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'अनेकांत' वस्तु का स्वरूप है—यह स्वीकृति मनुष्य को 'अनेकान्तवाद' के अन्वेषण के अहंकार से भी दूर रखती है तथा पारस्परिक सौहार्द को तो बढ़ाती ही है। अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र के इन वचनों को उद्धृत करना चाहता हूँ
'उभयनय-विरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके, जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। 20
अर्थात् दोनों नयों के विरोध को दूर करने वाले इन जिनेन्द्र वचनों में जो रमते हैं, वे मोहरहित हो जाते हैं।
संदर्भ: 1. महाभारत, मोक्षधर्म, शांतिपर्व, 2/306/46 2. पातंजल महाभाष्य, 1/4/911 3. गीता, 2/96, योगवाशिष्ठ, 3/7/38 4. आ. बादरायण, 'ब्रह्मसूत्र', 2/2/23 5. श्वेताश्वरोपनिषद्, 1/8 6. विवेकचूड़ामणि, 111 7. आप्तमीमांसा, 100 8. गीता, 15/7 9. ऋग्वेद 16 10. ब्रह्मसूत्र, विज्ञानामृतभाष्य, 2/2/33 11. अथर्ववेद, 17/1/19 12. केनोपनिषद् 2/3 13. विदुरनीति, 2/77. 80 14. विष्णुपुराण, 18/10-11 15. आचार्य सिद्धसेन, सन्मतिसूत्र, 3/69 16. प्रवचनसार, पृष्ठ 2 17. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 1/2 कहा है। 18. आचार्य सिद्धसेन, सन्मतिसूत्र, 3/60 19. आचार्य जटासिंहनंदि, वरांगचरित, 26/83 20. समयसारकलश, 1/4
विभागाध्यक्ष प्राकृतभाषा विभाग श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित विश्वविद्यालय), नई दिल्ली-110016
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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