Book Title: Tulsi Prajna 2001 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 84
________________ अनेकान्त का अर्थ है-'अनेकः अन्तः धर्माः यस्य सः अनेकान्तः' अर्थात् जो वस्तु में विद्यमान अनन्त धर्मों को युगपद् स्वीकार करे, वह अनेकान्त है। अनेक का अर्थ है एक से अधिक और अन्त का अर्थ सहित या धर्म है। मल्लिषेणसूरि ने स्याद्वादमंजरी' में इसकी परिभाषा करते हुए कहा है अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्वमसूपपादम अर्थात- तत्त्व अनेक धर्मात्मक होता है, पदार्थों में अनेक धर्म माने बिना किसी वस्तु की सिद्धि नहीं होती है। परन्तु उलझन यहां होती है कि पदार्थ अनन्त रहे और उन्हें जानने के लिए दृष्टियां भी अनन्त हैं। पर अभिव्यक्ति का साधन तो एक भाषा ही है। वह भी इतनी लचीली और दुर्बल कि उसके द्वारा हम एक क्षण में वस्तु के एक धर्म का ही प्रतिपादन कर सकते हैं। इसका अर्थ होता है- एक वस्तु का प्रतिपादन करने के लिए अनन्त शब्द चाहिए और वैसे अनन्त-अनन्त पदार्थों के लिए अनन्त-अनन्त शब्द चाहिये। उसके लिए हमारा जीवन भी अनन्त चाहिए पर यह कदापि संभव नहीं। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि भाषा के सहारे हम न तो वस्तु का सम्पूर्ण परिज्ञान ही कर सकते हैं और न ही अभिव्यक्ति । लेकिन तीर्थकरों ने भाषा के भण्डार को एक रत्न प्रदान किया, जिसके प्रभामण्डल में समूचा भाषा-भण्डार जगमगा उठा। वह शब्द रत्न है- 'स्यात्' । यह शब्द इतना सक्षम है कि जिस वस्तु के साथ इसे जोड़ दिया जाए वह वस्तु समग्र अभिव्यक्त होने लगती है। यह एक ऐसा दर्पण है जिसमें वस्तु के सभी रूप एक साथ प्रतिबिम्बित हो सकते है। जैनाचार्यों ने अनेकान्त पर गहन चिन्तन-मनन कर उसे परिभाषित किया है जो उसके सार्वकालिक महत्त्व का परिचायक है। आचार्य तुलसी ने भिक्षुन्यायकर्णिका में अनेकान्त की सरल एवं सुगम परिभाषा करते हुए कहा है "अर्पणानर्पणाभ्यामनेकान्तात्मकार्थप्रतिपादनपद्धतिः स्याद्वाद'' अर्थात् अर्पणा (मुख्य धर्म की अपेक्षा) और अनर्पणा (गौण धर्म की उपेक्षा) के द्वारा अनेकान्तात्मक (अनन्त धर्मात्मक) वस्तु के प्रतिपादन की पद्धति को स्याद्वाद कहा जाता है। विरोधी और अविरोधी अनेक धर्मों के स्वीकार को अनेकान्त कहा जाता है। एक समय में एक ही धर्म अर्पणा ओर शेष धर्मों की अनर्पणा के द्वारा अनेकान्तात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने वाला वचन 'स्यात्' शब्द से युक्त होने के कारण स्याद्वाद कहलाता है। स्याद्वाद एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का प्रतिपादक नहीं है किन्तु अपेक्षा भेद से विरोध का परिहारक है। आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति अनेकान्त को समझकर हृदयंगम करें व उसका जीवन में व्यावहारिक प्रयोग करें तो जीवन की समस्याओं के समाधान स्वतः निःसृत तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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