Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 16
________________ लेकिन आप देख रहे हैं और अच्छी तरह महसूस कर रहे हैं कि जीवन को दिशा देने वाले, ऊँचा उठाने वाले शब्द मारबल की काया पाकर भी श्री-हीन हो रहे हैं और जिन शब्दों को आप बोलते नहीं, दीवारों पर लिख-लिख कर प्रसारित नहीं करते, किताबें छाप-छाप कर जिनका भाष्य नहीं करते, वे मनुष्य के सिरमौर बन गये हैं बल्कि उसके रक्त में बिंध कर उसकी धमनियों में दौड़ रहे हैं। 'झूठ' का यशोगान करनेवाली कोई पुस्तक आपको ढूँढे नहीं मिलेगी। 'चोरी' करना जायज है या जीवन के लिए आवश्यक है इसका प्रतिपादन करने वाले, वचन आप कहाँ से लायेंगे ! निन्दा, मत्सर, ईर्ष्या, लालच, क्रोध, अहंकार आदि-आदि शब्दों की पैरवी करने वाला साहित्य कोई नहीं लिखता-हजारों वर्षों के साहित्य-इतिहास में भी भी किसी ने नहीं लिखा। पर यह क्या करिश्मा हुआ कि जो लिखा या बोला नहीं जाता वह तो जीवन में उतर गया है और हमारी सारी संत-वाणियाँ-जिनवाणी, बुद्धवाणी, कुरानसार, वेद-उपनिषद् के सूत्र, प्रभु ईसा के वचन आदि-आदि पावनपवित्र शब्दों का अमृत हमारे लिए परम श्रद्धेय होकर भी 'ढपोरशंख' बन गया है। ढपोरशंख की एक बढ़िया कहानी है। शंख बोलता ही जाता है मिठाइयों के नाम । आदेश-पर-आदेश देता है, पर सामने न रसगुल्ला आता है, न बरफी । ऐसा ढपोरशंख वास्तव में किसी परी ने किसी मनुष्य को दिया हो या नहीं, पर मनुष्य ने अपने सारे मूल्यवान शब्दों को 'ढपोरशंख' बना डाला है। श्री राजेन्द्रसूरि ने अपने युग में अपना सम्पूर्ण जीवन इस काम में लगाया कि जो ढपोरशंख बन गया है वह प्राण फूंकने वाला शंख बन जाए; इसलिए उन्होंने शब्द फिर से बटोरे, खोज-खोजकर निकाले और करीने से जमाकर आनेवाली पीढ़ी के हाथ अर्थ-सहित सौंप दिये। वे इतना ही करते तो कोई खास बात नहीं होती। कितने-कितने उद्भट विद्वान् हो गये हैं, जिन्होंने बृहदाकार ग्रंथों की रचना की है। इतने-इतने भारी महाग्रंथ कि आपसे उठाये नहीं उठ सकते । उसी कोटि का यह 'अभिधान राजेन्द्र कोश' और एक बोझ बन जाता । पर वे शब्दों से स्वयं जुड़ गये । उन्हें अपने आचरण में उतारा और अपने युग की उन निकम्मी परम्पराओं से अलग हट गये जो जैनागम के बहुमूल्य शब्दों को अर्थहीन बना रही थीं। उन्होंने एक जगह लिखा है-“जीवन का प्रत्येक पल सारगर्भित है।” कुछ पल मनुष्य बढ़िया जी ले और कुछ में वह बहक जाए तो मीज़ान में बहका हुआ जीवन ही हाथ लगेगा । जीवन का टोटेलिटी-समग्रता-से संबंध है । परीक्षा में ६० प्रतिशत अंक लाकर आप प्रथम श्रेणी में आते हैं और ७५ प्रतिशत अंक लाकर विशेष योग्यता पा जाते हैं, परन्तु मैं ७५ प्रतिशत ईमानदार हूँ और केवल २५ प्रतिशत ही बेईमान हूँ तो मुझे ईमानदारी की विशेष योग्यता-डिस्टिक्शन नहीं देते । बल्कि मुझे सरेआम बेईमान घोषित कर देते हैं। हमें जब बुखार चढ़ता है तो ऐसा नहीं होता कि १० (दस) प्रतिशत शरीर में बुखार है और ९० (नव्वे) प्रतिशत शरीर में तीर्थंकर : जून १९७५/१६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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