Book Title: Upasakdashang Sutra Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 5
________________ निवेदन जिन महापुरुषों ने अपने पुरुषार्थ (तफ और संयम) के द्वारा अनादि काल से जीव के साथ लगे राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को जीत कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त कर तीर्थंकर पद प्राप्त कर लिया, वे महापुरुष जगत् जीवों के हित के लिए अपनी विमल वाणी द्वारा अर्थ रूपी में देशना फरमाते हैं जिसे निर्मल बीज बुद्धि के निधान गणधर सूत्र रूप में गून्थित करते हैं। यानी अर्थात्मक आगम के प्रणेता तीर्थंकर प्रभु हैं। इसीलिए आगमों को तीर्थंकर प्रणीत कहा गया है। प्रबुद्ध पाठकों को स्मरण रखना चाहिए कि आगम साहित्य की जो प्रामाणिकता है उसका मूल कारण गणधर कृत होने से नहीं किन्तु अर्थ प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं जबकि अंग बाह्य आगमों की रचना स्थविर भगवन्त करते हैं। वर्तमान में स्थानकवासी परम्परा ने जिन बत्तीस आगमों को मान्यता दी है, उसका समयसमय पर विभिन्न रूप में वर्गीकरण किया गया है। समवायांग और अनुयोग द्वार सूत्र में केवल द्वादशांगी का निरूपण हुआ है। जबकि नंदी सूत्र में अंग प्रविष्ठ और अंग बाह्य ये दो रूप किये हैं। साथ ही अंग बाह्य के आवश्यक और आवश्यक व्यक्तिरिक्त, कालिक और उत्कालिक भेद किये गये हैं। व्याख्याक्रम विषयगत भेद आदि की दृष्टि से वर्तमान आगम साहित्य को चार भागों में भी विभक्त किया। यथा-चरणकरणानुयोग-जिसके अन्तर्गत मुख्य रूप से आचार सम्बन्धी आगमों का समावेश किया गया। धर्मकथानुयोग - इसमें कथा साहित्य आगमों का समावेश है। गणितानुयोग - गणित के विषय सम्बन्धी आगमों को इसमें लिया गया है। द्रव्यानुयोग-जीव अजीव आदि छह द्रव्यों आदि से सम्बन्धित आगमों का इसमें समावेश है। इसके अलावा सबसे अर्वाचीन वर्गीकरण जिसका वर्तमान में प्रचलन है, वह ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र। वर्तमान वर्गीकरण के अनुसार प्रस्तुत उपासकदशांम सूत्र सातवां अंग सूत्र है। इसमें श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के अनेक गृहस्थ उपासकों में से दस उपासकों के जीवन का वर्णन है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि भगवान् महावीर स्वामी के तो एक लाख उनसठ हजार श्रावक थे फिर इसमें मात्र दस का श्रमणोपासकों का ही वर्णन कैसे आया। वस्तुतः ऐसी बात नहीं है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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