशेन ओज आहारयति, तस्य फलवृन्तसदृशी उत्पलनालोपमा भवति || antaraininema * HENR-555 दीप अनुक्रम [२१] ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [५],गाथा [१७] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [५] ||१७|| हारेह, तस्स फलपिंटसरिसा उप्पलनालोवमा भवह नाभी, रसहरणी जणणीए सयाइ नाभीए पडियद्धा नाभीए, ताओ गम्भो ओयं आइपइ, अण्हयंतीए ओयाए तीए गन्भोऽवि वहद जाव जाउत्ति (सू०५) (सू०६) कइणं भंते! माउअंगा पणता?, गोयमा! तओ माउअंगा पण्णत्ता, तंजहा, मंसे सोणिए मत्थुलुंगे । कइ णं भंते! पिउअंगा पण्णता?, गोयमा ! तओ पिउअंगा पण्णत्ता, तंजहा-अढि अद्विमिंजा केस-1 मंसुरोमनहा (सू०६)(सू०७)। जीव णं भंते! गभगए समाणे नरएसु उववजिजा?, गोपमा! अत्थेगइए उववजिजा अत्धेगइए नो उबवजिजा, से केण?णं भंते! एवं बुच्चइ-जीवे गं गम्भगए समाणे नरएस अत्यगइए उववजिजा अत्धेगइए नो उबवजिजा?, गोयमा! जे णं जीवे गम्भगए समाणे सनी पंचिंदिए। सदाहिं पजत्तीहिं पज्जसए बीरियलद्वीए विभंगनाणलदीए वेउविअलदीए, वेउपिलद्विपत्ते पराणीअं आगयं सामाभिः रसहरणी जनन्याः सदा नाभी प्रतिबद्धा, तेन नाभिना गर्भ ओज आदत्ते, अभयां ओजसा तेन गोऽपि वद्धते यापजात इति (सू०५) कति भदन्त ! मात्रङ्गानि प्रज्ञतानि ?, गौतम ! त्रीणि मात्रनानि प्रज्ञप्तानि, नद्यथा-मांसं शोणितं मस्तुलनम् । कति भदन्त ! पैतृकाङ्गानि प्रज्ञतानि ? गौतम ! श्रीणि पैतृकागानि प्रज्ञापानि, तद्यथा--अस्थि अस्थिमिता केशश्मयुरोमनखाः। (०६) जीयो भदन्त ।। गर्भगतः सन् नरकपूरपद्यते ?, गौतम! अत्येक उत्पयेत अस्त्येकको नोत्पद्येत, तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते जीवो गर्भगतः सन| नरकेषु अस्येकक उत्पयेत अस्त्येकको नोत्पयेत?, गौतम ! यो जीवो गर्भगतः सन सझी पञ्चेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तको वीर्यलब्धिको विभमानलब्धिको वैशियलब्धिकः, क्रियरब्धिप्रामः परानीकमागतं श्रुत्वा निशम्य प्रदेशाभिकाशयति, निष्काज्य बैकि-* दीप अनुक्रम [२२] गर्भगत-जीवस्य नरकेषु उत्पत्ति: ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [७],गाथा [१७] ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१७|| + तंदलवसुचा निसम्म पएसे निच्छ्रहर निहित्ता वेउविसमुग्याएणं समोहणइ समोहणित्ता चाउरंगिणि सेन्नं 11 मातापित्रसन्नाहेइ सन्नाहित्ता परागीएण सद्धिं संगामं संगामेइ, से णं जीवे अत्थकामए रज्जकामए भोगकामए काम- गानि नारकामए अत्थकंखिए रजकंग्विए भोगकंखिए कामकंखिए अत्यपिवासिए रजपिवासिए भोगपिवासिए काम-ICIकसरतयोसापिवासिए, तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसिए तत्तिवज्झवसाणे तयट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणो तम्मा- पादः दवणाभाविए, एयंसि च णं अंतरंसि कालं करिजा नेरइएसु उववजिज्जा, से एएणं अटेणं एवं बुधइ गोयमा ! जीवे णं गम्भगए समाणे नेरइएसु अत्यगइए उवव जिजा, अत्धेगइए नो उववजिजा (सू०७)। (सू०८)। जीवे णं भंते! गम्भगए समाणे देवलोएसु उववजिजा?, गोयमा ! अस्गइए उववजिजा अत्थेगइए नो उववजिजा, से केणद्वेणं भंते! एवं बुचइ-अत्धेगइए उववजिजा अन्धेगइए नो उववजिजा? | यसमुचातेन समवहन्ति समबहला चातुरङ्गिनी सेना सन्नावति, सन्नह्य परानीकेन सार्द्ध सङ्काम सङ्कामयति, स जीवोऽर्थकामको | राज्यकामको भोगकामकः कामकामकः, अर्थकाशितो राज्यकाडितो भोगकाशितः कामकाशितः, अर्थपिपासितो राज्यपिपासितो भोगपिपासितः कामषिपासितः, तचित्तसन्मनास्ल श्यस्तस्यवसितस्तत्तीत्राध्यवसानः तदोपयुक्तस्तदप्तिकरणसद्भावनाभावित एतस्मिवेदन्तरे। | कालं कुर्यात् नैरयिकेपूत्पोत, तदेतेनाइँन एवमुच्यते-गौतम! जीबो गर्भगतः सन् नैरषिकेषु अस्येकक उत्पयेत अस्त्येकको नोपोत ।। ( सू०७ ) जीयो भदन्त ! गर्भगतः सन देवलोकेपूपयेत? गौतम ! अस्त्येकक उत्पोत अस्त्येकको नोस्पोत । तत्केनार्थेन भदन्त ॥ ३४॥ एवमुच्यते ? अस्त्येकक उत्पयेत अत्येकको नोत्पद्येत?, गौतम! यो जीवो गर्भगतः सन् सज्ञिपञ्चेन्द्रियः सर्वामिः पांनिभिः | दीप अनुक्रम [२४] JAHEBuitihaarhade | गर्भगत-जीवस्य देवेषु उत्पत्ति: ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [८],गाथा [१७] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१७|| गोयमा! जे णं जीवे गम्भगए समाणे सपणी पंचिंदिए सबाहिं पजत्तीहिं पजत्तए विउविषलद्धीए चीरियलदीप ओहिनाणलद्वीप तहास्वस्स समणम्स वा माहणस्स या अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुचयणं । सुचा निसम्म तओ से भवद तिवसंवेगसंजायसहे तिवधम्माणुरायरसे, से गं जीवे धम्मकामए पुषणकामए मग्गकामए मुक्खकामा धम्मकंखिए पुन्नकंखिए सम्गकंखिए मुक्वकंखिए धम्मपिवासिए पुन्नपियासिएर मग्गपिवासिए मुक्नपिवासिए, तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिबज्झवसाणे तदप्पिय करणे तयहोवउत्ते तम्भावणाभाविए, एयंसि गं अंतरंसि कालं करिजा देवलोएसु उववजिज्जा, से एएणं अट्टेणं गोयमा! एवं बुचइ-अत्धेगइए उववजिजा अत्धेगहए नो उववजिल्ला ।। (सू०८)(सू०९) जीवे णं भंते !! गभगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंथखुजए वा अच्छिज्ज वा चिट्ठिज वा निसीइज्ज वा तुयहिज पर्याप्तकः वैशियलब्धिको वीर्यलब्धिकोऽवधिज्ञानलब्धिकस्तथारूपस्य श्रमणस्य वा माहनस्य वाऽन्तिके एकमप्यार्य धार्मिर्फ मुवचनं | भुत्वा निशम्य ततः स भवति तीनसंवेगसञ्जातश्रद्धतीप्रधर्मानुरागरक्तः स जीवो धर्मकामः पुण्यकामः स्वर्गकामो मोक्षकामः, धर्मकाद्धितः पुण्यकाशितः स्वर्गफाडिनो मोक्षकाशितः, धर्मपिपासितः पुण्यपिपासितः स्वर्गपिपासितो मोक्षपिपासितः, नचित्तस्तमनासद्देश्यस्तव्यवसितलत्तीनाध्यबसानस्तदर्पितकरणस्तदर्थोपयुक्तस्तद्भावनाभावितः, एतस्मिन्नन्तरे चेत्कालं कुर्यात् देवलोके पूत्पगेत, तदेतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते अत्येकक उत्पयेत अस्येकको नोत्पद्येत ।। (सू०८) जीबो भदन्त ! गर्भगतः सन् उत्ता-18 नको वा पाचंगो वा आम्रकुटजको वा मासीत का तिप्लेद् वा निपीदेन् वा त्वग्वतयेद्वा आश्रयेद्वा शयीत वा मातरि सपन्त्यां स्वपिति | 0-550 दीप अनुक्रम [२५] Manimal ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) --------- मूलं [१],गाथा [२१+प्र०१] ----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [04] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया चारिके प्रत सूत्रांक ॥३५॥ - -- ||१७ +१|| 2055-45-4551--450045-46--X वा आसइज वा सइज वा माऊए सुयमापीए सुयह जागरमाणीग जागरह मुहिआए सुहिओ भवइ दुहि-गर्भावस्था |आए इक्खिओ भवा?, हंता गोयमा! जीवे णं गभगए समाणे उत्ताणए वा जाव दुक्विआए दक्खिओ। भवा (सू०९)(मू०१०)। धिरजापि हुरक्खद सम्म सारकम्बई तओ जगणी । संवाहई तुपा । रक्खा अपंच गम्भं च ॥ १८॥ ४६५ ॥ अणुसुयह सुयंतीए जागरमाणीए जागरइ गम्भो । मुहियाए होइ सहिओ दहिआए इक्खिओ होई ॥ १९॥४६६ । उचारे पासवणे खेले सिंघाणओऽवि से नत्यि । अट्टऽट्टी-14 मिंजनहकेसमंसुरोमेसु परिणामो ॥ २०॥ ४३७ ॥ आहारो परिणामो उस्सासो तह य चेव नीसासो । सबपएसेसु भयई कवलाहारो य से नत्थि ।। (प्र०) एवं बुदिमइगओ गम्भे संबसइ दुक्खिओ जीवो । परमतमसंधयार अमेजनभरिए पएसंमि ॥ २१ ॥ ४६८ ॥ आउसो! तओ नवमे मासे तीए वा पटुप्पन्ने वा अणागए जापत्या जागतिं मुखितायां मुखितो भवति दुःखिताया दुःखितो भवति ?, हन्त ! गौतम! जीवो गर्भगतः सन् उत्तानको वा यावदुःखिवायां दुःखितो भवति ।। (सू०५) खिरजातमपि रक्षति सम्यक् संरक्षति ततो जननी । संवाहयति त्वगवन यति रक्षत्यामानं च गर्भ | च ॥ १८ ॥ अनुस्खपिति स्वपत्यां जामत्यां जागत्ति गर्भः । मुखितायां भवति सुखितो दुःखितायां दुःखितो भवते ।। १५ । उच्चारः प्रश्नवर्ण श्रेष्मा सिद्धानकोऽपि तस्य नास्ति । अभ्यस्थिमिधानखकेशश्मधुरोमनया परिणामः ॥ २० ॥ आहारः परिणाम उच्छासनथैव परिणामः । सर्वप्रदेशेषु भवति कबलाहारध तस्य नास्ति ।। (प्र०) एवं शरीरमतिगतो गर्भ संवसति जीवः । परमतमोऽन्धकारेऽमे-18||३५ ।। भ्यभृते प्रदेशे ।। २१ ।। आयुष्मन ! तो नवमे मासेऽतीते वा प्रत्युत्पन्ने चाऽनागते वा चतुर्गामन्यतरत् माता प्रसूते, तद्यथा-स्त्री का दीप अनुक्रम [२६] अत्र गर्भावस्थाया: वर्णनं वर्तते ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [१०] ||२२|| दीप अनुक्रम [३२] Jan Enim “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र - ५ ( मूलं + संस्कृतछाया) - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... मूलं [१०], गाथा [२२] ...आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया वा चउन्हं माया अन्नपरं पयाय, तंजहा इस्थि वा इत्थिरूवेणं १ पुरिसं वा पुरिसख्वेणं २ नपुंसगं वा नपुंगवेणं ३ बिंबं वा विरूवेणं ४ | अप्पं सुकं बहुं अयं इत्थीया तत्थ जायई । अप्पं अयं बहुं सुकं, | पुरिसो तत्थ जाय ।। २२ ।। ४६९ || दुहंपि रत्तसुक्काणं, तुलभावे नपुंसओ । इत्थीओयसमाओगे, बिंबं (वा) तत्थ जाय ||२२|| ४७० || ( सू० १०) ( सू० ११) ॥ अह णं पसवणकालसमयंसि सीसेण वा पाएहिं वा आगच्छइ समागच्छड़, तिरियमागच्छइ विणिघायमावज्जइ (सू० ११) (सू० १२) । कोई पुण पावकारी वारस संवछराई उकोसं । अच्छइ उ गन्भवासे असुइप्पभवे असुइयंमि ॥ २४ ॥ ४७१ || जयमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो | तेण दुक्खेण संमूढो, जाई सरइ नऽप्पणो ॥ २५ ॥ ४७२ ।। विस्सरसरं रतो सो जोणीमुहाउ निष्फिडइ । माऊए अप्पणोऽवि य वेषणमडलं जणेमाणे ।। २६ ।। ४७३ || गन्भवपनि जीवो स्त्रीरूपेण, पुरुपं वा पुरुषरूपेण, नपुंसकं वा नपुंसकरूपेण, विम्बं या विम्वरूपेण, अल्पं शुकं बहावं स्त्री तत्र जायते । अल्पमाचैव बहु शुक्रं पुरुषस्तत्र जायते ||२२|| द्वयोरपि रक्तशुकयोस्तुल्यभावे नपुंसकं ख्यार्त्तवसमायोगे विम्बं तत्र जायते ॥ २३ ॥ ( सू० १० ) अथ प्रसवकालसमये शीर्पण वा पादाभ्यां वा आगच्छति समागच्छति, तिर्यगागच्छति विनिधातमापयते । (सू० ११) कञ्चित् पुनः पापकारी द्वादश संवत्सराण्युत्कृष्टतः । तिष्ठति तु गर्भवासे अशुचिप्रभवेऽचिके ॥ २४ ॥ जायमानस्य यदुःखं श्रियमाणस्त्र वा पुनः । तेन दुःखेन संमूढो जातिं स्मरति नात्मनः ॥ २५ ॥ विस्वरस्वरं रसन् स योनिमुखान्निर्गच्छति । मातुरात्मनोऽपि च वेदनानतुलां जनयन् ~13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+संस्कृतछाया) ---------- मूलं [११],गाथा [२७] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [११] ||२७|| AMRENCE - - तदुलयाकुभापागाम्म नरयसकास । बुच्छा आमझमम्म असुइप्पभव असुइयाम ॥२॥ ४७४ ।। पित्तस्स य शरीरोत्पाचारिके सिंभस्स य सुक्कस्स य सोणियस्सऽविअ मज्झे । मुत्तस्स पुरीसस्स य जायइ जह वकिमिउच्च ॥२८॥४७॥2 दहेतुः ते दाणिं सोयकरणं केरिसर्य होइ तस्स जीवस्स? । मुफहिरागराओ जस्सुप्पत्ती सरीरस्स ॥ २१॥ ४७६॥ ॥३६॥ एआरिसे सरीरे कलमलभरिए अमिज्झसंभूए । निययं विगणिजंतं सोयमयं केरिसं तस्स ? ॥ ३० ॥ ४७७।। |आउसो! एवं जायरस जंतुस्स कमेण दस दसाओ एवमाहि मंति, तंजहा-पाला १ किड्डा २ मंदा ३ वला य ४ पन्ना प ५ हायणि ६ पवंचा ७ । पदभारा ८ मुम्मुही सायणी य १० दसमा य कालदसा ॥३१॥४७८।। जायमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पदमिआ दमा । न तत्व भुंजिउं भोग, जह से अस्थि घरे धुवा ॥३२॥४७॥ १॥ २६ ॥ गर्भगृहे जीवः (नरक) कुम्भीपाकमहशे । उपितोऽमेध्यमध्ये ऽशुचिप्रभवेऽचिये ॥ २७ ॥ पित्तस्य च भोमणध शुक्रस्य च शोणितस्यापि च मध्ये । मूत्रस्य पुरीपस्य च जायते यथा वर्चसि कृमिरिच ॥ २८ ॥ तदिदानी शोधकरण कीदृशं भवति तस्य जीवम्व । शुक्ररुधिराकराद् यसोत्पत्तिः शरीरसा ।। २९ ॥ एतारशे शरीरे कलमलभृतेऽमेध्यसंभूते । नियतं विगण्यमानं शौचमयत्वं कीदृशं तम्या ॥३०॥ आयुष्मन ! एवं जातस्य जन्तोः क्रमेण दश दशा एवमाख्यायन्ते,तद्यथा-थाला १ क्रीडा २ मन्दा ३ बला ४ च प्रज्ञा ५ च | हापनी ६ अपना ७ । प्राग्भारा ८ मुन्मुखी ९ शायनी १० वशमा च कालदशा ।। ३१ ।। जातमात्रस्य जन्तीयों सा प्रथमा दशा । न जाय मित्तस्स जंतुस्स, जा सा पटामिया दसा । न तत्थ मुहं वर्ष वा नजाति बालया ॥1॥ बीयं च दस पत्तो, नाणाकीलाहिं कीई । न य से कामभोगेसु, तिवा उपजई रई ॥२॥ (प्रस्य) - दीप अनुक्रम [३९] -- - - LAIMERaniyaindiate अत्र शरीरोत्पादहेतु: वर्ण्यते, प्राणिनां बाला-क्रीडा आदि दश दाशानाम् वर्णनं क्रियते ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१२],गाथा [३३] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१२] ||३३|| बीयाए किया नाम, जं नरो दसमस्सिओ। किडारमणभावेण, दुलहं गमइ नरभवं ॥ ३३ ॥ ४८० ॥ तईयाए मंदया नाम, जं नरो दसमस्सिओ । मंदस्स मोहभावेणं, इत्थीभोगेहिं मुछिभो ॥ १३४ ॥ ४८१॥ चउत्थी उ बलानाम, जं नरो दसमस्सिओ। समथो पलं दरिसेड, जइ सो भवे निरुवायो ॥ ३५ ॥ ४८२॥ |पंचमी उ दसं पत्सो, आणुपुधीइ जो नरो । समत्थोऽत्थं विचिंते, कई चाभिगच्छ ॥ ३६ ॥४८३।। ण्टी उ तत्र भोक्तुं भोगान् (क्षमः ) यदि तस्य सन्ति गृहे भुवाः ।। ३२ ।। द्वितीयायाः क्रीडा नाम यां नरो दशामाश्रितः । क्रीडारमणभावेन | दुर्लभं गमयति नरभवम् ॥ ३३ ॥ तृतीयाया मन्दा नाम यां नरो दशामाश्रितः । मन्दस्य मोहभावेन श्रीभोगैछितो (भवति ) ॥३४॥3॥ | चतुर्थी तु पला नाम यां नरो दशामाश्रितः । समर्थो बलं दर्शयितुं यदि स भवेनिरुपद्रवः ॥ ३५ ॥ पनामी तु दशां प्राप्त आनुपूर्ध्या यो| नरः । समर्थोऽर्थ विचिन्तयितुं कुटुम्ब पामिगरछति ॥ ३६ ।। षष्ठी तु हापनी नाम यां नरो दशामाभितः । विरज्यते च कामेभ्य इन्द्रियैः | तरच दस पत्तो, पंच कामगुणे मरो। समत्यो भुजि भोर, इसे अस्थि घरे घुमा ।।। इति जीर्णप्रती ॥ ५८०-१० तितौ च । 'मुखदुस्साई बहुं आणति' इत्याथमायोत्तरा।। जातमात्रय जम्तोर्या सा प्रथमा दशा । न सत्र सुख दुख वा नैव जागम्ति बालकाः॥1॥ द्वितीया च वां प्राप्तो नानाकीडामिः कीदति । न तख कामभोगेषु तीमोपचते रतिः ॥१॥ तृतीयों प दशा प्राप्तः पन कामगुणान् नरः । समर्थो भोक्तं भोगान यदि तख सन्धि गडे प्रवाः ॥।॥ दीप अनुक्रम [४७]] च. म. JAMERatinayamanisha ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१२],गाथा [३७] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१२] ||३७|| ५ तदल- हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। विरजई अ कामेसुं, इंदिएसु पहायई ॥ ३७॥ ४८४ ॥ सत्तमी प पचंचा चारिके उ, जं नरो दसमस्सिओ। निच्छुभइ चिक्कणं खेलं, खासई य खणे खणे ॥ ३८॥ ४८५ ।। संकुडअवलीचम्मो, शकम् संपत्तो अट्टमि दसं । नारीणं च अणिट्ठो य, जराए परिणामिओ ॥ ३९॥ ४८६ ।। नवमी मुम्मुहीनाम, जं. दानरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संते, जीवो वसई अकामओ॥ ४० ॥ ४८७ ॥ हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ । दुव्यलो दुक्खिओ सुपइ, संपत्तो दसर्मि दसं ॥४१॥ ४८८ ॥ दसगस्स उवक्खेवो वीसइवरिसो उ गिण्हई विजं । भोगा यतीसगस्स य चत्तालीसस्स बलमेव (विन्नाणं) ॥४२॥ ४८९॥1 पन्नासयस्स चक् हायइ सहिकयस्स पाहुबलं । भोगा य सत्तरिस्स य, असीययस्सा य विन्नाणं ॥ ४३ ॥ ॥४९॥ नउई नमइ सरीरं वाससए जीविरं चयइ । किसिओऽत्य सुहो भागो दुहभागो य कित्तिओ? प्रहीयते ॥ ३७ ।। सप्तमी च प्रपञ्चा तु यां नरो दशामाश्रितः । निष्ठीव्यति चिक्कणं श्रेष्माणं कासते च क्षणे क्षणे ॥ ३८ ॥ सङ्कचितवलीचर्मा संप्राप्तोऽष्टमी दशाम् । नारीणां चानिष्टश्च जरया परिणामितः ॥ ३९ ॥ नवमी मुम्मुही नाम यां नरो दशामाश्रितः । जरा-1 गृहे विनश्यति जीवो वसत्यकामः ॥ ४० ॥ हीनभिन्नखरो दीनो विपरीतो विचित्तकः । दुर्बलो दुःखितः स्वपिति संप्राप्तो दशमी दशाम् | ॥४१॥ दशवर्षस्योपनयनं विंशतिवर्षस्तु गृहाति विद्याम् । भोगाश्च त्रिंशत्कस्य चत्वारिंशत्कस्य यलमेव (विज्ञानं ) ॥ ४२ ॥ पञ्चाश-14 8 . IN||३७॥ साकस्स यहीयते पष्टिकस्म बाहुबलम् । भोगाश्च सप्ततिकस्य अशीतिकस्य चैव विज्ञानम् ।।४३।। नवतिकस्य नमति शरीरं वर्षशते जीवितं | सत्यजति । कियान् अत्र मुखो भागो? दुःखभागश्च कियान् ? ॥ ४४ ॥ (सू० १२) यो वर्षशतं जीवति सुखी भोगांव भुनक्ति । तस्यापि । दीप अनुक्रम [५०] JIMERadinaminaar ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१२],गाथा [४५] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१२] ||४५|| P॥४४॥ ४९१॥ (मू०१२) (मू०१३) जो वाससयं जीवइ, सुही भोगे य भुंजई। तस्सावि सेविउं सेओ, धम्मो य जिणदेसिओ ॥ ४५ ॥ ४१२ ॥ किं पुण सपच्चवाए, जो नरो निचदुक्खिओ। सुहृयरं तेण कायबो, धम्मो य जिणदेसिओ ।। ४६ ॥ ४९३ ।। नंदमाणो चरे धर्म, वरं मे लट्टतरं भवे । अणंदमाणोवि चरे, मा मे पावतरं भवे ॥४७॥४९॥ नवि जाई कुलं वाबि, बिज्जा वावि सुसिक्खिया । तारे नरं व नारिं वा, सर्व पुण्णेहिं वहईते [॥४८॥४९५।। पुषणेहिं हायमाणेहिं, पुरिसगारोऽवि हायई । पुण्णेहिं वहुमाणेहि, पुरिसगारोऽवि बहुई ॥ ४॥ W४९६ ॥ पुण्णाई खलु आउसो! किचाई करणिजाई पीइकराई बन्नकराई धणकराई (जसकराई) कित्ति-IA कराई, नो य खलु आउसो! एवं चिंतेयत्वं-एसंति खलु बहवे समया आवलिया खणा आणापाणू धोवा लवा, मुहुत्ता दिवसा अहोरत्ता पक्खा मासा रिऊ अयणा संवच्छरा जुगा वाससया वाससहस्सा बाससयस-16 सेवितुं श्रेयान धर्मध जिनदेशितः ॥ ४५ ॥ किं पुनः सत्यपाये यो नरो नित्यदुःखितः । मुटुतर तेन कर्तव्यो धर्मध जिनदेशितः ॥४६॥ नन्दैश्चरेद् धर्म वरं मे लष्टतरं भवेत् । अनन्दन्नपि चरेत् मा मे पापतरं भवेत् ।। ४७ ।। नैव जातिः कुठं वाऽपि विद्या वाऽपि | सुशिक्षिता । तारपनि नरं वा नारी वा सर्व पुण्यैद्धते ।। ४८ ॥ पुण्येषु हीयमानेषु पुरुषकारोऽपि हीयते । पुण्येषु बर्द्धमानेषु पुरुष-1 कारोऽपि वर्द्धते ॥ १९ ॥ पुण्यानि खलु आयुष्मन् ! कृत्यानि करणीयानि प्रीतिकराणि वर्णकराणि धनकराणि (यशःकराणि ) कीर्तिक-16 राणि, न च खलु आयुष्मन ! एवं चिन्तयितव्यं-एष्यन्ति यादवः समया आवलिकाः क्षणा आनप्राणाः स्तोका लवा मुहूर्ता दिवसा अहोरानाः पक्षा मामा कलयातयनानि संवत्मरा लगानि वर्षशनानि वर्षमहमाणि वर्षशतमामात वर्षकोगो गर्ष मोटागोजा.. ग वर्ग । दीप अनुक्रम [१८] JAMERatinatamanama ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१३],गाथा [४९] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१३] ||४९|| तंदलयाहस्सा बासकोडीओ वासकोडाकोडीओ जत्थ णं अम्हे बहुई सीलाई बयाई गुणाई वेरमणाई पञ्चकखाणादा धर्मेऽनाचारिके पोसहोवयासाई पडिवजिस्सामो पट्टविस्सामो करिस्सामो, ता किमत्थं आउसो! नो एवं चिंतेयधं भवइलस्यं यु |अंतरायबहुले खलु अयं जीविए, इमे च बहवे वाइयपित्तिअसिभियसन्निवाइया विविहा रोगार्यका फुसंति म्यादि॥ ३८॥16 जीवि (सू०१३) (सू०१४) आसी य खलु आउसो! पुर्वि मणुया ववगयरोगायंका बहुवाससयसहस्स- वर्णनम् जीविणो, तंजहा-जुयलधम्मिआ अरिहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विजाहरा, ते|| ण मणुया अणतिवरसोमचारुरूवा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसवंगसुंदरंगा रत्तुष्पलपउमकरचरणकोमलंगुलितला नगणगरमगरसागरचकंकघरंकलक्खणंकियतला सुपइट्ठियकुम्मचारुचलणा अणुपुषिसुजायपीवरंगुलिआ उन्नयतणुतंबनिद्धनहा संठिअसुसिलिगुढगुप्फा एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुष्धिजंघा समुग्गनिबहूनि शीलानि ब्रतानि गुणान् विरमणानि प्रत्याख्यानानि पौषधोपवासान् प्रतिपत्स्यामहे प्रस्थापयिष्यामः करिष्यामः, तकिमत्र आयुष्मन् ! नेवं चिन्तयितव्यं भवति ।, अन्तरायबहुलं खल्विदं जीवितम् , इमे च बहवो बातिकपैत्तिकश्लैष्मिकसान्निपातिका विविधा रोगापातकाः स्पृशन्ति जीवितम् ॥ (सू०१३) आसीरंश्च खलु आयुष्मन् ! पूर्व मनुजा व्यपगतरोगातका बहुवर्षशतसहस्रजीविनस्तद्यथा युगलधार्मिकाः अन्तिो वा पासवर्तिनो वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विद्याधराः, ते मनुजा अनतिवरसोमचाररूपा भोगोत्तमा | भोगलक्षणधराः सुजातसर्वाङ्गसुंदराङ्गाः, रक्तोत्पलपाकरचरणकोमलाङ्गुलीतलाः, नगनगरमकरसागरचक्राकघराङ्गलक्षणालितलाः, सुध-18॥३८॥ |तिष्ठितकूर्मचारुचरणाः, आनुपूर्वी सुजातपीवराङ्गुलिकाः, नग्नततनुताम्रनिग्धनखाः, संस्थितमुश्लिष्टगूढगुल्फाः, एणीकुरुगृन्दावर्त्तवृत्तानुपूर्वी-1 CANCER * CE दीप अनुक्रम [६३] LIKEBusiniyamala wjanitarian अथ युगलधार्मिकादिनां वर्णनं क्रियते ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१४],गाथा [४९] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१४] ||४९|| मुग्गगूढजाणू गयससणसुजायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविकमविलासियगई सुजापवरतुरयगुज्झदेसा आइन्नयव निरुवलेवा पमुइअवरतुरंगसीहअइरेगवदियकडी साहअसोणंदमुसलदप्पणनिग्गरियवरकणगच्छरुसरिसवरवहरवलिअमजमा गंगावत्तपपाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणयोहियउकोसायंतपउमगभी-11 रविअडनाभा उजुपसमसहियसुजायजयतणुकिसिणनियाइजलडहसुकुमालमउपरमणिज्जरोमराई झसवि-18 हगसुजायपीणकुच्छी सोयरा पम्हविअडनाभा संगयपासा सन्नयपासा सुंदरपासा सुजापपासा मिअमाइ-16 यपीणरइपपासा अकरंडपकणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्यवत्तीसलवणधरा कपागसि-11 लायलुज्जलपसस्थसमतलउवचिअवित्थिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवहिपभुया भुयगी-18 सरविउलभोगआपाणफलिहउच्छ्ढदीहवाहू जुगसन्निभपीणरहअपीवरपउट्ठसंठियंउवचियघणधिरसुषद्धसुव| जहाः, समुद्रकनिमप्रगूढजानुकाः, गजश्वसनसुजातसन्निभोरवः, मत्तवरधारणतुल्यविक्रमविलासितगतयः, सुजातवरतुरगगुखदेशाः, आकीर्णयबग्निरुपलेपाः, प्रमुदितवरतुरगसिंहातिरेकवर्तितकटयः, संहतसौनन्दमुशलदर्पणनिगारितवरकनकत्सरुसहगवरवशवलितमध्याः, गङ्गावर्तप्रदक्षिणावर्त्ततरङ्गभङ्कररविकिरणतरुणबोधितविकोशीकृतपनगमीरविकटनाभाः, ऋजुकसमसहितसुजातजापतनुकृष्णसिन्धादेयलदभसुकुमालमृदुरमणीयरोमराजिकाः, अपविहगसुजातपीनकुक्षयः झयोदराः पद्मविकटनाभयः सङ्गतपार्धाः समतपार्धाः सुन्दरपार्धाः | |सुजातपार्धाः, मितमात्रिकपीनरतिदषार्थाः, अपृष्ठकरण्डककनकरुचकनिर्मलसुजातनिरूपहतदेहधारिणः प्रशस्तद्वात्रिंशतभणधराः कनक-1 | शिलानलोज्जालपानममनोपचिनविस्तीर्णपृथुलवनमः श्रीवत्माक्तिवामः परवरपरिषवर्तितभूजाः भजगेश्वरविपलभोग शरीर)-II 9 + दीप अनुक्रम [६४] +- JAMERadimamminine ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [१४] ||४९|| दीप अनुक्रम [६४] मूलं [१४], गाथा [ ४९] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. ...आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया ५ तंदुलवै चारिके ॥ ३९ ॥ “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + संस्कृतछाया) - Jan Eatinimas सुसिलिट्ठपवसंधी रत्ततलोबचियमउयमंसल सुजायलक्खणपसत्य अच्छिदजालपाणी पीवरवहियसुजायकोमलवरंगुलिआ तंवतलिणसुइरुनिनक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा सोत्थिअपाणिलेहा ससिरविसंखचकसोत्थियविभत्तसुविरश्य पाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसल उस भनागवरविउलउन्नयम उदकखधा चउरंगुल सुपमाणकंबुवरसरिसगीवा अवद्विअसुविभत्तचितमंसू मंसलसंठियपसत्यसद्दलविलहणुआ ओअवियसिलप्पवाल विफलसंन्निभावरुद्धा पंडुरससिसगलविमलनिम्मल संखगोखीरकुंददगरयमुणालिया धवलदंतसेदी अखंडता अफुडियदंता अविरलता सुनिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसेदी विव अणेगदंता हुयवहनिद्धंत धोयतत्ततवणिज्वरत्तत लतालुजीहा सारसनवथणियम हुरगंभीर कुंचनिग्घोस दुहिसरा गरुलाययतुंगनासा अवदारि अपुंडरीयवयणा कोका सियधबलपुंडरियपत्तलच्छा आनामिअचावआदानपरिपोत्क्षिप्रदीर्घबाहवः, युगसन्निभपीन रतिदपीवरप्रकोष्ठसंस्थितोपचितघन स्थिर सुबद्धसुत्तसुष्टिपर्व सन्धयः रक्ततलोपचितमृदुक| मांसलसुजातलक्षणप्रशस्ताच्छिद्रजालपाणयः, पीवरवर्तितसुजातको मलवराङ्गुलिकाः, ताम्रठिन शुचिरुचिरनिग्धनखाः चन्द्रपाणिरेखाः सूर्यपाणिरेखाः शङ्खपाणिलेखाचक्रपाणिरेखाः स्वस्तिकपाणिरेखाः शशिरविशङ्खचक्रस्वस्तिक विभच्छसुविरचितपाणिरेखाः, वरमद्दिषवराहसिंहशार्दू उर्पभनागव रविपुलोन्नत मृदुस्कन्धाः, चतुरङ्गुलसुप्रमाणकम्बुवरसहरमीषाः अवस्थितविभक्तचित्रश्मका मांसल संस्थितप्रशस्तशार्दूलविपुलड्नुकाः, परिकर्मितशिलाप्रवाळविम्बफलसन्निभावरोष्ठाः पाण्डुरशशिशकलविमलशङ्खगोक्षीरकुन्ददकर जो मृणालिकाघव लदन्तश्रेणिकाः अखण्डदन्ता अस्फुटितदन्ता अविरलदन्ता मुस्निग्धदन्ताः सुजातदन्ताः एकदन्तश्रेणीवाने कदन्ताः दुतवनिर्मातधौतप्ततपनीय रकतलता Farate they ~20~ युग्म्यादिवर्णनम् ॥ ३९ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१४],गाथा [४९] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१४] ||४९|| है इलकिण्हचिहुरराइसुसंठियसंगयआययसुजायभुमया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुसवणा पीणमसलक बोलदेसभागा अइरुग्गयसमग्गसुनिदचंददसंठिअनिडाला उद्धवपडिपुन्नसोमवयणा छत्तागारसमंगदेसा घणनिचियसुबद्धलक्खणुन्नयकूडागारनिरुवमपिडियग्गसिरा हुयवहनिद्धतधोयतत्सतवणिजकेसंतकेसभूमी सामलीयोंढप्पणनिचिअच्छोडिअमिउविसयमुहमलक्खणपसत्थसुगंधिसुंदरभुयमोयगभिंगनीलकजलपहट्ट-टू भमरगणनिनिउरंवनिचियकुंचिअपयाहिणावत्समुसिरया लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणपमाणपडिपुनसुजायसवंगसुंदरंगा ससिसोमागारा कंता पियदसणा सम्भावसिंगारचारुरुवा पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा, ते णं मणुया ओहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिस्सरा नंदिघोसा सीहलुजिहाः, सारसन वस्तनितमधुरगम्मीरको प्रनिर्घोषदुन्दुभिस्वरा गरुडायतर्जुतुङ्गनासिकाः, विकशितपुण्डरीकवदनाः विकशितधवलपुण्ड|रीकपत्राक्षा आनामितचापरुचिरकृष्णचिकुरराजीमुसंस्थितसङ्गतायतमुजातध्रुवः, आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणाः सुश्रवणाः पीनमांसलकपोलदेशभागाः, अचिरोहतसमप्रसुस्निग्धचन्द्रार्द्धसंस्थितललाटाः, उडुपतिप्रतिपूर्णसौम्यवदनाः छत्राकारोत्तमानदेशाः धननिचितमुबद्धलक्षणोमतफूटाफारनिभनिरूपमपिण्डिकाप्रशिरसः, हुतवहनिर्मातधौततप्ततपनीयकेशान्तकेशभूमयः, शाल्मलीयोण्डनिचितच्छोदितमृदुविशद-| सूक्ष्मलक्षणप्रशस्तमुगन्धिसुन्दरभुजमोचकरानीलकमलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धनिकुरम्बनिचितकुश्चितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्द्धनिरोजाः, लक्षणव्य-13 जनगुणोपपेता मानोन्मानप्रमाणप्रतिपूर्णमुजातसर्वाङ्गसुन्दराजाः शशिसौम्याकाराः कान्ताः प्रियदर्शनाः सद्भावबारधाररूपाः प्रामादीगड दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपाः, ते मनुजा ओघबरा मेघम्बरा हंसम्बराः कौ सम्परा नन्दीपरा नदीयोगा: सिं I PI दीप अनुक्रम [६४] 84505 JIMEResrinivamaiana ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१४],गाथा [४९] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१४] ||४९|| तवलासरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुसरघोसा अणुलोमवाउवेगा कैकग्गहणी कवोयपरिणामा | चारकासउणीफोसपिटुतरोरुपरिणया पउमुप्पलसुगंधिसरिसनीसासा सुरभिवयणा छवी निरायंका उत्तमपसत्था-11 युग्म्यादिइसेसनिरुवमतणू जल्लमलकलंकसेयरपदोसवज्जियसरीरा निरुवलेया छायाउज़ोवियंगमंगा बजरिसहना- वर्णनम् ॥ ४०॥ रायसंघयणा समचउरंससंठाणसंठिया छधणुसहस्साई उहूं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, ते णं मणुया दो छप्पन्नपिट्ट करंडगसपा पण्णात्ता, समणाउसो!, ते णं मणुया पगइभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता पगइपपणुकोह-11 Fमाणमायालोभा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा भद्दया विणीया अप्पिच्छा असन्निहिसंचया अचंडा असिमसि-1 किसिवाणिज्जविवजिया विडिमंतरनिवासिणो इच्छियकामकामिणो गेहागाररुक्खकयनिलया पुढविपुष्फफ लाहारा ते णं मणुयगणा पपणत्ता ।। (सू०१४)(सू०१५) आसी य समणाउसो! पुर्षि मणुयाणं छबिहे 18 स्वरा मजुपोषाः सुखराः सुखरपोषाः अनुलोमवायुवेगाः कङ्कमहणयः कपोतपरिणामाः शकुनीपोसपृष्ठान्तरोरुपरिणताः पद्योत्पलसुगन्धस-| रगनिःश्वासाः सुरभिवदनाः छविमन्तः निरातका उत्तमप्रशस्तातिशेषनिरुपमतनवः जहमलकलङ्करवेदरजोदोपवर्जितनिरुपलेपशरीराः, छायोद्योतिताङ्गोपाङ्गाः, वर्षभनाराचसंहननाः समचतुरखसंस्थानसंस्थिताः पद्धनुःसहस्राण्यूद्धचित्त्वेन प्राप्ताः, ते मनुमाः पदपञ्चाशदधिकद्विशतपृष्ठकरण्डकाः प्रज्ञप्ताः, श्रमणायुष्मन् ! ते मनुजाः प्रकृतिभद्रकाः प्रकृतिविनीताः प्रकृत्युपशान्ताः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभाः मृदु-18 मार्दवसंपन्ना आलीना भद्रका विनीता अल्पेच्छा असंनिधिसंचया अधण्डाः असिमषीकृषिवाणिज्यविवर्जिता विडिमान्तरनिवासिनः ईप्सित- ॥४०॥ कामकामाः गृहाकारक्षकतनिलयाः पृथिवीपुष्पफलाहारा ते मनुजगणाः प्रज्ञताः (सू०१४) आसीरंभ अमणायुष्मन् ! पूर्व मनुजानां पविधानि | दीप अनुक्रम [६४] ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१५],गाथा [१०] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१५] ||५०|| संघयणे, तंजहा-बजरिसहनारायसंघपणे १ रिसहनारायसंघयणे २ नारायसंघयणे ३ अद्धनारायसंघयणे! INI४ कीलियासंघयणे ५ छेवट्ठसंघयणे ६, संपइ खलु आउसो! मणुयाणं छेवट्ठसंघयणे वइ । आसी य आउसो!10 पुर्विमणुयाणं छबिहे संठाणे, तंजहा-समचउरंसे १ नग्गोहपरिमंडले २सादि ३खुजे ४ वामणे ५ हुंडे ६, संपदा खलु आउसो! मणुपाणं हुंडे संठाणे वइ ।। (सू०१५)(सू०१६) संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च मणुयाणं । अणुसमयं परिहायद ओसप्पिणिकालदोसेणं ॥५०॥ ४९७ ।। कोहमयमायलोभा, उस्सन्नं बहुए य मणुयाणं । कूडतुला कूडमाणा तेणऽणुमाणेण सर्वति ।। ५१ ॥ ४९८ ॥ विसमा अज तुलाओ विसमाणि य जणवएसु माणाणि । विसमा रायकुलाई, तेण उ विसमाई वासाई ॥५२॥ ४९९ ॥ विसमेसु य वासेसु। हुंति असाराई ओसहिवलाई । ओसहिदुव्यल्लेण य, आउं परिहायइ नराणं ॥ ५३॥ ५०० ॥ एवं परिहाय-12 संहननानि, तद्यथा-वर्षभनाराचसंहननं अषभनाराचसं० नाराचसं० अर्द्धनाराचसं० कीलिकासं० सेवार्तसंहननं, संप्रति खलु आय-टू मन् ! मनुजाना सेवा संहननं वर्तते । आसीरंश्वायुष्मन् ! पूर्व मनुजाना पद्दविधानि संस्थानानि, तद्यथा-समचतुरस्र म्यपोधपरिमण्डलं | सादि कुटजं वामनं हुण्ड, सम्प्रति खलु आयुष्मन् ! मनुजानां हुण्डं संस्थानं वर्तते । (सू०१५) संहननं संस्थानमुञ्चत्वमायुध मनु-| जानाम् । अनुसमयं परिहीयते ऽवसर्पिणीकालदोपेण ॥ ५० ॥ फ्रोधमदमायालोमा उत्सन्नं बढ़ते च मनुष्याणाम् । कूटतुलाः फूटमानास्तेनानुमानेन सर्वमिति ।। ५१ ॥ विषमा अद्य तुला विषमाणि च जनपदेपु मानानि । विषमाणि राजकुलानि तेन तु विषमाणि वर्षाणि | ॥५२॥ विषमेषु च वर्षेषु भवन्त्यसाराण्यौषधिबलानि । औषधिदौर्बल्येन च आयुः परिहीयते नराणाम् ।। ५३ ॥ एवं परिहीयमाणे *SASARA दीप अनुक्रम [६६] JABERealininamaina IKI ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [१४] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया का प्रत सूत्रांक [१६] ||१४|| R- तंदुलयामाण लाग चदुव कालपबाम । ज धम्मिया मणूसा सुजीवियं जीवियं तेसि ॥ ५४॥ ५०१॥ आउसो से सहननस चारिके जहा नामए के पुरिसे पहाए कपलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसिण्हाए कंठमालकडे आवि-IA स्थानानि दमणिसुवणे अहअसुमहग्यवत्वपरिहिए चंदणोक्किण्णगायसरीरे सरससुरहिगंधगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते 8 ॥४१॥ सुइमालावन्नगविलेवणे कप्पियहारद्वहारतिसरयपालंबपलंयमाणे कडिसुसयसुकयसोहे पिणिद्धगेविले अंगुलिजगललियंगयललियकयाभरणे नाणामणिकणगरयणकडगतुडियथंभियभुए अहिअरूले सस्सिरीए कुंड-12 लुजोबियाणणे मउडदित्तसिरए हारुच्छयसुकयरइयवच्छे पार्लयपलंबमाणसुकयपडउत्तरिजे मुरियापिंगुलंगुलिए नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिघणोवियमिसिमिसिंतविरइयसुसिलिट्सविसिट्ठलट्ठआविद्धवीर| वलए, किं पहुणा?, कप्परुक्खए व अलंकियविभूसिए सुइपयए भवित्ता अम्मापियरो अभिवादइजा, लोके चन्द्रवत्कृष्णपक्षे ये धार्मिका मनुष्यास्तेषां जीवितं मुजीवितम् ।। ५५ ।। आयुष्मन् ! सपथा नाम कश्चित् पुरुषः सातः कृतवलि. कर्मा कृतकौतुकमङ्गलप्रायश्चित्तः शिरसिनातः कण्ठेकृतमालः आविद्धमणिमुवर्णः परिहिताहतमुमहावसः चन्दनचर्चितगात्रशरीरः । सरसमुरभिगन्धगोशीर्षचन्दनानुलितगात्रः शुचिमालावर्ण कविलेपनः कल्पितहाराहारविसरिकप्रलम्बमानमालम्बः कटिसूत्रकमुकृतशोभः | पिनद्ववेयकोऽङ्गुलीयकललितागदललितकचाभरणः नानामणिकनकरन कटकटिकस्तम्भितभुजः, अधिकरूपः सश्रीकः, कुण्डलोद्योतिताननः मुकुट दीपशिरस्क: हारावस्तृत सुकृतरतिदवक्षाः प्रलम्बमाननालम्बसुकृतपटोत्तरीयः मुद्रिकापिङ्गलाङ्गुलिकः आविद्धनानामणिकनकरअविमलमहापनिपुणपरिकर्मितदीप्यमानविरचितमुभिष्टविशिष्टलष्टवीरवलयः, किंबहुना? कल्पवृक्ष इवालातविभूषितः शुचिप्रयतो भूत्वाका CACK दीप अनुक्रम [७१] CACANCATE ॥४१ CAMERessaniiomaina ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [१४] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१६] ||१४|| तए णं तं पुरिसं अम्मापियरो एवं वइजा-जीव पुत्ता! वाससयंति, तंपि आई तस्स नो बहुपं भवइ, कम्हा?, वाससयं जीवंतो वीसं जुगाई जीवइ, बीस जुगाई जीवंतो दो अयणसयाई जीवइ, दो अयणसयाई जीवंतो छ उऊसयाई जीवइ, छ उऊसयाई जीवंतो पारस माससयाई जीवइ, बारस माससयाई जीवंतो चिउवीसं पक्खसयाई जीवइ, चउयीसं पक्खसयाई जीवंतो उत्तीसं राइंदिअसहस्साई जीवइ, छत्तीसं राई-181 दादियसहस्साई जीवंतो दस असीयाई मुहत्तसयसहस्साई जीवइ, दसअसीआई मुहुत्तसपसहस्साई जीवंतो।। |चत्तारि ऊसासकोडिसए सत्त य कोडीओ अडयालीसं च सयसहस्साई चत्सालीसं च ऊसाससहस्साई जीवइ, चत्तारि य ऊसासकोडिसए जाव चत्तालीसं च ऊसाससहस्साई जीवंतो अद्धतेवीसं तंदुलवाहे भुंजह, कहमाउसो! अद्धत्तेवीसं तंदुलवाहे भुंजह?, गोयमा! दुब्बलाए खंडियाणं बलियाए छडियाणं खद-13 मातापितरावभिवादयेत् , ततस्तं पुरुष मातापितरावेवं वदेतां-जीव पुत्र! वर्षशतमिति, तदपि च तस्य नो बहु भवति, कस्मात् ? वर्षशतं जीवन IP विंशति युगानि जीवति, विंशति युगानि जीवन द्वे अवनशते जीवति, द्वे अयनशते जीवन षड् मातुशतानि जीवति, पड़ ऋतुशतानि जीवन 31 द्वादश मासशतानि जीवति, द्वादश मासशतानि जीवन चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवति, चतुर्विशतिपक्षशनानि जीवन पत्रिंशतं रात्रिदिवसह-| खाणि जीवति, पत्रिंशद्वात्रिंदिवसहस्राणि जीवन अशीतिसहस्राधिकदशमुहूर्तशतशहस्राणि जीवति, अशी तिसहस्राधिकदशमुहूर्त्तशतसह-18 स्राणि जीवन् चतुःशतसप्तकोट्यष्टचत्वारिंशल्लक्षचत्वारिंशत्सहस्रोच्दासान् जीवति, चतुःशतसप्तकोट्यष्टचत्वारिंशनचत्वारिंशत्सहस्रोच्छासान जीवन् अर्द्धत्रयोविंशतिं तन्दुलवाहान भुनक्ति, कथमायुष्मन् ! अर्द्धत्रयोविंशति तन्दुलबाहान भुनक्ति ? गौतम! दुर्वलया खण्डितानां बलवत्या में दीप अनुक्रम [७१] 22--02 JAMERadimamminine Farthamarsaathwom आयु-गणनायै शाश्त्रिय-गणित दर्शयते, तन्दुलस्य उपमा द्वारा मनुष्याणाम् आहारस्य वर्णनं -- ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [१५] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया -% प्रत सूत्रांक [१६] ||५५|| -4 चारिकेलियाणं पत्थएणं, संविय णं पस्थए मागहए, कल्लं पत्थ १ सायं पत्थो २, चउसहिसाहस्सीओ मागहओगणना IRपत्थो, घिसाहस्सिएणं कवलेणं यत्तीसं कवला पुरिसस्स आहारो, अहावीसं इन्धिपाए, पउवीसं पंडगस्स. ॥४२॥ एवामेव आउसो! एपाए गणणाए वो असईओ पसई दो पसाओ य सेझ्या होड़ चत्तारि सेइया कुलओ पूचित्तारि कुलया पत्थो चत्तारि पत्या आढगं सहिए आढगाणं जहाए कुंभे असीई आढयाण मजिसमे कुंभे "आदगसयं उक्कोसए कुंभे अद्वेव य आढगसयाणि बाहे, एएणं बाहप्पमाणेणं अद्वत्तेवीसं तंदुलवाहे भुंजड, तेय गणियनिधिहा-चत्तारि य कोडिसया सहि चेव य हवंति कोडीओ। असीइंच तंदुलसयसहस्साणि हवंतित्तिमक्खायं ४६०८०००००० ॥ ५५ ॥ ५०२ ॥ तं एवं अद्भत्तेवीसं तंदुलवाहे भुंजतो अद्वण्टे मुग्गकुंभे छटितानां खदिरमुशलप्रत्याहतानां व्यपगततुपकणिकानामखण्डानामस्फुटिताना फलकसारितानामेकैकयी जानां सार्द्धद्वादशपलानां (तन्दुलाना) प्रस्थकः, सोऽपि च प्रस्थको मागधः, प्रातः प्रस्थकः सायं प्रस्थकः, चतुःषष्टिसहस्रतन्दुलो मागधकः प्रस्थः, द्विसाहनि केण कवलेन द्वात्रिशत् कवलाः पुरुषस्याहारः, अष्टाविंशतिः खियाः, चतुर्विंशतिः पण्डकस्य, एवमेवायुष्मन ! एनया गणनया द्वे अमृती प्रमृतिः, द्वे प्रमृती सेतिका भवति, चतस्रः सेविकाः कुलवः, चत्वारः कुलवाः प्रस्थः, चत्वारः प्रस्थाः आढकः, पट्याऽऽटकानां जघन्यः कुम्भः, अशीयाऽ5- ढकानां मध्यमः कुम्भः, आढकशतमुत्कृष्टः कुम्भः, अष्टैवाऽऽउकशतानि बाहः, एतेन वाहप्रमाणेनात्रियोविंशतिं तन्दुलवाहान मुले, ते च ॥ ४२ ॥ गणितनिर्दिष्टा:-चत्वारि च कोटिशतानि पष्टिश्चैव भवन्ति कोट्यः । अशीतिश्च तन्दुलानां शतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् ॥५५।। तदे 4 4-5 * दीप अनुक्रम [७२] JIntbratihaniindian ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [१६] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१६] ||५६|| मुंजइ अण्डे मुग्गकुंभे भुंजतो चउबीसं हाटगसयाई भुंजइ चवीसं जेहादगसयाई भुंजतो उत्तीस लवणपलसहस्साई भुंजइ छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजंतो उप्पडसाडगसयाई निपंसेर दोमासिएणं|8| परिअहएणं मासिएण वा परियट्टेणं वारस पडसाडगसयाई नियंसेइ । एवामेव आउसो! वाससयाउपस्स सवं गणिों तुलिअं मवियं नेहलवणभोयणच्छायणंपि, एवं गणियप्पमाणं दुविहं भणियं महरिसीहि, जस्सऽस्थि तस्स गणिजइ, जस्स नत्थि तस्स किं गणिज्जइ । बबहारगणिअ दिढे सुहुमं निच्छयगर्घ मुणेयम् ।। जह एयं नवि एवं विसमा गणणा मुणेयवा ॥५६॥ ५०३ ॥ कालो परमनिरुद्धो अविभजो तं तु जाण समयं. तु । समया य असंखिज्जा हवंति उस्सासनिस्सासे ॥५७ ॥ ५०४ ॥ हट्ठस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्टस्स | विजंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति बुबइ ।। ५८॥५०५ ।। सत्स पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से बमझत्रयोविंशति तन्दुलवाहान भुञ्जन अर्द्धषष्ठान मुगकुम्भान् भुनक्ति, अर्द्धषष्ठान मुद्कुम्भान भुञ्जन् चतुर्विशति स्नेहाडकशतानि भुनक्ति, चतुर्विशतिं नेहाटकशतानि भुलन पत्रिंशतं लवणपलसहस्राणि मुङ्क्ते, पत्रिंशतं लवणपलसहस्राणि भुञ्जन् षट् पटशाटकशतानि परि-| दधाति द्विमासिकेन परिवन, मासिकेन वा परिवर्तेन द्वादश पटशाटकशतानि परिदधाति, एवमेवायुष्मन् ! वर्षशतायुष्कस्य सर्व गणितं | तुलितं मापितं, नेहलवणभोजनाच्छादनान्यपि, एतद्गणितप्रमाणं द्विविधं भणितं महर्षिभिः । यस्यास्ति तस्य गण्यते, यस्य नास्ति तस्य किं. गण्यते । । व्यवहारगणितं दृष्टं सूक्ष्मं निश्चयगतं शातव्यम् । यद्येतद् नैवैतद् विषमा गणना ज्ञातव्या ॥ ५६॥ कालः परमनिरुद्धोऽवि-18 भान्यो जानीहि समयम् । समयाश्चासलोया भवत उच्छासनिःश्वासौ ।। ५७ ।। हष्टल्यानवकल्पस्य निरुपष्टिष्टस्य जन्तोः । एक उसट्टा-18 ACACACOCCALCCCSK दीप अनुक्रम [४] च. स.८ ४ JAMERatinanathanama मनुष्यस्य उश्वास-नि:श्वासस्य वर्णनं ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [१९] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१६] ||५९|| ५ तंदुल- लवे । लषाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहूत्ते वियाहिए ॥ ५९॥५०६॥ एगमेगस्स णं भंते! मुहत्सस्स केवड्या श्वासादिचारिके उसासा वियाहिया ?, गोयमा ।-तिन्नि सहस्सा सस य सयाई तेवत्तरिं च ऊसासा । एस मुटुत्तो भणिओमानं ना सहि अर्थतनाणीहिं ।। ६० ।। ५०७॥ दो नालिया मुहतो सद्धि पुण नालिया अहोरत्तो। पनारस अहोरतालिकादिपक्खो पक्खा दुधे मासो ॥६१ ॥ ५०८ ॥ दाडिमपुप्फागारा लोहमई नालिआ उ कायवा। तीसे तलम्मि रीतिश्च विरं छिपमाण पुणो वोच्छं ।। ६२ ॥ ५०९॥ छन्नडई पुच्छवाला तिवासजायाएँ गोतिहाणीए । अस्संवलिया उजुय नायर्ष नालियाठि ॥ १३॥५१॥ अहवा उ पुच्छवाला दुवासजापाएँ गयकरेणए । दो। वाला उ अभग्गा नायई नालियाछिदं ॥ ६४ ॥ ५११ ॥ अहवा सुवण्णमासा चत्तारि सुवटिया घणा सूई। चउरंगुलप्पमाणं नायचं नालियाछिदं ॥ ३५॥ ५१२ ॥ उदगस्स नालिआए भवंति दो आढयाउ परिमाणं । मनिवास एष प्राण इत्युच्यते ॥ ५८ ॥ ते सम प्राणाः तोके, ते सप्त स्तोका लवे । लवानां सप्तसप्ततिरेष मुहूर्तो व्याख्यातः ॥५९॥ ४ एकैकख भदन्त ! मुहूर्तस्य कियन्त उसासा व्याख्याताः? गौतम! त्रीणि सहस्राणि सप्त च शतानि त्रिसप्ततिश्योच्छासाः । एष मुहूत्तों भणितः सर्वैरनन्तज्ञानिभिः ॥ ६० ॥ नालिके मुहूर्तः पष्टिः पुनर्नालिका अहोरात्रः, पत्रादशाहोरात्राः पक्षा, पक्षी द्वौ मासः ॥६१॥ दाडिमपुष्पाकारा लोहमयी नालिका तु कर्त्तव्या । तस्यातले छिद्रं छिद्रप्रमाणं पुनर्वक्ष्ये ।। ६२ ।। षण्णवतिः पुच्छवालाविवर्षजाताया २४ गोवत्सिकायाः । असंवलिता ऋजुफा ज्ञातव्यं नालिकाछिद्रम् ।। ६३ ।। अथवा तु पुन्छवालौ द्विवर्षजाताया गजकलमिकायाः । द्वौ ४ ॥४३॥ वाली अभनौ ज्ञातव्यं नालिकाछिद्रम् ॥ ६४ ॥ अथवा सुवर्णमाषाश्चत्वारः सुवर्तिता घना सूची। चतुरनुलप्रमाणा ज्ञातव्यं नालिका दीप अनुक्रम [७७] CAMER JAHEbastiharanaarIA ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [६६] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१६] उदगं च भाणियचं जारिसयं तं पुणो पुच्छं ॥ ६६ ॥ ५१३ ॥ उदगं खलु नायचं काय दूसपट्टपरिपूर्ण । मेहोदगं पसन्नं सारइयं वा गिरिनईए ॥ ६७ ॥ ५१४ ॥ वारस मासा संवच्छरो उ पक्खा य ते उ चवीसं । तिन्नेव य सट्ठिसया हवंति राइंदिआणं च ॥ ६८॥५१५॥ एगं च सयसहस्सं तेरस चेव य भवे सहस्साई। एगं च सयं नउयं हवंति राईदिऊसासा ॥ ६९ ॥ ५१६ ॥ तित्तीस सयसहस्सा पंचाणउई भवे सहस्साई । सत्त य सया अणूणा हवंति मासेण ऊसासा ॥ ७० ॥ ५१७॥ यत्सारि य कोडीओ सत्तेव य हुंति सयसहस्साई । अडयालीससहस्सा चत्तारि सया य वरिसेणं ।। ७१ ॥५१८॥ चत्तारि य कोडिसया सत्त य कोडीओ टुंति अपराओ । अडयाल सयसहस्सा चत्तालीसं सहस्सा य ॥७२॥ ५१९॥ वाससपाउस्सेए उस्सासा ||६६|| दीप अनुक्रम [८५] छिद्रम् ॥ ६५ ॥ उदकस्य नालिकायां भवतो वे आढके परिमाणम् । उदकं प भणितव्यं यादृशं तत्पुनर्वक्ष्ये ॥६६॥ उदकं खलु ज्ञातव्यं |कर्तण्यं दूप्यपदपरिपूतम् । मेघोदकं प्रसन्नं शारदिकं वा गिरिनद्याः ॥ ६७ ॥ द्वादश मासाः संवत्सरच पक्षास्तु ते चतुर्विंशतिः ।। पीण्येव च शतानि पदाधिकानि भवन्ति रात्रिंदिवानाम् ॥ ६८ ॥ एकं च शतसहस्रं त्रयोदशैव भवेयुः सहस्राणि । एकं च शतं नवत्य|धिकं भवन्ति रात्रिदिवोच्छासाः ॥ ६९ ॥ त्रयस्त्रिंशच्छतसहस्राणि पश्चनवतिः सहस्राणि भवेयुः । सप्त च शतान्यन्यूनानि भवन्ति मासेनो-| चट्टासाः ।। ७० ॥ पतसः कोव्यः सप्तैव भवन्ति शतसहस्राणि । अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि चत्वारि च शतानि वर्षेण ।। ७१॥ चत्वारि कोटि-| शतानि सप्त च कोट्यो भवन्त्यपराः । अष्टचत्वारिंशच्छतसहस्राणि चत्वारिंशत्सहस्राणि ॥ ४२ ॥ वर्षशतायुष्कस्यैते उड़ासा एता JAMERananathaiaran ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [७३] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया पारिक ॥४४॥ प्रत सूत्रांक [१६] ||७३|| .......................nnn.५॥ १९॥ राहादा तास तु मुहुत्ताशतवानव सया उ मासेणं । हायति पमत्ताणं न य णं अबुहा वियाणंति ॥ ७४ ॥५२१ ॥ तिनि सहस्से सगले उचायुषः शेषाः सए उडवरो हरइ आउं । हेमंते गिम्हासु य वासासु य होइ नापवं ॥ ७५ ॥ ५२२ ॥ वाससयं परमा इत्तो पंचदश पन्नास हरह निहाए । इत्तो वीसह हायई पालत्ते बुहृभावे य ॥ ७६ ॥५२३॥ सीउण्हपंथगमणे खुहा पियासा: भयं च सोगे य । नाणाविहा य रोगा हवंति तीसाइ पच्छद्रे ॥ ७७ ॥५२४ ॥ एवं पंचासीई नट्ठा पक्षरसमेव || जीवति । जे हुंति वाससइया न प सुलहा वाससयजीवी ॥७८ ॥ ५२५ ॥ एवं निस्सारे माणुसत्तणे जीविए। अहिवडते । न करेह चरणधम्म पच्छा पच्छाणुतप्पिह हा ॥७९॥ ५२६ ॥ पुट्टम्मि सयं मोहे जिणेहिं वरघम्मतित्थमग्गरस । अत्ताणं च न याणह ह जाया कम्मभूमीए ॥ ८० ॥ ५२७॥ नइवेगसमं चवलं जीवियं वन्तो ज्ञातव्याः । प्रेक्षस्वायुषः क्षयमहोनिशंक्षीयमाणस्य ॥ ७३ ॥ रात्रिंदिवेन त्रिंशत्तु मुहूर्ण नव शतानि मासेन । हीयन्ते प्रमत्तानां न चैतद् अबुधा विजानन्ति ॥ ७४ ॥ त्रीणि सहस्राणि सफलानि पट् च शतानि ऋतुवरो हरत्यायुषः । हेमन्ते भीष्मे च वर्षामु च भवति | सातव्यम् ।। ७५ ॥ वर्षशतं परमायुः इतः पञ्चाशतं हरति निद्रया । इतो विंशतिहीयते बालत्वे वृद्धभावे च ॥ ७६ ॥ शीतोष्णपथि-| |गमनानि क्षुत्पिपासे भयं च शोकश्च । नानाविधाच रोगा भवन्ति त्रिंशतः पश्चाद्धे ॥ ७७ ॥ एवं पञ्चाशीतिर्नष्टा पादशैव जीवन्ति ।। ये भवन्ति वर्षशतिका न च सुलभा वर्षशतजीविनः ।। ७८ ॥ एवं निस्सारे मनुष्यत्वे जीविते अभिपतति । न कुरुत चरणधर्म हा पवादनु-15॥४४॥ | तप्स्यथ ।। ७९ ॥ घोषिते स्वयं ओघे [मोहे जिनैर्वरधर्मतीर्थमार्गे । आत्मानं च न जानीथ इह जाताः कर्मभूम्याम् ॥ ८० ॥ नदीवेगसमं| दीप अनुक्रम [९२] CAMERessaniiomaina ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१६],गाथा [८१] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया 5-% प्रत सूत्रांक [१६] ||८१|| जोवणं च कुसुमसमं । सुक्खं च जमनियत्तं तिन्निवि तुरमाणभुजाई ॥ ८१ ।। ५२८ ॥ एवं खु जरामरणं परिखियह वग्गुरा व मियजूहं । न य णं पिच्छह पत्तं संमूढा मोहजालेणं ॥ ८२ ॥ ५२९ ॥ आउसो! जंपि इमं सरीरं हट्ट पियं कंतं मणुपणं मणामं मणाभिरामं धेचं वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगस- माणं रयणकरंड ओविव सुसंगोवियं चेलापेडाएविव सुसंपरिवुडं तिल्लपेडाविव सुसंगोवियं मा णं उण्हं मा 31 हाण सीपं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा पां वाला मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तियसिभियसंनिवाइया विविहा रोगायंका फुसंतुत्तिकडु, एवंपि याई अधुवं अनिययं असासयं चओव चइयं विप्पणासधम्म पच्छा व पुरा व अवस्स विष्पचइयत्वं, एघस्सवि याई आउसो ! अणुपुषेणं अट्ठारस य &ापिट्टकरंडगसंधीओ पारस पांसुलिकरंडया छप्पंसुलिए कडाहे बिहस्थिया कुच्छी चउरंगुलिआ गीवा चउप-16 चपलं जीवितं यौवनं च कुसुमसमम् । सौख्यं च यदनियतं त्रीण्यपि त्वर्यमानभोग्यानि ॥ ८१ ॥ एतत् खलु जरामरणं परिक्षिपति वा-IN गुरेव मृगयूथम् । न चैनं प्रेक्षवं प्राप्तं संमूढा मोहजालेन ॥ ८२ ॥ आयुष्मन् ! यदपि चेदं शरीरमिष्ट प्रियं कान्तं मनोझं मनोमं मनो-13 ऽभिरामं स्वैर्य पैश्वासिकं संमतं बहुमतमनुमतं भानुकरण्डकसमानं रत्नकरण्डकमिव मुसङ्गोप्यं चेलमजूषेव सुसंपरिसूतं तैलभाजनमिव | सुमङ्गोपिनं मा उष्ण मा शीतं मा क्षुधा मा पिपासा मा चौरा मा व्याला मा दंशा मा मशका मा च वातिकपैत्तिकालैष्मिकसान्निपा|तिका विविधा रोगातङ्काः स्पृशन्त्वितिकृत्या, एवमपि चाभुवमनियतमशाश्वतं चयापचवि के विषणाशधर्म पश्चात् पुरा वाऽवश्यं विप्रहातयं, एतस्यापि धायुधमन ! आनुपूर्वेणाष्टादश पृष्ठकरण्टकसन्धयः द्वादश पांशुलिकरण्डकाः पदपांालिकः कटाहः द्विहस्तिका कुक्षिः चतु-18 दीप EDEOCOCCANCER अनुक्रम [१००] JAMERustamanna ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [८२] ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया चारिक प्रत सूत्रांक [१६] ||८२|| ५ तदुलवालिआ जिम्मा दुपलियाणि अच्छीणि चउपवालं सिरं बत्तीस दंता सत्तंगुलिया जीहा अट्टपलिय हिय शरीरेष्टता पणवीस पलाई कालिज, दो अंता पंचवामा पपणत्ता, तंजहा-यूलते य तणुअंते य, तत्थ गंजे से थूलते तेणी संध्यादि उचारे परिणमह, तत्थ णं जे से तणुपंते तेणं पासवणे परिणमइ, दो पासा पण्णसा, तंजहा-वामे पासेटा मान ॥४५॥ दाहिणे पासे य, तत्थ णं जे से वामे पासे से सुहपरिणामे, तत्थ पंजे से दाहिणे पासे से दुहपरिणामे । 8 आउसो! इममि सरीरए सहि संधिसयं सत्तुत्तरं मम्मसयं तिनि अहिदामसयाई नव पहारुयसयाई सत्त सिरासयाई पंच पेसीसयाई नव घमणीउ नवनउई च रोमकूवसयसहस्साई विणा केसमंसुणा, सह केसमंसुणा अट्नवाउ रोमकूवकोडीओ। आउसो! इमंमि सरीरए सहि सिरासयं नाभिप्पभवार्ण उहुगामिणीणं सिरमुवागयाणं जाउ रसहरणीओत्ति खुचंति, जाणंसि निरुवघातेणं चक्खुसोयघाणजीहायलं च भवदा रालिका प्रीवा पतुपला जिवा द्विपले अक्षिणी चतुष्कपालं शिरः द्वात्रिंशदन्ताः सप्ताङ्गला जिला अध्युष्टपलं हृदयं पञ्चविंशतिपलं कालेग्यकं द्वे अन्ने पञ्चवामे प्रक्षसे, तद्यथा-स्थूलाग्नं च तन्वनं च, सत्तत् स्थूलानं तेनोच्चारः परिणमति, तत्र यत्तत्तनुकाचं तेन प्रश्रवणं परिणमति, द्वे पार्षे प्रचसे, तद्यथा-वामपा दक्षिणपाई च, तत्र यचद्वामपा तत्सुखपरिणाम, तत्र यसदक्षिणपा सदुःखपरिणामम् ।। आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे पष्टं सन्धिशतं सप्तोत्तर मर्मशतं त्रीण्यस्थिदामशतानि नव नायुशवानि सप्त शिराशतानि पत्र पेशीशतानि नव | धमन्यः नवनवतिश्च रोमकूपशतसहस्राणि विना केशश्मघुणा अध्युष्टा रोमकूपकोट्यः सह केशवमषुणा, आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे पष्टर-1 ॥ ४५ ॥ द्रधिकं शिराणां शतं नाभिप्रभवाणामूर्ध्वगामिनीनां शिर उपागतानां या रसहरण्य इत्युच्यन्ते, या निरुपघातेन चक्षुःश्रोत्रमाणजिह्वावलं दीप अनुक्रम [१०१] JAMERananathaiana ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१६],गाथा [८२] ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१६] ||८२|| जाणंसि पवघाएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं उवहम्मइ, आउसो! इममि सरीरए सह सिरासयं नाभिप्प-14 भवाणं अहोगामिणीणं पापतलमुवगयाणं जाणंसि निरुवघाएणं जंघापलं हवा, जाणं व से उवधाएणं | सीसवेयणा अद्धसीसवेयणा मत्थयसूले अच्छीणि अंधिजंति । आउसो! इमंमि सरीरए सर्हि सिरासयं ४ तनाभिप्पभवाणं तिरियगामिणीणं हत्वतलमुवगयाणं जाणंसि निरुवघाएणं याहुबलं हवइ, ताणं चेव से उवधाएणं पासवेयणा पोहवेयणा (पुद्विवेयणा) कुच्छिवेयणा फुच्छिमूले भवइ, आउसो! इमस्स जंतुस्स सहि सिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीणं गुदपविट्ठाणं जाणंसि निरुवघाएक मुत्तपुरीसवाउकम्मं पव-13 |सइ, ताणं घेव उवघाएक मुत्तपुरीसवाउनिरोहेणं अरिसाओ खुन्भंति पंडुरोगो भवइ, आउसो! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिराओ सिंभधारिणीओ पणवीसं सिराओ पित्तधारिणीओ दस सिराउ सुकधारिणीओ,12 च भवति, यासामुपपातेन चक्षुःोत्रघ्राणजिलापलमुपहन्यते, आयुष्मन्! अस्मिन् शरीरे पत्याधिक शिराणां शतं नाभिप्रभवाणामधो-16 गामिनीनां पादतलमुपागताना, यासां निरुपधातेन जवाबलं भवति, यासामेवोपघातेन शीर्षवेदना अर्द्धशीर्षवेदना मस्तकशूलं (भवति) अक्षिणी अन्धीयेते, आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे षाध्यधिक शिराणां शतं नामिप्रभवाना तिर्यग्गामिनीनां हसतलमुपागताना, यासां निरु-IN पघातेन वाहुबलं भवति, वासामेवोपघातेन पार्श्ववेदना उदरवेदना (पृष्ठिवेदना ) कुक्षिवेदना कुक्षिशूलं भवति, आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः3 षष्ट्यधिकं शिराणां शतं नाभिप्रभवाणामधोगामिनीना गुदप्रविष्टानां, यासां निरुपपातेन मूत्रपुरीषवायुकर्म प्रवर्त्तते, तासामेवोपघातेन मूत्रपुरीषवायुनिरोधेनाासि क्षुभ्यन्ति पाण्डुरोगो भवति, आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः पञ्चविंशतिः शिराः श्रेष्मधारिण्यः, पश्चविंशतिः शिराः *R984 दीप अनुक्रम [१०१] अथ मनुष्य-शरीरे शिरानां वर्णनं ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [१६] ||63|| दीप अनुक्रम [१०१] “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + संस्कृतछाया) मूलं [१६], गाथा [८२] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. ...आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया तदुल चारिके ॥ ४६ ॥ Estimara सत्त सिरासयाइ गुरसरस तासूणाई इत्यापाए वासूणाई पडree, आउसा इमस्स जंतुस्स कहिरस्म आढयं बसाए अद्वादयं मत्थुलुंगस्स पत्थो मुत्तस्स आढयं पुरीसस्स्स पत्थो पित्तस्स कुलबो सिंभस्स कुलबो सुकरस अद्धकुलबो, जं जाहे दुई भव तं ताहे अइप्यमाणं भवइ, पंचकोट्टे पुरिसे छक्कोट्टा इत्थिया, नवसोए पुरिसे इकारससोया इत्थिया, पंच पेसीसपाई पुरिसम्म तीसृणाई इत्थियाए बीसूणाई पंडगस्स (सू० १६) (सू० १७ ) अन्यंतरंसि कुणिमं जो (जड़) परिपत्रो बाहिरं कुज्जा । तं असुरं ददृणं सथावि जणणी दुर्गछिज्जा ।। ८३ ।। ५३० || माणुस्सगं सरीरं पूर्वयं मंससुक्कहणं । परिसंठवियं सोहर, अच्छायणगंधमल्लेणं ॥८४॥ ॥ ५३१ ॥ इमं चैव य सरीरं सीसघडीमेयमज्जमंसट्टियमन्धुलुंग सोणि अवालुंडयचम्मकोसना सियसिंघाणयश्रीमलालयं अमणुष्णगं सीसघडी भंजियं गलतनघणकण्णोगंडतालु अवालुयाविलचिकणं चिलिचिलिय पित्तधारिण्यः, दश शिराः शुक्रधारिण्यः, सम शिराशनानि पुरुषस्य त्रिंशदूनानि स्त्रियाः विंशत्यूनानि पण्टकस्य, आयुध्मन् ! अस्य जन्तोः रुधिरस्याढकं बसाया बर्द्धाढकं मस्तुलुङ्गस्य प्रस्थः, सूत्रस्याढकं पुरीषस्य प्रस्थः पित्तस्य कुलब: लेप्मणः कुलवः शुक्रस्याः, यद् यदा दुष्टं भवति तत्तदाऽतिप्रमाणं भवति पञ्चकोष्ठः पुरुषः पट्कोष्ठा श्री नवस्रोताः पुरुषः एकादशस्रोताः स्त्री, पञ्च पेशीशतानि पुरुपस्य, त्रिंशदूनानि खियाः, विंशत्यूनानि पण्डकस्य ॥ ( सू० १६ ) अभ्यन्तरमस्य कुणिमं यदि परावर्त्य याह्यं कुर्यात् । तदचि दृष्ट्वा सदा (स्वका ) ऽपि जननी जुगुप्सेत ॥ ८३ ॥ मानुष्यकं शरीरं पूतिकं मांसशुक्रास्थिभिः । परिसंस्थापितं शोभते आच्छादनगन्धमाल्येन ॥ ८४ ॥ इदमेव शरीरं शीर्षघटिकामेदोमामांसास्थिमस्तुलुङ्गशोणित वालुण्डकचर्मकोशनासिकासिङ्घानकमिलालयममनोज्ञं शीर्षघटी कं PP Fate Use On ~34~ शिरादिमान ॥ ४६ ॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ------------ मूलं [१७],गाथा [८४] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१७] ||८४|| दंतमलमइल बीभत्थदरिसणिज्ज अंसुलगवाहुलगअंगुलीयंगुट्ठगनहसंघिसंघायसंधियमिणं यहरसिआगारं! नालखंधच्छिराअणेगण्हारुपहुधमणिसंधिवद्धं पागडउदरकवालं कक्खनिक्खुडं कक्खगकलिअं दुरंत अधिधमणिसंताणसंतयं सपओ समंता परिसवंतं च रोमकूवेहि सयं असुई सभावओ परमदुग्गंधि कालिजयोंतपित्तजरहिययफेफसपिलिहोदरगुजाकुणिमनवछिधिविधिविधिवितहिययं दुरहिपित्तसिंभमुत्सोसहायतणं सबओ दुरंतं गुज्झोरुजाणुजंघापायसंघापसंधियं असुइ कुणिमगंधि, एवं चिंतिजमाणं यीभस्वदरिस|णिजं अधुवं अनिययं असासयं सडणपडणविद्धसणधम्म पच्छा व पुरा व अवस्सचइयवं निच्छपओ मुद्द जाण एवं आइनिहणं, एरिसं सबमणुयाण देहं, एस परमत्यओ सभावो (सू०१७)(सू०१८) सुकम्मि सोणियम्मि य संभूओ जणणिकृच्छिमझमि । तं चेव अमिजारसं नवमासे घुदिउं संतो ।। ८५ ॥ ५३२ ॥ गलनयनकर्णौष्ठगण्डतालुकं अबालुखीलग्निच्छलं व्यलीकं (चिकचिकायमानं ) दन्तमलमलिनं बीभत्सदर्शनं अंशघासङ्गस्यङ्गठनखसन्धिसञ्चातसन्धितमिदं बहुरसिकागारं नालस्कन्धशिराऽनेकनायुबहुधमनीसन्धिनद्धं प्रकटोदरकपालं कक्षानिष्कुटं कक्षाककलितं दुरन्तं अधिधमनीसन्तानसन्ततं सर्वतः समन्तान् परिस्रवद्रोमाञ्चकूपैः स्वयमशुचि स्वभावतः परमदुर्गन्धि कालेग्यका अपित्तञ्चरहदयफेफसलीही-| दरगुह्य कुणिमनवन्द्रिगटगायमानहृदयं दुरभिपित्तश्लेष्ममूत्रौषघायतनं सर्वतो दुरन्तं गुह्योरुजानुजतापादसतातसन्धितं अशुचि कुगि-18 | मगन्धि, एवं चिन्तामानं बीभत्सदर्शनीयमध्रुवमनियतमशाश्वतं शटनपतनविध्वंसनधर्म पत्राद्वा पुरा वाऽवश्यं त्यक्तव्यं निधयतः मा जानीहि एननादिनिधनं, कि सर्वगन जाना हा . ...... ...... दीप अनुक्रम [१०५] FPRINitPostaUROIN अथ कायस्य अशुचिता वर्ण्यते ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१७],गाथा [८६] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया तंदल सारिका ॥४७॥ प्रत सूत्रांक [१७] ||८६|| जोणीमुहनिफिडिओ धणगच्छीरेण वहिओ जाओ। पगईअमिज्झमइओ कह देहो धोदाई सको १ ॥८६॥ कायस्या ५३३ ॥ हा! असुइसमुप्पन्ना(नया) निग्गया य जेण चेव दारेणं । सत्ता(त्तया)मोहपसत्ता(त्तया) रमंति| शुचिता तत्येव असुइदारम्मि ।। ८७ ॥ ५३४ ॥ किह ताव घरकुडीरी कइसहस्सेहिं अपरितंतेहिं । वनिजइ असुइ-18 चिलं जघणंति सकज्जमूहि ? ॥ ८८ ॥ ५३५ ॥ रागेण न जाणंति य वराया कलमलस्स निद्धमणं । ताणं परिणदती फुल्लं नीलुप्पलवणं व ॥ ८९॥ ५३६ ॥ कित्तिअमित्तं वपणे ? अमिज्झमइयम्मि वचसंघाए । रागो हुन कायबो विरागमूले सरीरम्मि ॥ ९० ॥ ५३७ ।। किमिकुलसयसंकिपणे असुहमचुक्खे असासयमसारे । सेय-15 मलपुबडमी निदेयं वह सरीरे ॥११॥५३८॥ दंतमलकण्णगृहगसिंघाणमले य लालमलबटुले । एयारिसे बीभत्थे दुगुंडणिज्जंमि को रागो ? ॥९२ ॥ ५३९॥ को सडणपडणविकिरिणविद्धंसणचयणमरणधम्मम्मि | तदेवानेध्यरसं नव मासान घुण्टितं सत् (त्वा आन्तः) ||८५॥ योनिमुखनिर्गतः स्तन्यक्षीरेण वृद्धि गतः । प्रकृत्याऽमेध्यमयः कथं देहः शालयितु शक्यः । ।। ८६ ॥ हा! अशुचिसमुत्पन्ना निर्गता येन चैव द्वारेण । सत्त्वा मोइप्रसक्ता रमन्ते तत्रैवाशुचिद्वारे ॥ ८७ ॥ कथं ताबद्दकुट्याः कविसहरपरितान्तैः । वर्ण्यतेऽशुचिविलं जघनं खकार्यमूडैः इति ।। ८८॥ रागेण न जानन्ति च पराकाः कलमलस्य निर्धमनम् । ततः | (तासामक्षि) परिनन्दन्ति फुहनीलोत्पलवनमिव ।। ८९ ॥ कियन्मात्रं वर्णयामि अमेथ्यमये वर्च:सवाते । रागो नैव कर्त्तव्यो विरागमूले। शरीरे ॥ ९० ॥ कृमिकुलशतसङ्कीर्णे अशुचावचोक्षेऽशाश्वतेऽसारे । स्वेदमलचिकचिकायमाने निवेदं व्रजत शरीरे ।। ९१ ॥ दन्तमलकर्ण- ॥४७॥ गूधकसिङ्घानकमले च लालामलबटुले । एतादृशि बीभत्से जुगुप्सनीये को रागः ? ॥ ९२ ।। कः शटनपतनविकिरणविश्वंसनच्यवनमरण-10 दीप अनुक्रम [१०७] LAIMERuraninamaina ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१७],गाथा [९३] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१७] ||९३|| देहम्मि अहीलासो? कुहियकढिणकट्ठभूयम्मि ॥ १३ ॥ ५४० ॥ कागसुणगाण भक्खे किमिकुलभत्ते य वाहि-18 दाभत्ते य । देहम्मि मथ(मच्छोभते सुसाणभत्तम्मि को रागो? ॥९४ ॥ ५४१ ॥ असुई अमिज्झपुन्नं कुणिमप्रकलेबरकुर्डि परिसवंति । आगंतुप संठवियं नवच्छिद्दमसासयं जाण (जाणे)॥९५॥ ५४२॥ पिच्छसि मुह सतिलयं सविसेसं रायएण अहरेणं । सकडक्खं सवियारं तरलछि जोवणधीए ।। ९६ ॥ ५४३ ॥ पिच्छसि। ताबाहिरमट्ठन पिच्छसी उजारं कलिमलस्स । मोहेण नचयंतो सीसघडीकंजिपं पिपसि ॥ ९७ ॥ ५४४ ॥ सीसघडीनिग्गालं जं निद्वहसि दुगुंडसी जं च । तं चेव रागरत्तो मूढो अहमुच्छि ओ पियसि ॥२८॥५४॥ सापूइयसीसकवाल पूहयनासं च पूहदेहं च । पूइअछिट्टविछि पूइअचम्मेण य पिणद्धं ॥ १९ ॥२४६ ॥ अंज-|| दाणगुणसुविसुद्धं पहाणुवणगुणेहिं सुकुमालं । पुप्फुम्मीसियकसं जणेइ बालस्स तं रागं ॥ १०॥ ५४७ ॥ आज मीसपूरउत्तिअ पुष्फाई भणंति मंदविनाणा । पुष्फाई चिअ ताई सीसस्स पूरयं मुणह ॥ १०१॥ ५४८॥ | धर्म । देहे ऽभिलापः कुधितकठिनकाप्ठभूते ॥ १३ ॥ काकशुनोभक्ष्ये कृमिकुलभते च व्याधिभक्ते च । देदे मृत्यु(मत्स्य)भक्ते श्मशानभक्ते । को गगः ॥ ९४ ।। अशुख्यमेध्यपूर्ण कुणिमकडेवरकुडि परिस्रवत् । आगन्तुकसंस्थापितं नवरिछद्रमशाश्वतं जानीहि (जाने) ।। ९५ ॥ क्षसे मुखं सतिलक सविशेष रागेणाधरेण । सकटाक्षं सविकारं वरलाक्षि यौवननिषाः ॥ ९६ ॥ प्रेक्षसे बाह्यमर्थ न प्रेक्षसे निझरे | &कलिमलम्ब । मोद्देन नत्यमानः शीर्षघटीकाधिकं पिबसि ।। ९७ ॥ शीर्षघटीनिर्गल वर निष्ठीब्यसि यश जुगुष्यसे । तदेव रागरको दोऽतिमूर्षियतः पिबसि ॥ ९८ ।। पूतिकशीर्षकपालं पूतिकनासं च पूतिदेहं च । पूतिकच्छिद्रविरिछदं पूतिकचर्मणा च पिनद्धम् ॥ ५५ ॥ SkAMAR दीप अनुक्रम [११४] +C44* JAHEluatiharanisma अथ कामुक-मनुष्यं वैराग्य/धर्मोपदेश: दीयते एवं शरीरस्य अशुचिताया: वर्णनं क्रियते ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) "तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१७],गाथा [१०२] ------------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया 4%95% AISA प्रत सूत्रांक [१७] ||१०२|| ५ तंदुलय- मेदो वसा य रसिया खेले सिंघाणए य लुभए अ। अह सीसपूरओ भे नियगसरीरम्मि साहीणो ॥ १०॥ कामुकोपचारिके ॥ ५४९ ॥ सा किर दुप्पडिपूरा वच्चकुडी दुप्पया नवच्छिद्दा । उकडगंधविलित्ता यालजणो अइमुच्छियं गिद्धो देशः ॥१०॥ ५५०॥ ज पेम्मरागरसो अवयासेऊण गूढ(थ)मुत्तोलि । दंतमलचिकणंगे सीसघडीकंजियं पिपसि ॥४८॥ ॥१०४ ॥ ५५१॥ दंतमुसलेसु गहणं गयाण मंसे य ससयमीयाणं । वालेमु य चमरीण चम्मन हे दीविषाणं |च ॥ १०५ ॥ ५५२ ॥ पूइयकाए य इहं चवणमुहे निचकालवीसत्थो। आइक्खसु सम्भावं किम्हऽसि गिद्धो| तुमं मूढ! ॥ १०६ ॥ ५५३ ।। दंतावि अकजकरा वालावि विवङमाणबीभच्छा । चम्मपि य बीभच्छं भण 8 किमसि तं गओ रागं? ॥ १०७ ॥ ५४॥ सिंभे पित्ते मुत्ते गृहम्मि वसाइ दंतकुंडीसुं । भणसु किमत्थं अञ्जनगुणमुविशुद्ध सानोद्वर्त्तनगुणैः सुकुमालम् । पुष्पोन्मिश्रितकेशं जनयति बालस्य तद्रागम् ॥१००॥ यत् शीर्षपूरक इति च पुष्पाणि | | भणन्ति मन्दविज्ञानाः । पुष्पाण्येव तानि शीर्षस्य पूरक जानीत ॥ १०१ ॥ मेदो बसा च रसिका श्रेष्मा सिद्धानकं पक्षिपैतत् | असौ शीर्षपूरको भवतां निजशरीरे स्वाधीनः ।। १०२ ॥ सा किल दुष्पतिपूरा वर्षःकुटी द्विपदा नवच्छिद्रा । उत्कटगन्धविलिप्ता बालजनोऽतिमूर्षिछतो गृद्धोऽत्र ।। १०३ ॥ यत् प्रेमरागरक्त आलिय गूथमुक्तोलीम् । इन्तमलपिकणानं शीर्षघटीकनिकं पिबसि | ॥ १०४ ।। दन्तमुशलयोर्षहणं गजानां मांसे च शशकमृगाणाम् । वालेषु च चमरीणां चर्मनखयोपिकानां च ।। १०५॥ पूतिककाये चेह फ्यवनमुखे नित्यकालविश्वस्तः । आचश्व सद्भावं कथमसि गृद्धस्त्वं मूढ ! ॥ १०६ ॥ दन्ता अपि अकार्यकरा वाला अपि विवर्द्ध- ॥४८॥ मानषीभत्साः । चर्मापि च बीभत्स भण केन मिषेण (तसि तं-तस्मिन तन् प्र०) गतो रागम् ॥ १०७ ॥ श्रेष्मणि पित्ते मूत्रे गूथे पर। दीप अनुक्रम [१२३] 44564-30-36 ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [१७] ||१०८|| दीप अनुक्रम [१२९] च. स. ९ Eatin “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र - ५ ( मूलं + संस्कृतछाया) - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. मूलं [१७], गाथा [ १०८ ] ...आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया तुझं असुइम्मिवि वढिओ रागो? ॥ १०८ ॥ ५५५ ॥ जंघट्टिया ऊरू पट्टिया तट्टिया कडीपिट्टी । कडिपट्टिवेदिया अट्ठारस पिट्ठअट्ठीणि ॥ १०९ ॥ ६५६ ॥ दो अच्छिट्टियाई सोलस गीवट्टिया मुणेयचा । | पिट्टीपट्टीयाओ बारस किल पंसुली हुति ॥ ११० ॥ ५५७ ॥ अट्टिकढिणे सिरहारुबंधणे मंसचम्मलेवम्मि । बिहाकोट्टागारे को बचघरोवमे रागो? ॥ १११ ॥ ५५८ ॥ जह नाम वचकूवो निचं भिणिभिणिभिणंत कायकली। किमिएहिं सुलसुलायह सोएहि य पूयं बहह ॥ ११२ ॥ ५५९ ॥ उद्धियनयणं खगमुहविकट्टियं विष्पइनबाहुलयं । अंतविषट्टियमा सीसघडीपागडियघोरं ॥ ११३ ॥ ५६० ।। भिणिभिणिभितसद्दं विसप्पियं * सुलसुलंत सोडं । मिसिमिसिमिसंतकिमियं धिविधिविधिवंत बीभत्थं ॥ ११४ ॥ ५६१ ॥ पागडियपासुलीयं विगरालं सुकसंधिसंघायं । पडियं निवेषणयं सरीरमेयारिसं जाण ।। ११५ ।। ५६२ ।। बचाओ असुरबसायां दन्तकुड्याम् । भ्रूण किमत्र तवाचिनि अपि वर्द्धितो रागः ॥ १०८ ॥ जामोरूरू प्रतिष्ठितौ तत्स्थिते कटिपृष्टी । कट्यस्थिवेष्टितानि अष्टादश पृष्ठिकास्थीनि ॥ १०९ ॥ द्वे अक्षिणो अस्थिनी पोडश श्रीवास्थीनि ज्ञातव्यानि पृष्ठिप्रतिष्ठिता द्वादश किल पांशुलिका भवन्ति ॥ ११० ॥ अस्थिकठिने शिरास्नायुबन्धने मांसचर्मले । विष्ठाकोठागारे को वर्चोगृहोपमे रागः ? ॥ १११ ॥ यथा नाम वर्चः कूपो नित्यं मिनिमिनिभगत्का ककलिः । कृमिभिः सुलसुलायते श्रतोभिन पूतिकं वहति ॥ ११२ ॥ उद्धृतनयनं खगमुखविकृष्टं विप्रकीर्णबाहुलतम् । विकर्षिताश्रमाले शीघटिया प्रकटितपोरत्वम् ॥ ११३ ॥ मिनिमिनिभिन्नायमानशब्दं विसर्पत् मुलमुलायमानमांसपुटम् । मिसिमिसि मिसत्कृमिकं विविधिविधिवद्वीभत्सम् ॥ ११४ ॥ प्रकटितपांशुलिकं विकरालं सन्धिसङ्गतम् पतितं निर्दे Par PP they ~39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१७],गाथा [११६] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [04] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया % प्रत सूत्रांक [१७] ||११६|| ५ तदुलब-४ तर नवहि सोएहिं परिगलंतहिं । आमगमल्लगरूव निव्वयं पञ्चह सरीरे ॥११६ ॥ ५६३ ॥ दो हत्या दो पाया शरीरस्याचारिके सीसं उच्चंपियं कर्षधम्मि । कलिमलकोट्ठागारं परिवहसि दुयादुयं वचं ॥ ११७ ॥ ५६४ ॥ तच किर रूववंत शुचिता वर्चतं रायमग्गमोदनं । परगंधेहिं सुगंधय मन्नतो अप्पणो गंधं ॥ ११८ ॥ ५६५ ॥ पाडलचंपपमल्लियअगुरु॥४९॥ | यचंदणतुरुकवामीसं । गंधं समोपरंतं मन्नतो अप्पणो गंधं ॥ ११९॥ ५६६ ॥ मुहवाससुरहिगंधं वातसुहं । अगुरुगंधियं अंग। केसा ण्हाणसुगंधा कयरो ते अप्पणो गंधो? ॥१२०॥५६७ ॥ अच्छिमलो कन्नमलो खेलो सिंघाणओ अ पूओ अ । असुई मुत्तपुरीसो एसोते अप्पणो गंधो ॥१२१॥ (सू०१९) जाओविका अ इमाओहस्थिपाओ अणेगेहिं कहवरसहस्सेहिं विविहपासपडियद्धेहिं कामरागमोहेहिं वनियाओ ताओsसावि एरिसाओ, तंजहा-पगइविसमाओ (पियरुसणाओ कतिपपइचटुप्परुन्नातो अवकहसियभासियविलास-IN |जकं शरीरमेतादर्श जानीहि ।। ११५ ।। वर्चसोऽशुचितरे नवभिः श्रोनोभिः परिगलद्भिः । आममलकरूपे निर्वेद प्रजत शरीरे ॥ ११६ ।। द्वी हस्तौ द्वौ पादौ शीर्ष गुणम्पितं कबन्थे । कलिमलकोप्ठागारे परिवहसि शीनं वाच्यम् ॥ ११७ ॥ तच किल रूपवन प्रजन राज्यमार्गमवतीर्णम् । परगन्धैत्र सुगन्ध मन्यमान आत्मनो गन्धम् ।। ११८ ।। पाटलचम्पकमल्लिकाऽगुरुचन्दनतुरुष्कव्यामिश्रम् । गन्धं समवत-] रत् मन्यमान आत्मनो गन्धम (मोदसे) ।। ११९ ।। मुखवाससुरभिगन्ध वातसुखमगुरुगन्धितमाम् । केशाः नानासुगन्धाः कतरस्ते | H ॥४२॥ आत्मनो गन्धः ।। १२० ।। अक्षि मलः कर्णमल श्रेष्मा सिद्धानकश्च पूतिकश्च । अशुची मूत्रपुरीपो एप ते आत्मनो गन्धः ।। १२१ ॥ (सू०१८) या अपि चेमा: स्त्रियोऽनेकैः कविवरसहस्रविविधपाशप्रतिबद्धः कामरागमूर्णितासा अपीदृश्यः, तद्यथा--प्रकृतिविषमाः | 461 दीप अनुक्रम [१३७] KRR PUPRABEPRARUDHW स्त्रिया: विविध-पर्याय-नामानि (व्युत्पत्ति सह) ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१८],गाथा [१२१] ------------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१७] ||१२१|| SCRACKER वीसंभभूयाओ अविणयचातुलीउ मोहमहावत्तिणीओ विसमाओ) पियवयणवल्लरीओ कइयवपेमगिरितडीओ अवराहसहस्सघरिणीओ ४, पभवो सोगस्स विणासो बलस्स सूणा पुरिसाणं नासो लजाए संकरो अविणयस्स निलओ निअहीण १० खाणी वइरस्स सरीरं सोगस्स भेओमज्जायाणं आसओ रागस्स निलओ दुचरियाणं माईए सम्मोहो खलणा नाणस्स चलणं सीलस्स विग्यो धम्मस्स अरी साहूण २० दूसणं आपा रपत्ताणं आरामो कम्मरयस्स फलिहो मुक्खमग्गस्स भवणं दरिदस्स २४, अवि आई ताओ आसीविसो साविव कुवियाओ मत्तगओ विव मयणपरवसाओ बग्घी विव दुट्ठहिअयाओतणच्छन्नकृवो विच अप्पगासहि अयाओ मायाकारओ विव उवयारसयाबंधणपओत्तीओ आयरिसम्बिंपिव दुग्गिझसम्भावाओ ३० फुफ-| या विव अंतोदहनसीलाओ नग्गयमग्गो विच अणवहिअचित्ताओ अंतोदृट्ठवणो विव कुहियहिययाओ कण्ह| १ (प्रियरोषाः कतिपयातिचादुअरुदिताः अवाक्यहसितभाषितविलासविश्रम्भभूताः अविनयवात्या मोहमहावर्तिन्यः विषमाः ) प्रियवचनवयः २ कैतवप्रेमगिरितटिन्यः ३ अपराधसहस्रगृहिण्यः ४ प्रभवः शोकस्य ५ विनाशो बलस्प ६ शूना पुरुषाणाम् ७ नाशो लज्जायाः ८ सङ्करोऽविनयस्य ९ निलयो निकृतीनाम् १० खानिवरस्य ११ शरीरं शोकस्य १२ भेदो मर्यादानाम् १३ आश्रयो रागस्य १४ निलयो दुश्चरितानाम् १५ मातृकायाः संमोहः १६ स्खलना ज्ञानस्य १७ चलनं शीलस्य १८ बिन्नो धर्मस्य १९ अरिः साधूनां २० दूषणमाचारप्राप्तानाम् २१ आरामः कर्मरजसः २२ परिधो मोक्षमार्गस्य २३ भवनं दारिद्यस्य २४, अपिचेमा आशीविष इव 181 कुपिताः २५ मत्तगज इव मदनपरवशाः २६ व्याधीव दुष्टहृदयाः २७ तृणच्छन्नकूप श्याप्रकाशहदयाः २८ मायाकारक इवोपचारश-18| दीप अनुक्रम [१४२]] ACK Janthrashtaminalian IAL For Primarisis FaiataURON ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [१८] ||१२१|| दीप अनुक्रम [१४३] “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र - ५ ( मूलं + संस्कृतछाया) - मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. Eaton mais मूलं [१८], गाथा [ १२१] ..आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया चारिक ॥ ५० ॥ विष चलरसभावाओ मच्छो विष दुपरियत्तणसीलाओ वानरो बिव चलचिताओ म विव निविसेसाओ ४० 2 कालो विव निरणुकंपाओ वरुणो विब फसहत्याओ सलिलमिव निन्नगामिणीओ किवणो चित्र उत्ताणह स्थाओ नरओ विव उत्तामणिजाओ खरो इव दुस्सीलाओ दृट्ठस्सो विव दुरमाओ बालो इव मुहतहिययाओ अंधकारमिव दुष्पवेसाओ विसवली विष अणल्लियणिज्जाओ ५० दुट्ठगाहा इव बावी अणवगाहाओ ठाणभट्टो विव इसरो अप्पसंसणिजाओ किंपागफलमिव मुहमहुराओ रितमुट्ठी विव बाललोभणिजाओ मंसपेसीग्रहणमिव सोवदवाओ जलियचुडली विव अमुच माण्डणसीलाओ अरिट्ठमिव दुल्लंघणिनाओ साबन्धनप्रयोज्यः २९ आदर्शविम्यमित्र दुर्भाह्य सद्भावाः ३० (बहुज्झिसभावाओ बहुप्रासद्भावाः ३०) कुम्फुक इवान्तर्दहनशीलाः ३१ नगमार्ग इवानवस्थितचित्ताः ३२ अन्तर्दुष्टप्रणमित्र कुधितहृदयाः ३३ कृष्णसर्प इवाविश्वसनीयाः ३४ संहार इव छन्नमायाः ३५ सन्ध्याराग इव मुहूर्त्तरागाः ३६ समुद्रवीचय इव चलस्वभावाः ३७ मत्स्य इव दुष्परिवर्तनशीलाः ३८ वानर इव पलचिताः ३९ मृत्युरिव निर्विशेषाः ४० काल इव निरणुकम्पाः ४१ वरुण इव पाशहस्ताः ४२ सलिलमिव निम्नगामिन्यः ४३ कृपण इवोत्तानहस्साः * ४४ नरक इबोत्रासनीयाः ४५ खर इव दुःशीलाः ४६ दुष्टाध व दुर्दमाः ४७ बाल इव मुहूर्त्तह्रदयाः ४८ अन्धकारमिव दुष्प्रवेशाः ४९ विपवलीवानाश्रयणीयाः ५० दुष्टा वापीवानबगाह्याः ५१ स्थानभ्रष्ट ईश्वर इवाप्रशंसनीयाः ५२ किंपाकफलमिव मुखमधुराः ५३ रिक्तमुष्टिरिव वाढलोभनीयाः ५४ मांसपेशीग्रहणमिव सोपद्रवाः ५५ प्रदीप्ततृणपूलिकेवामुच्यमाना दहनशीलाः ५६ अरिष्टमिव Par Pethe On ~42~ स्त्रिया नामानि ।। ५० ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१८],गाथा [१२१] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक ||१२१|| कटकरिसावणो विव कालविसंवायणसीलाओ चंडसीलो विव दुक्खरक्खियाओ अइविसाओ ६० दुगुंछियाओ दुरुवचराओ अगंभीराओ अविस्ससणिणाओ अणवत्थियाओ दुक्खरक्खियाओ दुक्यपालियाओ अरइकराओ कक्कसाओदढवेराओ ७० रूवसोहग्गम उम्मत्ताओ भुयगगइकुडिलहिययाओ कंतारगइट्ठाणभूयाओ| कुलसयणमित्तभेयणकारियाओ परदोसपगासियाओ कयग्घाओ बलसोहियाओ एगंतहरणकोलाओ चंच-४ लाओ जाइयभंडोवगारोविच (जचभंडोवरागो इव) मुहरागविरागाओ ८० अवि याई ताओ अंतरंभंगसयं अरजुओ पासो अदारुया अहवी अणालस्सनिलओ अ(ण)इक्वा वेयरणी अनामिओ वाही अविओगो विप्पलावो अरू उबसग्गो रइवतो चित्तविन्भमो सवंगओ दाहो १० अणभप्पसूया (अणम्भा) बजासणी ४ असलिलप्पवाहो समुदरओ ९३।। अवि याई तासि इथिआणं अणेगाणि नामनिरुत्ताणि पुरिसे कामरागप्पदुर्लकनीयाः ५७ कूटकार्षापण इव कालविभबादनशीलाः ५८ चण्डशील इच दुःखरक्षिताः ५५ अतिविषाः ६०. जुगुप्सनीयाः ६१ दुरुपचाराः ६२ अगम्भीराः ६३ अविधमनीयाः ६४ अनवस्थिताः ६५ दुःपरण्याः ६६ दुःखपाख्याः ६७ अरतिकराः ६८ कर्कशाः १६९ दृढवैराः ७० रूपसौभाग्यमदोन्मत्ताः ७१ नुजगगतिकुटिलहृदयाः ७२ कान्तारगतिस्थानभूताः ७३ कुलस्वजनमित्रभेदनकारिकाः R४ परदोषप्रकाशिकाः ७५ कृतन्यः ७६ बलशोधिकाः ७७ एकान्तहरणकोलाः ७८ चञ्चलाः ७९ याचितभाण्डोपकार (जात्यभाखण्डोपराग ) इव मुखरागविरागाः ८० अपि च-ता आन्तरं भङ्गशतम ८१ अरजः पाशः ८२ अदारुकाऽटवी ८३ अनालस्यनिलयः ८४ अनीक्ष्या वैतरणी ८५ अनामिको कयाधिः ८६ अवियोगो चिपटाप: 15 अगपगर्गः १८ गतिमान चित्तविभ्रमः ८९ सा-18| दीप अनुक्रम [१४३] FarrestEPiratneDHI ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ----------- मूलं [१८],गाथा [१२१] ----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया चारिके ICIAL प्रत सूत्रांक I ५ तदुलवैडियद्धे नाणाविहेहि उवायसयसहस्सेहिं वयंधणमाणयति पुरिसाणं नो अन्नो एरिसो अरी अस्थिति ना- 11 नायादिशारीओ, तंजहा-नारीसमा न नराणं अरीओ नारीओ, नाणाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पड्याएहिं पुरिसे मोहंतित्ति। | शब्दाना महिलाओ, पुरिसे मत्ते करंतित्ति पमयाओ, महंत कलिं जणयंतित्ति महिलियाओ, पुरिसे हावभावमाइएहिं रमंतित्ति रामाओ, पुरिसे अंगाणुराए करितित्ति अंगणाओ, नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाडवीसु मुहारणगिण्हणसीउपहदुक्खकिलेसमाइएसु पुरिसे लालंतित्ति ललणाओ, पुरिसे जोगनिओएहिं वसे ठावि-16 तित्ति जोसियाओ, पुरिसे नाणाविहेहिं भावहिं बणितित्ति वणिआओ, काई पमत्तभावं काई पणयं सवि-18 भम काई सासिव ववहरंति काई सत्तुच रोरो इव काई पयएम पणमंति काई उवणएसु उवणमंति काई13 कोउयनम्मंतिका सुकडक्खनिरिक्खिएहिं सबिलासमहुरेहि उवहसिएहि उवगृहिएहिं जवसदेहिं गुरु(झ)ग-16 |ङ्गिको दाहः ९० अनधप्रसूता (अनधा) वाशनिः ९१ असलिल: प्रवाहः ९२ समुद्ररयः ९३।। अपि च तासां बीणामनेकानि नामनिरु-IN तानि, पुरुषान कामरागप्रतिबद्धान नानाविधैरुपायशतसहस्रर्वधबन्धनमानयन्ति पुरुषाणां नान्य ईदृशोऽरिरस्तीति नार्यस्तयधा-नारीसमा न नराणामरयो नार्यः १, नानाविधैः कर्मशिल्पैः पुरुषान मोहयन्तीति महिलाः २, पुरुषान् मत्तान् कुर्वन्तीति प्रमदाः ३, महान्तं कलिं, जनयन्तीति महिलिकाः (महलिजा ) ४ पुरुषान हावभावै रमयन्तीति रामाः ५, पुरुषानङ्गानुरागान फुर्वन्तीलाजानाः ६, नानाविधेषु | युद्धमण्डनसशामाटवीषु मुधारणग्रहणशीतोष्णदुःखलेशादिषु पुरुषान लालवन्तीति ललनाः ७, पुरुषान योगनियोगर्वशे स्थापयन्तीति |॥५१॥ योषितः ८, पुरुषान नानाविधैभविवर्णयन्तीति बनिताः ९, काश्चित प्रमत्तभावं, काश्चिन् प्रणयं सविभ्रम, कात्सिशब्द वासीय व्यव CCCRANE ||१२१|| दीप अनुक्रम [१४३] Jantbuatihanindia ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) ---------- मूलं [१८],गाथा [१२१] --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [04] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक 448-0---8 ||१२१|| दरिसणेहिं भूमिलिहणविलिहणेहिं च आरुहणनट्टणेहि अबालयउचगृहणेहिं च अंगुलीफोडणधणपीलणकडितडजायणाहिं तजणाहिं च, अवि याई ताओ पासो विव सिजे पंकुव खुप्पिलं जे मथुध मारेउं जे अग४ाणिव डहिउँ जे असिब छिजि जे । (मु०१८) असिमसिसारिच्छीणं कतारकवाडचारयसCIमाणं । घोरनिउरंपकंदरचलंतवीभच्छभावाणं ॥२२॥ ६६९ ॥ दोससयगागरीणं अजससयविसप्पमाणहि ययाणं । कइयवपन्नत्तीणं ताणं अन्नायसीलाणं ॥ २३ ॥५७० ॥ अन्नं रयंति अन्नं रमति अन्नस्स दिति | 81 उल्लावं । अन्नो कडयंतरिओ अन्नो पयतरे ठविओ ॥ २४ ॥ ५७१ ।। गंगाए बालुयाए सायरे जलं हिमवओ |य परिमाणं । जग्गस्स तवस्स गई गम्भुप्पतिं च विलयाए ॥ २५ ॥ ५७२॥ सीहे कुंट्यधारस्स पुलं कुछहरन्ति काचिन शत्रुचि रोर इब काचित् पादयोः प्रणमन्ति, काश्चिदुपनले रुपनमन्ति, काश्चित् कौतुकनमेतिकृत्या सुकटाभनिरीक्षितः सविलासमधुरैरुपहसिनेरुपगृहिनैपशब्दगुरु(घ)कदर्शन मिलिखनविलिखनेः आरोहणनर्तनलिकोपगृहनै अङ्गलीमोटनस्तनपीडनकटी| तट यातनाभिसर्जनाभिश्च ।। अपि च ताः पाश इव सेतुं (बर्द्ध) पाइव क्षेमुं मृत्युरिव मारयितुं अग्निरिव दाधुमसिरिख छेत्तुम् । (सू०) भसिमपीसष्ट शीनां कान्तारकपादचारकसमानाम् । घोरनि कुरम्बकन्दरपलद्वीभत्सभावानाम् ।। १२२ ॥ दोषशतगर्गरिकाणामयशःशत-| 31 विसर्पदृदयानाम् । कैतवप्रज्ञप्तीन तासामज्ञातशीलानाम् ।। १२३ ।। अन्य रजन्ति अन्यं रमयन्त्यन्यस्य ददत्युलापम् । अन्यः कटका-| सन्तरितोऽन्यः पट कान्तरे स्थापितः ।। १२४ ॥ गङ्गाया वालुकायाः सागरे जलस्य हिमवतश्च परिमाणम् । उमस्य तपसो गर्ति गर्नोत्पत्ति | च बनितायाः ।। १२५ ॥ मिहे कुटुम्बकारम्प पोट्रलं कुकुहायिनं अश्वे। जानन्ति बुद्धिमन्तो महिलाहदयं न जानन्ति ॥ १२६ ।। दीप अनुक्रम [१४३] FarmusaisatiwON अथ स्त्रियाः स्वभाव: एवं धर्मस्य शरणत्वं वर्णयते ~ 45~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं संस्कृतछाया) --------- मूलं [१८],गाथा [१२६] ------------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित........आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया प्रत सूत्रांक [१८] ||१२६|| ५ तंदुलप-हाइयं अस्से । जाणंति बुद्धिमंता महिलाहिययं न याति ॥ २६ ॥ ५७३ ॥ एरिसगुणजुत्ताणं ताणं कइय- स्त्रीस्वभाचारिके | वसठियमणाणं । न ह भे बीससिया महिलाणं जीवलोगम्मि ॥२७॥ ५७४ ॥ निन्नयं च खलयं पुप्फेहि धर्मस्य विवलियं च आरामं । निहुद्वियं च धेणुं लोएवि अतिल्लियं पिंडं ॥२८॥ ५७५ ॥ जेणंतरेण निमिसंति लोयणा दी ॥५२॥ शरणता नक्खणं च विगसंति । तेणंतरेण हिययं चित्तसहस्सा(वियारसहसा)उलं होई ॥२९॥ ५७६ ॥ जड्डाण बुहाणं निधिषणाणं च निविसेसाणं । संसारसूयराणं कहियंपि निरत्वयं होई ॥ ३० ॥ ५७७॥ किं पुत्तेहिं पियाहि । |व अत्धेण वितप्पिएण (वि पिडिएण) चहुएणं । जो मरणदेसकाले न होइ आलंवर्ण किंचि ॥ ३१ ॥ ५७८ ॥ है। पुत्ता चयंति मित्ता चयंति भजाविणं मयं चयइ । तं मरणदेसकाले न चयइ सुबिइज्जओ धम्मो (सुविअ जिओ) ॥ ३२ ॥ ५७९ ॥ धम्मो ताणं धम्मो सरणं धम्मो गई पहट्ठा य । धम्मेण सुचरिएण य गम्मइ अय| ईशगुणयुक्तानां तासां क पिरिवा(कैतव)संस्थितमनसाम् । नैव भवता विश्वसितव्यं महिलाना जीवलोके ॥ १२७ ॥ निर्धान्यं खलमिव पुष्पैर्विवर्जित आराम इव । निर्दुग्धा घेनुरिव अतैलः पिण्ड इव लोके यथा (तथा महिला) ॥ १२८ ॥ यस्मिन्नन्तरे निमिपन्ति लोच-| नानि तरक्षणमेव विकसयन्ति । तस्मिन्नन्तरे हृदयं चित्त (विचार) सहस्राकुलं भवति ।। १२९ ।। जहानां वृद्धानां निर्विज्ञानानां च निर्विशेषाणाम । संसारसूकराणां कथितमपि निरर्थकं भवति ॥ १३० ।। किं पुत्रैः प्रियाभिर्वा अर्थनोपार्जितेन (नापि पिण्डितेन ) बहुकेन । यो मरणदेशकाले न भवत्यालम्बनं किञ्चित ।। १३१ ।। पुत्रास्त्यजन्ति मित्राणि त्यजन्ति भार्याऽपि एनं मृतं त्यजति । तन्मरणदेशकाले न ॥५२॥ बजति सुद्वितीयो (सुव्यर्जितो) धर्मः ।। १३२ ॥ धर्मखाणं धर्मः शरणं धर्मो गतिः प्रतिष्ठा च । धर्मेण सुचरितेन च गम्यतेऽजरामरं | -CS दीप अनुक्रम [१४८] JAHEbuatinidmin In s jaetireman ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८) प्रत सूत्रांक [tc] ||१३३ -१३९|| दीप अनुक्रम [१५५ -१६१] “तन्दुलवैचारिक” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+संस्कृतछाया) - Estan man मूलं [१८], गाथा [ १३३] ..आगमसूत्र - [२८], प्रकीर्णकसूत्र [०५] "तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित .. रामरं ठाणं ॥ ३३ ॥ ५८० ॥ पीईकरो वण्णकरो भासकरो जसको रहकरो य । अभयकरनिब्बुड़करो (य अभयकरो। निन्युडकरो य सययं ) पारत्तविइलओ धम्मो ॥ ३४ ॥ ५८१ ॥ अमरवरेसु अणोवमरूवं भोगोवभोगरिद्धी य। विन्नाणनाणमेव यलम्भइ सुकरण धम्मेणं ।। ३५ ।। ५८२ ॥ देविंदचकवहित्तणाई रजाई इच्छिया भोगा। एयाई धम्मलाभा फलाई जं बावि निवाणं ।। ३६ ।। ५८३ || आहारो उस्सासो संधिधिराओ य रोमकूबाई । पित्तं रुहिरं सुक्कं गणियं गणियप्पहाणेहिं ॥ ३७ ॥ ५८४ ॥ एवं सोडं सरीरस्स वासाणं गणिय पागडमहत्थं । मुकस्वपउमरस ईहह सम्मत्तसहस्सपत्तस्स ॥ ३८ ॥ ५८५ ॥ एवं सगडसरीरं जाइजरामरणवेयणाबहुलं । तह घत्तह कार्ड जे जह मुचह सबदुखाणं ।। ३९ ।। ५८६ ।। ॥ तन्दलाली पहणयं सम्मत्तं ॥ ५ ॥ | स्थानम् ॥ १३३ ॥ प्रीतिकरो वर्णको भाःकरो यशःकरो रतिकरच अभयकरो निर्वृतिकरः । (०राभयकरो निर्वृतिकरश्च सततं । परत्र द्वितीयको धर्मः ।। १३४ ॥ अमरवरेष्वनुरूपं भोगोपभोगा ऋद्धय । विज्ञानं ज्ञानमेव च लभ्यते सुकृतेन धर्मेण ॥ १३५ ॥ देवेन्द्रचक्रवर्त्तित्वानि राज्यानीप्सिता भोगाः । एतानि धर्मलाभस्य फलानि यचापि निर्वाणम् ॥ १३६|| आहार उच्छासः सन्धयः शिराच रोमकूपानि पित्तं रुधिरं शुक्रं च गणितं गणितप्रधानैः ॥ १३७ ॥ एतत् श्रुत्वा शरीरस्य वर्षाणां गणितं प्रकटं महार्थम् मोक्षपद्मायेहध्वं सम्यक्त्वसहस्रपत्राय ।। १३८ ॥ एतत् शरीरशकटं जातिजरामरणवेदनाबहुलम् । तथा यतध्वं कर्त्तुं यथा मुच्यध्वं सर्वदुःखैः ॥ १३९ ॥ इति तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णकं समाप्तम् ॥ ५ ॥ Parthen मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुनः संपादित: (आगमसूत्र २८) “तन्दुलवैचारिक” परिसमाप्तः ~ 47~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 28 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “तन्दुलवैचारिक-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं छायाः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “तन्दुलवैचारिक" मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~ 48~