Book Title: Tulsi Prajna 2001 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ आज सिर्फ महावीर को मानकर चलने का युग नहीं, उन्हें जीने का युग है। महावीर की पूजा नहीं, स्वयं महावीर बनने की तैयारी में जुटना है। आज का आदमी प्रतीक्षा में खड़ा है महावीर को समझने के लिए। आज उसे विचारों की भीड़ नहीं चाहिए, उसे निर्णायक गति और सही दिशा चाहिए। वह कोल्हू की बैल की तरह तेलघानी में सिर्फ घूमता ही नहीं रहना चाहता, उसे केन्द्र की खोज है। परिधियां सिर्फ भटकाव है, मंजिल नहीं। इसलिए महावीर के प्रदत्त जीवन सूत्रों में जीवन की सार्थकता को खोजना है। आज सावधानी इस बात की रखनी है कि मनुष्य की आस्थाएं कहीं कमजोर न पड़ जाएं, क्योंकि जड़ें नहीं सूखनी चाहिए अन्यथा वृक्ष गिर पड़ता है। टूटती शाखाओं को थामने के लिए सक्षम हाथ चाहिए | महावीर की अहिंसा, अनेकान्त, अपरिग्रह जैसे संदेश हमें थामते हैं गिरने से। ___ आज जरूरी है दृष्टिविपर्यास को मिटाने की, मूल को पकड़ने की। इसी उद्देश्य से गंगाशहर में (1-3 अप्रैल, 2001) 'अनेकान्त सिद्धान्त और व्यवहार विषय' पर महान् दार्शनिक आचार्यश्री महाप्रज्ञ की सन्निधि में जैन विश्वभारती संस्थान के तत्त्वावधान में त्रिदिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित हुआ था। इस संगोष्ठी में अनेकान्त के विविध दार्शनिक, सैद्धान्तिक, व्यावहारिक पक्षों पर खुली बहस हई थी। इस सेमीनार में प्रस्तुत विद्वानों के चयनित आलेखों को 'तुलसी प्रज्ञा' में प्रकाशित करने का चिन्तन लिया गया ताकि प्रबुद्ध लेखकों द्वारा विविध दृष्टिकोणों से व्याख्यायित अनेकान्त के सिद्धान्त और जीवन-शैली के सूत्रों को पाठकों तक सहज बोधगम्य करवाया जा सके। ___ 'तुलसी प्रज्ञा' का यह अंक अनेकान्त की बहसामग्री के साथ प्रकाशित हो रहा है। यह एक छोटी सी कोशिश है अनेकान्त को सही-सही समझने की। सिद्धान्तों को पढ़कर व्यवहार में उसे जीने का संकल्प करने की । क्योंकि अन्धेरों से लड़ने के लिए एक नन्हें से दीए के जलते रहना भी स्वयं में मूल्यवान है। यह प्रयास सार्थकता पा सकता है यदि मानवीय संस्कारों में, विचारों में सामंजस्य स्थापित करें। यह सारा प्रयास सिर्फ इसलिए है कि कहीं न कहीं हम अपने होने का सही अर्थ पा सके। यह वर्ष एक स्वर्णिम अवसर लाया है कि हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से मुक्त होकर, आग्रही पकड़ छोड़कर सत्य की खोज में सहयात्री बने। और इसी सन्दर्भ में तुलसी प्रज्ञा का यह प्रयास भगवान महावीर के चरणों में एक विनम्र श्रद्धाञ्जलि होगा। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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