Book Title: Tiloypannatti Part 3
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 7
________________ * प्राद्यमिताक्षर भगवान जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदिष्ट दिव्य वाणी धार अनुयोगों में विभाजित है । त्रिलोकसार अंथ के संस्कृत टीकाकार श्रीमन्माषचन्द्राचार्य विद्यदेव ने कहा है कि जिस प्रर्थ का निरूपण श्री सर्वशवेव ने किया था, उसी अर्थ के विद्यमान रहने से करणानुयोग परमागम केवलज्ञान सदृश है । तिसोपपणती ग्रन्थ के प्रथमाधिकार की गाथा ८६-८७ में श्रीयतिवषमाचार्यदेव प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं ( पदाहरूवत्तणेग आइरिय अणुक्कमा आद तिलोयपण्णत्ती अहं योच्छामि ) आचार्य परम्परा से प्रवाह रूप में आये हुए त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रंथ को कहूंगा। आचार्यों की इस वाणी से ग्रन्थ की प्रामाणिकता निपिवाद है। माधार-तिलोयपण्णती ग्रंथ के इस नवीन संस्करण का सम्पादन कानड़ी प्रतियों के आधार पर किया गया है, अतः इस संस्करण का आधार जीवराज ग्रन्थमाला से प्रकाशित तिलोयपणती और जनबिद्री स्थित जैन मठ की ति० प० की प्राचीन कन्नड़ प्रति से की हुई देवनागरी लिपि है। प्रथ-परिमाण-ग्रन्थ नो अधिकारों में विभक्त है । ग्रन्यकर्ता ने इसमें ८००० गाथाओं द्वारा लोक का विवेचन करने की सूचना दी है। जीवराज जैन ग्रन्थमाला, सोलापुर से प्रकाशित तिलोयपण्णत्ती के नौ अधिकारों की कुल ( पद्य) सूचित गाथाएं ५६७७ हैं जबकि वास्तव में कुल ५६६६ ही मुद्रित हैं; गद्य भाग भी प्रायः सभी अधिकारों में है । इस ग्रन्थ की गाथानों का पूर्ण प्रमाण प्राप्त करने हेतु शीर्षक एवं समापन सूचक मूल पदों के साथ गद्य भाग के सम्पूर्ण अक्षर गिने गये हैं। गाथाओं के नीचे अंकों में जो संदृष्टियां दी गई हैं, उन्हें छोड़ दिया गया है। कन्नड़ प्रति में प्रायः प्रत्येक अधिकार में नवीन गाथाएं प्राप्त हुई हैं । इसप्रकार इस नवीन संस्करण की कुल गाथाओं का प्रमाण इस प्रकार है

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