Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 563
________________ १६२ तत्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार सामायिक व्रतक अतिचारयोगदुःषणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ काययोगदुष्प्रणिधान, चायोगदुष्प्रणिधान, मनोयोग प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये सामायिकत्रसके पाँच अतिचार हैं। योगोंकी दुष्टप्रवृत्तिको तथा अन्यथा प्रवृत्तिको योगदुष्पणिधान कहते हैं । सामायिक समय क्रोध मान माया और लोभसहित मन वचन कायकी प्रवृत्ति दुष्ट प्रवृत्ति है। शरीरके अवयोंको आसनबद्ध या नियन्त्रित नहीं रखना कायकी अन्यथाप्रवृत्ति है। अर्थरहित शब्दोंका प्रयोग करना वचनकी अन्यधाप्रवृत्ति है और उदासीन रहना मनकी अन्यथाप्रवृत्ति है। सामायिक करने में उत्साहका न होना अनादर है । एकाग्रताके अभावसे सामायिकपाठ वगैरह भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। प्रोपोपवासत्रत के अतिचारअप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ।। अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितात्सर्ग, अप्रत्यदेक्षिताप्रमार्जितादान, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितसंस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये प्रोपधोपवासनतके पाँच अतिचार हैं। यहाँ जीव हैं या नहीं इस प्रकार अपनी चक्षुये देखना प्रत्यवेक्षित है, और कोमल उपकरण ( पीछी ) से झाड़नेको प्रमार्जित कहते हैं। बिना देखी और बिना शोधी हुई भूमि पर मल, मत्र श्रादि करना अप्रत्यवक्षितानमार्जिनोत्सर्ग है। देखे और शोधे बिना पूजन आदिके उपकरणोंको उठा लेना अप्रत्यवेक्षिताप्रमाजिदाना बिनादख और बिनास जी महाराज हुए बिस्तर पर सो जाना अप्रत्यवेक्षिताप्रमानितसंस्तरोपक्रमण है। क्षुधा, नृपा आदिस व्याकुल होनेपर आवश्यक धार्मिक कार्यों में आदरका न होना अनादर है। करने योग्य कााँको भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। उपभोगपरिभोगपरिमाणत्रतके अतिचार-- सचित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषयदुष्पक्काहाराः ।। ३५ ॥ मचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सचित्तसं मिश्राद्दार, अभियवाहार और दुःपक्काहार ये उपभोगपरिभोगपरिमाणवतके पाँच अतिचार हैं। सचित्त ( जीत्र सहित ) फल आदिका भक्षण करना सचित्ताहार है। सचित्त पदार्थसे सम्बन्धको प्राप्त हुई वस्तुको खाना सचित्तसम्बन्धाहार है । सचित्त पदार्थसे मिल हुए पदाधका खाना सचित्तसंमिश्राहार ई। सम्बन्धको प्राप्त वस्तु तो पृथक् की जा सकती है, लेकिन संमिन्न वस्तु पृथक नहीं हो सकती यही सम्बन्ध और संमिश्नमें भेद है। रात्रि में चार पहर तक गलाया या पकाया हुआ चावल आदि अन्न द्रव कहलाता है। बलवर्द्धक तथा कामोत्पादक आहारको वृष्य कहते हैं। द्रव और वृध्य दोनोंका नाम अभिषय है। अभिपत्र पदार्थका आहार करना अभिषवाहार है। कम या अधिक पके हुए पदार्थ का आहार करना दुःपक्बाहार है । वृष्य और टुःपक्य आहारके सेवन करनेसे इन्द्रियमदकी वृद्धि होती है. सचित्त पदार्थको उपयोग में लेना पड़ता है, वात आदिके प्रकोप तथा उदर में पीड़ा आदिके होनेपर अग्नि आदि जलानी पड़ती है। इन बातोस बहुन असंयम होता है। अतः इस प्रकारके आहारका त्याग करना ही श्रेयस्कर है।

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