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जैन परम्परा की विश्व संस्कृति को एक अमूल्य देन है। अनेकान्त के अनुसार प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से नित्य होने पर भी पर्याय रूप से असंख्य परिवर्तन प्राप्त करती है। उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों एक साथ होते हैं। उत्पाद और व्यय का एक साथ होना आत्म-विरोधी नहीं, क्योंकि अनंत धर्मात्मक होने से एक पक्ष या अंत में उत्पाद और दूसरे पक्ष या अंत में व्यय हो सकता है। अतः कोई भी पदार्थ न तो पूर्णतः स्थाई है और न पूर्णतः क्षणिक।
अनेकांतवाद का आधार लेकर जैनदर्शन की सबसे बड़ी विशेषता समन्वयात्मक दृष्टि है। इसमें उपनिषदों का नित्यवाद और बौद्धों का क्षणिकवाद, चार्वाक का जड़वाद और वेदांत के अध्यात्मवाद का सुन्दर समन्वय मिला है। इसमें एकतत्ववाद, द्वितत्ववाद और बहतत्ववाद के विरोधी वादों का सामंजस्यपूर्ण समाधान एवं समीकरण मिल जाता है। विरोधी वादों के स्वरूप की सुरक्षा कर, उनके पारस्परिक विरोध का परिहार कर उन्हें सह अस्तित्व की एक भूमिका में लाकर खड़ा कर देना अनेकांतवादी दृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
__ अनेकान्तता वस्तुतः किसी पदार्थ की अनंतधर्मात्मकता का भान है। इस सिद्धान्त को समझाते हुए जैन आचार्य छह अंधे और एक हाथी वाली कहावत को प्रस्तुत करते हैं। अज्ञानग्रस्त मानव अंध व्यक्ति की तरह अल्पज्ञता के कारण वस्तु की समग्रता को नहीं देख सकते हैं और उसकी संपूर्णता का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकते हैं। अतः वे केवल अपनी दृष्टि को ही एक मात्र और संपूर्ण सत्य मान बैठते हैं। इसी से दुराग्रह हठ तथा धर्मान्धता उत्पन्न होती है। यही परस्पर विग्रह का कारण बन जाता है और शातिपूर्ण सह-अस्तित्व में बाधक बन बैठता है। विश्व की समस्याओं का मूल कारण यह अज्ञानजनित एकांतवादी दृष्टि है। मुक्त और सर्वज्ञ पुरुष ही पदार्थ की सर्वांगीणता का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। बुद्धजीव का ज्ञान एवं उसकी अभिव्यक्ति एकांगी होती है, अतः उसे 'स्याद्' शब्द का प्रयोग कर यह स्पष्ट करना चाहिए कि किस विशेष दृष्टि और संदर्भ से उस कथन का प्रयोग कर रहा है। इसी को स्याद्वाद कहते हैं जो अनेकांतवाद का एक रूप है। स्याद्वादी जब वस्तु के अस्तित्व को व्यक्त करता है तो केवल 'अस्ति' न कहकर 'स्यादस्ति' कहता है। इससे वस्तु में अन्य पक्षों से विद्यमान 'नास्तित्व' का निषेध न होकर भी एक पक्ष विशेष से अस्तित्व का विधान हो जाता है। प्रत्येक वस्तु निज रूप से सत्ता है तो पर रूप से असत्ता भी है। उसमें स्वभाव है तो अन्योन्याभाव भी है। 'घट घट है' यह उतना ही सत्य है जितना घट पट नहीं है । स्याद्वाद इसी सापेक्षता को व्यक्त करने का एक विधान है।
अनेकांतवाद के वैचारिक सिद्धान्त की परिणति आचार के क्षेत्र में अहिंसा एवं अपरिग्रह के सिद्धान्तों में होती है। अहिंसा का सिद्धान्त जैन मत की विश्व संस्कृति को एक विशिष्ट देन है। यद्यपि यह सिद्धान्त विश्व के अनेक धर्मों में प्रतिपादित किया गया है लेकिन जितनी महत्ता से इसकी प्रस्तुति एवं जितनी दृढ़ता से इसका पालन जैन मत में हआ है उतना अन्यत्र नहीं । अहिंसा परमो धर्मः जैन मत का मूलमंत्र है। इसमें वर्गभेद को मिटाकर साम्यदृष्टि मानव 94 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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