Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 3 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जयमाला दोहा आलोकित हो लोक में, प्रभु परमात्मप्रकाश । आनन्दामृत पानकर, मिटे सभी की प्यास ।। पद्धरी छन्द जय ज्ञानमात्र ज्ञायक-स्वरूप, तुम हो अनन्त चैतन्य-रूप। तुम हो अखण्ड प्रानन्द पिण्ड, मोहारि दलन को तुम प्रचंड ।। रागादि विकारी भाव जार, तुम हुए निरामय निर्विकार। निर्द्वन्द निराकुल निराधार, निर्मम निर्मल हो निराकार ।। नित करत रहत आनन्दरास, स्वाभाविक परिणति में विलास। प्रभु शिवरमणी के हृदयहार, नित करत रहत निज में विहार।। प्रभु भवदधिः यह गहरो अपार, बहते जाते सब निराधार। निज परिणति का सत्यार्थभान, शिव-पद दाता जो तत्वज्ञान ।। पाया नहिं मैं उसको पिछान, उल्टा ही मैंने लिया मान। *चेतन को जड़मय लिया जान, तन में अपनापा लिया मान ।। शुभ-अशुभ राग जो दुःख-खान, उसमें माना आनन्द महान। प्रभु अशुभकर्म को मान हेय, माना पर शुभ को उपादेय ।। जो धर्म-ध्यान आनन्द-रूप, उसको माना मैं दुःख-स्वरूप। मनवांछित चाहे नित्य भोग, उनको ही माना है मनोग ।। इच्छा-निरोध की नहीं चाह, कैसे मिटता भव विषय-दाह। प्राकुलतामय संसार-सुख, जो निश्चय से है महादुःख ।। । मोहरूपी शत्रु २ नाश करना ३ जलाकर निरोग ५ ममता रहित ६ संसार सागर " पहिचान। * यहां से आठ पंक्तियों में सात तत्त्व सम्बन्धी भूलों की और संकेत किया गया है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.comPage Navigation
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