Book Title: Tulsi Prajna 2001 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 95
________________ इस सामाजिक सौहार्द में संशय, छल, सर्वजनसम्मत नहीं होना एवं अनुपयोगी होनाये समाज-विघातक-तत्त्व माने गये हैं। किन्तु अनेकांत में इनमें से कोई भी दोष नहीं पाया जाता है, इसे मैं शास्त्रों के प्रमाणों के आधार पर यहाँ क्रमशः स्पष्ट करूंगी। __ अनेकांत छलरूप नहीं है, क्योंकि 'छल' का लक्षण आचार्य अकलंकदेव ने इस प्रकार बताया है "वचनाविघातोऽर्थविकल्पोपत्त्या छलम्, यथा नवकम्बलोऽयं देवदत्तः।" जहाँ वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करके वचन-विघात किया जाता है, वहाँ छल होता है; जैसे 'नवकम्बलोऽयं देवदत्तः' यहां 'नव' शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक नौ संख्या और दूसरा 'नया' या 'नूतन' । यहाँ नये विवक्षा से कहे गये नवशब्द का संख्यारूप अर्थ कहना—यह छल है। जबकि अनेकांत में ऐसा नहीं है; क्योंकि मुख्य गौण-विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का निर्णयात्मकरूप से प्रतिपादन करने वाले अनेकांत में वचन का विघात नहीं किया गया है; अपितु वस्तुतत्त्व का यथावत् निरूपण किया गया है। इसी प्रकार अनेकांत के संशय रूप होने का भी बहत अच्छी तरह निराकरण आचार्य अकलंक ने किया है। वे लिखते हैं कि - "संशयहेतुरनेकान्तवादः । कथम्? एकत्राधारे विरोधिनोऽने कस्यासम्भवात् ।... तच्च न कस्मात् । विशेष लक्षणोपलब्धेः इह सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतैश्च संशयः ।... न च तद्वदनेकान्तवादे विशेषानुलब्धिः, यतः स्वरूपादेशवशीकृता विशेषा उक्ता वक्तव्या: प्रत्यक्षमुपलभ्यन्ते । ततो विशेषोपलब्धेर्नसंशयहेतुः । विरोधाभावात् संशयाभावः । उक्तादर्पणाभेदाद्धि एकत्राविरोधेनाविरोधो धर्माणां पितापुत्रादि-संबंधवत् । सपक्षासपक्षापेक्षोपलक्षितसत्त्वासत्वादिभेदोप चितैकधर्मबद्धा ।' अनेकांत संशय का हेतु है, क्योंकि एक आधार में अनेक विरोधी धर्मों का रहना असंभव है। इसका उत्तर है- नहीं, क्योंकि यहाँ विशेष लक्षण की उपलब्धि होती है। सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर, किन्तु उभय-विशेषों का स्मरण होने पर संशय होता है। जैसे धुंधली रात्रि में स्थाणु और पुरुषगत ऊंचाई आदि सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत पक्षी-निवास व कोटर तथा पुरुषगत सिर खुजाना, कपड़ा हिलना आदि विशेष धर्मों के न दिखने पर, किन्तु उन विशेषणों का स्मरण रहने पर ज्ञान दो कोटि में दोलित हो जाता है कि 'यह स्थाणु है या पुरुष।' इसे संशय कहते हैं। किन्तु इस भाँति अनेकांतवाद में विशेषों की उपलब्धि नहीं है, क्योंकि स्वरूपादि की अपेक्षा करके कहे गये और कहे जाने योग्य सभी विशेषों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है। इसलिये अनेकांत संशय का हेतु नहीं है। इन धर्मों में परस्पर विरोध नहीं है, इसलिये भी संशय का अभाव है। पिता-पुत्रादि-संबंधवत् मुख्य गौण विवक्षा से अविरोध सिद्ध है तथा जिस प्रकार वादी या प्रतिवादी के द्वारा प्रयुक्त प्रत्येक हेतु स्वपक्ष की अपेक्षा साधक और परपक्ष की 900 - तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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