Book Title: Ud Jare Panchi Mahavideh Mai
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana

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Page 238
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ रायपसेणी मनमांजी, म्होटो एह प्रबन्धः एह वचन अणमानतांजी, करे करमनो बंध सुणो० १००० विजयदेव वक्तव्याताजी, जीयभिगमे रे अम; जो थिति छे ए सुरतणीजी, तो जिनगुणथुति केम. सुणो १०१ सिद्धार्थ राये कर्याजी, याग अनेक प्रकार; कल्पसूत्रे एम भाखियुंजी, ते जिनपूजा सार. सुणो० १०२ श्रमणोपासक ते कह्याजी पहेला अंग मझार; याग अनेरा नवि करेजी, ते जाणो निरधार. सुणो० १०३ एम अनेकसूत्रे भण्युंजी जिनपूजा गृहिकृत्यः जे नवि माने ते सहीजो, करशे बहु भव नृत्य. सुणो० १०४ टाळ १० (सुरंसघा सा सुरसंधा-ए देशी) अवर कहे पूजादिक ठामे, पुण्यबन्ध छे शुभ परिणामे; धर्म इहां नवि कोई दीसे, जेम व्रत परिणामे मनहीसे. १०५. निश्चय धर्म न तेणे जाण्यो, जे शैलेशी अंत वखाण्यो; धर्म अधर्म तणो क्षय कारी, शिव सुख देजे भव जल तारी. १०६ तस साधन तु जे जे देखे, निज निज गुणठाणाने लेखे; तेह धरम व्यवहारे जाणो, कारज कारण एक प्रमाणो. १०७. एवंभूत तणो मत भाख्यो, शुद्ध द्रव्य नय एम वळी दाख्यो; निज स्वभाव परणति ते धर्म, जे विभाव ते भावज कर्म. १०८ धर्म शुद्ध उपयोग स्वभावे, पुण्य पाप शुभ अशुभ विभावे; धर्म हेतु व्यवहार ज धर्म. निज स्वभाव परिणतिनो मर्म. १०९ शुभयोगे द्रव्याश्रव थाय, निज परिणामे न धर्म हणाय; यावत् योग क्रिया नहि थंभी तावत् जीव, छे योगारंभी. ११० For Private And Personal Use Only

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