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घटित होता है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य में अनन्त शक्ति है। वह द्रव्य चाहे जीव हो, चाहे पुद्गल । वह शक्ति परिणमन के द्वारा प्रकट होती है जैसे कोयले से बिजली बनी, पानी के तेज प्रवाह से बिजली बनी।
___श्वास कौन लेता है- आत्मा लेती है या पुद्गल लेता है ? आत्मा भी श्वास नहीं लेती, पुद्गल भी श्वास नहीं लेता । श्वास लेता है दोनों का योग | सृष्टि में आत्मा और शरीर को अलग अलग नहीं किया जा सकता। दोनों सत्य हैं, परिणमन सत्य है, परिवर्तन सत्य है। वस्तु के अनन्त रूप हैं और हर रूप सत्य है। वस्तु तत्व की अनन्त धर्मात्कता ही अनेकान्त का औचित्य है। किन्तु एक समय, एक धर्म मुख्य होगा, शेष सारे गौण हो जाते हैं। पर जो गौण हैं, जो वर्तमान में दिखाई नहीं देते हैं वे मिथ्या नहीं है। समस्या तब पैदा होती है जब जिसने देखा उसी पर आग्रह हो गया कि वही सत्य है। रत्न अलग अलग पड़े हैं-उनको एक माला में पिरोकर रत्नावली बनाने से आग्रह समाप्त हो जायेंगे। अनेक विचार अलगथलग पड़े हैं, बिखरे हुए हैं- उन सबको मिला दो वह सम्यक् दर्शन बन जायेगा । नित्यवाद पूर्ण सही नहीं, अनित्यवाद पूर्ण सही नहीं, दोनों को मिला दो तो दोनों सम्यक् बन जायेंगे। परिवर्तन और अपरिवर्तन दोनों को एक साथ जोड़ दो। वस्तु को देखने का यह दृष्टिकोण अनेकान्त की मौलिकता है।
आंशिक सत्यों के समन्वय का नाम ही अनेकान्तवाद है। इसके सूत्रों को या axioms को हम अंग्रेजी भाषा में बेहतर समझ सकेंगे
1. Con-conimitance between the Universal and particular. 2. Con-commitance between the permanent and the Impermanent 3. Con-comitance of existence and non-existence. 4. Con-commitance of the speakable and the unspeakable 5. Con-comitance of Being and Non-Being 6. Con-comitance of identity and difference of substance understood
and not necessary and modes 7. Con-comitance of one and many.
'अनेकान्त' को सापेक्षवाद भी कहते हैं Theory of Relativity अर्थात् कोई भी गुण या कथन सापेक्ष है। It is relatively true विरोधी गुण भी relatively true है। जहां पक्ष है वहां प्रतिपक्ष भी होगा। दोनों का सम्मान करो। अनेकान्तवाद के अनुसार हमारे जीवन का पूरा व्यवहार और समाज का पूरा व्यवहार विरोधी तत्त्वों की ईटों से बना है। यह विश्व भेदोभेद, नित्यानित्य, अस्तित्व-नास्तित्व और वाच्यावाच्य के नियमों से शृंखलित है। कोई भी द्रव्य सर्वथा भिन्न नहीं, सर्वथा अभिन्न भी नहीं, सर्वथा नित्य नहीं, सर्वथा अनित्य नहीं, सर्वथा अस्ति नहीं, सर्वथा नास्ति नहीं । अनेकान्तदृष्टि के अनुसार चेतन भी सत्य है, अचेतन भी सत्य है। न तो चेतन अचेतन से बना है जैसा कि Materialists कहते हैं और न अचेतन
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तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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