Book Title: Ud Jare Panchi Mahavideh Mai
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१६ जे व्यवहार मुगति मारगमां, गुणठाणाने लेखेजी, अनुक्रमे गुणश्रेणिनु चढवु, तेह ज जिनवर देखेजी, जे पण द्रव्यक्रिया प्रतिपाले, ते पण सन्मुख भावेजी, शुक्लबीजनी चंद्रकला जेम, पूर्ण भावमां आवेजी, ८२ ते कारण लज्जादिकथी पण, शील धरे ज प्राणीजी, धन्य तेह कृतपुण्यकृतारथ महानिशीथे वाणीजी: ए व्यवहारने मन धारो, निश्चयनय मत दाख्युजी, प्रथम अंगमां वितिगिच्छाए, भावचरण नवि भाख्युंजी. ८३ ढाळ ८ (चोपाईनी दीशी छे.) अवर एक भाखे आचार, दया मात्र शुद्ध ज व्यवहार; ने बोले तेहज उत्थापे, शुद्ध कर हुं मुख इम जपे. ८४ जिनपूजादिक शुभ व्यापार, ते माने आरंभ अपार; नवि जाणे उतरतां नई, मुनिने जीयदया कयां गई. ८५ जो उतरतां मुनिने नदी, विधि जोगे नवि हिंसा बदी; तो विधि जोगे जिन पूजना, शिव कारण मत भूलोजना. ८६ विषयारंभतणो ज्यां त्याग. तेहथी लहिए भवजस्ताग; जिनपूजामां शुभ भावथी विषयारंभ तणो भय नथी. ८७ सामायिक प्रमुखे शुभ भाव, यद्यपि लहिए भयजल नाव: तो पण जिनपूजाओ सार, जिननो विनय कह्यो उपचार. ८८ आरंभादिक शंका धरी, जो जिनराज भक्ति परिवरी; दान मान वंदन आदेश तो तुज सबलो पडयो क्लेश. ८९ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263