Book Title: Tulsi Prajna 1997 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ चिह्नों या प्रतीकों की पूजा किया करते होंगे। अतएव मथुरा के ये आयागपट्ट जैन पूजा के प्रथम सोपान कहे जा सकते हैं। आयागपट्टों पर उत्खचित तीर्थंकरों की इन प्रतिमाओं के बाद ही उनकी स्वतंत्र मूर्तियां गढ़ी गयी थीं। दूसरे शब्दों में, जैन मूर्ति-पूजा का विकास प्रतीक-पूजा से हुआ था। मथुरा के इन आयागपट्टों पर प्रायः स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमान, भद्रासन, कलश, पुष्पपात्र, मीन-मिथुन आदि वही चिह्न उत्कीर्ण हैं जिनकी गणना जैन ग्रंथों में विशेषकर औपपातिकसूत्र ३१ में मिलती है (चित्र १-३)। जैन सन्दर्भ में सामूहिक अष्टमांगलिक प्रतीक कतिपय जैन मन्दिरों और गुहामन्दिरों के सिरदल पर भी अंकित मिलते हैं। इनमें गुजरात में जूनागढ़ के निकट बाबा प्यारामठ की गुहा क्रमांक 'के' (K) के सिरदल का उल्लेख मुख्य है (चित्र ४)।" खजुराहो तथा देवगढ़ (उ० प्र०) के कुछ जैन मन्दिरों के सिरदल पर तथा देलवाड़ा, कुम्भारिया और कुछ अन्य स्थानों (सभी राजस्थान) के मन्दिरों की आन्तरिक छतों पर भी अष्टमांगलिक चिह्नों के सामूहिक अंकन पाए गए हैं। १९वीं शती ई० का एक आयताकार कांस्य-फलक बड़ौदा के एक जैन मन्दिर में है जिस पर जैन धर्मावलम्बी भक्तगण पुष्प-फल आदि अपनी पूजा-सामग्री चढ़ाते हैं। इस कांस्य-फलक पर भी दर्पण, भद्रासन, कलश, वर्द्धमान, मीन-मिथुन, पुष्प, स्वस्तिक और आलंकारिक स्वस्तिक (Labyrinthine svastika) के रूप में अष्टमांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं। बड़ोदा का यह कांस्य-फलक वस्तुतः मथुरा के आयागपट्टों का स्मरण दिलाता है। इसे जैन धर्मानुयाइयों में अष्टमांगलिक चिह्नों की प्राचीन पूजा-परम्परा की वर्तमान कड़ी कहा जा सकता है (चित्र ५)। _बौद्ध कला में भी अष्टमंगलों का सामूहिक स्वरूप आंका गया है। सांची (म० प्र०) स्थित विशालस्तूप के उत्तरी तोरण के एक स्तंभ पर नागदन्तों पर लटकती कई मालाओं का अंकन है। इनमें दो मालाएं ऐसी हैं जिनके मनके (गुरिया) अष्टमंगलों के रूप में हैं। इन मालाओं के दोनों सिरों के पद्म प्रतीकों को छोड़ दिए जाने पर शेष मनकों की संख्या नौ और ग्यारह है । ये हैं खड्ग, परशु, श्रीवत्स, मीनमिथुन, पंकज, वैजयन्ती या भद्रासन, अंकुश, दर्पण और वृक्ष तथा वृक्ष, पुष्प, माला, परशु, मीन-मिथुन, पंकज, भद्रासन, श्रीवत्स, खड्ग, दर्पण और अंकुश (चित्र ६-७) । इसके अतिरिक्त दक्षिणी तोरण के पश्चिमी स्तंभ पर एक कल्पलता का अंकन है। इसमें सबसे नीचे बैठे एक दम्पति की नारी ने अपने दोनों हाथों में पकड़कर एक ऐसी ही प्रतीकमाला को अपने घुटनों पर लटका रखा है । इस माला की मध्यमणि भी नन्द्यावर्त और पंकज पुष्प के सम्मलित स्वरूप जैसी है । उसके एक ओर मीन-मिथुन, अंकुश और भद्रासन तथा दूसरी ओर खड्ग, दर्पण और भद्रासन के प्रतीक हैं। सात मनकों की इस माला को भी अष्टमांगलिक माला कहा जा सकता है। सारनाथ और मथुरा से मिले कुषाणकालीन गोल तथा चौकोर छत्रों पर भी इन अष्टमांगलिक चिह्नों को उकेरा गया था। ये छत्र बुद्ध तथा बोधिसत्वों की प्रतिमाओं के ऊपर ताने जाते थे। सारनाथ से मिले प्रथम शती ई० पू० के एक गोल छत्र का आभ्यन्तर और परिधि पपदलों से अलंकृत है और दोनों के बीच वाले घेरे २७२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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