Book Title: Tulsi Prajna 2001 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 157
________________ 4. क्या दोनों सत्यों को किसी प्रकार एक करके नहीं देखा जा सकता? जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 340 5. तत्वमीमांसा में ही नहीं, सत्यमीमांसा में भी जैन दर्शन अनेकान्तवादी है- वही पृ. 340 6. अनेक सत्यवादी होने के कारण ही जैन दर्शन सापेक्ष सत्यों से निरपेक्ष सत्य तक पहुंचने का रास्ता - नहीं बना पाता । वही पृ. 340 7. सत्य की मीमांसा में पूर्ण या अपूर्ण यह भेद नहीं होता, यह भेद हमारी प्रतिपादन पद्धति का है- वही पृ. 341 8. जैन दृष्टि के अनुसार एकता और अनेकता दोनों वास्तविक हैं- वहीं, पृ. 341 9. अस्तित्व (है) की दृष्टि में समूचा विश्व एक और स्वरूप की दृष्टि से समूचा विश्व दो (चेतन, अचेतन) रूप है। जैन दर्शन मनन और मीमांसा पृ: 341 10. आचाराङ्ग 3/74 11. भेदाभेदौ च तत्रापि दिसन जैनो जयत्यलम् । __ रूपान्तरात् पृथग्रूपेऽप्यभैदो भुवि संभवेत् - द्रव्यानुयोग तर्कवग 4/7 12. बलत्वे मनुजो योभूत्तारुण्ये सोऽन्य इष्यते। देवदत्ततयाऽप्येको ह्यविरोधेन निश्चयम् ॥ द्रव्यानुयोगतर्कणा 4/5 13. सर्वत्राप्यविरोधेन धर्मो द्वावेक संश्रयै ... द्रव्यानुयोगतर्कणा 4/2 14. यस्य भेदोऽभेदोऽपि रूपान्तरमुपेयुषः । ____एवं रूपान्तरोत्पन्नभेदाच्छतनयोदयः ।। - द्रव्यानुयोगतर्कणा 3/8 15. द्रव्यार्थिकनयो मुख्यवृत्याभेदवदांस्त्रिसु । ___अन्योन्यमुपचारेण तेषुभेदं दिशत्यलम्- वही 3/2 16. स्वपरसत्ताव्युदासोपादानापायं हि वस्तुनो वस्तुत्वम्- जैन दर्शन मनन और मीमांसा, (उद्धृत है) पृ. 351 17. वस्तु में 'स्व' की सत्ता की भांति 'पर' की असत्ता नहीं हो तो उसका स्वरूप ही नहीं बन सकता। वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते समय अनेक विकल्प करने आवश्यक है वही पृ. 351 18. Jain view of Life' T.G. Kalaghatagi, Jain Sanskriti Samrakshana Sangh, Solapur- 1969 page 12. Assistant Co-ordinator Department of Distance Education Jain Vishwa Bharati Institute LADNUN-341306 (Raj) 152 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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