Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 6
________________ प्रधान सम्पादकीय प्रस्तुत अंक 'सि० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री स्मृति विशेषांक' है। प्राकृत-जैन धर्म-दर्शन के भारतीय स्तर के मनीषी विद्वान स्वनाम धन्य परमश्रद्धेय पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री का देहावसान १७ नवम्बर, १९८७ को एकमात्र पुत्ररत्न सुपार्श्व कुमार जैन, चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट की उपस्थिति में रांची में ८४ वर्ष की अवस्था में हुआ था। वे लगभग छः माह से अस्वस्थ थे। धर्मनिष्ठा माता और लाला मुसद्दीलाल जैन के कनिष्ठ पुत्र पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री के शिष्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने कार्तिक शुक्ला द्वादशी सम्वत् १९६० ( सन् १९०३ ) में जन्म लेकर नहटौर ( जिला-बिजनौर, यू० पी० ) की धरती को पवित्र किया था । स्वभाव संमृदु एवं मितभाषी, मितव्ययी पं० जगन्मोहनलाल, पं० राजेन्द्र कुमार जी एवं पं० फूलचन्द सिद्धान्तशात्री के सहाध्यायी पंडितजी की प्रारम्भिक शिक्षा अपनी जन्मभमि में हुई। इसके पश्चात् स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी और जैन सिद्धान्त विद्यालय, मोरेना को अपने अध्ययन का केन्द्र बनाया। राष्ट्रीयता की मावना ने ओत-प्रोत एवं स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के प्राण पं० महेन्द्र कुमार जैन के साथ कार्य करने वाले एवं प्रो० खुशालचन्द गोरावाला को अनुज मानने वाले न्यायतीर्थ पंडित जी ने ४७ वर्षों तक अपनी विद्याभूमि स्याद्वाद महाविद्यालय में कुशल अध्यापन करके पं० दरबारी लाल कोठिया, पं० उदयचन्द्र जैन प्रमुख ९०० शिष्यों को तैयार किया, जो देश-विदेशों में जैनधर्म-दर्शन और प्राकृत के क्षेत्र में अग्रणी बनकर श्रमण संस्कृति का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं । शास्त्रानुकूल स्पष्ट वक्ता, गम्भीर अध्ययनशील, कर्त्तव्यनिष्ठ, समयपरायण एवं एकान्तरूप से परम्परा के विरोधी पंडितजी ने अपनी वाक्शक्ति और प्रवचन शक्ति के द्वारा विविध अवसरों पर देश के कोने-कोने में जाकर धर्म-ध्वजा फहराई और समाज को जागरूक बनाया है। जैन आगमों के सच्चे प्रहरी पंडित जी ने रूढीग्रस्त जैन समाज को अपने उपदेशों के द्वारा सही दिशा प्रदान की। कुशल प्रशासक और दूरदृष्टि वाले पंडित जी ने स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के प्रधानाचार्य एवं अधिष्ठाता के रूप में अपने शिष्यों को निष्पक्ष वात्सल्य स्नेह देकर उनमें धार्मिक भावना कूट-कूट कर भरी। सुपार्श्वनाथ भगवान की जन्मभूमि को अपनी साहित्य साधना का केन्द्र बनाकर अपने ज्ञान-प्रकाश की ज्योति जन-जन तक पहुँचाने के लिए पण्डित जी ने सरल और सुबोध भाषा में अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना करके जैन वाङमय की श्रीवृद्धि की। जैन धर्म, भ० महावीर का अचेलक धर्म, जैन न्याय, जैन साहित्य का इतिहास ( तीन खण्ड ), प्रमाण-नय-निक्षेप प्रकाश, द्रव्यानुयोग प्रवेशिका, करूणानुयोग प्रवेशिका, चरणानुयोग प्रवेशिका, भगवान ऋषभदेव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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