________________
की पारस्परिक प्रभावकता तो मानी गई है। प्रकृति में जो विकार उत्पन्न होता है वह पुरुष का सान्निध्य पाकर ही होता है। इसी प्रकार चाहे हम बुद्धि (महत्) और अहंकार को प्रकृति का विकार माने किन्तु उनके चैतन्य रूप में प्रतिभाषित होने के लिए उनमें पुरुष का प्रतिबिम्बित होना तो आवश्यक है। चाहे सांख्य दर्शन बन्धन और मुक्ति को प्रकृति के आश्रित माने फिर भी जड़ प्रकृति के तादात्म्य बुद्धि का कर्ता तो किसी न किसी रूप में पुरुष को स्वीकार करना होगा, क्योंकि जड़ प्रकृति के बन्धन और मुक्ति की अवधारणा तार्किक दृष्टि से सबल सिद्ध नहीं होती है।
वस्तुतः द्वैतवादी दर्शनों, की चाहे वे सांख्य हो या जैन कठिनाई यह है कि उन दो तत्वों की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया या आंशिक तादात्म्य माने बिना संसार और बन्धन की व्याख्या सम्भव नहीं होती है और दोनों को एक दूसरे से निरपेक्ष या स्वतंत्र माने बिना मुक्ति की अवधारणा सिद्ध नहीं होती है। अतः किसी न किसी स्तर पर उनमें अभेद और किसी न किसी स्तर पर उनमें भेद मानना आवश्यक है। यही भेदाभेद की दृष्टि ही अनेकांत की आधार-भूमि है, जिसे किसी न किसी रूप में सभी दर्शनों को स्वीकार करना ही होता है। सांख्य दर्शन चाहे बुद्धि, अहंकार आदि को प्रकृति का विकार माने किन्तु संसारी पुरुष को उससे असम्पृक्त नहीं कहा जा सकता है। योगसूत्र भाष्य में कहा गया है
स पुरुषोबुद्धेः प्रति संवेदी सबुद्धेर्नस्वरूपो नात्यन्तविरूप इति। न तावत्स्वरूपः कस्मात् ज्ञाता-ज्ञातविषयत्वात् अस्तु तर्हि विरूप इति नात्यन्तं विरूपः कस्मात् शुद्धोऽप्यसौ प्रत्ययानुपश्यो यतः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति। अतः प्रकृति और पुरुष दो स्वतन्त्र तत्व होकर भी उनमें पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया घटित होती है। उन दो तत्वों के बीच भेदा-भेद यह बंधन और मुक्ति की व्याख्याओं का आधार है। योग दर्शन और अनेकांतवाद
जैन दर्शन में द्रव्य और गुण या पर्याय, दूसरे शब्दों में धर्म और धर्मी में एकांत अभेद को स्वीकार नहीं करके उनमें भेदाभेद स्वीकार करता है और यही उसके अनेकांतवाद का आधार है। यही दृष्टिकोण हमें योगसूत्र भाष्य में भी मिलता है—23
न धर्मीत्र्यध्वा धर्मास्तु त्र्यध्वान ते लक्षिता-अलक्षिताश्च तान्तामवस्थां प्राप्नुवन्तो ऽन्यत्वेन प्रति निर्दिश्यन्ते अवस्थान्तरतो न द्रव्यान्तरतः । यथैक रेखा शत-स्थाने शतं दशस्थाने दशैकं चैकस्थाने | यथाचैकत्वेपि स्त्री माताचोच्यते दुहिता च स्वसा चेति ।
इसी तथ्य को उसमें इस प्रकार भी प्रकट किया गया है--''यथा सुवर्ण भाजनस्य भित्वान्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वम्।'
इन दोनों सन्दर्भो से यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार एक ही स्त्री अपेक्षाभेद से माता, पुत्री अथवा सास कहलाती है उसी प्रकार एक ही द्रव्य अवस्थान्तर को प्राप्त होकर भी वही रहता है। एक स्वर्ण पात्र को तोड़कर जब कोई अन्य वस्तु बनाई जाती है तो उसकी अवस्था तुलसी प्रज्ञा जुलाई--दिसम्बर, 2001
- 21
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org