Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 3
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 39
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates गुमानीराम - श्रद्धान तो निश्चय का रखें और प्रवृत्ति व्यवहाररूप। पं. टोडरमलजी - नहीं बेटा! निश्चय का निश्चयरूप और व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान रखना चाहिए। और प्रवृत्ति में तो नय का प्रयोजन ही नहीं है । प्रवृत्ति तो द्रव्य की परिणति है । जिस द्रव्य की परिणति हो उसको उसी की कहने वाला निश्चय नय है, और उसे ही अन्य द्रव्य की कहने वाला व्यवहार नय है। अतः यह श्रद्धान करना कि निश्चय नय का कथन सत्यार्थ है और व्यवहार नय का कथन उपचरित होने से असत्यार्थ है। गुमानीराम - आपने ऐसा क्यों कहा कि निश्चय नय का श्रद्धान करना और व्यवहार नय का श्रद्धान छोड़ना पं. टोडरमलजी - सुनो ! व्यवहार नय स्वद्रव्य परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण-कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है, इस प्रकार के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है, अतः व्यवहार नय त्याग करने योग्य है। तथा निश्चय नय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है, ऐसे श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, अतः उसका श्रद्धान करना । मानीराम - तो फिर जैन शास्त्रों में दोनों नयों को ग्रहण करना क्यों कहा है ? पं. टोडरमलजी - जहाँ निश्चय नय का कथन हो उसे तो “ सत्यार्थ ऐसे ही है” ऐसा मानना; जहाँ व्यवहार की मुख्यता से कथन हो उसे ऐसा है नहीं, निमित्तादिक की अपेक्षा उपचार से कथन किया है, ऐसा मानना ही दोनों नयों का ग्रहण है। गुमानीराम - यदी व्यवहार को हेय कहोगे तो लोग व्रत, शील, संयमादि को छोड़ देंगे। पं. टोडरमलजी - कुछ व्रत, शील, संयमादि का नाम तो व्यवहार है नहीं, इनको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है । इनको सच्चा मोक्षमार्ग मानना तो छोड़ना ही चाहिए। तथा यदि व्रतादिक को छोड़ोगे तो क्या हिंसादि रूप प्रवर्तोगे, तो फिर और भी बुरा होगा। अतः व्रतादिक को छोड़ना भी ठीक नहीं और उन्हें सच्चा मोक्षमार्ग मानना भी ठीक नहीं । गुमानीराम - यदी ऐसा है तो फिर जिनवाणी में व्यवहार का कथन ही क्यों किया ? पं. टोडरमलजी - जिस प्रकार म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना समझाया नहीं जा सकता है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं ३६ Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com

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