Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 556
________________ १२०-२१] सातवाँ अध्याय ४५५ ___ उत्तर-नैगम संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा गृहस्थ भी व्रती ही है। जैसे घरमं या घरके एक कमरेमें निवास करनेवाले व्यक्तिको नगर में रहनेवाला कहा जाता है उसी प्रकार परिपूर्ण व्रतोंके पालन न करने पर भी एकदेशत्रत पालन करनेके कारण यह अतो कहलाता है। पाँच पार्शमें से किसी एक पापका स्याग करनेवाला प्रती नहीं है किन्तु पाँचो पापोंके एकदेश या सर्वदेश त्याग करनेवाले को तो कहते है। अगारीका लक्षणमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसर्गिमहाररास२०॥ हिंसादि पापोंके एकदेश त्याग करनेवालको अगारी या गृहस्थ कहते हैं। अणुप्रतके पांच भेद हैं-अहिंसाणुवन, सत्यायुक्त, अचौर्याणुप्रत. ब्रह्मचर्यागुत्रत और परिग्रहपरिमाणाणुवन । संकल्प पूर्वक व्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करना अहिंसापुत्रत है। लोभ,मोह, स्नेह आदिसे अथवा घरके विनाश होनेसे या ग्राममें वास करने के कारण असत्य नहीं बोलना सत्याणुत्रत है । संक्लेशपूर्वक लिया गया अपना भी धन दूसरों को पीड़ा करने वाला होता है, और राजाके भय आदिसे जिस धनका त्याग कर दिया है ऐसे धनको अदत्त कहते हैं। इस प्रकारके धनमें अभिलाषाका न होना अचीाणुधत है। परिगृहीत या अपरिगृहीत परमी में रतिका न होना ब्रह्मचर्यपुत्रत है और क्षेत्र वास्तु धन धान्य आदि परिपका अपनी आवश्यकतानुसार परिमाण कर लेना परिग्रहपरिमाणाणुचत है। सात शोलतोंका वर्णनदिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकोषधोपचासोपभोगपरिभोग परिमाणातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।। २१ ॥ __ वह, व्रती दिग्नत, देशत्रत, अनर्धदण्डवत इन तीन गुणत्रतोंसे और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और असिथिसंविभागवत इन चार शिक्षात्रतों से सहित होता है । 'च' शब्दसे व्रती सरू देखनादिसे भी सहित होता है। दशों दिशाओं में हिमाचल, विन्ध्याचल आदि प्रसिद्ध स्थानों की मर्यादा करके उससे बाहर जानेका मरण पर्यन्त के लिये त्याग करना दिग्पत है। दिनत की मर्यादाके बाहर स्थावर और बस जीवोंकी हिंसाका सर्वथा त्याग होनेसे गृहस्थके भी उतने क्षेत्रमें महाप्रत होता है । दिग्बतके क्षेत्रका बाहर धनादिका लाभ होने पर भी मनकी अभिलाषाका अभाव होनेसे लोभका याग भी गृहस्थ के होता है। दिन के क्षेत्र में से भी ग्राम नगर नदी वन घर आदिसे निश्चित कालके लिये बाहर जानेका त्याग करना देशव्रत है । देशत्रत दिग्बतके अन्तर्गत ही है। विशेष रूपसे पापके स्थानों में, तभङ्ग होने योग्य स्थानों में और खुरासान मूलस्थान मखस्थान हिरमजस्थान आदि स्थानों में जानेका त्याग करना देशत्रत है। देशवतक क्षेत्रसे बाहर भो दिनतकी तरह ही महावत और लोभका त्याग होता है। प्रयोजन रहित पापक्रियाओं का स्वाग करना अनर्थदण्ड त है। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित. हिंसादान घोर दुःश्रुति । द्वेषके कारण दूसरोंको जय पराजयवध बन्धन द्रव्यहरण आदि और रागके कारण दूसरेकी श्री आदिका हरण कैसे हो इस प्रकार मन में विचार करना अपध्यान है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648