Book Title: Uvavaiya Sutra Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ निवेदन ___ जैन धर्म के मूर्धन्य मनीषियों ने जैन आगम साहित्य को समय-समय पर अलग-अलग रूप से वर्गीकृत किया है। नंदी सूत्र के रचयिता आचार्य देववाचक जी ने सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य को दो भागों-अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य में विभक्त किया है। जबकि समवायाङ्ग सूत्र में इसे चौदह पूर्व एवं बारह अंग सूत्र में प्ररूपित किया है। वर्तमान में यही आगम साहित्य चार भागों में अंग, उपांग, मूल और छेद के रूप में प्रसिद्ध है। अंग सूत्रों में आचाराङ्गादि बारह सूत्रों का समावेश है। जिसमें वर्तमान में बारहवाँ दृष्टिवाद सूत्र का विच्छेद हो जाने से उपलब्ध नहीं है। शेष ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल और चार छेद रूप आगम श्रुतज्ञान रसिक साधकों के लिए उपलब्ध है। ___औपपातिक सूत्र प्रथम उपांग सूत्र है। यद्यपि प्राचीनता एवं द्रव्यानुयोग की दृष्टि से प्रज्ञापना सूत्र विशेष महत्त्व रखता है। फिर भी औपपातिक सूत्र का उपांग सूत्रों में प्रथम स्थान होना अपने आप में अनेक मौलिक विशेषताओं का कारण है। जिसे आगे चर्चित किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में दो विभाग है। प्रथम समवसरण दूसरा उपपात विभाग। चूंकि इस आगम (सूत्र) के दूसरे विभाग में जीवों के उपपात सम्बन्धी विस्तृत चर्चा है। इसी कारण इस सूत्र का नाम औपपातिक सूत्र रखा जाना संभव है। इस आगम की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इसमें जिन-जिन विषयों निरूपण किया गया उनका पूर्ण विस्तार के साथ प्रतिपादन किया गया है। यही कारण रहा कि भगवती आदि अंग सूत्रों में जहाँ भी ये विषय आए वहाँ इनका संक्षिप्त कथन करके विशेष जानकारी के लिए इस सूत्र की भलावन दे दी गई। __ जिस प्रकार बगीचा विभिन्न प्रकार के रंग बिरगें, फूलों की महक से सुशोभित होता है। उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र भी अनेक विषयों के विशद वर्णन से सुशोभित है। इसमें जहाँ एक ओर उस समय की प्रचलित सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्थिति, आचार विचार, रीति रिवाज, वास्तुकला आदि का जीवन्त दिग्दर्शन किया गया है, तो दूसरी ओर उस समय की धार्मिक और दार्शनिक स्थिति का भी बहुत सुन्दर चित्रण किया गया है। चम्पानगरी की बसावट वहाँ के निवासियों की रिद्धि-सम्पदा, धार्मिक वृत्ति, आचार विचार, नगरी के बाहर उत्तर पूर्व दिशा भाग में-ईशान कोण में पूर्णभद्र नामक चैत्य (यक्षायतन) जो चारों ओर से विशाल वनखण्ड से घिरा हुआ। जिसके ठीक बीचोबीच एक विशाल एवं सुन्दर अशोक वृक्ष तथा उस अशोक वृक्ष के नीचे नीलमणी रंग का चबूतरे के सदृश शिलापट्टक जो मनोरम, दर्शनीय, अभिरूप आदि का हूबहू चित्रण किया है। साथ ही उस नगरी के राजा कोणिक, उसके राज्य दरबार, शासन व्यवस्था आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। कोणिक सम्राट की शासन व्यवस्था के वर्णन के साथ उसकी प्रभु महावीर के प्रति अनन्य भक्ति का दिग्दर्शन किया गया है। उसने प्रभु महावीर की दैनिक विहार-चर्या की जानकारी रखने के लिए अनेक कर्मचारियों से युक्त एक अलग से महकमा स्थापित कर रखा था। जो उन्हें प्रभु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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