Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 601
________________ तत्त्वार्थवृत्ति हिन्दी-सार [ ९३७०४१ संस्थानविय तीन लोकके आकारका विचार करना आश्चार्य विधियाधिसागर जी महाराज उक्त चार प्रकारके ध्यानको धर्म्यध्यान कहते हैं क्योंकि इनमें उत्तम क्षमा आदि ब्रश धर्मोका सद्भाव पाया जाता है। धर्मके अनेक अर्थ होते हैं। वस्तुके स्वभावको धर्म कहते हैं । उत्तम क्षमा आदिको धर्म कहते हैं । चारित्रको धर्म कहते हैं। जीवोंकी रक्षाको धर्म कहते हैं । ५०० अप्रमत संयत मुनिके साक्षात् धर्म्यध्यान होता है और अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत जीके गौण धर्म्य ध्यान होता है । शुक्लध्यानके स्वामीशुक्लेचा पूर्वविदः || ३७ ॥ पृथक्त्ववितर्क और एकत्व वितर्क ये दो शुक्लध्यान पूर्वज्ञानधारी श्रुतकेवीके होते हैं। 'च' शब्द से श्रुतकेवली के धर्म्य ध्यान भी होता है। श्रुतकेबलीके श्रेणी चढ़नेके पहिले धर्म्य ध्यान होता है। दोनों श्रेणियोंमें पृथक्त्ववितर्क और एकत्वधितर्क ये दो शुक्ल ध्यान होते हैं। श्रुतकेबलीके आठवें गुणस्थानसे पहिले धर्म्यध्यान होता है और आठवें नवें, दश और ग्यारहवे गुणस्थानों में पृथक्त्व वितर्क शुक्लध्यान होता है और बारहवें गुणस्थान में एकत्व वितर्क शुक्लध्यान होता है। परे केवलिनः ॥ ३८ ॥ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान सयोग केबलीके और व्युपरत क्रियानिवर्ति शुक्लध्यान प्रयोग केबलीके होता है। शुक्लध्यानके भेदपृथक्त्वकत्ववितर्कचमक्रिया प्रतिपातिष्युपरतक्रिया निवर्तीनि ॥ ३२ ॥ पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत किया निवर्ति - ये चार शुक्लध्यानके भेद हैं। पैरों से मन न करके पद्मासनसे ही गमन करनेको सुक्ष्मक्रिया कहते हैं । इस प्रकार की सूक्ष्म किया जिसमें पाई जाय वह सूक्ष्मकियाप्रतिपाति शुक्लध्यान है और जिसमें सूक्ष्मक्रियाका भी विनाश हो गया हो वह व्युपरतक्रिया निवर्ति शुक्लध्यान है । शुक्लध्यानके आलम्बन येक योग काययोगायोगानाम् ॥ ४० ॥ उक्त धार शुक्लध्यान क्रमसे तीन योग, एक योग, काययोग और योगरहित जीवों के होते हैं । अर्थात् मन, वचन और काययोगवाले जीवोंके पृथक्त्ववितर्क, तीन योगों में से एक योगवाले जीवोंके एकक्स्यवितर्क, काययोगवालोंके सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति और योगरहित जीषोंके व्युपरत क्रियानिवर्ति शुक्ल ध्यान होता है । आदिके दो ध्यानोंकी विशेषता -- काश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे ॥ ४१ ॥ पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क ये दो शुक्लध्यान परिपूर्ण श्रुतज्ञान धारी जीवके ८५

Loading...

Page Navigation
1 ... 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648