Book Title: Ud Jare Panchi Mahavideh Mai
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana

View full book text
Previous | Next

Page 231
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २११ अध्यातम विण जे क्रिया, ते तनु मन तोले; ममकारादिक योगथी, एम ज्ञानी बोले. आतम० ३३ हु कर्ता परभावनो, ईम जिम जिम जाणे; तिम तिम अज्ञानी पडे, निज कर्मने घाणे. आतम० ३४ पुद्गल कर्मादिकतणो, कर्ता व्यवहारे; कर्ता चेतन करमनो, निश्चय सुविचारे. आतम० ३५ कर्ता शुद्ध स्वभावनो, नय शुद्धे कहीए; कर्ता पर परिणामनो, बेउ किरिया ग्रहीए. आतम० ३६ ढाळ ४ ( वीरमती प्रोति कारणी--अ देशी) शिष्य कहे जो परभावनो, अकर्ता को प्राणी; दान हरणादिक केम घटे, कहे सद्गुरु वाणी. शुद्ध नय अर्थ मन धारीए-ए आंकणी० ३७ धर्म नवि दिए नवा सुख दिए, पर जंतुने देतो; आप सत्ता रहे आपमां, अम हृदयमा चेतो. शु० ३८ जोग वशे जे पुद्गळ ग्रह्या, नवि जीवनां तेह; तेहथी जोव छे जूजूए, बळी जूजूओ देह शु० ३९ भक्त पानादि पुद्गल प्रते, न दिए छति विना; पोते दान हरणादि परजंतुने, एम नवि घटे जोते. शु० ४० दान हरणादिक अवसरे, शुभ अशुभ संकल्पे; दिए हरे तुं निज रूपने, मुखे अन्यथा जल्पे. शु० ४१ अन्यथा वचन अभिमानथी फरी कर्म तुं बांधे; ज्ञायक भाव जे एकलो, प्राहो ते सुख सोधे. शु० ४२ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263