Book Title: Tulsi Prajna 1995 07 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ बुद्धयुग में ब्राह्मणों की दार्शनिक मान्यताएं डा० राजीव कुमार एवं श्री आनन्दकुमार बुद्ध युग में वैदिक धर्म तथा दर्शन अपना प्रवाह बनाए हुए थे। ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मंत्रों का स्वाध्याय, प्रवचन और भाषण किया जाता था। इसकी पुष्टि भगवान बुद्ध तथा प्रोक्त, अम्बद्ध, वाशिष्ट और बावारि के शिष्यों आदि के साथ हुए वार्तालाप से होती है--- 'जो तेरे पूर्व के ऋषि मंत्रों के कर्ता, मंत्रों के प्रवक्ता, जिनके पुराने मन्त्रपाठ को इस समय ब्राह्मण गीत के अनुसार गान करते हैं, प्रोक्त के अनुसार प्रवचन करते हैं, भाषित के अनुसार अनुभाषण करते हैं, स्वाध्यायित के अनुसार स्वाध्याय करते हैं, वाचित के अनुसार वाचन करते हैं, जैसे कि---अट्ठक, वामक, वामदेव, विश्वामित्र, यमदग्नि, अंगिरा, भारद्वाज, वशिष्ट, कश्यप, भृगु' । इस समय ऋग्वेद के देवताओं की उपस्तुतियां तथा आह्वान भी किये जाते थे--- 'हम इन्द्र को आह्वान करते हैं, ईशान को आह्वान करते हैं, प्रजापति को आह्वान करते हैं, ब्रह्मा को आह्वान करते हैं, महद्धि को आह्वान करते हैं, यम को आह्वान करते हैं । किन्तु बहुसंख्यक ब्राह्मण यज्ञ में विश्वास रखते थे। वे अनेक प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करते थे--अश्वमेध , पुरुषमेध, सम्मापास, वाजपेय यज्ञ, इत्यादि । पिटक साहित्य में बुद्ध के समकालीन अनेक ब्राह्मणों के यज्ञों का वर्णन किया गया है । महायज्ञों में गाय, वृषभ, बछड़े, बछियां, बकरे, भेड़, सूअर, घोड़े, हाथी आदि पशुओं की बलि दी जाती थी। यज्ञों का अनुष्ठान काफी धूमधाम से किया जाता था। बाहर से विद्वान् ब्राह्मण यज्ञ में शामिल होने के लिए आमंत्रित किये जाते ___ जीवन की व्यावहारिक उपयोगिता से शून्य अत्यन्त क्रांतिमयी अनेक दार्शनिक धारणाएं इस युग में प्रचलित थीं, जिनका वर्णन ६२ मिथ्या धारणाओं के रूप में त्रिपिटक में कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से आया है। 'ब्रह्मजालसुत्त' इन सब धारणाओं का सर्वोत्तम विश्लेषण प्रस्तुत करता है। बुद्ध के समय में ब्राह्मणों में प्रचलित ६२ मिथ्या धारणाओं में से अठारह पूर्वान्तकल्पित अर्थात् लोक और आत्मा आदि के संबंधी तथा ४४ अपरान्तकल्पित अर्थात् लोक और आत्मा के अन्त संबंधी थीं। खण्ड २१, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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