Book Title: Ud Jare Panchi Mahavideh Mai
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra २९४ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डाळ ६ ( मुनिगन सरोवर हंसलो अथवा ऋमनो वंत रणायरु-से देशी ) अवर ईस्यो नय सांभली, एक ग्रहे व्यवहारो रे; द्विविध तस नवि लहे, शुद्ध अशुद्ध विचारो रे. तुजविण गति नहि जंतुने, तुं जग जंतुनो दीवो रे, जीवीए तुज अवलंबने, तु साहिब चिरं जीवो रे. तु० आचारो रे; व्यवहारो रे. For Private And Personal Use Only ६१ ६७ ६८ जेह न आगम वारीओ, दीसे अशठ तेज बुध बहु मानीओ, शुद्ध कह्यो जेहमां निज मति कल्पना, जेहथी नवि भव पाशे रे; अंध परंपरा बांधिओ, तेह अशुद्ध आचरो रे. तु शिथिल बिहारीए आचरियां, आलंबन जे कुडा रे; नियत वासादिक साधुने, ते नवि जाणीए रूड रे. तु० आज न चरण छे आकरु, संहननादिक दोषे रे: एम निज अवगुण ओळवी, कुमति कदाग्रह पोषे रे. तु उत्तर गुणमांहे हीगडा, गुरु कालादिक पाखे रे: मूल गुणे नही हीणडा, एम पंचाशक भाखे रे. तु० परिग्रह ग्रह वश लिंगीया, लेइ कुमति रज माथे रे, निज गुण पर अवगुण लवे, इन्द्रिय वृषभ नवि नाथे रे. तु० ७१ नाणरहित हित परिहरी निजदंसण गुण लूसे रे; मुनिजनना गुण सांभळी, तेह अनारज रूसे रे. तु० अणुसमदोष जे परतणो, मेरु समान ते बोले रे; जेहसं पापनी गोठडी, तेहसु हियडल खोले रे तु० ७३ सूत्र विरुद्ध जे आचरे, थापे अविधिना चाळा रे; ते अति निविड मिथ्यामति, बोले उपदेशमाव्य रे. तु० ७४ तु ६५ ६६ ६१ 6. ७२

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263