Book Title: Tirthankar 1975 06 07
Author(s): Nemichand Jain
Publisher: Hira Bhaiyya Prakashan Indore

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Page 14
________________ जीवन-शिल्पी के लिए शब्द बहुत महत्त्व रखते हैं। वही तो उसकी छनी है जो मनुष्य को तराशती है। उसका सारा फाज़िल (निकम्मा) बोझ काट-काट कर उसे काम का बनाती है। पर जब शब्द बोथरा जाएं तो जीवन-शिल्पी क्या करे ? श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने शब्दों की छैनियाँ, जो बोथरा गयी थीं, फिर से पैनी बनायीं और मनुष्य के हाथ में थमा दी कि लो इनसे अपने को तराशो, जिस बोझ को ढो रहे हो उसे काटो, और खालिस बनो, निर्भय बनो तथा बन्धन-मुक्त हो जाओ। उन्होंने अपनी युवावस्था में यही काम किया । उन सारी परम्पराओं को तोड़ा जिसमें उस युग का मनुष्य-आज से डेढ़ सौ वर्ष पहले का मनुष्य-घिरा हुआ था। धर्म-संसार का वह एक सामन्ती युग था। यति-परम्परा । धर्म-प्रतिमानों की गादियाँ एक यति से दूसरे यति के हाथ लगतीं और वहाँ वह सब चलता जिसमें मनुष्य बाहर से गदराता है और भोतर से सूखता है। जीवन-शिल्पी राजेन्द्रसूरि यति-परम्परा की इस आरामदेह गादी में कैसे धंसते ? वे तो जैनागम के बहुमूल्य शब्दों के पुष्ट धरातल पर खड़े होने का हौसला रखते थे। यति-परम्परा के साथ जुड़े ये शब्द उन्होंने नहीं छुए-यंत्र-तंत्र-मंत्र, हाथी-घोड़ा-पालखी-रथ, शस्त्र, सैन्य, भांग-गांजा आदि व्यसन, शृंगार की वस्तुएँ, धन का वैभव, चौपड़ आदि जुआं और स्त्रीसंसार । चूँकि यति-परम्परा इन शब्दों के आसपास चल रही थी और उसकी डोरियाँ इन्हीं से बंधी थीं, इसलिए उसने यति-परम्परा का घेरा तोड़कर अपने को उससे मुक्त कर लिया । उस युग का यह अति पराक्रमी कदम है। आज तो यह हालत हुई है कि मनुष्य अपना अति मामूली वैभव भी उठाकर फेंकने की हिम्मत खो बैठा है। यदि उसमें से थोड़ा-बहत देता भी है तो पूरे जीवन उस देने के ही अहंकार को ढोता फिरता है । पर श्री राजेन्द्रसूरिजी ने बड़ी हिम्मत के साथ यति-परम्परा को तिलांजलि दी और साधना की एक नयी लीक कायम की। श्रीमद् राजेन्द्रसूरि शब्दों के माली थे । जो शब्द-पुष्प उन्होंने चुनकर माला गूंथी वे ये हैं : विनय, उदारता, धीरज, प्रेम, दया, विवेक, विश्व-बंधुत्व, स्वतंत्रता, आत्म-शक्ति, संयम, आत्मविश्वास, इन्द्रिय-विजय, क्षमा, निराकुलता, मृदु वाणी, चारित्य, पुरुषार्थ, सहन-शक्ति, संतोष, निराग्रह, गण-दर्शन, अच्छी संगति, सावधानी, उद्यम, परिश्रम आदि । मनुष्य के जीवन को छेदनेवाले काँटे वे अपनी माला में क्यों गंथते ? इसलिए शब्दों के इस महान् पारखी ने अपने घेरे से ये शब्द निकाल ही दिये : क्रोध, तिरस्कार, अभिमान, कर्कश वचन, अविनय, अनादर, निन्दा, चुगलखोरी, मायाचारी, लालच, यशःकामना, दुराचार, परिग्रह, कुसंस्कार, कलह, ईर्ष्या, उद्वेग, अहंकार और लालसा आदि । ____ अब आप पूछेगे कि यह शब्दों को बटोरना और फेंकना क्या चीज है ? क्या किसी जिल्दवाली कॉपी में अच्छे-अच्छे शब्द लिख लिये और फेंके जाने वाले तीर्थंकर : जून १९७५/१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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