Book Title: Ud Jare Panchi Mahavideh Mai
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana

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Page 239
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१९ मलिनारंभ करे जे किरिया, असदारंभ तजीने तरिया; विषय कषायादिकने त्यागे, धर्म मति रहीए शुभ मागे. १११ स्वर्ग हेतु जो पुण्य कहीजे, तो सराग संयम पण लहोजे; बहु रागे जे जिनवर पूजे, तस मुनीनि परे पातक धुजे. ११२ भावस्तव एहथी पामीजे, द्रव्यस्तव अ तेणे कहीजे; गव्य शब्द छे कारण वाची, भमे म मूलो कर्मनिकाची. ११३. टाळ ११ (दान उलट धरी दीजी से देशी) कुमति एम सकल दूरे करी, धारीए धर्मनी रीत रे; हारीए नवि प्रभु बळ थकी, पामीए जगतमा जित रे स्वामिसीमंधर तुं जयो-ए आंकणी० ११४ भाव जाणे सकल जंतुना, भुव थकी दासने राख रे; बोलिया बोल जे ते गणु, सकल जो छे तुज साखरे स्वा० एक छे राग तुज उपरे, तेह मुज शिवतरु कंद रे; नवि गणुं तुज परे अबरने, जो मिले सुर नर वृंद रे. स्वा० तुज बिना में बहु दुःख सह्यां, तुज मिल्ये ते केम होयरे मेह विण मोर माचे नहि, मेह देखी नाचे सोय रे. स्वा० मनथकी मिलन में तुज कियो, चरण तुज भेटवा सांई रे; कीजिए जतन जिन ए विना, अवर न वांछिए कांई रे स्वा० तुज वचन राग सुख आगळे नवि गणुं सुर नर शर्म रे; कोडी जो कपट कोई दाखवे, नवि तजु तोए तुज धर्म रे स्वा० तुं मुज हृदयगिरिमा वसे, सिंह जो परम निरीह रेः कुमत मातंगनां जूथथी, तो कशी प्रभु मुज बीह रे ! स्वा० For Private And Personal Use Only

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