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जीवन-शिल्पी श्रीमद् राजेन्द्रसूरि
शब्द तभी कारगर होते हैं जबकि आप उन्हें जीयें। शब्दों को केवल बोलेंगे या लिखेंगे--भले ही आप शिलाओं पर लिखें या ताँबे की मोटी प्लेटों पर खोद लें--तो भी वे निकम्मे ही साबित होंगे। मनष्य के जीवन का यह राज श्री राजेन्द्रसूरि समझ गये थे, अत: उन्होंने जैनागम की सारी शब्द-छैनियाँ एकत्र की, उनके सही अर्थ खोजे और शब्द निकम्मे नहीं हो जाएँ, ढपौरशंख ही नहीं बने रहें, अतः उन्होंने शब्दों को जीना शुरू किया और धीरे-धीरे वे कई बढ़िया शब्द अपने जीवन में उतार ले गये।
माणकचन्द कटारिया
शब्दों से अर्थ-किरण फूटती हैं और ज्ञान का प्रकाश फैलता है, पर ऐसे धूमिल युग भी आते हैं जिनमें मनुष्य का जीवन-व्यवहार अर्थ-किरणों को काट देता है और शब्द निस्तेज बनकर हवा में लटकते रहते हैं । जैसे कोई ग्रहण-लगा सूर्य हो-रोशनी फीकी पड़ गयी है, सूर्य की आभा को किसी ने रोक लिया है। मनुष्य धूप से बचने के लिए अपनी आँखों पर गॉगल्स (काला चश्मा) भले ही लगा ले, पर उसे ग्रहण कभी अच्छा नहीं लगता वह चाहता है कि उसका सूर्य, उसका चाँद जल्दी-से-जल्दी ग्रहण से मुक्त हो ले; लेकिन अभी हमें 'शब्द-ग्रहण' नहीं साल रहा है । शायद हम समझ ही नहीं पाये हैं कि हमारे कुछ बेशकीमती शब्द ग्रहण की चपेट में हैं । पर श्रीमद् राजेन्द्रसूरि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में 'शब्द-ग्रहण' नहीं सह सके और उन्होंने अपनी पूरी शक्ति जैनागम के अर्ध-मागधी भाषा में बिखरे बहुमूल्य शब्दों के चयन में लगा दी। उनके संस्कृत रूपों को खोजा, शब्द की व्युत्पत्ति मालूम की और उनकी अर्थ-किरणों को फैलाया । वे शब्द चुनते गये-सम्पूर्ण जैन साहित्य का एक एनसाइक्लोपीडिया-विश्व-कोश तैयार हो गया । उनके जीवन-काल में तो वह नहीं छप सका, पर जब बाद में छपा तो बड़े आकार के सात खण्ड छपकर सामने आये ९,२०० पृष्ठ ।
श्री राजेन्द्रसूरि साधु स्वभाव के थे, अध्ययनशील जिज्ञासु थे, खूब अनुशीलन करते थे, ४२ वर्ष की अवस्था से ही शुद्ध मुनि-जीवन जीने लगे थे। बड़ी छोटी उम्र से साहित्य-रचना करने लगे थे-दर्शन, साहित्य और धर्म के ६१ ग्रन्थों की रचना उन्होंने की है । ऐसा उद्भट विद्वान्, चिन्तक, साधक, अपरिग्रही साधु, शब्द-कोश के मोहजाल में क्यों पड़ा, इसकी जड़ में आप जाना चाहें तो दो बातें स्पष्ट हैं : एक तो यह कि शब्द का निस्तेज हो जाना, अर्थहीन बन जाना उसे चुभा और दूसरे उसने समझा कि जिन छोटी-छोटी बातों को करने का आदेश ये शब्द देते हैं, उन्हें करने से मनुष्य कतरा रहा है; और यों जड़ बनता जा रहा है।
श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर-विशेषांक/१३
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