Book Title: Tattvarthvrutti
Author(s): Jinmati Mata
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 608
________________ १-१३ ] दसवाँ अध्याय あな बन्धके कारण मिध्यादर्शन आदिके न रहनेसे नवीन कर्मोंका आस्रव नहीं होता है और निर्जराके द्वारा संचित कमका क्षय हो जाता है इस प्रकार संचर और निर्जराक द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । कमका क्षय दो प्रकारसे होता है- प्रयत्नसाध्य और अप्रयत्नसाध्य जिस कर्मक्षय के लिये प्रयत्न करना पड़े वह प्रयत्नसाध्य है और जिसका क्षय स्वयं विना किसी प्रयत्न के हो जाय वह अयन साध्य कर्मक्षय है। 1 चश्मोतमदेहधारी जीव के नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायुका भय अप्रयत्नसाध्य है । प्रयत्नसाध्य कर्मक्षय निम्न प्रकार से होता है 1 अय हरता चौथे, पाँचवे छठवें और सातवें गुणस्थानों से किसी एक गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दशन मोहकी तीन प्रकृतियों का क्षय होता है। अनिवृत्तिबादर साम्पाय गुणस्थानके नव भाग होते हैं। उनमें से प्रथम भाग में निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रियपर्यन्त चार जाति, नरकगत्यानुपूर्वी नियंगत्यानुपूर्वी, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियोंका क्षय होता है। द्वितीय भाग में प्रत्याख्यान चार और अप्रत्याख्यान चार इन आठ कपायोंका क्षय होता है। तीसरे भाग में नपुंसक वेदका और चौथे भागमें जीवेदका क्षय होता है। पाँचवें भाग में भागमें बंदका क्षय होता है। "नवने भागने क्रम क्रोध मान और माया संज्वलनका तय होता है। सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें लाभसंज्वलनका नाश होता है। बारहवें गुणस्थानके उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचलाका नाश होता है और अन्त्य समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायोंका क्षय होता है । सयोगकेवली के किसी भी प्रकृतिका क्षय नहीं होता है। अयोगकेवली गुणस्थानके उपान्त्य समय में एक वेदनीय. देवगति, पाँच शरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघात, छह संस्थान, तीन अङ्गोपाङ्ग, छह सहन्न. पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्ति. प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर शुभ अशुभ, दुभंग, सुस्वर, दुःश्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति, निर्माण और नीचगांव इन बहत्तर प्रकृतियों का क्षय होता है और अन्त्य समयमें एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रिय जाति, स वावर, पर्याप्त, सुभग, आदेय यशः कीर्ति, तीर्थंकर और उच्चगोत्र इन तेरह प्रकृतियों का क्षय होता है । 'क्या द्रव्य कमों के क्षयसे ही मोक्ष होता है अथवा अन्यका क्षय भी होता है : स प्रश्न के उत्तर में आचार्य निम्न सूत्रको कहते हैं औपशमिकादिमव्यत्वानाश्च ॥ ३ ॥ औपशमिक, श्रदयिक, क्षयोपशमिक और भव्यत्व इन चार भावोंक क्षयमे मोक्ष होता है । 'च' शब्दका अर्थ है कि केवल द्रव्यकमों के क्षयसे ही मोक्ष नहीं होता है किन्तु द्रव्यकमों के क्षय के साथ भावकर्मों के क्षयसे मात्र होता है। पारिणामिक भावोंमेंसे भव्य काही क्षय होता है; जीवत्व, वस्तुत्व, अमूर्तत्व आदिका नहीं। यदि मोक्ष में इन भाका भी क्षय हो जाय तो मोक्ष शून्य हो जायगा । मोक्ष में अभव्यत्व के क्षयका तो प्रश्न ही नहीं हो सकता है क्यों कि भव्य जीवको ही मोक्ष होता है ।

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