Book Title: Ud Jare Panchi Mahavideh Mai
Author(s): Dharnendrasagar
Publisher: Simandharswami Jain Mandir Khatu Mehsana

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Page 235
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१५ पामर जन पण नवि कहे, सहसा जूठ सशूको रेः जूठ कहे मुनि वेष जे, ते परमारथ चूको रे; तु० ७५ निर्दय हृदय छे कायमां, जे मुनिवेषे प्रवर्ते रेः गृही यति धर्मथी बाहेरा, ते निर्धन गति वर्शे रे. तु० ७६ साधुभगति जिनपूजना, दानदिक शुभ कर्म रे; श्रावक जन कह्यो अति भलो, नहि मुनिवेषे अधर्म रे तु० ७७ केवल लिंगधारी तणो, जे व्यवहार अशुद्धो रे; आदरीए नवि सर्वथा, जाणी धर्म विरुद्धो रे. तु० ७८ ढाळ ७ ( आगे पूरव वार नवाणु--अ देशी ) जे मुनिवेश शके नवि छंडी, चरण करण गुणहीणाजी, ते पण मारग मांहे दाख्या, मुनिगुण पक्षे लीणाजी; मृषावाद भवकारण जाणी, मारग शुद्ध प्ररूपेजी, वंदे, नवि वंदावे मुनिने, आप थई निज रूपेजी, ७९ मुनि गुण रागे पूरा शूरा, जे जे जयणां पाळेजी, ते तेहथो शुभ भाव लहीने, कर्म आपणां टाळेजो आप हीनता जे मुनि भाखे, मान सांकडे लोकेजी, ए दुर्द्धर व्रत एहनु दाख्यु, जे नवि फूले फोकेजी. ८० प्रथम साधु बीजो वर श्रावक त्रीजो संवेग पाखीजी, ए त्रणे शिव मारग कहीए, जिहां छे प्रवचन सोखोजी, शेष त्रण भव मारग कहीए, कुमत कदाग्रह भरियाजी, गृहि यति लिंग कुलिंगे लखीए, सकल दोषना दरियाजी. ८१ For Private And Personal Use Only

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