Book Title: Visheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Author(s): Pavankumar Jain
Publisher: Jaynarayan Vyas Vishvavidyalay

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Page 4
________________ पुरोवाक बाल्यावस्था से ही मेरी जैनदर्शन के प्रति विशेष रुचि थी। अतः मेरी प्रबल इच्छा थी कि जैनदर्शन का विशेष अध्ययन कर में इसकी प्रस्तुति में सहयोगी बनूँ। सर्वप्रथम मुझे अपनी इच्छा को सफल बनाने का संयोग सन् 1999 में श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर द्वारा संचालित श्री सुधर्म विद्यापीठ, जोधपुर के माध्यम से प्राप्त हुआ, इस विद्यापीठ से जैनदर्शन सम्बद्ध तीन वर्षीय पाठ्यक्रम संचालित किया जाता है। यहाँ आकर मैने जैनदर्शन का शास्त्रीय अध्ययन किया। जैसे जैसे मैं इस दर्शन को समझता गया वैसे-वैसे मेरी अभिरुचि जैनदर्शन के प्रति दृढतर होती गई। यही पर गुरुजी श्री लक्ष्मीलालजी दक ने मुझे जैनदर्शन में पी-एच्. डी. करने के लिए प्रेरित किया है। अत: बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण कर के मैंने एम. ए. संस्कृत (प्राकृत एवं जैनदर्शन वर्ग) में प्रवेश लिया। मेरा एम. ए. वर्ष 2004 में ही हो गया था एवं पी-एच्. डी. करने की प्रबल इच्छा होते हुए भी किन्हीं अपरिहार्य कारणों से मेरी इच्छा साकार रूप नहीं ले सकी। इस तरह छह वर्ष व्यतीत हो गये। वर्ष 2010 में अपनी इच्छा को साकार रूप प्रदान करने के लिए मैंने दृढ़ संकल्प किया और अपने संकल्प को पूर्ण करने के लिए पूरे मनोयोग से प्रयास प्रारंभ कर दिये। अतः सर्वप्रथम मैंने श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ. धर्मचन्द जैन से निवेदन किया और आपने सहर्ष मुझे अपने निर्देशन में पी-एच्. डी. कराने की अनुमति प्रदान करके मेरे संकल्प को और दृढ़ किया। जैन दर्शन के प्रति मेरी रुचि को देखकर मेरे निर्देशक डॉ. धर्मचन्द जैन ने मुझे “जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण विरचित विशेषावश्यकभाष्य का मलधारी हेमचन्द्रसूरि रचित बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन" विषय पर शोध करने के लिए प्रेरित किया। विषय चयन के अनन्तर मैं शोधकार्य में पूर्ण मनोयोग से जुट गया। निर्देशक महोदय ने प्रारंभ से लेकर अन्त तक मेरा अत्यन्त सहयोग एवं अच्छा मार्गदर्शन किया। सांसारिक जीवन में मनुष्य के लिए रोटी, कपड़ा और मकान को मूलभूत आवश्यकता माना जाता है। आध्यात्मिक जीवन में इसका कोई सरोकार नहीं है, आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत के लिए ज्ञान आवश्यक है। ज्ञान के बिना चारित्र (क्रिया) अंधा होता है। बिना चारित्र के ज्ञान लंगड़ा होता है, जो मोक्ष तक नहीं ले जा सकता है। इसलिए जैन आगमों का मुख्य वाक्य है कि 'पढमं णाणं तओ दया' पहले ज्ञान उसके बाद क्रिया। अतः ज्ञान युक्त क्रियारूपी आध्यात्मिक जीवन ही चरम लक्ष्य तक पहुँचा सकता है। अतः ज्ञान की महत्ता, उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को ध्यान में रखकर मैंने विशेषावश्यकभाष्य के आधार पर ज्ञान की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए अन्य जैन ग्रंथों से उसकी तुलना की है। जैनधर्म की दो मुख्य परम्पराएं हैं - श्वेताम्बर और दिगम्बर। दोनों परम्पराओं में ज्ञान के स्वरूप के सम्बन्ध में क्या भेदाभेद है, उसको प्रकाशित करने का प्रयास किया है। इसके लिए इस शोध-प्रबन्ध को सात अध्यायों में विभक्त किया गया है - प्रथम अध्याय (विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति : एक परिचय) में विशेषावश्यकभाष्य के मूल स्रोत ग्रंथ आवश्यक सूत्र का परिचय देते हुए कहा है कि संयम-साधना के अंगभूत जो अनुष्ठान आवश्यकरूप से करणीय होते हैं, वे 'आवश्यक' कहलाते हैं। प्रस्तुत अध्याय में आवश्यक सूत्र एवं उसके व्याख्या साहित्य का वर्णन करते हुए मुख्य रूप से आवश्यक कर्त्ता की समीक्षा की गई है। आवश्यक के मुख्य रूप से सामायिक आदि छह अध्ययन होते हैं। जैन वाङ्मय में

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