Book Title: Tulsi Prajna 2001 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 100
________________ की सीमा को लाँघ कर जीव मात्र ही नहीं वरन अजीव तत्त्व तक पहंचती है और परिग्रह के रूप में उभर कर प्रकृति के साथ सामंजस्य तथा यथोचित रूप में प्रकृति का उपभोग करने को प्रेरित करती है। जैन मत का 'जीओ और जीने दो' का सिद्धान्त मात्र जीव हिंसा के निवारण तक ही नहीं रुकता है वरन अपरिग्रह के रूप में प्रकृति की हिंसा को भी निषिद्ध मानता है। जैन शास्त्रों का उपदेश है कि जिस तरह मुझे दुःख प्रिय नहीं है उसी प्रकार संसार के अन्य प्राणियों को भी दःख अच्छा नहीं लगता, ऐसा समझकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है और न किसी प्रकार की हिंसा का अनुमोदन करता है तथा समस्त विश्व को आत्मवत मानता है, वही सच्चा श्रमण है। अतः जैन मत का आदेश है कि सभी जीवों को अपने समान समझकर किसी भी प्राणी, भूत, जीव तथा सत्त्व को मत मारो, अधीनस्थ मत करो, पीड़ा मत पहंचाओ। न किसी को संताप दो और न किसी को उद्विग्न करो। ये उदात्त विचार अनेकांतवादी दृष्टि से ही फलित हो सकते हैं। जैन विचारकों का यह दृढ़ विश्वास है कि आत्मा स्वभाव से ही अहिंसक है। अतः सम्यक दृष्टि, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चारित्रा द्वारा विश्व को अहिंसामय बनाया जा सकता है । सम्यक् दृष्टि से तात्पर्य है, 'जिन' प्रदर्शित उपदेशों में श्रद्धा बिना ज्ञान का मूल्य नहीं है और न बिना श्रद्धा ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। सद् विचार की दृढ़ता या स्थिरताही श्रद्धा है। श्रद्धा में विवेक है, अंधविश्वास नहीं। सम्यक् दृष्टि से ही अनेकांतवादी सम्यक् ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान का परिपाक चारित्रा है। जिस ज्ञान का चरित्र निर्माण में उपयोग नहीं, वह सम्यक् ज्ञान नहीं कहा जा सकता है। ज्ञान के सिद्धान्तों को यदि जीवन में नहीं उतारा जाए, व्यवहार में उनका आचरण नहीं किया जाए तो वे व्यर्थ हैं। यही अनेकांतवाद का अमोघ मंत्र है। जैन मत का विश्व को यह अनेकांतवादी संदेश है कि जो विचार आचार का मार्ग 'जिन' तीर्थंकरों ने प्रदर्शित किया है वही वे अपने-अपने देश, काल, परिस्थिति एवं स्वभाव के अनुरूप अपनावें। इसी से 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एवं 'विश्व बंधुत्व' की भावना चरितार्थ हो सकती है। इसी से संपूर्ण विश्व अहिंसामय बनकर परस्पर मैत्री एवं करुणा, प्रेम एवं क्षमा का सुरम्य स्थल बन सकता है। परस्पर विग्रह अज्ञानवश हो सकता है पर इसके लिए जैन मत में पयुर्षण का विधान है जिसमें भूल एवं दोष के लिए क्षमायाचना करने का और उससे निवृत्ति मार्ग बताया गया है। क्षमायाचना करते हए स्वीकारोक्ति करनी होती है कि मैं सब जीवों से क्षमा याचना करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। समस्त जीवों के प्रति मैं मैत्रीभाव रखता हूं। किसी के प्रति मेरा वैर नहीं है। जैन मत का विचार-आचार का यह भव्य सिद्धान्त किसी एक देश या जाति के लिए ही नहीं, समस्त विश्व के लिए उपयोगी है। एम/पी-23 मौर्य इन्कलेव प्रीतमपुरा, दिल्ली-110 054 तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016 - 95 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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