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महावीर का अनेकांत : कुछ पक्ष, कुछ प्रश्न
-प्रो. गोपाल भारद्वाज, जोधपुर
परम आह्वान... भगवन! उत्तमोत्तम नरतीर्थंकर!
महावीर का दर्शन... विज्ञान इसी में अनेकांत एक अर्थवान अवदान मौलिक योगदान।
"अहिंसा, तप, त्याग तत्पर साधक, शोधक तीर्थंकर" महावीर पर सारतः कभी मैंने यों सोचा था, कहा था व्यक्तित्व के विलक्षण विशेषकों को यों गुना-गहाथा महावीर से जब-तब बनने वाली भाव-संगति मुझे कितना कुछ कहती, कितना अप्रतिम, अनिर्वचनीय सुख देती। हर ऐसे पुरुषोत्तम की महिमा । क्या बस अपनी-सी एक ही नहीं होती? तुलना किसी से भी हो सकती हो पर वैसी ही अभिव्यक्ति पुनः कब हो पाती? सोचें... कैसा... महावीर का तन... मन... आत्मन? चिन्तन.... दर्शन... अनुशासन? कैसी बनती छविमानो यह भी क्या नहीं एक प्रखर रवि? कैसा अलौकिक लौकिक जीवन? कैसा स्वयं का नवसृजन? नव-नव प्रयोग, प्रतिपादन, प्रवर्तन? जैन परम्परा के परम सिद्ध स्वयं संशुद्ध... प्रबुद्ध
वेद-वेदांत की परम्परा यदि थी अपौरुषेय ईश्वरा जैन ने इसे यों न स्वीकारा कर दिया परिवर्तन इसमें क्रांतिकरा संभव कि मनुष्य ही स्वधर्म- स्वकर्म से देवतुल्य हो जाए पौरुषेय प्रतिभा ही ईश्वरीय नाम पाए । यदि थे वेद-वेदान्त कथन एकवचन -द्विवचन- बहुवचन एकमेव ब्रह्म-केन्द्रित, आत्मा-केन्द्रित "एको ब्रह्म, द्वितियो नास्ति'' या किब्रह्म भी, जगत भी
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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